जैसे-जैसे इस कहानी के ब्योरे आ रहे हैं, एक फिल्मकार होने के नेता मैं पुलिस वालों, मुख्यमंत्री और टीवी पर आने वाले बीजेपी के प्रवक्ताओं की ओर से पेश की जा रही इसकी स्क्रिप्ट, स्क्रीन प्ले और डायलॉग का विश्लेषण करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं।
सबसे पहले तो मैं उस बुनियाद के बारे में बता दूं, जिस पर सिनेमा टिका होता है। और वह यह कि सिनेमा में आप खुद को किसी अविश्वसनीय चीज के समर्पित कर देते हैं। मसलन, दर्शकों को यह मान लेना पड़ता है कि फिल्म में अभिनय करने वाला कोई सुपरस्टार एक साथ पचास लोगों को पीट सकता है । या फिर वह अपनी ओर चलाई गई गोली को दांतों से पकड़ सकता है। वह अगर अपने चेहरे पर मूंछें लगा ले तो उसकी मां भी उसे पहचान नहीं पाएगी। कहने का मतलब आप इन अविश्वसनीय चीजों पर स्वेच्छा से विश्वास करने को तैयार रहते हैं।
लेकिन मेरे प्यारे बीजेपी के समर्थकों और एमपी पुलिस वाले, बॉलीवुड से अभिभूत इस देश में आप सिमी मुठभेड़ कांड से जुड़ी जो कहानी और डायलॉग पेश कर रहे हैं वह बेहद घटिया दर्जे की है। आपके अंधभक्तों और कैडरों के सिवा कोई भी दूसरा शख्स इस तरह की अविश्वसनीय चीजों को स्वीकार नहीं करेगा।
पब्लिक तो सवाल करेगी ही (जैसा की अमर्त्य सेन ने ऑर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन्स में कहा है।) वह आपकी ओर से पेश कहानी को खारिज कर सकती है और इसे जो मोड़ आप देना चाहते हैं उसे भी नामंजूर कर सकती है। भारतीय संविधान के तहत उसे कई मौलिक अधिकार मिले हुए हैं। लेकिन इस देश के नागरिक अगर मौलिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं तो अपने कर्तव्य भी निभाते हैं। यही लोकतंत्र का असली चरित्र है।
हमारे माननीय गृह राज्य मंत्री लगता है कि ‘अज्ञानता के अंधकार लोक’ में विचरण करते हैं। अपने पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह वह भी अंध राष्ट्रवाद के नशे में रहते हैं। शायद इसीलिए वह बयान देते हैं कि सरकार से सवाल करना आपकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है। लगता है कि विपक्ष में रहते हुए उन्होंने सवाल न करने की कला में महारत हासिल कर ली है।
…. तो आइए देखते हैं कि शिवराज सिंह सरकार की पुलिस ने जिस भोपाल ‘मुठभेड़’ को अंजाम दिया है, उसकी परत दर परत असलियत क्या है।
जैसे-जैसे इस कथित ‘मुठभेड़’ के वीडियो सामने आ रहे हैं, वैसे-वैसे इसकी स्थिर तस्वीर (स्टिल पिक्चर्स) से सचाई भी सामने आ रही है।
