जल-संकट-2 (साबलखेड़-योगिता के गांव): बारिश किस चिड़िया का नाम?

हम सबको बारिश बहुत अच्छी लगती है न! सिनेमा के परदे पर जब नायक बारिश में भीगता हुआ नायिका के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखता है, हम उसमें अपने-आप को ढूंढने लगते हैं. अगर आप उत्तर भारतीय हैं तो याद कीजिये कितनी दफ़ा बारिश में नहाये हैं, कितनी दफ़ा बारिश के जमा पानी में कागज़ के नाव बनाकर तैरा चुके हैं. मतलब कि आपने बारिश के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की होगी. वहीं देश में ऐसे हिस्से भी हैं जहाँ के लोगों ने सालों से बारिश नहीं देखी. उनकी कल्पनाओं की ज़मीन भी गांवों की ज़मीनों की तरह बंजर हो चुकी है.बीड़ भी ऐसी ही जगहों में से एक है.
लातूर बसस्थानक-2 से रवाना हुआ बीड़ के लिए. हम जैसे हिंदी पट्टी के लोगों के लिए महाराष्ट्र के ठेठ ग्रामीण क्षेत्रों में घुसते ही भाषा रोड़ा बनने लगती है और दुभाषिये की ज़रूरत पड़ने लगती है. जब किसी का दर्द महसूस करने में भाषा रोड़ा बनने लगे तो समझना चाहिए कि समाज के तौर पर हम हार रहे हैं.ऐसा मुझे लगता है, आप न मानने के लिए स्वतंत्र हैं.खैर, बीड़ के अष्टी तालुका(तहसील) में साबलखेड़ नाम का एक गाँव है. यह योगिता का गांव है. योगिता वह बच्ची जिसकी मौत कुछ रोज़ पहले पानी के लिए चक्कर लगाते वक़्त ‘सनस्ट्रोक’ से हो गई. लातूर से बस पकड़ हम पहुंचे मांजरसुंबा. बस बदलकर वहां से अष्टी बसस्थानक और फिर कड़ा. साबलखेड़ से 2.5-3 किमी पहले पड़ने वाले कड़ा बसस्थानक पर साइनाथ पान शॉप चलाने वाले शिवाजी मिले. शिवाजी के पास लगभग 3 एकड़ ज़मीन है. पर 5-6 साल से खेती छोड़ दी, कारण बताया कि कुछ हो ही नहीं रहा था खेत में और क़र्ज़ बढ़ता जा रहा था. अब दुकान डाल ली है और भविष्य में किसानी करने का कोई इरादा नहीं रखते. पानी का पूछने पर बताया कि अब रोज़ नहाना छोड़ दिया है उनके घरवालों ने. क्योंकि पीने के लिए ही बहुत मुश्किल से पानी का जुगाड़ हो पाता है. सप्लाई का पानी आता नहीं, टैंकर का पानी हफ्ते-दस दिन में आता है. कभी 150 लीटर तो कभी 200 लीटर पानी मिलता है. अक्सर खरीदकर पानी लाना पड़ता है. 350-400 रूपये में 1000 लीटर रेट से पानी खरीदना पड़ता है. अगर इस बार भी पानी नहीं बरसा तो क्या करेंगे के सवाल पर शिवाजी कहते हैं कि ‘खेती ख़त्म हो गई कबका, अब पीने का पानी तक नहीं है तो क्या करेंगे इधर रहकर? जान ही नहीं बचेगी तो घर-ज़मीन का क्या करेंगे?’कहाँ जायेंगे के सवाल पर कहते हैं कि ‘जहाँ पानी होगा उधर जायेंगे’.
