Categories
Politics

3 साल से सूखे की मार झेल रहे कर्नाटक को नोटबंदी ने और किया बेहाल

नेशनल दस्तक की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट

नेशनल डेस्क। "गरीबी में आटा गीला" ये मुहावरा शायद कुछ इसी तरह के समय और माहौल को ध्यान में रखकर बनाया होगा, बनाने वाले ने। नोटबंदी का फैसला ऐसे समय में आया है जब देश के बहुत सारे राज्य सूखे की चपेट में हैं और वहां के किसान तथा आम जनजीवन इस सूखे से पहले ही बुरी तरह प्रभावित हैं और अब अचानक सरकार के नोटबंदी के फैसले ने इन्हें और ज्यादा परेशान कर दिया है। इन्हीं राज्यों में एक राज्य है कर्नाटक जो पिछले तीन साल से सूखे की मार झेल रहा है।

कर्नाटक
 
कर्नाटक को बीते तीन सालों से सूखे का सामना करना पड़ रहा है, स्थानीय लोगों को अपना जीवन बचाए रखने के लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि महिलाओं और बच्चों को पानी की तलाश में अपने जीवन तक को जोखिम में डालना पड़ रहा है। स्थिति इस कदर खराब हो चुकी है कि स्कूली छात्रों को परीक्षा छोड़कर पानी जुटाने के लिये उनके परिजन कह रहे हैं। स्थिति की गम्भीरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पीने और दैनिक जरूरतों के लिये पानी लाने के लिये लोगों को मीलों जाना पड़ रहा है। 

कर्नाटक को मई 2014 में सूखे का सामना करना पड़ा। देश में अब हर साल कहीं पर बाढ़ का खतरा है तो कहीं पर सूखे का। इतना ही नहीं कहीं कहीं तो भयंकर तूफान भी आए। मौसम विभाग और सीएसई (कलस्टर्ड सिस्टम एनवायरमेंट) के आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले तीन साल में मौसम के बदलते रुख चौंकाने वाले रहे हैं। 2013 से 2016 के बीच अधिकतर राज्यों को बाढ़, सूखा या तूफान के कहर का सामना करना पड़ा है।

कर्नाटक सरकार को जलाभाव, जल प्रदूषण और बीमारियों के कारण आगामी दस वर्षों में आधे बंगलुरु को खाली कर देना होगा। यह भविष्यवाणी की है कर्नाटक के एक सेवानिवृत्त अतिरिक्त मुख्य सचिव ने। उन्होंने राज्य की राजधानी में जल संकट का विस्तृत अध्ययन किया। भविष्यवाणी सच होती दिख रही है, क्योंकि पिछले तीन सालों से कर्नाटक बीते चालीस वर्षों के सर्वाधिक भीषण सूखे का सामना कर रहा है। निराश-हताश किसानों को उसने उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। अनेक किसानों ने आत्महत्या तक कर ली है।

कर्नाटक में संवेदनशील पारिस्थितिकी के बिना सोचे-समझे दोहन से वर्षा लाने वाले बादलों ने राज्य से मुँह मोड़ लिया है। कर्नाटक जल संकट के शिकंजे में है, जिसकी शुरुआत वर्षों पहले हो गई थी। राज्य के उत्तरी हिस्सों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक के चिलचिलाते स्तर तक पहुँच गया है। 
 
बंगलुरु, जिसे हाल तक ‘गार्डन सिटी’ और ‘झीलों के शहर’ के रूप में जाना जाता था, में पहली दफा हुआ कि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया, जो सामान्य से पाँच डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा। शहर के लिये यह खतरे की घंटी थी।       