इन चित्रों को देखने से पता चलता है क यह संयोग ही है कि हत्यारे और उनके शिकार दोनों एक ही तरह के और एक की कलर के जूते पहने हुए हैं। इसमें चौंकने वाली क्या है बात है। शायद कुछ भी नहीं।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जेल में कैदियों को बेल्ट, जूते और घड़ियां पहनने को नहीं दी जाती। सिमी के लोगों ने आखिर यह कहां से और कैसे हासिल कर ली। क्या जंगल में भागने से पहले उन्होंने बेहद सुरक्षा वाले तीन गेटों को पार कर जूते हासिल किए होंगे। या फिर इन जूतों को पहुंच कर जेल के वाच टावर पर चढ़ गए होंगे। या फिर वे जेल से एटीएस स्कवायड ऑफिस तक पहुंच कर छापा मारा होगा और वहां से उनके जूतों की सप्लाई से जूते ले लिए होंगे। फिर वहां से एक साथ वे पहाड़ी की चोटी पर पहुंच कर मारे जाने का इंतजार कर रहे होंगे।
अब आप कोई और सवाल न करें। जिन आठ लोगों को मार गिराया गया उनमें से से दो के पास देसी पिस्तौलें थीं। आखिर ये पिस्तौलें उन्हें कहां से मिलीं। उनके पास चाकू कहां से आए। क्या कुछ भ्रष्ट जेल कर्मचारियों ने उनके पास ये हथियार पहुंचाए।
या फिर सिमी के इन कथित आतंकवादियों को ये हथियार सड़क पर पड़े मिले। या फिर उनका कोई आदमी रास्ते में उन्हें यह हथियार देने के लिए खड़ा था। मारे गए लोग इतने मूर्ख क्यों थे कि कुछ सौ मील भागने के लिए न तो उन्होंने किसी एसयूवी का सहारा लिया और न ही किसी वैन का। राज्य से बाहर भागने या इसके लिए स्टेशन पहुंचने या फिर लंबी दूरी की कोई ट्रेन पकड़ने के लिए वह इनका सहारा ले सकते थे।
मिडिया रिपोर्टों के मुताबिक पुलिस की रिपोर्ट में कहा गया गया है के इन भगोड़े आतंकवादियों ने पुलिस वालों पर दो राउंड गोलियां चलाईं। जबकि पुलिस वालों ने जवाबी कार्रवाई में 27 राउंड गोलियां चलाईं। तो क्या कैदियों को दो पिस्तौलों में सिर्फ एक-एक गोली थी। कैसे मूर्ख थे वे कैदी।
एक वीडियो में एक पुलिस वाला मारे गए एक कैदी की कमर से एक पांच-छह इंच का चमकदार चाकूनुमा हथियार निकाल रहा है। वह शख्स जींस पहने है। आश्चर्य है कि इसे अपनी कमर में खोंस कर भागने वाले शख्स की कमर में इससे जरा सी खरोंच भी नहीं आई। जरा आप ऐसा करके तो देखिये। किचन में इस्तेमाल होने वाले अपने चाकू को जरा कमर में खोंस कर चल कर तो देखिये।
जेल तोड़ने की कहानी भी शोले की जय-बीरू की कहानी बन गई है। अंग्रेजों के जमाने के जेलर की कहानी की तरह। आइए देखते हैं कि इस कहानी की पटकथा सीन दर सीन कैसे लिखी गई।
दृश्य – 1– जेल ड्यूटी के दौरान रमाशंकर यादव पर सिमी के विचाराधीन कैदी हमला करते हैं। वे रमाशंकर की धारदार प्लेट से गला रेत देते हैं। लेकिन रमाशंकर यादव के सहयोगी और कथित गवाह चंदन अहीरवार को छोड़ दिया जाता है । उसे एक सेल में बंद कर दिया जाता है।
यह स्पष्ट नहीं कि सिमी के कितने हमलावरों ने यादव पर हमला किया। उस पर कैसे हमला हुआ। कुछ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि हमलावर सभी आठ लोग एक कोठरी या एक बैरक में बंद नहीं थे। ये भोपाल सेंट्रल जेल में अलग-अलग बांट कर रखे गए थे। आठ में से तीन को एक अलग सेल में रखा गया। अन्य तीन को दूसरी और दो अन्य को तीसरी सेल में रखा गया था। चलिये, इस थ्योरी के आधार पर मान लेते हैं कि तीन लोगों के एक गिरोह ने यादव पर हमला किया।
