'गुजरात फाइल्सः एनाटोमी ऑफ अ कवर अप' नामक किताब गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में लीपापोती को दर्ज करने वाला एक जीवंत और रोचक संस्मरण है। 'तहलका' के पत्रकार रहे राना अयूब ने अमेरिका में जन्मी एक फिल्म निर्देशक 'मैथिली त्यागी' के रूप में वरिष्ठ पुलिस अफसरों समेत महत्त्वपूर्ण हस्तियों का इंटरव्यू लिया।
राना को इसके लिए धमकियों और अवसाद का सामना करना पड़ा। इस किताब का लोकार्पण दिल्ली में 27 मई को है। इसी किताब में 2002 में गुजरात दंगों के दौरान गुजरात के गृह सचिव रहे अशोक नारायण के साथ बातचीत है। इस बातचीत में नारायण ने दंगों से निपटने के नरेंद्र मोदी के तौर-तरीकों के बारे में बताया है। बातचीत के संक्षिप्त अंशः
प्र- आप सन्न रह गए होंगे जब मुख्यमंत्री ने आपको दंगों को नियंत्रित करने के मामले में 'धीमे चलने' को कहा होगा।
उ- उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया और न कभी कुछ लिखित में दिया। उनके पास 'अपने लोग' थे, उनके जरिए संदेश विहिप तक पहुंचता था, और उसके बाद अनौपचारिक माध्यमों के जरिए पुलिस के निचले अधिकारियों तक।
प्र- और तब आपने खुद को असहाय महसूस किया होगा?
उ- बिल्कुल, तब हम कहते कि ऐसा क्यों हो रहा! लेकिन तब तक कोई घटना हो चुकी होती।
प्र- और विभिन्न जांच समितियों के लिए कोई साक्ष्य भी नहीं है..!
उत्तर- कई बार सरकार के मंत्री सड़कों पर खड़े होकर भीड़ को उकसा रहे होते थे। ऐसा एक वाकया हुआ जब मैं भी मुख्यमंत्री के कमरे में बैठा था और हमें एक घटना की सूचना मिली। मैंने उन्हें बताया कि यह एक मंत्री की हरकत है। उन्होंने उस मंत्री को वापस बुलवाया। कम से कम उस वक्त उन्होंने किसी को वापस तो बुलवाया?
प्र- क्या वह मंत्री भाजपा का था?
उ- हां, निश्चित रूप से। वह उनका अपना मंत्री था।
प्र- वहां एक माया कोडनानी भी थी। मैंने सुना है कि वह सरकार विरोधी हो गई।
उत्तर- हां, वह भी वहां रही होंगी।
प्र- यह उन्माद था?
उ- मैं आपको एक बात पहली बार बता रहा हूं। मैं एक मुसलिम प्रशासनिक अधिकारी को जानता हूं। उनका मुझे फोन आया। उन्होंने कहा कि सर मुझे बचा लीजिए। मेरे घर को घेरा जा रहा है। मैंने पुलिस कमिश्नर को फोन मिलाया। उन्होंने इसे रेकॉर्ड किया या नहीं, मुझे नहीं पता। लेकिन वह आदमी बच गया। अगले दिन उस अधिकारी का फिर फोन आया। उसने बताया कि सर, कल तो मैं किसी तरह बच गया, लेकिन लगता है कि आज नहीं बच पाऊंगा। लिहाजा, मैंने पुलिस कमिश्नर को फिर फोन किया और उसे बचाने को कहा। पंद्रह दिन बाद उस अधिकारी ने मेरे केबिन में आकर बताया कि रोजाना एक ही कहानी दोहराई जाती थी। कॉलोनी में हिंदुओं का वर्चस्व था और मुसलमान मारे जा रहे थे। उसने बताया कि 'जब आपने फोन किया, पुलिस आई। और उस दौरान एक मंत्री बाहर खड़ा भीड़ का नेतृत्व कर रहा था। पुलिस अफसर ने उसे सलाम किया। उसने पुलिस अफसर को देखते ही कहा कि यहां सब ठीक है। एक पुलिस अधिकारी ने मुझे पहचाना और बचाया।'
प्र- किसी में हिम्मत नहीं थी कुछ करने की?
