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आइये! शोक की इस घड़ी में दिखावे के रुदन का तिरस्कार करें!!


Photo Credit: netiap.com
शोक के वक़्त कोई खटराग शोभा नहीं देता। ख़ामोशी ही सबसे उचित लहज़ा होती है। लेकिन, जब जीवन के उत्सव और उनके जिए मूल्यों में भी कुछ लोग आडम्बर का चोला ओढ़ाने लगें तो कोफ़्त ज़ाहिर करना चाहिए और महाश्वेता दी की जनपक्षधरता का, दोहराव का ख़तरा मोल लेकर भी, बारंबार उल्लेख किया जाना चाहिए। यह उल्लेख, सच्चे लोकतंत्र और राजनीति की अपनी परंपरा और विरासत की दावेदारी का न सिर्फ अहम उत्तरदायित्त्व बन जाता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भूलभुलैया की अँधेरी खोह से बचाने के लिए ज़रूरी है।

व्यक्ति के बतौर, नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज और अमित शाह की श्रद्धांजलि, पता नहीं क्यूँ, एक सांस्कृतिक सलीक़ा नज़र नहीं आ रही है। बस्तर, सारंडा, जंगलमहल में "जंगल के दावेदारों" को अभी भी विकास विरोधी नक्सली, आतंकवादी बता कर उनकी जीवन शैली और उनके पेड़,पहाड़ों और नदियों को नेस्तनाबूद किया जा रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे 1084 की माँ में महाश्वेता दी ने बताया है कि व्रती, सूमो और उनके साथियों को सत्तर के दशक में कलकत्ता की गलियों में घेरकर मारा गया था।

रोहित वेमुला को इन जंगल के दावेदारों के क़त्ले-आम का विरोध करने पर "राष्ट्र-विरोधी" क़रार दिया गया और यह उनकी सांस्थानिक हत्या के लिए पहला आरोप था।
क्या प्रधानमन्त्री, विदेश मंत्री और सत्तारूढ़ दल के अखिल भारतीय अध्यक्ष और बंगाल की मुख्यमंत्री महाश्वेता दी की लेखनी और उनकी जीवन-राजनीति का लिहाज़ और वास्तविक सम्मान करते हुए जल, जंगल और ज़मीन की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष कर रहे लोगों, समूहों और समुदायों को बेदखल करने, उन्हें घेरकर सामूहिक नरसंहार करने की कॉरपोरेटीकरण की योजना का तिरस्कार कर सकेंगे?

नहीं। बिलकुल नहीं। कभी नहीं। मैं इतने यक़ीन से इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि हाल ही में जब इरोम शर्मिला ने अपना अनशन ख़त्म करने की घोषणा की तो बात बात पे हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र की शेख़ी बघारने वाले नुमाइंदों को रत्ती भर भी शर्म नहीं आई।

सोचा जाय तो कितना बुरा और अपमानजक लगता है एक इंसान का 16 सालों तक अपनी भूख बर्दाश्त करने के बेइंतिहा सब्र को संघर्ष शील राजनीति का एक औज़ार बना लेना, सिर्फ़ इसलिए कि उसके अपने लोगों की मात्र शक के कारण हत्या कर दी गई, बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं तक को संदेह की बिनाह पर मौत के घाट उतार दिया गया। जबकि, क़ानून के राज्य में तो हम संदेह का लाभ देने को प्राकृतिक न्याय मानते हैं।

गौरतलब है कि महाश्वेता दी ने इरोम शर्मिला के जीवन संघर्ष पर दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा की किताब की भूमिका लिखी है।

और, हम यहां कश्मीर घाटी में, राष्ट्रहित में, सैकड़ों की तादाद में आँखों की रोशनी छीन लिए गए अभागे बच्चों, नौजवानों और नवयुवतियों का उल्लेख नहीं करेंगे।

ऊना में, मंदसौर में पीटे गए दुखियारों और निर्धनों के बारे में बात करने से भी मुंह चुरायेंगे।

बहरहाल, हम इन नुमाइंदों से ये अपेक्षा तो कर सकते हैं कि अगर वे नरसंहार नहीं रोक सकते तो न सही, अपने ऑनलाइन गुंडों को महाश्वेता दी के उपन्यास पढ़ने को कहें। शायद, अपने मनुष्य होने का अहसास कर सकें।
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मुझे याद है कि महाश्वेता दी 2002 में अहसान ज़ाफ़री की गुलबर्गा सोसाइटी और नरोदा पाटिया में घेरकर ज़िंदा जला दिए गए लोगों (हमारी राष्ट्रवादी स्कीम की डायरी की शब्दावली के मुताबिक़, दूसरे दर्ज़े के नागरिक। मुसलमान जो थे। कटुए। पाकिस्तान परस्त।) के लिए शोकाकुल थीं और नागरिक चेतना द्वारा प्रतिरोध के स्वर की सबसे मुखर आवाज़ थीं।
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लालगढ़, सिंगूर और नंदीग्राम में जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए और पुलिसिया अत्याचारों और बलात्कार के ख़िलाफ़ महाश्वेता दी अपनी नरम, मुलायम आवाज़ और हांफती साँसों से प्रतिरोध आंदोलन की अगुआई कर रही थी। तापसी मालिक का चेहरा या नाम याद है,जिसके बलात्कार और हत्या के बाद कलकत्ता की सड़कों पर वे नारे बुलंद कर रही थीं। और जिस राजनीति की पीठ पर सवार होकर ममता बनर्जी आज मुख्यमंत्री हैं।
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माटी और मानुष की गरिमा का हनन करने वाले हमारे हुक्मरानों से ठीक इस शोकाकुल वक़्त ये एक असहज करने वाला सवाल क्यों न पूछा जाए कि माँ, माटी और मानुष की हर सांस को जीवन देने वाली महाश्वेता दी की रचनाओं और उनकी रचनाओं के किरदारों के क़त्ले-आम की परियोजनाओं पर क्या वे रोक लगाने जा रहे हैं??

अगर उनका जवाब नहीं है तो क्या हम महाश्वेता दी के असली वारिसों बिरसा और चोट्टी मुंडा के तीर-कमान को हसरत भरी निगाहों से प्रतिरोध का प्रतीक गढ़ने के सिलसिले में शामिल न हो जाएं…..!!

(The author is Assistant Professor, Haridev Joshi University of Journalism, (HJUJ) Jaipur, Rajasthan)

 
 

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