अब अगला सवाल यह है कि हमला आखिर हुआ कैसे। इस बारे में कोई विस्तृत जानकारी नहीं है और न ही जेल अधिकारियों ने कोई ब्योरा दिया है। जेल के अन्य कैदियों की भी कोई गवाही नहीं है। किन कैदियों के सामने यादव पर हमला हुआ।
लेकिन चलिये, पहले बगैर जांच के एमपी पुलिसकर्मियों के स्क्रीनप्ले के पहले दृश्य को मंजूर कर लेते है। इस दृश्य के मुताबिक कैदियों ने वार्डन पर हमला किया। उन्होंने उसके पास की चाबियां चुरा कर ताला खोला और अपने साथियों को छुड़ा लिया।
लेकिन वह नजदीक की जेल में कैद अपने लीडर अबु फैसल उर्फ डॉक्टर को छुड़ाना भूल गए। कैसे नौसिखिये और नासमझ थे वे। फिर भी चलिये मान लेते हैं कि वे बेहद जल्दबाजी में थे इसलिए ऐसा नहीं कर सके।
अगर यह माना जाए कि आठों कैदी एक साथ बैरक में बंद नहीं थे तो यह कहानी और भी दिलचस्प हो जाती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या उन्होंने एक बैरक तोड़ी फिर पूरी जेल में दौड़-दौड़ कर दूसरी बैरकों में बंद कैदियों छुड़वाया। क्या अलग-अलग बैरकों में हमले के दौरान उन्हें जेल के किसी कर्मचारी या गार्ड ने रोकने की कोशिश नहीं की। उन्हें सभी कोठिरयां की चाबी कहां से और कैसे मिली। किसने उन्हें सभी बैरकों और कोठिरयों की चाबी मुहैया करवाईं।
दृश्य 2 – लेकिन यहां से वे कैसे भागे? अंदर के जेल कर्मचारियों के पास पूरी जेल और उसकी एंट्री या मेन या बीच की दरवाजों की चाबी नहीं होती। उनके पास सिर्फ अपनी-अपनी सेलों की चाबी होती है। क्या सिनेमा प्रेमी इस थ्योरी के बारे में बता सकता है।
तो फिर कैदियों ने गेट नंबर 1, 2 और 3 को कैसे पार किया होगा। क्या इन गेटों पर कोई सुरक्षाकर्मी या हथियाबंद जेलकर्मी तैनात नहीं था।
तो फिर जेल तोड़ कर भाग रहे कैदियों ने कैसे गेट नंबर 1, 2 और 3 को पार कर किया। क्या इन गेटों पर कोई सुरक्षाकर्मी या हथियारबंद गार्ड नहीं था। पुलिसवालों की स्क्रीन-प्ले के मुताबिक कैदियों ने लकड़ी और मेटल चम्मचों की चाबियां बना ली थीं। क्या चाबियां भागने के दिन बनाई गई थी या पहले तैयार की गई थीं। या फिर जेल स्टाफ भागने के दौरान इन कैदियों खड़े-खड़े देखते रहे। क्या कैदी जब इन चाबियों को ट्राई कर रहे थे तब क्या इन्हें देखते रहे।.. और आखिरकार फिर इन कैदियों को जाने दिया। कैदियों ने यही तरीका गेट नंबर 2 और 3 पर भी दोहराया।
जो भी हो, बॉलीवुड की किसी भी फिल्म में जेल तोड़ने वाली किसी पटकथा में यह तरकीब नहीं आजमाई गई।
दृश्य 3 – पटकथा के मुताबिक कैदी 32 फीट ऊंची बाहरी दीवार बेडशीट के सहारे बनी सीढ़ियों के सहारे भाग गए। कल्पना कीजिये कि कोई शख्स इसके सहारे 32 फीट ऊंची दीवार की मुंडेर पर पहुंच गया और वहां से स्पोट् र्स शू में सही-सलामत नीचे छलांग भी लगा दी। आश्चर्य है कि ऐसी हरकत के दौरान किसी पुलिस गार्ड या स्टाफ ने उन्हें नहीं देखा। न ही वाच टावर से कोई उन्हें देख पाया। किसी सीसीटीवी कैमरे में ओलंपिक खेलों की तरह किए गए इस प्रयास को कैप्चर नहीं किया जा सका।