इससे भी ज्यादा चिन्ताजनक यह कि उत्तरी कर्नाटक में गम्भीर जल संकट ने वहाँ के नागरिकों को जल और नौकरी की तलाश में पलायन करके बंगलुरु, मैसूर और दक्षिण कर्नाटक के अन्य शहरों में जाने को विवश कर दिया। पारा का स्तर चढ़ने, जलाभाव, आजीविका के अन्य साधनों की कमी और मनरेगा जैसी योजनाओं की नाकामी जैसे कारणों से राज्य के उत्तरी हिस्से के कलबुर्गी, यादगिर, बिदर, रायचुर, विजयपुर और बगलकोट जैसे जिलों से हजारों लोगों को पलायन करना पड़ा। इन जिलों के अनेक गाँव भूतहा गाँव हो गए, जहाँ केवल बीमार, अशक्त और वृद्धजन ही रह गए हैं।

अखबारों और विभिन्न पोर्टलों पर छपी रिपोर्ट को अगर देखें तो स्थिति 
25 अप्रैल 2016 को एनडीटीवी की खबर के मुताबिक बेंगलुरू: बढ़ते तापमान ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 150 से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया है और अब बेंगलुरू भी गर्मी से सुलग रहा है। रविवार को कर्नाटक की राजधानी में पारा 39.2 डिग्री रहा और 1867 से रखे जा रहे रिकॉर्ड के मुताबिक इस बार के रविवार को अब तक का सबसे गर्म दिन बताया जा रहा है। सोमवार को दोपहर बारह बजे तक बेंगलुरू का तापमान 33.4 डिग्री था। मौसम विभाग का कहना है कि कुछ ही दिनों में हल्की बौछारों की संभावना है लेकिन इससे तापमान के कम होने में कुछ ख़ास मदद नहीं मिलेगी। अनुमान है कि पारा 37-38 डिग्री के आसपास बना रहेगा।
 
फिर से एन डी टीवी की खबर देखिये जून 2016 की जिसमें अंधविश्वास का बोल बाला दिखेगा आपको …खबर थी ..चित्रदुर्ग (कर्नाटक): भारतीय समाज का कुछ हिस्सा आज के आधुनिक युग में भी अंधविश्वासों से दूर नहीं हो पाया है, और अजीबोगरीब रीति-रिवाज़ों का पालन किए जाने की ख़बरें मिलती रहती हैं। ऐसी ही एक ख़बर मिली है कर्नाटक से, जहां चित्रदुर्ग जिले में एक सूखा-पीड़ित गांव में 'वर्षा के देवता' प्रसन्न करने के लिए एक किशोर लड़के को पूरी तरह निर्वस्त्र कर घुमाया गया।
 

पिछले 4 साल में बारिश का हाल- 
 
साल 2015 के मानसून सीजन में 86% कम बारिश हुई थी। अनुमान से 2% कम थी। वहीं, 2014 में 88%, 2013 में 106% और 2012 में 92% बारिश हुई थी। 2014 में 12%, 2015 में 14% कम बारिश हुई थी। 30 साल बाद लगातार दो साल कम बारिश हुई थी। इससे पहले लगातार दो साल कम बारिश 1986-87 में हुई थी।

 
बारिश न होने से स्थिति गंभीर 
 

2 साल से 12 से 14% कम बारिश हो रही है। लिहाजा, देश के 12 राज्यों में सूखा पड़ा हुआ है। 35% इलाके यानी देश के 688 में से 246 जिले सूखे की चपेट में हैं। 2015-16 में 1 करोड़ से ज्यादा फूड प्रोडक्शन घट गया । सूखे से महाराष्ट्र में मोटे अनाज का प्रोडक्शन करीब 41% और दालों का उत्पादन 11% घटेगा।

देश में किसानों की आत्महत्या का मामला जब अखबारों की सुर्खियाँ बनती रहती है तब सरकार किसानों के हर संकट का समाधान करने की बात करती है। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती है। अखबारों की खबर, संसद में शोरगुल और संगठनों के धरना-प्रदर्शन के बावजूद मामला वहीं का वहीं पड़ा रहता है। किसान अपनी विपन्नता में जीने को मजबूर रहते हैं।  