साबलखेड़ गांव के दुआर पर ही दत्तू माणी मिले. बताया कि 4 साल से बारिश नहीं देखी. दत्तू मछुवारा समुदाय से आते हैं, मजदूरी करते हैं. बताते हैं कि काम नहीं मिलता आजकल. खोजने के लिए 50-60 किमी दूर तक भी जाना होता है. कई बार कोई ठेकेदार आता है और गाड़ी(ट्रैक्टर) बैठा कर ले जाता है. काम नहीं है बोल कर कम पैसे में काम करवाया जा रहा है. औसतन 200 रूपये दिहाड़ी दी जा रही है और काम मिलता है 8-10 दिन में एक बार. दत्तू भाऊ के पास घर के अतिरिक्त कोई ज़मीन नहीं.दत्तू भाऊ से बात करते-करते गांव के ही शेख़नूरुद्दीन रमज़ान मिल गए.शेख़नुरुद्दीन 80 किमी दूर अरंगांव के पास से मजदूरी करके आ रहे थे. शेख़नुरुद्दीन ने बताया कि गांव के लोग घर का सारा सामान मसलन सब्जी, अनाज सबकुछ 40 किमी दूर अहमदनगर से आता है. पूरा गांव मजदूरी पर निर्भर है. जिनके पास खेती हुआ करती थी अब 5 साल से साफ़ हो चुकी है. अब सभी मजदूर हैं. गांव में 2-4 रोज़ पर पानी का टैंकर आता है और गांव के बीचोबीच बनी टंकी (6500 लीटर) में पानी भर के चला जाता है. गांव के वह परिवार जो बाकियों की तुलना में मजबूत हैं उन्होंने मोटर लगवा रखा है; टंकी से पानी जल्दी खींच लेते हैं और बाकी बचे-खुचे पानी से काम चलाते हैं. 100-150 लीटर पानी मिल पाता है, कई बार नहीं भी मिलता. गांव के पास और कोई जलस्रोत नहीं बचा. सब सूख चुका है.

योगिता के घर की एक फोटू
योगिता के घर के दरवाज़े पर ही पिता अशोक मिल गए.द्वार पर ही कई महिलायें बैठी थीं जिनमें योगिता की माँ भी थी.माँ से बात करने की हिम्मत नहीं हुई मेरी.घर के दरवाजे पर ही छप्पर के नीचे एक बकरी बंधी हुई थी.छप्पर की बल्ली से एक प्लास्टिक का डिब्बा लटका हुआ था जो पक्षियों को पानी पिलाने के लिए था.डिब्बे को योगिता ने लटकाया था.पिता अशोक ने बताया कि 5 साल से इनकी खेती नष्ट हो चुकी है और इन्हें भी मजदूरी करनी पड़ती है. योगिता गांव की टपरी से ही घड़े में पानी भरकर ला रही थी और तीसरे चक्कर में गश खाकर गिरी और अस्पताल(धानूरा) में दम तोड़ गई. योगिता की उम्र 11 साल थी, पांचवीं में पढ़ती थी. योगिता का भाई योगेश 15 साल का है और नवीं कक्षा में पढ़ता है. पिता अशोक बता रहे थे कि दस दिनों से काम नहीं मिला है और मैं देख रहा था कि योगेश 15 साल का है और देखने में 8-9 साल का लगता है. पता किया तो बताया कि 11 साल की योगिता 5-6 साल की दिखती थी. दिमाग में तूफ़ान उठा तो नज़र फिराया, आस-पास मौजूद लोगों को ध्यान से देखने लगा. गांव के बारे में बता रहे अल्ताफ़ शेख़ जिन्हें मैं 17-18 साल का लड़का समझ रहा था, वह 28 साल के निकले. अल्ताफ़ की शादी हो चुकी है और एक बच्चा भी है. 12 वीं के बाद पढ़ाई छूटी और मजदूरी करने लगे. अल्ताफ़ ने बताया कि सारे गांव के बच्चे ऐसे ही कमजोर हैं. बच्चे देश का भविष्य होते हैं ये जुमला बहुत पुराना है, आपने भी सुना होगा.
आप विदर्भ की किसान आत्महत्याओं के बारे में जानते होंगे, जानते नहीं होंगे तो सुना तो ज़रूर होगा. बाद में भले ही अनसुना कर दिया हो. पूरे विदर्भ में आपको बच्चे इसी तरह कुपोषण का शिकार मिलेंगे. मैं कालाहांडी की बात नहीं कर रहा. विदर्भ महाराष्ट्र में आता है. हमारा प्रधानमंत्री सोमालिया की बात करता है पर साबलखेड़ जैसे गांव का पता नहीं रखता.हालाँकि मुझे सरकारों से अपेक्षा नहीं रहती पर मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ‘मेक इन इंडिया’ में योगिता-योगेश जैसे बच्चों की जगह है?