‘फर्स्टपोस्ट’ के मुताबिक मुंडेर में तार की बाड़बंदी होती है, जिसमें करंट प्रवाहित होता है। आश्चर्य है कि कैसे कैदी करंट से बच गए। क्या वे हैवल्स कंपनी का शॉकप्रूफ उपकरण अपनी जिंस और शर्ट में छिपाए हुए थे।
बॉलीवुड मूवी के हिसाब से भी यह बेहद बकवास स्क्रिप्ट है। अजय देवगन, रवीना टंडन, अनुपम खेर और परेश रावल भी इसे खारिज कर देते। लेकिन यह पटकथा मंजूर हो गई।
दृश्य चार – कैदी आईएसओ सर्टिफाइड भोपाल सेंट्रल जेल से भागे। इसके बाद उन्होंने क्या किया। उन्होंने टहलते हुए डेढ़ घंटे की दूरी सात-आठ घंटों में तय की। शायद उन्हें जल्दी नहीं थी। सब साथ थे। उन्होंने चार-चार के समूह में भी बंटने की नहीं सोची। या अलग दिशा में भी भागने के बारे में नहीं सोचा ताकि पकड़े न जा सकें। सब एक ही साथ भागे। क्या उनमें इतना विश्वास था कि वे पकड़े नहीं जाएंगे। या फिर वे मूर्खता कर रहे थे। अगर ऐसा था तो ‘दुर्दांत आतंकवादी’ कहे जाने वाले वे बड़े ही नौसिखिये या मूर्ख किस्म के थे। क्या ऐसे में उन्हें ‘मास्टरमाइंड’ कहा जा सकता है।
क्या स्क्रिप्ट लिखने वालों ने शॉसेंक रिडंप्शन, इस्केप टु विक्टरी जैसी कोई फिल्म देखी है या फिर फिर सीन कोनेरी, टीम रॉबिन्सन या फिर ट्रेवोल्टा स्केप के भागने के दृश्यों को देखा है। या फिर उन्होंने अपने अमित जी या शत्रुघ्न सिन्हा के पर्दे पर जेल तोड़ कर भागने के दृश्यों पर गौर फरमाया है। अगर ऐसा किया होता तो वे इतनी घटिया सिक्रप्ट नहीं लिखते।
दृश्य पांच- इस पटकथा में यह कहा जा रहा है कि आतंकवादियों ने खुद को रात को हथियारों से लैस किया। उनके पास दो देसी गन के अलावा चाकू थे। क्या सुरक्षा गार्डों से वे आमने-सामने की लड़ाई चाहते थे। आईजीपी चौधरी कहते हैं कि उनके लोग घायल हुए लेकिन शायद गोलियों से नहीं। उन पर शायद चाकू से हमला किया गया। शायद पुलिस की ओर से चली गोली में एक कैदी मारा गया होगा और एटीएस का एक बंदा यह देखने गया होगा कि उसे गोली लगी या नहीं। लाश का हाथ उठा होगा और उन पर गोली चला दी गई होगी। कैसी वाहियात स्क्रिप्ट है।
जीत का जश्न मना रहे आईजीपी योगेश चौधरी ने कैमरे के सामने कहा कि कैसे उनके लोगों ने आतंकियों का सामना किया। कैसे उनके लोगों ने 8 आतंकियों को ‘न्यूट्रलाइज’ किया। भले ही वे विचाराधीन कैदी हों और किसी भी कोर्ट की ओर से आतंकवादी गतिविधि के दोषी न करार दिए गए हों।
मध्य प्रदेश के गृह मंत्री ने अनजाने में ही यह स्वीकार किया कि आतंकवादियों के पास बंदूकें नहीं थीं। उन्होंने बरतनों से चाकूनुमा हथियार तैयार कर लिए थे। उनका यह बयान आतंकवादियों को मुठभेड़ में मार गिराने की पूरी कहानी की बखिया उधेड़ देता है।
