आरएसएस-भाजपा: आंबेडकर से अनुराग का पाखंड

 
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सन 2015 के नवंबर महीने में अपने ब्रिटेन दौरे के दौरान जब लंदन स्थित आंबेडकर हाउस का उद्घाटन नरेंद्र मोदी के हाथों के होने की खबर आई तो वहां के सबसे बड़े दलित संगठन 'कास्ट वाच यूके' के अलावा दूसरे दलित संगठनों ने भी सख्त आपत्ति जताई। 'कास्ट वाच यूके' ने अपने एक बयान में कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री जिस तरह आंबेडकर की स्मृतियों को अपने राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, वह घिनौना है और उन दलितों को भ्रमित करने की कोशिश है जो आज भारत में अपने मानवाधिकारों के लिए जंग लड़ रहे हैं और ब्रिटेन में भी बराबरी के लिए अपनी मांग को सशक्त तरीके से दर्ज कर रहे हैं।
 
यह बयान अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि अभी भी बाबा साहेब आंबेडकर के दर्शन से खौफ खाने वाली और वास्तव में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाली आरएसएस-भाजपा के लिए आज आंबेडकर क्यों प्रिय होते दिख रहे हैं। यहां 'दिख रहे हैं' का इस्तेमाल जानबूझ कर किया गया है, क्योंकि 'दिखने' और 'होने' में कई बार बड़ा फासला होता है। ब्रिटेन में आंबेडकर हाउस का उद्घाटन करने से पहले महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद वहां आंबेडकर स्मृति स्थल निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन भाजपा को कुछ समय पहले ही यह अंदाजा हो गया था कि आने वाले दौर की सामाजिक राजनीति की दिशा कैसे तय होगी। इसलिए लोकसभा चुनावों के पहले से ही खालिस ब्राह्मणवादी राजनीति करने की अभ्यस्त आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों की जमीनी गतिविधियों में आंबेडकर, ज्योतिबा फुले आदि दलित प्रतीक शख्सियतों की तस्वीरें आ गई थीं। खासतौर पर आंबेडकर का नाम भाजपा ने ऐसे ढोना शुरू किया गोया कि वह अपने गोलवलकर के दर्शन से हार गई हो।
 
लेकिन सच यह नहीं था। पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुई राजनीतिक उठा-पटक ने एक तरह से अगले कुछ दशकों की राजनीति की दिशा कर दी है। यों चेतना और जागरूकता की दिशा तो जाति से मुक्त व्यवस्था की ओर होनी चाहिए, लेकिन फिलहाल जितना भी हुआ है, उसमें ऐतिहासिक तौर पर नाइंसाफी के शिकार सामाजिक तबकों ने अपने लिए न्याय की मांग करनी शुरू कर दी और इसे अपने हक की तरह देखा। यही आवाज आज दलित-वंचित तबके की ओर से लगातार उठते हुए राजनीति और समाज-व्यवस्था के सामने एक जबर्दस्त दखल बन चुकी है। अब चाह कर भी कोई राजनीतिक दल या समूह ऐतिहासिक रूप से सामाजिक वर्चस्व बनाए रखने वाले समूहों-जातियों की खुली पैरोकारी नहीं कर सकता है।

बल्कि कायदे से कहें तो आंबेडकर अपने विचार और अपने समग्र प्रतीक के रूप में जिस समाज और व्यवस्था की पैरोकारी करते हैं, उसके लिए आंदोलन करते हैं, वह आरएसएस के सपनों के समाज के बरक्स है, खिलाफ है, बराबरी और सम्मान पर आधारित एक नई दुनिया की योजना है।

 
यही वजह है कि दलित-वंचित जातियों के लगातार बढ़ते एसर्शन और इस वर्ग की राजनीतिक उपयोगिता को देखते हुए इसे 'कोऑप्ट' करने या खुद में समा लेने की जो होड़ चली, उसमें आरएसएस और भाजपा ने प्रतीकों का सबसे ज्यादा और निर्लज्जता से इस्तेमाल किया है। आंबेडकर को अपने एक आदर्श-पुरुष के रूप में प्रचारित करने के पीछे मकसद सिर्फ दलित-वंचित तबकों को अपने मत-समूह के रूप में आकर्षित करना है। दरअसल, पिछले तीन-चार दशकों के दौरान इन वर्गों के बीच कई वजहों से हुए सामाजिक सशक्तीकरण ने इनकी चेतना को भी सशक्त किया है और अब वे अपने लिए कोई मेहरबानी नहीं, अधिकार मांग रहे हैं।
 