हम देश का नाम लेते हैं और हमारी भुजाएँ फड़कती हैं, हमारा सीना गर्व से फूल जाता है.क्या हमारे सीने पर साबलखेड़ का कोई बच्चा सर रख सकता है? अगर नहीं तो देश के मायने क्या होते हैं फिर? मुझे याद आ रहा है जब मैंने फेसबुक पर साबलखेड़ से ही एक पोस्ट लिखा था तो किसी ने कमेंट किया था कि जब खाने को नहीं तो बच्चे क्यों पैदा करते हैं ये. मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया था क्योंकि यह कमेंट अच्छे दिनों का प्रतिनिधि कमेंट है.यह हुंकार है कि ऐसे हैं अच्छे दिन. गांवों में बिजली है, घर के सामने से सड़क गुज़रती है. यही तो है विकास. विकास का काम थोड़ी न है थाली में खाना परोसना, पानी पीने को देना. बच्चों का पोषण भी विकास की ज़िम्मेदारी नहीं है.दत्तू भाऊ के घर चाय पीते वक़्त उनके 5 साल के भतीजे नागेश ने मुझसे पूछ लिया था, बारिश क्या होती है? मैंने कोई जवाब नहीं दिया. यह मानकर चलना चाहता हूँ कि नागेश को हिंदी नहीं आती. इसलिए उसे बारिश का मतलब नहीं पता.
यह सब लिखते-लिखते मैं ख़ाली हो गया हूँ. मुझे नहीं पता मैं क्या लिख रहा हूँ. इतना शर्मिंदा हूँ कि डूब के मर जाना चाहता हूँ, पर यहाँ तो चुल्लू भर पानी भी नहीं मांग सकता किसी से. कड़ा बसस्थानक पर योगिता के चाचा ईश्वर और अल्ताफ़ छोड़ने आये हैं. बस आने में लेट है और मैं नज़र बचाने में व्यस्त हूँ. ईश्वर भाऊ कह रहे हैं चाय पीने को और मैं बीड़ी के धुंए के साथ खर्च हो रहा हूँ. अचानक बस आती दिख रही है और अल्ताफ़ गले लगकर भावुक हो गया है. कह रहा है बात करते रहियेगा फ़ोन पर. मैं सोच रहा हूँ उसने ये क्यों कहा मुझसे....

Images: Devesh Tripathi and Anupam Sinha
जल-संकट (लातूर-शहर) -1 : यह हमारी सभ्यता के अंत की शुरुआत है
जल-संकट-2 (साबलखेड़-योगिता के गांव): बारिश किस चिड़िया का नाम?

हम सबको बारिश बहुत अच्छी लगती है न! सिनेमा के परदे पर जब नायक बारिश में भीगता हुआ नायिका के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखता है, हम उसमें अपने-आप को ढूंढने लगते हैं. अगर आप उत्तर भारतीय हैं तो याद कीजिये कितनी दफ़ा बारिश में नहाये हैं, कितनी दफ़ा बारिश के जमा पानी में कागज़ के नाव बनाकर तैरा चुके हैं. मतलब कि आपने बारिश के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की होगी. वहीं देश में ऐसे हिस्से भी हैं जहाँ के लोगों ने सालों से बारिश नहीं देखी. उनकी कल्पनाओं की ज़मीन भी गांवों की ज़मीनों की तरह बंजर हो चुकी है.बीड़ भी ऐसी ही जगहों में से एक है.