जब यह ड्रामा हो रहा था तो उस दौरान एक स्थानीय सरपंच की ओर से बनाए जा रहे वीडियो में यह साफ दिख रहा था कि सादे कपड़ों में एक पुलिसकर्मी एक कैदी की बॉडी से एक छोटी कटार जैसा हथियार बरामद कर रहा है। जबकि कोई ऑफस्क्रीन गाली देते हुए कह रहा है कि अरे इसका वीडियो बन रहा है। एक आवाज कह रही है- इसकी छाती में गोली मारो।
इस कथित मुठभेड़ की कई वीडियो यू ट्यूब पर पड़ी हैं। इन सबमें में विचाराधीन कैदियों को पहाड़ी की चोटियों पर दिखाया गया और इनमें से किसी के भी आसपास कोई हथियार या बंदूक नहीं है।
इस घटना के चश्मदीद स्वतंत्र पत्रकार ने सीएम शिवराज सिंह चौहान को लिखा- कैदियों के पास भागने का कोई रास्ता नहीं था। कैदी थोड़ा से भी आगे बढ़ते तो नीचे सैकड़ों फीट गहरा गड्ढा था। वे घिर गए थे। वे आत्मसमर्पण करना चाहते थे। लेकिन उन्हें घेर कर बर्बर तरीके से मार डाला गया।
…और आखिर में
मध्य प्रदेश सरकार, एटीएस और पुलिस वालों आपको बेहतर स्क्रिप्ट राइटरों की जरूरत है। आपकी स्क्रिप्ट में कोई बड़े झोल हैं। आपको गुजरात मॉडल से तो कुछ सीखना चाहिए। 20-30 मुठभेड़ें, साफ-सुथरे तरीके से अंजाम दिए गए और स्पिन मैनेजमेंट का तरीका। सब कुछ सीखने लायक है। इसके अलावा उन्होंने जो इतिहास बनाया है वह भी दिखना चाहिए। गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहां फर्जी मुठभेड़ों के मामले में सबसे ज्यादा आईएएस और आईपीएस अफसर जेल में बंद रहे। एक और अहम बात यह कि अपने गृह मंत्री को कभी मुठभेड़ों को मॉनिटर न करने दें। इसमें वह सीधे जेल की हवा खा सकते हैं।
हमारी बात
एटीएस चीफ संजीव शामी ने भी कन्फर्म किया कि भाग रहे विचाराधीन कैदियों के पास कोई बंदूक नहीं थी (एनडीटीवी के श्रीनिवासन जैन के सामने उन्होंने बार-बार यह बात दोहराई)। एनडीटीवी के मुताबिक, शमी ने कहा कि उन्होंने दो दिन पहले जिन कैदियों के मुठभेड़ में मारे जाने की बात कही थी, उनके पास हथियार नहीं थे। पुलिस और कुछ अन्य सरकारी अफसरों ने उनकी इस बात का खंडन किया है। उन्हें इसके बारे में पता है लेकिन वे अपनी बात पर कायम हैं।
हालांकि शमी ने इन्हें मुठभेड़ में मार गिराने का समर्थन किया क्योंकि ये दुर्दांत अपराधी थे। मुख्यमंत्री, आईजीपी चौधरी और केंद्रीय मंत्रिमंडल के अन्य मंत्री अपने-अपने तरीके से मुठभेड़ को सही ठहरा रहे हैं। बीजेपी, मोदी और संघ भक्त इस पर सवाल उठाने वालों की भयंकर तरीके से ट्रॉलिंग कर रहे हैं। वेंकैया नायडू ने कहा कि इस बारे में सवाल उठाना देशभक्ति के खिलाफ है।
