जबलपुर, नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने कहा है कि सरकार उद्योगपतियों के लिए आदिवासियों की जमीन छीनकर उन्हें बेघर कर रही है। जबलपुर में नर्मदा का व्यावसायीकरण एवं संरक्षण की चुनौती विषय पर बोलते हुए मेधा पाटकर ने कहा कि सरकार आदिवासी सम्मेलन करती है और आदिवासियों को पर्यावरण का संरक्षक बताती है, लेकिन आदिवासियों को ही खतम करने पर तुली है।
हरिशंकर परसाई भवन में हुई इस कार्यशाला में मेधा पाटकर ने नर्मदा में प्रदूषण बढ़ने पर भी चिंता जताई और कहा कि व्यावसायिक लाभ के लिए इसका अंधाधुंध दोहन हो रहा है। नर्मदा के 1300 किमी की लंबाई में करीब पूरा क्षेत्र बांधों और जलाशयों में बदल गया है और इस पर 30 बड़े और 135 मझौले बांध बनाकर पीने लायक पानी नहीं बचाया है। बांध के विस्थापितों को सरकार भूमि भी नहीं दे रही है जबकि निजी कंपनियों को डेढ़ लाख एकड़ जमीन बाँट दी गई है।
इस कार्यशाला में कई समाजसेवियों ने ये बात उठाई कि नर्मदा का पानी पाइपलाइन से लिंक योजना के जरिए खेती-सिंचाई के लक्ष्य छोड़कर इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के लिए ले जाने की योजना बनाई जा रही है। चिनकी डेम को लेकर संघर्ष कर रहे खोजीबाबा कालूराम पटेल ने कहा कि नर्मदा की नहरों का पानी किसानों के काम का नहीं है, क्योंकि ये योजना 1984 के हिसाब से बनी है, जो वर्तमान समय में किसानों के लिए गैरजरूरी है।
मंडला जिले से आए केहर सिंह मार्को ने कहा कि बरगी बांध के लिए 162 गांव उजड़े और ज्यादातर विस्थापितों को अभी तक जमीन नहीं मिल पाई है क्योंकि विस्थापितों को लेकर सरकार गंभीर नहीं है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख मेधा पाटकर ने कहा कि सरदार सरोवर विस्थापितों के पुनर्वास संबंधी काम में भ्रष्टाचार हुआ है और ये न्यायाधीश श्रवण शंकर झा आयोग की रिपोर्ट में साबित हो चुका है।
पत्रकारवार्ता में मेधा पाटकर ने कहा कि सात साल की जाँच के बाद वर्ष 2016 में आयोग ने रिपोर्ट सौंपी और मुख्य सचिव को रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन को भी एक्शन टेकन रिपोर्ट देनी थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। रिपोर्ट के मुताबिक अपात्रों को मुआवजा बाँटा गया, और पुनर्वास नीति का पालन नहीं हुआ।