भारत का समाज यों भी प्रतीकों में जीने वाला, प्रतीकों से ताकत हासिल करने वाला समाज रहा है। अब चूंकि ये प्रतीक राजनीतिक अर्थों में अपनी अहमियत स्थापित करने और सत्ता में भागीदारी के लिए अहम औजार या संघर्ष के हथियार के तौर पर उपयोग हो रहे हैं, इसलिए आरएसएस-भाजपा ने भी इन प्रतीकों को अपनी राजनीति में शामिल कर लिया है। वरना आंबेडकर के रूप में जिस प्रतीक को वह आज अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना चाह रही है या कर रही है, वही आंबेडकर आरएसएस की राजनीति के प्रस्थान-बिंदु के सबसे खिलाफ हैं। बल्कि कायदे से कहें तो आंबेडकर अपने विचार और अपने समग्र प्रतीक के रूप में जिस समाज और व्यवस्था की पैरोकारी करते हैं, उसके लिए आंदोलन करते हैं, वह आरएसएस के सपनों के समाज के बरक्स है, खिलाफ है, बराबरी और सम्मान पर आधारित एक नई दुनिया की योजना है।
 
हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि आंबेडकर ने जब ब्राह्मण-धर्म से पूरी तरह मुक्ति की बात की, तब आरएसएस के दिल पर क्या गुजरी होगी! लेकिन जिस आरएसएस के लिए ब्राह्मण-धर्म का पुनरोत्थान और उसकी स्थापना आज भी मूल मकसद है, उसके राजनीतिक मोर्चे पर आंबेडकर को खड़ा किया गया है। क्या यह समझना इतना मुश्किल है कि हिंदू कहे जाने वाले ब्राह्मण-धर्म के तहत जीने-मरने वाले समाज के जिस हिस्से यानी दलित-पिछड़ी जातियों पर उसे फिर से कब्जा चाहिए तो उसके लिए आंबेडकर से बेहतर 'राजनीतिक हथियार' और कुछ नहीं हो सकता? मगर दिलचस्प यह है कि आंबेडकर का झंडा आगे करने के बावजूद आरएसएस ने अब तक शायद यह कहीं और कभी नहीं कहा कि हम हिंदुत्व के ढांचे से ब्राह्मणों का वर्चस्व खत्म करेंगे, फिर जाति-व्यवस्था का जड़-मूल से नाश करेंगे। और अगर जाति-व्यवस्था को बनाए रखते हुए या इसे मजबूत करते हुए आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर दलित-पिछड़ी जातियों को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रही है तो वह एक बार फिर किस सामाजिक व्यवस्था की दीवारों और जंजीरों को मजबूत करने की फिराक में है?
 
यों राजनीतिक और स्वाभाविक रूप से आंबेडकर के प्रतीक और विचार से आरएसएस-भाजपा की सीधे-सीधे दुश्मनी बनी रहनी चाहिए। मुख्य वजह है आंबेडकर के स्थायी विचार। हिंदुत्व के बारे में अपने वक्तव्य 'जाति का उन्मूलन' में आंबेडकर कहते हैं- "हमें यह मानना होगा कि हिंदू समाज एक मिथक है। 'हिंदू' नाम ही विदेशी है। मुसलमानों ने यहां के निवासियों से अपनी अलग पहचान बनाने की गरज से इन्हें हिंदू नाम दिया। …उन्होंने कभी एक सामान्य नाम की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि अपने को एक समुदाय के रूप में बांधने की अवधारणा उनके पास थी ही नहीं। इस प्रकार से हिंदू समाज का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो जातियों का समूह मात्र है। हरेक जाति अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। इनका अस्तित्व जाति-व्यवस्था के जारी रहने का कुल परिणाम है। जातियां एक संघ भी नहीं बनातीं। कोई जाति दूसरी जातियों से जुड़ने की भी भावना नहीं रखती, सिर्फ हिंदू-मुसलिम दंगे के समय ये आपस में जुड़ती हैं। …हरेक जाति केवल आपस में विवाह करती है। …वास्तव में एक आदर्श हिंदू, बिल में रहने वाले उस चूहे की तरह है, जो अन्य लोगों (चूहों) के संपर्क में नहीं आना चाहता।
 
…हिंदुओं में सामूहिक चेतना की भारी कमी पाई जाती है। …प्रत्येक हिंदू में जो चेतना होती है, वह अपनी जाति के लिए है। इसी कारण से यह नहीं कहा जा सकता कि ये एक समाज या राष्ट्र बनाते हैं। फिर भी ऐसे काफी भारतीय हैं जिनकी देशभक्ति उन्हें यह मानने की स्वीकृति नहीं देती कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह केवल असंगठित लोगों की भीड़ है।"
 