लेकिन इस प्रक्रिया में शीर्ष पुलिस अफसर और नेता सुप्रीम कोर्ट की ओर से फर्जी मुठभेड़ के बारे में दिए गए फैसले को नजरअंदाज कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में कथित रूप से फर्जी मुठभेड़ के 1528 मामलों में जुलाई, 2016 को दिए फैसले में कहा- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुठभेड़ का शिकार कोई उग्रवादी, आतंकवादी या आम आदमी था या फिर हमलावर कोई आम आदमी या राज्य था। कानून दोनों पर समान रूप से लागू होता है। दोनों पर समान कानून लागू करना डेमोक्रेसी के लिए लाजिमी है।, मणिपुर के इन कथित फर्जी मुठभेड़ों को कहीं पुलिस ने तो कहीं आर्मी ने अंजाम दिया था। एक फैसले में तो ऐसे मुठभेड़ों को अंजाम देने वाले पुलिस वालों के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी । इसे न्यूरमबर्ग के नाजी युद्ध अपराधियों की करतूत के बराबर माना गया था, जिन्होंने अपना अपराध अपने से ऊपर के अधिकारियों को दोषी बता कर छिपाना चाहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 मई, 2011 को प्रकाश कदम बना रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता मामले में कहा था जिन फर्जी मुठभेड़ों के मामले में पुलिसकर्मियों के खिलाफ अपराध साबित हो जाता है, उन्हें रेयरेस्ट ऑफ रेयर मान कर मौत की सजा दी जानी चाहिए। फर्जी मुठभेड़ कानून के रखवालों की ओर से की गई जघन्य हत्या के सिवा और कुछ नहीं है।
2011 के इस फैसले को लिखने वाले जस्टिस काटजू ने भोपाल मुठभेड़ कांड पर टीवी पर कहा कि दोषियों को फांसी की सजा दी जाए।
बहरहाल, यह कहानी अब खत्म हो चुकी है। बाकी है सिर्फ भारत के लोकतंत्र, इसकी न्यायिक प्रणाली, एनआचआरसी जैसे इसके सांस्थानिक निकायों और भारत के लोगों को कसौटी पर कसे जाने की कवायद।
मैंने मालेगांव विस्फोट के मामले में गिरफ्तार निर्दोष मुस्लिमों से विस्तार से बातचीत की थी ( इनमें से दो डॉक्टर थे)। उन्होंने साढ़े पांच साल जेल में बिताए थे। इस दौरान उन पर असहनीय अत्याचार हुए। उन्हें नार्को टेस्ट से गुजारा गया और कई बार गलती स्वीकारने के लिए अदालत में पेश किया। अगर वह किसी मुठभेड़ में मारे जाने या फांसी की सजा से बच गए तो इसलिए कि उस समय हेमंत करकरे जैसे एक न्यायप्रिय पुलिस अधिकारी ने एटीएस की जिम्मेदारी संभाली थी और मालेगांव विस्फोट की कलई खोल दी थी। 2008 के इस मामले में साध्वी प्रज्ञा, स्वामी असीमानंद और कर्नल पुरोहित जैसे कट्टरपंथी हिंदू गिरफ्तार हुए थे। इसके बाद भी इस मामले में निर्दोष मुस्लिम 2011 तक जेल में सड़ते रहे। आखिर में 2016 मई में इन लोगों को मकोका के स्पेशल कोर्ट से राहत मिली।
आप इस पर हैरत जता सकते हैं कि मालेगांव और भोपाल मुठभेड़ कांड को मिलाने का क्या तुक है। लेकिन आप देख रहे हैं दोनों मुठभेड़ों में एटीएस का दावा रहा है कि मारे गए लोग सिमी से जुड़े थे। सिमी यानी आतंकियों का पर्याय। कोई आश्चर्य नहीं कि बीजेपी के लिए दोनों एक ही हैं।
(लेखक मशहूर डॉक्यूमेंट्री फिल्म–मेकर हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए 2002 के दंगों पर इनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘फाइनल सॉल्यूशन’ खासी चर्चित रही है। )