उ- नहीं, किसी में नहीं।
प्र- मंत्रियों के खिलाफ कारर्वाई कौन करेगा?
उ- मैं आपको बताता हूं। गृह सचिव के पद से हटने के बाद मैं विजिलेंस कमिश्नर था। आपको मालूम होगा कि हर राज्य में मंत्रियों और राजनीतिकों पर निगरानी रखने के लिए एक लोकायुक्त होते हैं। लेकिन मंत्रियों के खिलाफ शिकायत करने कोई नहीं पहुंचा। और जब घूसखोरी और भ्रष्टाचार में मामले में मंत्रियों के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करने आता तो दंगों में शामिल मंत्रियों के खिलाफ हिम्मत कहां से आएगी। किसकी शामत आई है। इस किस्म के मंत्री बहुत सयाने होते हैं। बहुत चतुराई से बात करते हैं और अफसरों को फोन करते हैं और कहते हैं कि अच्छा… उस इलाके को देख लेना। वे खुद कुछ नहीं करते। उनके एजेंट होते हैं। आपने भीड़ के खिलाफ एफआईआर देखे होंगे। लेकिन आप भीड़ को कैसे गिरफ्तार करेंगे!
प्र- लेकिन दंगों की जांच के लिए कई कमीशन भी बने। उन सबका कोई फायदा नहीं हुआ?
उ- एक नानावटी कमीशन बना था। उसमें से तो अभी तक कुछ नहीं निकला। अभी तक किसी मसले पर कोई रिपोर्ट तक नहीं आ पाई। जब मैं गृह सचिव था, मैंने एक आदेश दिया था कि बगैर लिखित आदेश के कोई कार्रवाई न की जाए। जब बंद का आह्वान किया गया, तब तत्कालीन मुख्य सचिव सुब्बा राव ने मुझसे कहा कि विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया रैली निकालना चाहते हैं। क्या सोचते हैं, क्या किया जाए। मैंने कहा कि सर, इस किस्म की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे हालात बेकाबू हो जाएंगे।
मुख्यमंत्री को जब इसका पता चला तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप ऐसा कैसे कहते हैं। हमें उन्हें अनुमति देनी होगी। मैंने कहा कि ठीक है सर, कृपया मुझे लिखित आदेश दे दीजिए। मोदी मेरा चेहरा देखते रहे!
प्र- तो क्या आप उस विवादास्पद मीटिंग में नहीं थे, जिसमें मुख्यमंत्री ने अफसरों और नौकरशाहों को (दंगों पर नियंत्रण के मामले में) 'धीरे चलने' को कहा था?
उ- हां-हां, मैं उस मीटिंग में था।
प्र- मुख्यमंत्री क्या ऐसा इसलिए कर रहे थे कि वे भाजपा के साथ थे?
उ- नहीं, दरअसल, दंगों के दौरान उन्होंने वीएचपी का समर्थन किया था। उन्होंने ऐसा हिंदू वोटों के लिए किया, जो उन्हें मिला भी। वे जो चाहते थे, उन्होंने वह किया और वही हुआ।
प्र- बाहर के लोगों को इस मीटिंग के बारे में कैसे पता चला?
उ- तब वहां एक मंत्री हरेन पंड्या थे। वे पहले शख्स थे, जिन्होंने मीडिया को यह बताया।
प्र- मोदी की छवि कैसी है? क्या उनकी भूमिका पक्षपातपूर्ण नहीं थी?
उ- वे गोधरा की घटना के लिए खेद जाहिर कर सकते थे, वे दंगों के लिए माफी मांग सकते थे।
प्र- मुझे बताया गया था कि मोदी ने पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई थी, मसलन, गोधरा से शवों को लाने देने और फैसले करने में टालमटोल।
उत्तर- मैंने बयान दिया था कि शवों को अहमदाबाद लाने देने के जिस फैसले से ही सब कुछ भड़क उठा, उसे तय करने वालों में वे भी थे।
इस बातचीत से कोई भी साधारण आदमी यह समझ सकता है कि गुजरात दंगों के दौरान राज्य प्रशासन की क्या भूमिका थी। अशोक नारायण ने जो मुझे बताया, हममें ज्यादातर लोग उसे पहले से जानते थे, लेकिन यह बात किसी आधिकारिक चेहरे ने अब तक नहीं कही थी।
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