यानी बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदुत्व के नाम पर ब्राह्मणवाद के जिस ढांचे पर इतना तीखा सवाल उठाया और उसे ध्वस्त करने का आह्वान किया, उसी को बनाए रखने की राजनीति करने वाले समूह आज बाबा साहेब आंबेडकर को अपना राजनीतिक हथियार बना रहे हैं। जाहिर है, इसके पीछे एक गहरी साजिश है।
 
न सिर्फ राजनीतिक तौर पर, बल्कि आंबेडकर-पथ पर चलने वालों के समूचे समुदाय में घुस कर पहले उसे अपने असर में लेना, फिर धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का गुलाम बने रहने पर मजबूर कर देना। बौद्ध धर्म से लेकर तमाम ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि ब्राह्मणवाद के बरक्स जैसे ही कोई ऐसा ध्रुव खड़ा होता हो जो इसकी समूची व्यवस्था को खत्म करने की ताकत रखता हो, एक नई व्यवस्था और समाज रच देने की क्षमता रखता हो, और ब्राह्मणवाद उससे सीधे निपट सकने की क्षमता नहीं रखता तो वह उसमें चुपके से सुनियोजित तरीके से घुसना शुरू कर देता है। उसके बाद किसी भी मत या विचारधारा का क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि सबसे प्रगतिशील विचारधारा तक पर ब्राह्मणवाद बरतने के आरोप लगाने में मुश्किल नहीं होती।
 
लेकिन एक लंबे दौर में हुआ यह है कि ब्राह्मणवाद के बरक्स खड़े संघर्षों के बीच में उसकी इस चाल की एक राजनीतिक प्रवृत्ति के तौर पर पहचान कर ली गई और इसी असलियत का परदाफाश होना ब्राह्मणवाद के लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। आज उसे अपने असली एजेंडे को जमीन पर उतारना इसीलिए थोड़ा मुश्किल होगा कि 'हिंदुत्व' नाम के एक बड़े पहचान के बरक्स इसके ढांचे में छोटी पहचानें भी संघर्ष के लिए खड़ी हुईं और अपनी सामाजिक अवस्थिति के कारकों को सामने रख कर सवालों का जवाब मांगने लगीं। और चूंकि दलित-वंचित तबकों के लिए कभी समझौता नहीं करने और ब्राह्मणवाद की परतों को उघाड़ कर सम्मान, गरिमा और स्वाभिमान के समाज का सपना देने वाले आंबेडकर का मॉडल अब सामने है, इसलिए आरएसएस-भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी। आज अगर आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने माथे पर उठाए दिखने की कोशिश कर रही है तो उसकी मजबूरी यही है। अगर हिंदू कहे जाने वाले समाज में सबसे निचले तबके के तौर पर शुमार दलित-पिछड़े तबके किसी तरह ब्राह्मणवाद के ढांचे से छिटकने लगे तो आरएसएस के सपनों के समाज पर संकट आएगा।

 
यानी बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदुत्व के नाम पर ब्राह्मणवाद के जिस ढांचे पर इतना तीखा सवाल उठाया और उसे ध्वस्त करने का आह्वान किया, उसी को बनाए रखने की राजनीति करने वाले समूह आज बाबा साहेब आंबेडकर को अपना राजनीतिक हथियार बना रहे हैं। 

 
लेकिन इस हकीकत के बावजूद आरएसएस कभी-कभी अपने भीतर के सच को पूरी तरह ढक नहीं पाता। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जिस तरह सामाजिक यानी जाति के आधार पर मौजूदा आरक्षण-व्यवस्था पर पुनर्विचार करने का खयाल जाहिर किया, वह उसी मूल का सबूत है। हालांकि इस आरक्षण को खत्म करने का विचार आरएसएस का नया नहीं है, लेकिन भागवत के बयान के बहाने इस पर पर्याप्त बहस हुई और एक तरह से आरएसएस और भाजपा दोनों ही इस मसले पर फंसे हुए दिखे। जाहिर है, आंबेडकर के प्रतीक को अपनी राजनीति बनाना और आरक्षण का विरोध, दोनों एक साथ नहीं चल सकते। लेकिन फिर भी क्या वजह है कि आरएसएस-भाजपा आज आंबेडकर से प्रेम दर्शाने और उसे स्वीकार किए जाने का गुहार लगा रही है?
 
