जेएनयू और उना विवाद से उपजे कन्हैया और जिग्नेश ने जहां सामाजिक-आर्थिक आजादी की मांग की, वहीं रोहित की खुदकुशी ने शैक्षिक संस्थाओं में भेदभाव को देश के सामने रखा
फ्रांस की क्रांति से लेकर साल 2010 में ट्यूनीशिया से शुरु हुई ‘स्प्रिंग रिवोल्यूशन’ के दौरान इस बात की पुष्टि हुई कि क्रांति और आंदोलनों की जरुरत कभी खत्म नहीं होती. जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था, ‘इतिहास हमें यह सिखाता है कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते.’ शासक और राजनेता इतिहास से कुछ नहीं सीखते, से कहना बेहतर होगा कि वे अपनी सुविधा के मुताबिक ही कई चीजें देखते हैं और कइयों से आंखें फेर लेते हैं. उनका इतिहास से सबक न लेना ही कई बार आंदोलन और क्रांति की जरुरत बन जाता है. कई बार क्रांति या इंकलाब की आवाज बुलंद करने वाले ही बाद में एक और क्रांति की जरुरत पैदा कर देते हैं.
साल 2016 में भी देशवासियों को आंदोलन और इनका नेतृत्व करने वाले नेताओं की जरूरत महसूस हुई. चाहे वह जेएनयू विवाद हो या फिर गुजरात के उना में दलित अत्याचार के खिलाफ हुआ आंदोलन. दोनों ने देश को दो युवा नेता दिये, जिन्होंने राजनीतिक आजादी के आगे की मांगें देश के सामने रखीं. इसके साथ रोहित वेमुला की खुदकुशी और उनकी लिखी चिट्ठी ने शैक्षिक संस्थाओं में भेदभाव की परतें खोलकर रख दीं.
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अपनी जिंदगी से जुड़ी यादों को एक किताब की शक्ल दी है, जिसका नाम ‘फ्रॉम बिहार टू तिहाड़’ है. हालांकि देश के लिए यह जानना और देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वे तिहाड़ से बाहर आने के बाद क्या करते हैं? अंतरिम जमानत पर रिहा होने के बाद जेएनयू में दिए गए अपने भाषण में वे कहते हैं, ‘हमारे यहां एक कहावत है. बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम नहीं हुआ!’ हालांकि उन्होंने यह बात विश्वविद्यालय के संदर्भ में कही थी, लेकिन यह उन पर भी उतनी ही लागू होती है.
कई जानकार कन्हैया कुमार के एक छात्र नेता की छवि तोड़कर नेता के रूप में उभरने के पीछे मोदी सरकार को ही जिम्मेदार मानते हैं जिसने जेएनयू के मामले को ठीक से संभाला नहीं. जिस तरह से सत्ता पक्ष के नेताओं से लेकर उसके समर्थकों ने ‘राष्ट्रवाद’ की लहर पैदा करने और ‘देशद्रोही’ होने का ठप्पा लगाकर उन्हें अदालत में पीटने तक की कोशिश की उसने भी कन्हैया के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कई इंटरव्यू में जब उनसे यह पूछा जाता है कि क्या वे जेएनयू के बाद सक्रिय राजनीति में भी आएंगे? तो कन्हैया इसका साफ-साफ जवाब नहीं देते.
कन्हैया कुमार देश की मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा अभी भले न हों लेकिन देश भर में आयोजित होने वाली राजनीतिक बहसों का हिस्सा तो बीतने जा रहे साल में बन हीे चुकेे हैं. स्कूली दिनों में कई नाटकों में अभिनय कर चुके कन्हैया अब भाजपा और संघ के नारों का जवाब नारों से ही दे रहे हैं. संघवाद से आजादी का नारा बुलंद करने वाले कन्हैया मुख्यधारा की राजनीति में आते हैं तो किस तरह से और फिर क्या करते हैं, कर पाते हैं, यह आने वाले समय में हमें देखना है.
