कश्मीर में प्रेस की आज़ादी पर हमले को लेकर दिल्ली प्रेस क्लब में 20 जुलाई को आयोजित एक कार्यक्रम में टीवी टुडे ग्रुप के संपादकीय सलाहकार राजदीप सरदेसाई ने कहा था कि कश्मीर को लेकर ख़बरें प्लांट की जा रही हैं। ऐसी बाइट दिखाई जाती है जिनके बारे में शक है कि वे 2010 की हैं। हैरानी की बात यह है कि यह आरोप ख़ुद राजदीप के चैनल 'इंडिया टुडे' और 'आज तक' पर है, जिसके बारे में कुछ दिन पहले मीडिया विजिल ने विस्तार से ख़बर बताई थी। इससे भी ज़्यादा आश्चर्य की बात यह है कि ऐसी संदिग्ध बाइट चैनल में अब भी बीच-बीच में दिखाई जाती है। कश्मीर के पत्रकारों में दिल्ली के मीडिया के इस रूप पर बेहद नाराज़गी है। कश्मीर के मुद्दे पर देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखने वाले युवा पत्रकार गौहर गिलानी ने पिछले दिनों द हूट में कश्मीर पर हो रही रिपोर्टिंग में फ़र्ज़ीवाड़े की परत उघेड़ते हुए एक लेख लिखा था। पढ़िये इस लेख के कुछ महत्वपूर्ण अंश
कश्मीरी प्रदर्शनकारियों के बारे में अफ़वाह फैलाने के इरादे से कुछ चैनलों ने 2010 की फुटेज प्रसारित की है। इनमें हिंदी के ज़ी न्यूज़, आजतक और अंग्रेज़ी चैनल इंडिया टुडे शामिल हैं। इन्होंने दो पुराने वीडियो दिखाकर ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की कि कश्मीर का मौजूदा संकट पाकिस्तान प्रायोजित है। साथ ही यह भी कि यही प्रायोजित भीड़ घाटी में भारतीय जवानों पर पत्थर फेंक रही है।
पहला वीडियो बनियान पहने एक कश्मीरी लड़के का है जो सीआरपीएफ के जवानों से घिरा हुआ है। वीडियो में वो चीख रहा है कि उसे और उसके गिरोह को अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी 500-500 रुपए भारतीय जवानों पर पत्थर फेंकने की एवज में देते हैं। अपने सरकार समर्थित नज़रिए के लिए बदनाम इंडिया टुडे के एंकर राहुल कंवल ने इस वीडियो को प्रसारित करने से पहले एक ट्वीट किया, 'आज न्यूज़रूम में पत्थर फेंकने वाले एक कश्मीरी का क़ुबूलनामा जिसमें वो कहता है कि कश्मीर में उत्पात मचाने के लिए अलगाववादी उसे फंड देते हैं।'
मगर इंडिया टुडे की स्क्रीन पर जो वीडियो चलाया गया, वो 2010 का था। राहुल कंवल 2016 में यानी कि छह साल बाद इसे एक्सक्लूसिव रिपोर्ट कहकर चला रहे थे। हालांकि श्रीनगर के मशहूर टीवी पत्रकार मुफ़्ती इस्लाह ने राहुल कंवल के इस ट्वीट पर पलटवार किया। उन्होंने लिखा, 'एक चैनल एक्सक्लूसिव का दावा करते हुए अपने न्यूज़ चैनल पर आज कचरा चला रहा है। आदमी बन जाओ साथियों।'
ठीक इंडिया टुडे की तरह, कश्मीरी प्रदर्शनकारियों की हक़ीक़त पर पर्दा डालने के लिए ज़ी न्यूज़ ने भी एक स्टोरी चलाई। इस ख़बर में ज़ी न्यूज़ ने फेरन (सर्दी में पहना जाने वाला गर्म कोट) पहने एक शख़्स को सीआरपीएफ जवानों पर पेट्रोल बम फेंकते हुए दिखाया है। मगर इस मौसम में फेरन? वो लंबा ऊनी फेरन जिसे कश्मीरी ठंड के मौसम में पहनते हैं? वो जुलाई की इस गर्मी में पहने हुए हैं? ये सीधे-सीधे फर्ज़ीवाड़ा और झूठी रिपोर्ट है।
इस तरह के पुराने और छेड़छाड़ किए गए वीडियो चलाकर, ऐसे चैनल ना सिर्फ दर्शकों की बुनियादी समझ का मज़ाक बना रहे हैं बल्कि उन्मादी राष्ट्रवादी मीडिया झूठ, प्रोपगंडा और भड़काऊ ख़बरें दिखाकर हर दिन वही पाकिस्तान विरोधी घिसा-पिटा राग दुहरा रहा है।
कश्मीर पर जब भी खुले और साफ़ मन से रिपोर्टिंग का सवाल आता है तो इंडियन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बमुश्किल पत्रकारीय उसूलों पर ध्यान देता है। सेना और पुलिस के एक-एक शब्द मीडिया इस तरह चलाता है, कि जैसे साक्षात ईश्वर प्रकट होकर किस्सा बता रहे हों। ऐसा करके वह ख़ुशी-ख़ुशी सरकारी प्रोपगंडा का हिस्सा बनने के लिए तैयार रहते हैं।
