जब एक कमज़ोर सरकार कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दे, तो लोकतंत्र नाम मात्र ही रह जाता है और तानाशाही एवं फासीवाद प्रबल हो जाता है. एम.एफ. हुसेन जिनकी गिनती विश्व विख्यात कलाकारों में की जाती है, उन्हें अपने ही देश से निर्वासित होने पर मजबूर किया गया था. सारा विश्व स्तब्ध था और कथाकथित संविधान के संरक्षक मूकदर्शक बने हुए थे.
उनकी मनभावन आत्मकथा में मध्य प्रदेश के इंदौर की सार्वजनिक संस्कृति की दुर्लभ झांकी मिलती है, जिसमे एम.एफ. हुसेन की रामलीला में भागीदारी का रमणीय वर्णन है.
सबरंग इंडिया को हुसेन की ये उत्कृष्ट गाथा एवं रेखाचित्र फोटोग्राफर राम रहमान द्वारा प्राप्त हुए हैं.
एम. एफ़.हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी: रामलीला
अक्तूबर का महीना है, मालवी गेहूँ खेतों में खड़ा है। धूप अच्छी लगने लगी है। शाम ढले दादा लड़के की गर्दन में ब्लू मफ़लर लपेट दिया करते और वह दौड़ता हुआ मोहल्ले की रामलीला देखने पहुँच जाता। यह कोई नाटक कम्पनी नहीं, जहाँ टिकट लेना पड़े।
एक प्राइमरी स्कूल का अहाता। इमली के पेड़ तले माँगी हुई चंद लालटेनें और धोबन से ली हुई साड़ियों का 'बैकड्राप'। ज्यों ही बेलन से थाली बजी, खेल शुरू हुआ। वह पानवाले शंकर का भाई, स्कूल के ड्रिल मास्टर की निकर पहने हनुमान बन जाता, सिर्फ़ चेहरे पर धूल मले। हाँ, रावणजी तो वह मोटा मिटठू लगे जो आटा पीसने की चक्की पर बैठें है। केकई कौन बना लड़का उसे पहचान न सका। एक तो औरत बने ऊपर से कलुए मुँह पर राख मल कर नख़रे करे। कासिम मियाँ इंदौर छावनी के शादी ब्याह के बैंड मास्टर लेकिन रामलीला के लिए ढोल और बाँसुरी का सुर मिलाते हैं।
वह रामलीला से लौटती भीड़ में घिरा लड़का चलते चलते अपने आप को इस खेल के किसी एक पात्र में ढूँढना चाहता है। घर पहुँचने में जान बुझ कर देर करता है ताकि जितने पात्र हैं, अपने ख़्याली स्टेज पर थोड़े थोड़े अदा कर ले। मगर आज वही रामलीला जब दिल्ली के जगमगाते स्टेज पर देखता है तो घर लौटते वक्त उसे शंकर पानवाले का भाई, चक्कीवाला मोटा मिटठू और कासिम बैंड मास्टर याद आते हैं।
इंदौर की रामलीला से डाक्टर राम मनोहर लोहिया होते हुए वह लड़का कैसे बाल्मीकि और तुलसीदास तक पहुँचता है। यह ज़माना है, पाँचवी दशक के आख़िरी हिस्से का। हैदराबाद के रईस पन्नालाल पित्ती का राजभवन के पड़ोस में आलीशान मोती भवन, इनके बेटे बदरीविशाल भवन के ऊपरी हिस्से में गावतकियों के बीच विराजमान। दोपहर के भोजन का समय, डाक्टर राम मनोहर लोहियाजी के आगमन का वक्त। गावतकियों के चारों तरफ़ खादी-धारी, बन्डियों पर समाजवादी फीते लगाए, अदब से खड़े हैं। वह लड़का बदरीविशाल के कलमदान से एक कलम निकाल कर इस मंज़र को कलमबंद करता है। डाक्टर लोहिया का स्केच उनके झुँझलाए खड़े बालों से शुरू होकर, मिची मिची शरारती आँखें ढूंढता हुआ नथनों से बहुत नीचे होठों पर आ रुका। लोहियाजी की बाँछे खिल गईं, ज्योंही लड़के और उसके स्केच को देखा। लड़के को ज़ोर से बग़ल में भींच लिया और वह भींच बरसों ढीली नहीं पड़ी।
एक शाम लोहियाजी को वह लड़का जामा मस्जिद के करीम होटल ले गया क्योंकि उन्हें मुग़लई खाना, शीरमाल, वगैरह बहुत पसंद थी। लोहियाजी को जवाहरलाल नेहरू का एक पोर्ट्रेट याद आया जो लड़के ने नेहरूजी के घर जाकर किया था। लोहियाजी ने क़ोरमे की प्लेट को चम्मच से हल्के हल्के खनखनाते हुए लड़के की तरफ़ देखा और बोले – "यह तुम्हें क्या सूझी कि नेहरू का पोर्ट्रेट बनाने बैठ गए। हाँ, एक पोर्ट्रेट जो 'इलस्ट्रेटड विकली' में छपा है वह इसलिए ठीक लगा कि उसमें नेहरू डूबता दिखाई देता है, जैसे पानी गले तक चढ़ गया हो। "
"लोहियाजी", लड़के ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। "माडर्न आर्ट का यही तो एक मज़ेदार पेचीदा पहलू है कि देखने वाला अपनी मर्ज़ी और मिज़ाज में तस्वीर को ढालने का हक़ रखता है, जबकि फ़ोटोग्राफ़ी की स्थिरता में कल्पना की ज़्यादा गुंजाइश नही। एक लिहाज़ से माडर्न आर्ट का मिज़ाज अमीराना नहीं बल्कि डेमोक्रेटिक है। जैसे कि देखने में, व्यक्तित्व शहाना हो, लकीरों का तनाव खुद्दारी का ऐलान करता हो, रंगो की शोख़ी स्वाभिमान से सम्पूर्ण हो।"
लोहियाजी ने लड़के की पीठ थपकी जैसे शाबाशी दी हो और विषय बदलते हुए पूछा – "यह जो तुम बिरला और टाटा के ड्रॉइंगरूम में लटकने वाली तस्वीरों में घिरे हो, ज़रा बाहर निकलो। रामायण को पेन्ट करो। इस देश की सदियों पुरानी दिलचस्प कहानी है। गाँव गाँव गूँजता गीत है, संगीत है और फिर इन तस्वीरों को गाँव गाँव ले जाओ। शहर के बन्द कमरे जिन्हें आर्ट गैलरी कहा जाता है, लोग वहाँ सिर्फ पतलून की जेबों में हाथ डाले खड़े रहते हैं। गाँव वालों की तरह तस्वीरों के रंग में घुल मिल कर नाचने गाने नहीं लगते। "
लोहियाजी की यह बात लड़के को तीर की तरह चुभी और चुभन बरसों रही। आख़िर लोहियाजी की मौत के फ़ौरन बाद उनकी याद में रंग भरे और कलम लेकर बदरीविशाल के मोती भवन को तक़रीबन डेढ़ सौ 'रामायण' पेन्टिंग से भर दिया। दस साल लगे कोई दाम नहीं माँगा, सिर्फ़ लोहियाजी की ज़बान से निकले शब्दों का मान रखा।
This 27 minute film made by the Film’s Division by director, Santi P. Chowdhury in 1976, A Painter of Our Time-Hussain, has, towards the end the iconic painter’s rendering of the Lohia Ramayan mela at the end