गुजरात के मेहसाणा जिले से आने वाले जिग्नेश मेवाणी उना में दलितों की पिटाई के बाद देश में दलित अधिकारों की बड़ी आवाज बनकर उभरे हैं. इससे पहले वे गुजरात के एक सामाजिक संगठन जन संघर्ष मंच से जुड़े हुए थे 2002 के गुजरात दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ रहा थाे. कुछ समय तक जिग्नेश आम आदमी पार्टी से भी जुड़े रहे. फिलहाल वे उना दलित अत्याचार लड़ाई समिति के संयोजक हैं. इस समिति ने अहमदाबाद से उना तक दलित अस्मिता पदयात्रा का आयोजन किया था.
इस पदयात्रा के अंत में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर उना में जिग्नेश मेवाणी ने दलितों द्वारा किये जाने वाले पारंपरिक काम जैसे मैला और मृत पशुओं को उठाना आदि नहीं करने का ऐलान किया. ऐसा करते हुए उन्होंने सरकार से कहा, ‘गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो.’ दलितों की सामाजिक और आर्थिक आजादी की बात करने वाले मेवाणी राजनीति में आने को लेकर इनकार नहीं करते हैं. हालांकि वे मानते हैं कि देश में कोई ऐसी पार्टी नहीं है, जो दलितों के मुद्दे पर मुखर है. उन्होंने देश की दो प्रमुख पार्टियों भाजपा और कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि वे 'हमारी मदद के लिए आगे नहीं आएगी. दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचार को दलित एकता ही चुनौती दे सकती है.'
मेवाणी का मानना है कि आज गुजरात को मनुवाद और हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाकर रख दिया गया है. वे अपने भाषणों में प्रधानमंत्री मोदी पर लगातार निशाना साधते हैं और कहते हैं किे गाय को माता कहने की उनकी राजनीति चलने वाली नहीं है. जिग्नेश गुजरात में दलित नेतृत्व करने की अपनी इच्छा जता चुके हैं. उनका मानना है कि वहां पहले से मौजूद दलित संगठन उनके मुद्दों को सही तरीके से उठा नहीं पाये हैं.
हैदराबाद विश्वविद्यालय के 28 वर्षीय शोध छात्र रोहित वेमुला लेखक बनना चाहते थे, विज्ञान के लेखक कार्ल सागाना की तरह. वेमुला सितारों को प्यार करते थे और इस साल खुदकुशी करने से पहले अपनी आखिरी चिट्ठी में वे लिखते हैं, ‘मरने के बाद मैं सितारों तक सफर कर सकता हूं. दूसरी दुनिया के बारे में जान सकता हूं.’ वे खत में अपनी खुदकुशी के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराने की बात करते हैं और लिखते हैं, ‘आप मेरे लिए आसूं मत बहाना. सोचना कि मैं आया और चला गया.’
रोहित वेमुला भले ही चुपचाप इस बनावटी प्यार वाली दुनिया से चले गए, लेकिन उन्होंने देश में एक बड़ी बहस छेड़ दी. बहस इस चीज को लेकर कि क्या विश्वविद्यालय राजनीति का अड्डा बन गए है? इसके साथ यह भी कि समाज के कमजोर और वंचित तबके के विद्यार्थियों के साथ इनमें किस हद तक और कैसा भेद-भाव किया जाता है? हमारी शैक्षिक संस्थाएं जिनकी जिम्मेदारी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ छात्रों को जागरूक बनाना है, खुद ही इन कुरीतियों से कितनी ग्रसित है. खुदकुशी करने से पहले रोहित ने कथित तौर पर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा की गई प्रताड़ना को झेला, उसे देखते हुए कई लोग उनकी हत्या को ‘संस्थानिक हत्या’ का नाम देते हैं.
रोहित की खुदकुशी के बाद पूरे देश में दुख और प्रेरणा की मिली-जुली एक लहर देखी गई. दुख इसलिए कि एक छात्र जिसका सपना लेखक बनना था, उसे अपनी पीड़ा और सपनों का जिक्र अपने सुइसाइड नोट में करना पड़ा. प्रेरणा इसलिए कि जिसतरह से उनकी आत्महत्या का मामला देशके सामने आया, वे खुद को सिर्फ एक दलित के रूप में न देखने की इच्छा रखते हुए भी दलित और कमजोर तबके के छात्रों के लिए एक प्रतीक बन गए. रोहित को मरने के बाद की कहानियों में विश्वास नहीं था, लेकिन उनकी चिट्ठी कई लोगों के लिए जीवंत प्रेरणा का गीत बन चुकी है.
Courtesy: Satyagraha.scroll.in