बीजेपी 441 साल बाद राणा प्रताप को जिताएगी हल्दी घाटी का युद्ध !

इतिहास की नज़र में तथ्य सर्वाधिक पवित्र होते हैं। नए तथ्यों के आने से इतिहास में बदलाव भी होता है। बदलाव का आधार किसी की इच्छा या राजनीतिक ज़रूरत हो तो फिर वह इतिहास नहीं गप्प कहलाता है। समयचक्र घूमने के साथ ऐसी कोशिश करने वाले हास्यास्पद बन जाते हैं। अफ़सोस कि बीजेपी, मेवाड़ के राणा प्रताप की महानता पर ऐसा ही झूठ का मुलम्मा चढ़ाना चाहती है।

Rana Pratap

महाराणा प्रताप की बहादुरी पर किसे नाज़ नहीं होगा। जब सारा राजपूताना अकबर के कदमों में बिछ गया था तो राणा प्रताप अकेले थे जिन्होंने मुगल मनसबदार बनने से इंकार कर दिया। आज़ादी के लिए उनकी कुर्बानियाँ इतिहास में दर्ज हैं और इससे उनकी महानता में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे अकबर से हार गए।

लेकिन बीजेपी इतिहास की इस हार को जीत में तब्दील करना चाहती है। पिछले हफ्ते राजस्थान युनिवर्सीटी के सिंडीकेट मेंबर और किशनपोल (जयपुर) से बीजेपी के विधायक मोहनलाल गुप्ता ने प्रस्ताव रखा था कि पाठ्यक्रम बदलकर लिखा जाए कि महाराणा प्रताप हारे नहीं थे बल्कि उन्होंने 1576 ई. में हल्दी घाटी के युद्ध में जीत हासिल की थी। वसुंधरा सरकार के तमाम मंत्री इसके पक्ष में हैं और मसला राजस्थान युनिवर्सिटी की बोर्ड ऑफ स्टडीज़ के सामने पहुँच गया है।

यह इतिहास के साथ मज़ाक है। इस युद्ध का आँखों देखा हाल लिखने वाले अब्दुल क़ादिर बदायूँनी की ‘तारीख़े बदायूँनी’ समेत तमाम समकालीन दस्तावेज़ इस बात को प्रमाणित करते हैं कि हल्दी घाटी के युद्ध में राणा प्रताप हार गए थे। लेकिन वे मुगल सेना की पकड़ में नहीं आये और ‘घास की रोटियाँ’ खाकर भी अपनी आज़ादी की रक्षा करते रहे।

कवि नरोत्तम ने इस भीषण युदध का वर्णन यूँ किया है-

परिय लोथि तिहिं केत नांउ तिनि कोई न जानइ।

इतहि उतहि बहु जोध क्रोध करि भीरहि भानइ।।

राउत राजा राउ  सूर चौडरा जि केउव।

कहत न आवहि पारु औरु चींधरया ति तेउव।।

भिरि स्वाँम काँम संग्राम महि, लगी लोह सब लाज जिहि।

जीत्यौ जु माँ नीसाँन हनि खस्यो खेत परताप तिहि।।

“लड़ाई इतनी भीषण थी कि लाशों पर लाशें गिरने लगीं। इनका कोई नाम तक नहीं जानता था। दोनों तरफ के योद्धा एक दूसरे से जूझ रहे थे। राजा, रावत और घुड़सवार की क्या गिनती, झंडा उठाकर चलने वाले भी अपने मालिक की इज़्ज़त के लिए लड़े। राजा मान सिंह डंके की चोट पर विजयी हुए और महाराणा प्रताप युद्ध क्षेत्र से खिसक लिए।”

दिलचस्प बात यह है कि राणा प्रताप और मुगलों की इस लड़ाई को आरएसएस, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन हल्दीघाटी में राणा की लड़ाई अकबर से नहीं, उनके सेनानायक राजा मान सिंह से हुई थी। यही नहीं, राणा प्रताप के मुख्य सेनानायक थे हकीम खँ सूर जिनके पीछे हज़ारों अफ़गान सैनिक राणा की ओर से मुगलों के ख़िलाफ़ जी-जान से लड़े।

इससे करीब आठ साल पहले सन 1568  ई. में अकबर ने जब खुद चित्तौड़ की घेरेबंदी की थी, तब भी राणा प्रताप किले में नहीं थे। वे शाही फौजों के आने के पहले ही निकल गए थे। किले की रक्षा की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार जयमल के पास थी जो अकबर की बंदूक का निशाना बना था।

यह सही है कि हल्दीघाटी का युद्ध जीतने के बावजूद राणा प्रताप का ना पकड़ा जाना अकबर को  अच्छा नहीं लगा और वे कुछ दिनों तक मान सिंह से मिले नहीं। ऐसी भी अफ़वाहें थीं कि मान सिंह ने जानबूझकर अकबर को निकल जाने दिया क्योंकि उनका पुराना ख़ानदानी रिश्ता था। लेकिन बाद में इसका फ़ायदा मिला जब राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह मुगल दरबार में पाँच हज़ारी मनसबदार हो गए और उन्हें सिंध का सूबेदार बना दिया गया।

लेकिन बीजेपी को इतिहास से कोई लेना-देना नहीं। उसके लिए मुगलों और मेवाड़ की लड़ाई महज़ हिंदू-मुसलमान की लड़ाई है औऱ हिंदूराष्ट्र के प्रोजेक्ट की सफलता के लिए राणा प्रताप का जीतना ज़रूरी है, 441 साल बाद ही सही।

(लेखक पत्रकार और इतिहास के विद्यार्थी हैं)
 

Trending

IN FOCUS

Related Articles

ALL STORIES

ALL STORIES