लातूर बसस्थानक-2 से रवाना हुआ बीड़ के लिए. हम जैसे हिंदी पट्टी के लोगों के लिए महाराष्ट्र के ठेठ ग्रामीण क्षेत्रों में घुसते ही भाषा रोड़ा बनने लगती है और दुभाषिये की ज़रूरत पड़ने लगती है. जब किसी का दर्द महसूस करने में भाषा रोड़ा बनने लगे तो समझना चाहिए कि समाज के तौर पर हम हार रहे हैं.ऐसा मुझे लगता है, आप न मानने के लिए स्वतंत्र हैं.खैर, बीड़ के अष्टी तालुका(तहसील) में साबलखेड़ नाम का एक गाँव है. यह योगिता का गांव है. योगिता वह बच्ची जिसकी मौत कुछ रोज़ पहले पानी के लिए चक्कर लगाते वक़्त ‘सनस्ट्रोक’ से हो गई. लातूर से बस पकड़ हम पहुंचे मांजरसुंबा. बस बदलकर वहां से अष्टी बसस्थानक और फिर कड़ा. साबलखेड़ से 2.5-3 किमी पहले पड़ने वाले कड़ा बसस्थानक पर साइनाथ पान शॉप चलाने वाले शिवाजी मिले. शिवाजी के पास लगभग 3 एकड़ ज़मीन है. पर 5-6 साल से खेती छोड़ दी, कारण बताया कि कुछ हो ही नहीं रहा था खेत में और क़र्ज़ बढ़ता जा रहा था. अब दुकान डाल ली है और भविष्य में किसानी करने का कोई इरादा नहीं रखते. पानी का पूछने पर बताया कि अब रोज़ नहाना छोड़ दिया है उनके घरवालों ने. क्योंकि पीने के लिए ही बहुत मुश्किल से पानी का जुगाड़ हो पाता है. सप्लाई का पानी आता नहीं, टैंकर का पानी हफ्ते-दस दिन में आता है. कभी 150 लीटर तो कभी 200 लीटर पानी मिलता है. अक्सर खरीदकर पानी लाना पड़ता है. 350-400 रूपये में 1000 लीटर रेट से पानी खरीदना पड़ता है. अगर इस बार भी पानी नहीं बरसा तो क्या करेंगे के सवाल पर शिवाजी कहते हैं कि ‘खेती ख़त्म हो गई कबका, अब पीने का पानी तक नहीं है तो क्या करेंगे इधर रहकर? जान ही नहीं बचेगी तो घर-ज़मीन का क्या करेंगे?’कहाँ जायेंगे के सवाल पर कहते हैं कि ‘जहाँ पानी होगा उधर जायेंगे’.
साबलखेड़ गांव के दुआर पर ही दत्तू माणी मिले. बताया कि 4 साल से बारिश नहीं देखी. दत्तू मछुवारा समुदाय से आते हैं, मजदूरी करते हैं. बताते हैं कि काम नहीं मिलता आजकल. खोजने के लिए 50-60 किमी दूर तक भी जाना होता है. कई बार कोई ठेकेदार आता है और गाड़ी(ट्रैक्टर) बैठा कर ले जाता है. काम नहीं है बोल कर कम पैसे में काम करवाया जा रहा है. औसतन 200 रूपये दिहाड़ी दी जा रही है और काम मिलता है 8-10 दिन में एक बार. दत्तू भाऊ के पास घर के अतिरिक्त कोई ज़मीन नहीं.दत्तू भाऊ से बात करते-करते गांव के ही शेख़नूरुद्दीन रमज़ान मिल गए.शेख़नुरुद्दीन 80 किमी दूर अरंगांव के पास से मजदूरी करके आ रहे थे. शेख़नुरुद्दीन ने बताया कि गांव के लोग घर का सारा सामान मसलन सब्जी, अनाज सबकुछ 40 किमी दूर अहमदनगर से आता है. पूरा गांव मजदूरी पर निर्भर है. जिनके पास खेती हुआ करती थी अब 5 साल से साफ़ हो चुकी है. अब सभी मजदूर हैं. गांव में 2-4 रोज़ पर पानी का टैंकर आता है और गांव के बीचोबीच बनी टंकी (6500 लीटर) में पानी भर के चला जाता है. गांव के वह परिवार जो बाकियों की तुलना में मजबूत हैं उन्होंने मोटर लगवा रखा है; टंकी से पानी जल्दी खींच लेते हैं और बाकी बचे-खुचे पानी से काम चलाते हैं. 100-150 लीटर पानी मिल पाता है, कई बार नहीं भी मिलता. गांव के पास और कोई जलस्रोत नहीं बचा. सब सूख चुका है.

