पार्च्ड फिल्म अपनी दमदार पटकथा, संवाद, फिल्मांकन और कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के दम पर दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब रहती है.
ब्राह्मणवादी मान्यताओं और सांस्कृतिक वर्चस्व के भीतर की कहानी है पार्च्ड. फिल्म की बारीकियों पर जाएं तो कई जगहों पर हिंदू धर्म की कलई खोलती नज़र आती है पार्च्ड.
कहानी की शुरुआत में हिंदू देवी-देवताओं को दिखाया गया है. एक सीन में ब्राह्मणवादी रीति से शादी-ब्याह होता है, जिसमें एक ब्राह्मण को संस्कृत में रामायण, महाभारत, गीता, भागवत, पुराणों का उच्चारण करते हुए भी दिखाया गया है.
एक बांझ पति जो कि अपनी गर्भवती पत्नी के चरित्र पर सवाल उठाते हुए छोड़ देता है. इसी दौरान हिंदू देवता राम का प्रसंग दिखाया जाता है. हिंदू देवता राम द्वारा रावण का पुतला दहन वाला दृश्य दिखाया गया है.
एक महिला जो कि पति द्वारा छोडी हुई और कम उम्र में ही विधवा हो जाती है, लेकिन हिंदू धर्म के अनुसार उसके पुनर्विवाह का प्रावधान नहीं है.
एक सेक्स वर्कर महिला है और 'देवता पुरुष' इस महिला के चारों और चक्कर लगाते रहते हैं. मनुस्मृति में कहा भी गया है- 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:'
एक बालिका वधू है, जिसे लड़के की मां घर गिरवी रखके, दहेज में पैसे देकर ब्याह कर घर लाई है.
मेरी नज़र में तो यह फिल्म दरअसल धार्मिक मान्यताओं द्वारा समर्थन प्राप्त पितृसत्तातमक और सामंतवादी व्यवस्था वाले समाज में महिलाओं की बेवशी और उनके साथ पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा को उजागर करती हुई फिल्म है. जो कि न तो महिला अत्याचारों के प्रतिशोध की कहानी है और न ही स्त्रीवादी कहानी है.
हां, वो बात अलग है कि बीच-बीच में महिलाएं अकेले में जाकर थोड़ी मन की भड़ास शांत कर लेती हैं. एक सुनसान किले के ऊपर फिल्माये गए सीन में महिलाओं आधारित गाली के बदले पुरुष आधारित गाली वाला संवाद भी दिखाया गया है, अगर यह सीन गांव के भीतर पुरुषों के बीच फिल्माया गया होता तो जरूर इसके ख़ास मायने होते.
फिल्म में, एक बेटी है जो भागकर अपने मायके आ गई है क्योंकि उसके साथ ससुराल में देवर और ससुर यौन शोषण करते हैं. यह सबकुछ जानने के बाद भी उसकी मां उसे वापस भेज देती है.
विधवा महिला के भीतर चाहत दबी हुई है, लेकिन पिछले 15 सालों से उसके किसी भी पुरुष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बने हैं.
सेक्स वर्कर महिला को गुफा में रहने वाले एक पुरुष ने सपने देखना सिखाया है.
विधवा महिला कहती है कि 'बिना मां बने, औरत बनने का सुख नहीं भोग सकते', तब सेक्स वर्कर महिला हिंदू ग्रंथ रामायण को खारिज़ करते हुए कहती है कि 'सिर्फ बच्चे पैदा करना, मां बनना ही इकलौता धर्म नहीं है महिलाओं का.'
बांझ होने का आरोप झेल रही महिला किसी भी कीमत पर मां बनना चाहती है. उसे प्यार, ममता, लाडा-लाडी की तमन्ना है, जिसकी पूर्ति गुफा में रहने वाला वही पुरुष करता है.
गांव में एक समाजसेवी दंपत्ति को दिखाया गया है, जो महिला शिक्षा की बात करता है. पुरुष पूरे गांव में खासतौर से महिलाओं की मदद करते रहता है, इसके लिए उसे सम्मानित भी किया जाता है. वो महिलाओं को रोजगार भी उपलब्ध करवाता है. चूंकि यह गांव में हीरो बन जाता है, तो गांव के लड़के उसे पीट-पीटकर अधमरा कर देते हैं, तब वो दंपत्ति गांव छोड़कर चली जाती है.
इसी पुरुष की मदद से महिलाओं को मोबाईल और टेलीविजन जैसी आधुनिक तकनीकें उपलब्ध होती हैं. इसी मोबाईल पर विधवा महिला को एक फर्जी शाहरूख खान का कॉल आता है और उसके भीतर उमंगे उठने लगती हैं.
बालिका वधू के साथ पढ़ने वाला लड़का, उसकी हालत को देखकर दुखी है और बाद में वो उसे पढ़ाने के लिए शहर लेकर चला जाता है.
और अंत में तीनों महिलाएं गांव छोड़कर भाग जाती हैं.
पूरी फिल्म में महिलाओं की बेवशी और दर्द को ही दिखाया गया है, लेकिन महिला अधिकारों को लेकर कोई विशेष वकालत नहीं की गई है.