अब बिल गेट्स सिखाएँगे कि बच्चों को कैसे पढ़ाएँ !

अरबपति समाजसेवी अपने अकूत धन के जरिए जो सेवा कर रहे हैं, वो बिना शर्त नहीं है। वो अब अपने को महानतम शिक्षाशास्त्री, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री के रूप में पेश करना चाहते हैं। उनसे धन लेना है तो उनकी ये शर्त भी रहती है कि आगे क्या करना है, कैसे करना है और कितना करना है, ये सब वे ही तय करेंगे।

अकूत धन कमाने में मिली सफलता ने बिल गेट्स जैसे अरब-खरबपतियों के अंदर ये अहंकार भी पैदा कर दिया है कि वे ही सर्वज्ञ हैं, और वे ही देश, दुनिया और समाज को सही तरीके से संचालित कर सकते हैं।
 
बेशुमार दौलत कमाने के बाद जब बिल गेट्स ने समाजसेवा और परमार्थ कार्यों को बढ़ावा देने का निश्चय किया तो उनकी हर तरफ सराहना हुई थी। उन्हें उन उद्योगपतियों और पूँजीपतियों से अलग माना गया था जो आखिरी साँस तक धन कमाने में लगे रहते हैं और अपनी आने वाली अनेक पीढ़ियों तक के लिए धन इकट्ठा करने में लगे रहते हैं।
 
पॉलिसी पेट्रन्स: फिलेंथ्रॉपी, एजूकेशन रिफॉर्म एंड पॉलिटिक्स ऑफ इन्फ्सलूएंस की लेखिका मेगन टॉम्पकिंस-स्टांज के ओपन डेमोक्रेसी में प्रकाशित लेख बिल गेट्स और उनके जैसे परोपकारी के रूप में चर्चित अरबपतियों के बारे में इस तरह की धारणा तोड़ी है और एक अलग तरह का सच पूरी दुनिया के सामने रखा है।
 
मेगन टॉम्पकिंस ने अपने इस चर्चित लेख में बताया है कि सामान्य धारणा के विपरीत बिल गेट्स जैसे अरबपति समाजसेवा के नाम पर अपनी सोच समाज पर थोपने की शर्त पर ही सहयोग करते हैं। और, ये भी कोई छोटे-मोटे स्तर पर नहीं करते, बल्कि वे चाहते हैं कि जिस संस्था को वो मदद कर रहे हैं, वो पूरी तरह से उनके ही निर्देशों पर चले, उनके मन में जो जो संकल्पनाएँ हैं, उन्हें ही वो साकार करे।
 
जी हाँ, यही सच्चाई है बिल गेट्स फाउंडेशन की, जिसके लिए अब उनकी काफी आलोचना होनी शुरू हो गई है। मेगन पूरा मामला समझाने के लिए अमेरिका के मिडवेस्टर्न शहर के एक स्कूल का उदाहरण पेश करती हैं। 2008 के वित्तीय संकट के बाद शहर के कई स्कूल एकदम बदहाली के शिकार हो गए। स्कूलों के पास संसाधन बिलकुल खत्म हो गए और नौबत अनेक स्कूल बंद होने की आ गई थी।
 
मिडवेस्टर्न शहर के मेयर संकट में घिरे थे। उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था। घटती आबादी और संपत्ति कर के कम होते आधार के बीच शहर के स्कूल बदहाल हो रहे थे। सरकार से किसी तरह की मदद न मिलने के कारण एक नहीं, बल्कि दर्जनों स्कूल बंद होने की कगार पर थे।

ऐसे में शहर में पले-बढ़े कुछ धनी उद्योगपतियों ने शिक्षा बजट के लिए लाखों डॉलर देने का प्रस्ताव रखा। मेयर पहले तो बहुत उत्साहित हुए, लेकिन जल्द ही दानकर्ता हिसाब-किताब लेने लगे और बजट कहाँ और कैसे खर्च हुआ, इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण की माँग करने लगे।

इतना ही नहीं, इन उद्योगपतियों और गेट्स फाउंडेशन ने एक नया स्कूल चार्टर तैयार किया और इसके तहत वे राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में पूरे बदलाव की कोशिश करने लगे।

दानकर्ताओं ने दान के साथ जो शर्तें लगाईं, वो परेशानी पैदा करने वाली थीं, लेकिन सरकार से कोई मदद न मिलने की स्थिति में स्कूल पर नियंत्रण रखने या न रखने का कोई मतलब नहीं बनता था क्योंकि तब तो स्कूल बंद ही होने थे। मजबूर होकर मेयर को उद्योगपतियों की शर्तें माननी पड़ीं।
 