कश्मीर में मौतों का डरावना आंकड़ा जब 32 पहुंच गया, तब टाइम्स नाऊ ने एक टिकर चलाया, 'पाकिस्तान समर्थित हिंसा में 32 मारे गए।' पाकिस्तान को लेकर हिन्दुस्तानी मीडिया के पागलपन की इससे शानदार मिसाल नहीं मिल सकती। इसके बाद टाइम्स नाऊ ने एक और कैंपेन चलाया। इसमें दावा किया गया कि पाकिस्तान ने कश्मीर में पत्थरबाज़ी के लिए 100 करोड़ रुपए बज़रिए सैयद अली शाह गिलानी भेजे हैं। वही गिलानी जो पिछले छह साल से नज़रबंद हैं। कई बार समझ में नहीं आता कि ऐसी ख़बरें देखने के बाद हंसा जाए या उनपर मातम करना चाहिए।
ख़ैर, बहुत सारे टीवी पत्रकार कश्मीर से जुड़े मोटे-मोटे सवालों का भी जवाब नहीं दे सकते। वो नहीं बता सकते कि ऑल पार्टीज़ हुर्रियत कांफ्रेंस एक समूह है या दल? या सैय्यद अली शाह गिलानी की हुर्रियत और मीरवाइज़ उमर फारूक़ की हुर्रियत में क्या फर्क़ है? या कश्मीर घाटी में कुल कितने ज़िले हैं और उनके नाम कैसे पुकारे जाते हैं? ऐसे पत्रकार कश्मीर की किसी भी ख़बर या कहानी के साथ बमुश्किल इंसाफ़ कर सकते हैं।
मगर मैं ऐसे चुनिंदा पत्रकारों को भी जानता हूं जिन्हें कश्मीर में संकट होने पर बाक़ायदा मैदान में उतारा जाता है। भारत सरकार के प्रोपगंडा में ऐसे पत्रकारों की भूमिका महज़ एक तोते जैसी होती है। ये पत्रकार कश्मीर में तथ्यों की रिपोर्टिंग के लिए नहीं आते। इन्हें कश्मीर में तथ्यों से छेड़छाड़ और उसमें फेरबदल के लिए डंप किया जाता है और ये बिल्कुल भारत सरकार के पिट्ठू की तरह काम करते हैं। ये पत्रकारों हमेशा आग बुझाने की कोशिश करते हुए नज़र आएंगे। ये ख़ुद को ज़मीन पर तथ्यों की पड़ताल कर रहे एक पत्रकार की बजाय सेना-प्रदर्शनकारियों के संघर्ष को निपटाने-सुलटाने वाला मैनेजर टाइप फील करते हैं।
जब कभी कश्मीर में इस तरह का ख़तरा होता है, सिविलियन वर्दी में 'ऐसे पत्रकारों का गिरोह' 'मिशन कश्मीर' पर रवाना किया जाता है। इन्हें एक ख़ास मकसद के साथ भेजा जाता है ताकि इनकी मदद से कश्मीर में दहकती आग को 'ठंडा' किया जा सके। ये पत्रकार बार-बार कहते नज़र आएंगे कि कश्मीर गुस्से में है, उनमें अलगाव पहले से ज़्यादा बढ़ा है वग़ैरह-वग़ैरह। मगर यही पत्रकार सेना-प्रदर्शनकारियों के बीच जारी संघर्ष और अंसतोष की जड़ तक नहीं ले जाएंगे।
ऐसे पत्रकारों का दूसरा डरावना सच यह है कि ये कश्मीर में राज्य प्रायोजित हिंसा की तुलना सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने वाले कुछ प्रदर्शनकारियों से करते दिखते हैं। ये पत्रकार श्रीनगर के अस्पतालों में घूमकर पैरामिलिट्री और पुलिस के दर्जनभर जवानों के इलाज की वो तस्वीरें दिखाते हैं जो मामूली स्क्रैच का शिकार होते हैं। फिर सरकार समर्थित हिंसा की गैरवाजिब तुलना प्रदर्शनकारियों से करते हैं।
अभी तक कश्मीर में 48 मौतें हुई हैं। इनमें औरतें भी शामिल हैं। 3 हज़ार से अधिक घायलों में ज़्यादातर बच्चे हैं। इस बेशर्म आंकड़े के सामने स्क्रैच खाए जवानों की मामलों की कोई अहमियत नहीं है। ऐेसे जवानों की तस्वीरें दिखा-दिखाकर ये पत्रकार दरअसल भारतीयों में राष्ट्रवादी जोश भरने की कोशिश करते हैं। ये दरअसल ऐसी तस्वीर सामने लाने की कोशिश करते हैं कि हमारे बहादुर सिपाहियों को प्रदर्शन रूपी आतंकवाद और आतंकियों से हमदर्दी रखने वालों से निपटने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जी हां, ये पत्रकार बिल्कुल इसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, कश्मीरी आवाम की वास्तविक राजनीतिक इच्छा को अवैध और गैरकानूनी साबित करने के लिए।
Courtesy: Media Vigil, द हूट से साभार