अर्णब को कल फिर भाजपा प्रवक्ता के साथ गठजोड़ कर अपनी ही बिरादरी के बंदों को राष्ट्रविरोधी पाले में धकेलते देखा। सबा नक़वी को बोलने नहीं दिया, भाजपा प्रवक्ता श्रीकांत शर्मा (और सहयोगी बकताओं) को रोका नहीं गया। शर्मा एक मुसलिम समुदाय से आने वाली पत्रकार को सीमा पर (पार नहीं?) जाने को कह रहे थे। भाव कुछ यह था कि राष्ट्र-हित में सबका स्वर एक होना ज़रूरी है, जो साथ नहीं है वह ग़द्दार है। तो टीवी पर ये बहसें आयोजित क्यों हो रही हैं?
सबा ने (उचित ही) रोष में जब कहा कि शर्मा नुक्कड़ जैसा भाषण हमें न पिलाएँ, तो अर्णब सबा पर ही पिल पड़े – शर्मा हिंदी बोल रहे हैं इसलिए आपने उन्हें नुक्कड़ का कहा, यू लटियंस …
यही अपमानजनक सलूक अन्य 'मेहमान' सुधींद्र कुलकर्णी के साथ हुआ। उन्हें एक भी वाक्य ठीक से पूरा न करने दिया गया। जैसे ही कश्मीर समस्या का ज़िक्र उनके मुँह से निकला, एक पहले से लिखी इबारत हाथ में ले अर्णब कुलकर्णी पर पिल पड़े। एक मुक़ाम पर पहुँच कर सुधींद्र झल्ला गए बोले – "मैंने आपसे बदतरीन ('worst') ऐंकर पहले कभी नहीं देखा।"
एक अन्य विवेकी मेहमान (जो ऐंकर के साथ स्टूडियो में बैठे थे) को बोलने से रोकने के लिए शर्मा अनर्गल टीकाएँ करने लगे तो मेहमान ने अपने मेज़बान ऐंकर से कहा – "आइ नीड योर प्रोटेक्शन"। इसके बावजूद ऐंकर से न सहयोग मिला, न बोलने का अवसर। बुलाया किसलिए था, भाई?
यह कैसी पत्रकारिता है? सत्ताधारी विचारधारा से कैसा गठजोड़ है? खुला खेल फ़र्रुख़ाबादी!
सच कहूँ तो ये बहसें बरदाश्त के बाहर हो चली हैं। ऐंकर अपना शिकार पहले से चुनकर उसे बहस में बुलाता है। अमूमन कोई भला, न उलझने वाला शरीफ़ बंदा। उसके साथ कोई एक शिकार और होगा। फिर अपने ही चुने हुए तीन-चार हमलावर 'मेहमानों' के साथ मिलकर शिकार को पहले देश का दुश्मन क़रार दीजिए। शिकार चाहे लाख कहता रहे कि मैंने जो कहना चाहा वह कहने ही नहीं दिया गया है। दूसरे, गरियाते हुए शिकार के पाले में देश के तमाम उदारवादियों को भी धकेल दीजिए, वे चाहे कहीं भी हों।
असहिष्णुता हम संघ परिवार में ढूंढ़ते आए हैं। इस क़िस्म के टीवी ऐंकरों में भी आजकल वह कूट-कूट कर भरी है। मज़ा यह कि अब अपनी दलीलें भी ये ऐंकर पहले से लिखकर सामने रख लेते हैं; आपके मुँह से जब भी अपेक्षित ज़िक्र या शब्द (जैसे कल 'कश्मीर') निकलेगा, वे पूर्वनियोजित दलीलें – नज़रें झुकाकर पढ़ते हुए सही – प्रत्यक्ष दलील देने की कोशिश कर रहे किसी संभागी पर छर्रों की तरह दागे जाने के काम आएँगी। ज़ाहिर है, उस वक़्त सत्ताधारी दल का प्रवक्ता, अन्य चुनिंदा बकता भी साथ डटे होंगे – निरीह मेहमानों को अनवरत हड़काते हुए, सरेआम दादागीरी के दाँव आज़माते हुए।
आप कह सकते हैं – और कहना वाजिब होगा – कि मैं ऐसे चैनल की देहरी पर जाता ही क्यों हूँ, जब जानता हूँ कि वहाँ शोर और मार-काट के सिवा कुछ न मिलेगा? शायद हल्ला देखने (मुहल्ले से पड़ी आदत है), कुछ इस सबसे भी बाख़बर रहने। पर इस बीमारी से अंततः बचना होगा।
मेरा सवाल छर्रे खाने वाले उन 'मेहमान' संभागियों से भी है – कि हम तो चलिए चैनल फटकारते जा पहुँचते है, आख़िर आप वहाँ क्यों जा प्रकट होते हैं? बार-बार? मैं जानता हूँ सुधींद्रजी और सबा पैसे के लिए जाने वालों में नहीं, फिर भी इतना अपमान जो मुझ दर्शक से न बरदाश्त हुआ, वे क्यों सह आते हैं?
(वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी की फ़ेसबुक पोस्ट)