डेविड ब्लूमफील्ड ने एजूकेशन वीक में 2006 में लिखा कि विद्यार्थियों के पास ये सुविधा नहीं है कि वे असफल सामाजिक प्रयोगों से बच सकें।
 
ये स्थिति अब केवल एक शहर की नहीं रही। धीरे-धीरे पूरे अमेरिका में यही होने लगा। खासतौर पर बाद में औद्योगिक शहर के रूप में उभरे शहरों में तो निजी समाजसेवी स्कूलों के संचालन में धन की कमी को पूरा करने के लिए प्रमुखता से सामने आए।

मेगन टॉम्पकिंस स्टांज बताती हैं कि उनके गृहप्रांत मिशीगन में ही सबसे बड़े तीन शहरों-डेट्रॉइट, फ्लिंट और सबसे हाल में कलामाज़ू में निजी उद्योगपतियों ने काफी दान दिए। समस्या यही है कि ये दानकर्ता अपने दान के बदले जो करना चाहते हैं, उसके लिए उनकी कोई लोकतांत्रिक जवाबदेही नहीं लेना चाहते।

गेट्स फाउंडेशन की स्कूल सुधार में मुखर और सबसे ज्यादा सामने आने वाली भूमिका इस दुविधा का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण है। फाउंडेशन ने अपने अस्तित्व में आने के पहले पाँच सालों के लिए छोटे स्कूलों के लिए कार्यक्रम तैयार किया। एक अरब तीस करोड़ डॉलर की इस योजना में सेकंडरी एजूकेशन को लघु इकाइयों में तोड़ना और पुनर्गठित किया जाना था, लेकिन अच्छे नतीजे न मिलने पर गेट्स ने मदद रोक दी।
 
गेट्स फाउंडेशन का मानना था कि छोटे स्कूलों की असफलता जनशिक्षा के क्षेत्र में इनोवेशन के लिए सीखने का अहम अवसर रहा, लेकिन जिन स्कूलों ने उनकी शर्तें मानते हुए उनसे धन स्वीकार किया, वो अधर में लटक गए। अचानक परिवर्तन से उनमें भ्रम और चिंता की स्थिति बन गई।

इस सबसे अविचलित फाउंडेशन ने प्रांत और संघ स्तर पर फंडिंग की व्यवस्थित नीति में परिवर्तन कर लिया, और शिक्षकों की गुणवत्ता तथा जवाबदेही पर ध्यान केंद्रित कर लिया जो उनके हिसाब से ज्यादा ज़रूरी मुद्दे थे। शिकागो में स्कूल सुपरिंटेंडेंट के रूप में सुधार के इस एजेंडा के कड़े विरोधी रहे आर्न डंकन की अगुवाई में उसने स्कूली बच्चों के मानक परीक्षण के परिणामों का मूल्यांकन कराया।  

अन्य उपायों के साथ, गेट्स फाउंडेशन ने प्रांतों के गवर्नरों के एक संघ को इस बात के लिए धन दिया कि वह नए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और मानकों के समर्थन में हस्ताक्षर करवाए जिसे कॉमन कोर नाम दिया गया। फाउंडेशन ने स्कूली जिलों में डीप डाइव्स नाम की एक श्रंखला भी शुरू की थी जिनमें इसे इन सुधारों के लिए अधिक गहनता से धन दिया था।

कुछ समय के लिए गेट्स की नई रणनीति सफल होती दिखी और अधिकतर प्रांतों में कॉमन कोर लागू हुआ और शिक्षकों के लिए एक मानक नियमावली बनाई गई। हालाँकि, छोटे स्कूलों की तरह, इन सुधारों को भी व्यावहारिक स्तर पर बड़ी चुनौतियाँ मिलीं।

शिक्षकों के संघ ने विद्यार्थियों के टेस्ट स्कोर के आधार पर अपने मूल्यांकन के खिलाफ आवाज़ उठाई। अभिभावकों और शिक्षा अधिकारियों को भी सुधारों का ये तरीका पसंद नहीं आया।

2015 में, भारी विरोध को देखते हुए करीब 12 प्रांतों में कॉमन कोर को हटाना दिया गया। ये निर्णय व्यापक तौर पर शिक्षा जगत के सुधारकों के जनमत संग्रह के रूप में देखे गए।