जबकि आरएसएस-भाजपा इस बात से अनभिज्ञ नहीं होगी कि हिंदू धर्म के बारे में आंबेडकर ने कितना कुछ कहा है। मसलन, अपनी पुस्तक 'दलित वर्ग को धर्मांतरण की आवश्यकता क्यों है' में उन्होंने हिंदू धर्म को लेकर काफी सख्त बातें की थीं- "यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत है तो धर्मांतरण करो। हिंदू धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से गुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन, करना हो तो धर्मांतरण करो। समता प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। आजादी प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। अपने जीवन की सफलता चाहते हो तो धर्मांतरण करो। मानवी सुख चाहते हो तो धर्मांतरण करो। …हिन्दू धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।"
 
इसके अलावा, 'जाति के उन्मूलन' में वे आरएसएस के हिंदुत्व के बारे में साफ कहते हैं कि "…हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदेशों और प्रतिबंधों की भीड़ है। …अगर आपको हिंदू समाज में जाति-प्रथा के खिलाफ लड़ना है तो आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों और शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति और स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा। इसके अलावा, कुछ और करना लाभदायक नहीं होगा। इस मामले में मेरा मत यही है।" (जाति का उन्मूलन से।)
 
तो जो आंबेडकर हिंदुत्व और स्पष्ट कहें तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक ठोस योजना देते हैं, वेदों और शात्रों को बारूद से उड़ा देने की बात करते हैं, वे आंबेडकर हिंदुत्व और सच कहें तो ब्राह्मणवाद की राजनीति करने वालों के लिए अचानक कैसे प्रिय हो गए? बात फिर वहीं घूम कर आती है कि आरएसएस को बहुत अच्छे से मालूम है कि पिछले सौ सालों के दौरान जो सामाजिक आलोड़न हुए हैं, उसमें ब्राह्मणवाद की कुर्सी के पाए थोड़े हिले हैं, दलित-वंचित तबके ने सामाजिक साजिशों की पहचान की है।
 
बहरहाल, इन सब सच्चाइयों के बरक्स चौदह अप्रैल, 2015 यानी आंबेडकर के जन्मदिवस के मौके पर भाजपा-आरएसएस ने आंबेडकर को राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के तौर पर पेश करना चाहा। लेकिन यह वही भाजपा-आरएसएस है, जिसके सदस्य रहते हुए अरुण शौरी ने कुछ साल पहले अपनी किताब 'वर्शिपिंग फॉल्स गॉड' में आंबेडकर के खिलाफ अधिकतम जहर फैला दिया था… बेलगाम भाषा में आंबेडकर की शख्सियत को ध्वस्त करने में लगे थे और भाजपा-आरएसएस बल्लियों उछल कर उस किताब को आंबेडकर के खिलाफ हथियार बना रही थी। सवाल है कि उसकी नजर में आंबेडकर आज राष्ट्रवाद के प्रणेता कैसे हो गए!
आंबेडकर के 'राष्ट्रवाद' का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि आंबेडकर ने राष्ट्रवाद की हकीकत यह बयान की कि "मजदूरों के सबसे गंभीर विरोधी निश्चित ही राष्ट्रवादी हैं। …मजदूरों को चाहिए कि वे राजनीति के रूपांतरण और पुनर्निर्माण के जरिए लोगों के जीवन में लगातार नई जान फूंकने पर जोर दें। अगर जीवन के इस पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के रास्ते में राष्ट्रवाद बाधा बन कर खड़ा होता है तब मजदूरों को चाहिए कि वह राष्ट्रवाद को खारिज कर दे…!"
 
जाहिर है, आंबेडकर दरअसल, आरएसएस-भाजपा के समूचे सियासी एजेंडे के खिलाफ खड़े होते हैं। लेकिन अब यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि जब एक विचार और व्यवस्था के रूप में आंबेडकर के दबाव को हिंदुत्व की राजनीति अपने तमाम धतकरमों के बावजूद रोक सकने में सक्षम नहीं हुई तो अब वह आंबेडकर को ही अपना मोहरा बनाने की फिराक में है। यह न सिर्फ आंबेडकर के खिलाफ एक साजिश है, बल्कि हाशिये के या वंचित वर्गों के जितने भी लोगों या समाजों ने आंबेडकर से चेतना और ताकत हासिल की और अब भाजपा-आरएसएस की ब्राह्मणवादी राजनीति की झांसे में नहीं आ रहे हैं, उनके सामने यह एक नया भ्रम परोसने का खेल है।

('चार्वाक' ब्लॉग से)

 

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