कर्नाटक में बढ़ा पलायन
हालांकि बेकारी के दिनों में उत्तर कर्नाटक के जिलों से दूसरी जगहों पर जाने का सिलसिला पीढ़ियों से चला आया है, लेकिन बीते दो वर्षों से गम्भीर सूखे की स्थिति के चलते इस सिलसिले ने स्थायी शक्ल अख्तियार कर ली है। कभी धनी किसान रहे लोग आज बंगलुरु और अन्य बड़े शहरों में निर्माण मजदूर बनने को विवश हो गए हैं। सबसे ज्यादा चिन्ता में डालने वाली बात यह है कि लोग अपने पशुओं और सम्पत्ति को इस इच्छा से बेच रहे हैं, जैसे उन्हें अब कभी लौटना ही न हो।
 
समाजशास्त्री कहते हैं कि प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है। कठिन समय में लोग स्थानीय इलाकों में काम करने से बचते हैं, क्योंकि यह कहना उन्हें सम्मान की बात लगती है कि वे ‘बड़े शहरों’ में ऊँची पगार पर काम कर रहे हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एंड इकनॉमिक चेंज (आईएसईसी) के प्रो. आरवी देशपांडे कहते हैं, ‘‘सूखे से खेती-किसानी से जुड़ीं गतिविधियाँ पंगु या बाधित हो जाती हैं और वैकल्पिक रोजगार के लिये किसानों के पास बड़े शहरों की ओर पलायन ही एकमात्र चारा बचता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर शारीरिक कार्य करने में उनका अहं आड़े आता है।”
 
राज्य सरकार के आग्रह पर केन्द्र की एक टीम ने उत्तर कर्नाटक के सूखा-पीड़ित इलाकों का दौरा किया है। कर्नाटक, जो दो साल से लगातार सूखे का सामना कर रहा है, ने मौजूदा रबी सीजन में उत्तर-पश्चिम मानसून की कमी के कारण उत्तर कर्नाटक के 12 जिलों को सूखा-प्रभावित घोषित किया है। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने बताया है कि 2015-16 (जुलाई-जून) के मौजूदा रबी सीजन में कुल 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई की गई थी। इसमें से करीब 33 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हुआ है।
 
सूखे से राज्य के सभी प्रमुख जलाशय सूख रहे हैं। जलाशयों में कुल क्षमता का मात्र 24 प्रतिशत ही बचा रह गया है। तुंगभद्रा, अलमाटी, घटाप्रभा, नारायनपुरा और मालाप्रभा सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। संकट की गम्भीरता को भाँपते हुए राज्य सरकार ने जलाशयों पर बंदिश लगा दी है कि बारिश के हालात बनने तक खेतिहर उद्देश्यों के लिये जल न छोड़ें। कबिनि और केआरएस जलाशयों को निर्देश दिये गए हैं कि सिंचाई के लिये पानी नहीं छोड़ें बल्कि बंगलुरु की पेयजल की माँग को पूरा करने की गरज से इसे बचाकर रखें।
 

गाँवों में टैंकरों से जलापूर्ति
इस वर्ष के खरीफ सीजन में भी राज्य ने दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश में 20 प्रतिशत की कमी के कारण 27 जिलों को सूखा-ग्रस्त घोषित किया था। प्रसाद ने कहा कि सूखा-पीड़ित कुल 176 तालुकाओं में से 136 में 33 प्रतिशत कृषि और बागवानी की फसलें प्रभावित हुई हैं। बताया कि गम्भीर जल संकट का सामना कर रहे 385 गाँवों में सरकार ने टैंकरों से जलापूर्ति करने के बन्दोबस्त किये हैं। वह बताते हैं, ‘‘इन गाँवों में जलापूर्ति के लिये करीब 882 टैंकरों को जुटाया गया है।” सूखती धरती की गहराई से निकाले गए फ्लोराइड-युक्त पानी को पीने के दुष्प्रभावों से बचने के लिये अनेक गाँव वाले पेयजल खरीद रहे हैं। जनता दल (सेक्युलर) नेता वाईएसवी दत्ता ने कहा, ‘‘किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा 800 को पार कर गया है, और इसके एक हजार तक पहुँच जाने का अंदेशा है; 136 तालुकाओं को सूखा-ग्रस्त घोषित कर दिया गया है, लेकिन सरकार सूखा राहत उपायों के लिये पर्याप्त धन व्यय नहीं कर रही। सूखे से मुकाबला करने के लिये सरकार ने कोई कार्रवाई योजना भी नहीं बनाई है।”