परिणामस्वरूप, गेट्स ने एक और परिवर्तन किया। इस बार पढ़ाने और प्रत्येक छात्र की पाठ्यक्रम संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने के लिए पर्सनलाइज्ड लर्निंग का तरीका अपनाया गया।
 
अब सवाल ये है कि क्या इस पर्सनालइज्ड लर्निंग से गेट्स फाउंडेशन के अपेक्षित नतीजे मिलेंगे। अगर नही मिले तो क्या वो फिर कोई नया प्रयोग करेगा। ऐसा लगता है कि बार-बार इस तरह के प्रयोग करके फाउंडेशन शिक्षा जगत में जमीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों की न केवल अनदेखी कर रहा है, बल्कि उनका अपमान भी कर रहा है।
 
आलोचना इस बात को लेकर हुई कि फाउंडेशन समाजसेवा करना चाहता है या उसे अपने सामाजिक प्रयोग के लिए समुदायों, स्कूली बच्चों आदि को खरीद रहा है। फाउंडेशन अगर किसी परियोजना लागू होने के बीच में ही अपने विचार बदल लेता है और अचानक फंडिंग रोक देता है और किसी तरह का जवाब देने से इन्कार कर देता है तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? ऐसे में तो काम चलाना भी मुश्किल हो जाएगा और जमीनी स्तर पर कारगर सामाजिक बदलाव का अभियान भी धरा रह जाएगा।
 
इन आलोचनाओं के जवाब में फाउंडेशन के समर्थक कहते हैं कि स्कूलों को फंडिंग लेने के लिए कोई मजबूर नहीं करता है, और वे खुद अपनी मर्जी से इस अनुबंध को स्वीकार करते हैं। हालाँकि, ये तो उनकी मजबूरी का फायदा उठाने वाली बात हो गई। स्कूलों के पास कोई और विकल्प होता तो वे क्यों उनकी बेसिरपैर की शर्तें मानते।
 
मेगन टॉम्पकिंस ने जब फाउंडेशन के एक अधिकारी से इस बारे में पूछा  तो उसका जवाब काफी अहंकार और लापरवाही भरा था। अधिकारी का कहना था- “अगर आप धन लेते हैं, तो आपको इसे करना होगा। ये अनिवार्य शर्त है।”
 
हम सब जानते हैं कि शिक्षा जनता का विषय है। लोकतांत्रिक समाज में हर नागरिक का बुनियादी अधिकार है। ये कोई निजी मसला नहीं है कि किसी एक की मर्जी से या किसी एक के हितों के अनुसार इसे चलाया जाए। गरीब तबके के लिए यह बहुत अहम है क्योंकि फाउंडेशन ने अपने ये बिना आजमाए इनोवेशन इन्हीं के ऊपर आजमाने की ठानी है।

ये समुदाय अधिकतर अश्वेत हैं और इन्हें मदद की सबसे ज्यादा जरूरत भी है। इन अरबपति समाजसेवियों को लगता है कि वे इन्हीं इलाकों में ज्यादा कुछ कर सकते हैं। यही कारण है कि डेट्रॉइट और न्यू ऑर्लीन्स जैसे शहर चार्टर स्कूलों के प्रमुख स्थल बन गए हैं और इनमें से अधिकतर की हालत खराब है।

हालाँकि, फाउंडेशन गरीब बच्चों पर अपने ये तौर-तरीके आजमाना चाहता है, लेकिन उसे इतनी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए कि वे इन स्कूलों और समुदायों को अपनी प्रयोगशाला न बना दें। इन गरीब परिवारों के जानकारी के बिना ये सब हो रहा है। न उन्हें जानकारी दी जा रही है और न उनकी सहमति ली जा रही है।

मेगन टॉम्पकिंस-स्टांज बताती हैं कि असल में तो लोग अब फाउंडेशन का विरोध ही करने लगे हैं। लोगों का कहना है कि ये स्कूल धनी लोगों के परीक्षण स्थल नहीं है, जहाँ वे अपने सामाजिक प्रयोग आजमाते रहें।

2016 में कैलीफोर्निया नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ द कलर्ड पीपुल सारे नए चार्टर स्कूलों पर रोक लगाने की माँग तक कर दी।