योगिता के घर की एक फोटू
योगिता के घर के दरवाज़े पर ही पिता अशोक मिल गए.द्वार पर ही कई महिलायें बैठी थीं जिनमें योगिता की माँ भी थी.माँ से बात करने की हिम्मत नहीं हुई मेरी.घर के दरवाजे पर ही छप्पर के नीचे एक बकरी बंधी हुई थी.छप्पर की बल्ली से एक प्लास्टिक का डिब्बा लटका हुआ था जो पक्षियों को पानी पिलाने के लिए था.डिब्बे को योगिता ने लटकाया था.पिता अशोक ने बताया कि 5 साल से इनकी खेती नष्ट हो चुकी है और इन्हें भी मजदूरी करनी पड़ती है. योगिता गांव की टपरी से ही घड़े में पानी भरकर ला रही थी और तीसरे चक्कर में गश खाकर गिरी और अस्पताल(धानूरा) में दम तोड़ गई. योगिता की उम्र 11 साल थी, पांचवीं में पढ़ती थी. योगिता का भाई योगेश 15 साल का है और नवीं कक्षा में पढ़ता है. पिता अशोक बता रहे थे कि दस दिनों से काम नहीं मिला है और मैं देख रहा था कि योगेश 15 साल का है और देखने में 8-9 साल का लगता है. पता किया तो बताया कि 11 साल की योगिता 5-6 साल की दिखती थी. दिमाग में तूफ़ान उठा तो नज़र फिराया, आस-पास मौजूद लोगों को ध्यान से देखने लगा. गांव के बारे में बता रहे अल्ताफ़ शेख़ जिन्हें मैं 17-18 साल का लड़का समझ रहा था, वह 28 साल के निकले. अल्ताफ़ की शादी हो चुकी है और एक बच्चा भी है. 12 वीं के बाद पढ़ाई छूटी और मजदूरी करने लगे. अल्ताफ़ ने बताया कि सारे गांव के बच्चे ऐसे ही कमजोर हैं. बच्चे देश का भविष्य होते हैं ये जुमला बहुत पुराना है, आपने भी सुना होगा.
आप विदर्भ की किसान आत्महत्याओं के बारे में जानते होंगे, जानते नहीं होंगे तो सुना तो ज़रूर होगा. बाद में भले ही अनसुना कर दिया हो. पूरे विदर्भ में आपको बच्चे इसी तरह कुपोषण का शिकार मिलेंगे. मैं कालाहांडी की बात नहीं कर रहा. विदर्भ महाराष्ट्र में आता है. हमारा प्रधानमंत्री सोमालिया की बात करता है पर साबलखेड़ जैसे गांव का पता नहीं रखता.हालाँकि मुझे सरकारों से अपेक्षा नहीं रहती पर मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ‘मेक इन इंडिया’ में योगिता-योगेश जैसे बच्चों की जगह है?

हम देश का नाम लेते हैं और हमारी भुजाएँ फड़कती हैं, हमारा सीना गर्व से फूल जाता है.क्या हमारे सीने पर साबलखेड़ का कोई बच्चा सर रख सकता है? अगर नहीं तो देश के मायने क्या होते हैं फिर? मुझे याद आ रहा है जब मैंने फेसबुक पर साबलखेड़ से ही एक पोस्ट लिखा था तो किसी ने कमेंट किया था कि जब खाने को नहीं तो बच्चे क्यों पैदा करते हैं ये. मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया था क्योंकि यह कमेंट अच्छे दिनों का प्रतिनिधि कमेंट है.यह हुंकार है कि ऐसे हैं अच्छे दिन. गांवों में बिजली है, घर के सामने से सड़क गुज़रती है. यही तो है विकास. विकास का काम थोड़ी न है थाली में खाना परोसना, पानी पीने को देना. बच्चों का पोषण भी विकास की ज़िम्मेदारी नहीं है.दत्तू भाऊ के घर चाय पीते वक़्त उनके 5 साल के भतीजे नागेश ने मुझसे पूछ लिया था, बारिश क्या होती है? मैंने कोई जवाब नहीं दिया. यह मानकर चलना चाहता हूँ कि नागेश को हिंदी नहीं आती. इसलिए उसे बारिश का मतलब नहीं पता.
यह सब लिखते-लिखते मैं ख़ाली हो गया हूँ. मुझे नहीं पता मैं क्या लिख रहा हूँ. इतना शर्मिंदा हूँ कि डूब के मर जाना चाहता हूँ, पर यहाँ तो चुल्लू भर पानी भी नहीं मांग सकता किसी से. कड़ा बसस्थानक पर योगिता के चाचा ईश्वर और अल्ताफ़ छोड़ने आये हैं. बस आने में लेट है और मैं नज़र बचाने में व्यस्त हूँ. ईश्वर भाऊ कह रहे हैं चाय पीने को और मैं बीड़ी के धुंए के साथ खर्च हो रहा हूँ. अचानक बस आती दिख रही है और अल्ताफ़ गले लगकर भावुक हो गया है. कह रहा है बात करते रहियेगा फ़ोन पर. मैं सोच रहा हूँ उसने ये क्यों कहा मुझसे....

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