बीते वर्ष मानसून पर्याप्त नहीं था, इसलिये बिजली उत्पादन पर भी असर पड़ा है। किसी को सहसा विश्वास नहीं होता कि देश के ग्लोबल शहर बंगलुरु को हर दिन पाँच से छह घंटे की बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है। शहर में बिजली संकट के चलते उद्योगों ने साप्ताहिक अवकाश के विभिन्न दिन तय कर लिये हैं। जब बंगलुरु जैसे ग्लोबल शहर का यह हाल है, तो राज्य के टू-टीयर/री-टीयर शहरों में बिजली की स्थिति का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। 
 
राज्य में बिजली की कुल माँग 6500 से 6700 मेगावाट के बीच है। राज्य में 21 बिजली उत्पादन संयंत्र हैं, जिनमें करीब 4,069 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जबकि इन संयंत्रों की स्थापित क्षमता 9,021 मेगावाट है। उत्पादन में कमी ऐसे समय हुई है, जब राज्य को निवेश आकर्षित करने के लिये पड़ोसी राज्यों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है।
 
1790 में एक ब्रिटिश कैप्टन ने बंगलुरु को एक हजार झीलों की भूमि करार दिया था। आज उन एक हजार में से 200 से भी कम झीलें बची रह गई हैं और ये भी किसी सीवेज टैंक से ज्यादा कुछ नहीं हैं। सीवेज वॉटर भूजल को प्रदूषित करता है और यह प्रदूषित जल रिस कर बोरवेल को प्रदूषित कर देता है। जब एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने बंगलुरु को सिंगापुर सरीखा बनाने की बात कही थी।
 
एक तरह से उनकी मंशा पूरी हो गई है क्योंकि सिंगापुर की भाँति बंगलुरु भी अब सीवेज वाटर का ही इस्तेमाल कर रहा है। अलबत्ता, अन्तर यह है कि जहाँ सिंगापुर सीवेज को ट्रीट करके ‘नया जल’, जैसा कि वह इसे कहता है, तैयार करता है, वहीं बंगलुरु को बिना ट्रीट किया सीवेज वाटर इस्तेमाल करने को मजबूर होना पड़ रहा है।
 
 
कर्नाटक जल संकट के शिकंजे में है। राज्य के उत्तरी हिस्सों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक के चिलचिलाते स्तर तक पहुँच गया है। शहर के लिए खतरे की घंटी बेकारी के दिनों में उत्तर कर्नाटक के जिलों से दूसरी जगहों पर जाने का सिलसिला पीढ़ियों से चला आया है, लेकिन बीते दो वर्षों से गम्भीर सूखे की स्थिति के चलते इस सिलसिले ने स्थायी शक्ल अख्तियार कर ली है
 

नोटबंदी ने कर्नाटक को और तबाह किया 
जहाँ आम जनजीवन पहले ही इतना अस्त-व्यस्त हो चुका है वहां नोटबंदी ने कर्नाटक को और भी बुरी स्थिति में ढकेल दिया है। किसान कम बारिश से ऐसे ही फसलों पर नुकसान झेल रहे थे अब नोटबंदी ने उनसे बाजार को भी दूर कर दिया ऐसे में किसान या तो अपनी फसल को ऐसे ही मंडियों में छोड़ जा रहे हैं या फिर अपनी फसल को मवेशियों को खिलाने को मजबूर हैं। क्योंकि मंडी में व्यापारी इनके फल और सब्जियां या तो खरीद नहीं रहे या फिर बहुत ही कम कीमत दे रहे हैं। इएसे में किसान से लेकर महिलायें सब इस फैसले से प्रभावित हो रहे हैं। 
 
 इनपुट ख़बरों और लेखों से भी

Courtesy: National Dastak

Exit mobile version