निजी उद्योगपतियों की लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों के बारे में अभी हाल ही तक जनता की राय काफी अलग और अच्छी थी। 2006 के एक अध्ययन के अनुसार इस तरह के धर्मार्थ कार्यों के बारे में प्रेस में काफी अच्छा लिखा जाता था या कम से कम आलोचना तो नहीं ही की जाती थी। लेकिन, जब से ये विवाद शुरू हुआ और सबको पता चल गया कि समाजसेवा के बहाने निजी उद्योपति  स्कूल सुधार का एजेंडा लागू करना चाहते हैं, तो जनता की राय एकदम बदल गई और प्रेस का नजरिया भी बदल गया।

असली मुद्दा ज़रूरतमंद स्कूलों को फंडिंग रोकने का नहीं, बल्कि जवाबदेही का है। फाउंडेशन चाहता है कि उसकी जवाबदेही तो कुछ न रहे, और जिस तरह से विचार और सामाजिक प्रयोग वो करना चाहता है, वो आराम से इन स्कूलों में आजमाए जाते रहें। इन प्रयोगों के परिणाम सकारात्मक रहें या नकारात्मक, इसकी उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं। उनका एक प्रयोग असफल होता है तो वो दूसरा प्रयोग करने लग जाते हैं।

मेगन टॉम्पकिंस ने अपने लेख में लिखा है कि स्कूलों में इतना दखल तो सरकारी विभागों का भी नहीं होता था, जितना गेट्स फाउंडेशन ने पिछले पंद्रह साल में किया है। ऐसे में उनकी असफलताओं के लिए उनकी जिम्मेदारी तो बनती ही है।
फाउंडेशन के पास अपना धन होता है, उसके अधिकारियों की नियुक्ति में किसी का कोई दखल नहीं होता और एक तरह से वह अपने ही नियम-कायदों से चलता है, लोकतांत्रिक प्रणाली या विचार-विमर्श की तो उसमें कोई गुंजाइश होती ही नहीं।
इसके विपरीत सरकार में प्रांत और संघ स्तर पर ऐसा संभव हो पाता है कि शिक्षा से जुड़े निर्णयों में शिक्षक, स्कूल सुपरिंटेंडेंट और शिक्षाविदों को शामिल कराया जा सके। इस तरह से नए निर्णयों में, पाठ्यक्रम तय करने में या हर तरह की निर्णय प्रक्रिया में इन सबकी भागीदारी होती है, और इन भागीदारों की जवाबदेही भी होती है।

फाउंडेशनों की प्रवृत्ति तानाशाही वाली होती है। न तो उन्हें अपनी आलोचना पसंद आती है और न ही किसी तरह के सुझावों का वे स्वागत करते हैं। यहाँ तक कि प्रभावित लोगों की राय भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उनके क्रियाकलापों को नियंत्रित या नियामित करने का भी कोई प्रयास किया जाए तो यह भी इन्हें पसंद नहीं आता।

 इस तरह की हर कोशिश को वो राजनीतिक दखलंदाजी का नाम देते हैं। यहाँ तक कि ट्रस्टियों की नियुक्ति में भी किसी तरह की विविधता या डाइवर्सिटी का सुझाव तक ये मान्य नहीं करते।

ये ज़रूर है कि अगर ये फाउंडेशन ठीक तरह से काम नहीं करते और इनकी आंतरिक व्यवस्था सही नहीं होती, तो लोकतांत्रित तरीके से निर्वाचित पदाधिकारियों को इनमें दखल देने का पूरा अधिकार रहता है।
 
वैसे सीधी बात तो ये है कि समाजसेवा का मतलब अगर समाज के लिए धन खर्च करना है तो उसकी निगरानी में समाज की भागीदारी तो होनी ही चाहिए।

मेगन कहती हैं कि स्कूलों, समुदायों और मेयर जैसे नगरीय नेताओं के हाथों में सोने की हथकड़ी पहनाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए, चाहे समाजसेवियों के इरादे कितने भी नेक क्यों न हों। सबसे सही तरीका तो यह है कि ये फाउंडेशन जनता की राय के हिसाब से, उसके अनुभवों का लाभ उठाकर अपने संसाधनों का इस्तेमाल जनता को अपनी ज़रूरत के हिसाब से करने दें।

लेख के अंत में मेगन बिल गेटस् को इस मामले में काफी कुछ सीखने की सलाह देती हैं। वे कहती हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बिल गेट्स भले ही अरबपति हों, लेकिन कम से कम इस मामले में उन्हें भी सीखने की ज़रूरत है और वे सीख भी सकते हैं।

Megan Tompkins-Stange is the author of Policy Patrons: Philanthropy, Education Reform and the Politics of Influence.

This article first published on Open Democracy

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