किसने थमाई नाथूराम गोडसे को पिस्तौल

इस बात की कभी जांच नहीं हुई कि गोडसे ने पिस्तौल कहां से हासिल की। उसके पास आखिर यह कहां से आई। दरअसल पिस्तौल पूरे देश में फैले किसी संगठन की सहायता के बगैर नहीं जुटाई जा सकती थी।  

नाथूराम गोडसे ने तीन गोलियां दाग कर महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। बगैर किसी संगठन के सहयोग और समर्थन के वह यह काम नहीं कर सकता था। बापू के इस हत्यारे को पूरे देश भर में फैले संगठन का समर्थन मिला था। उसके समर्थकों ने इसके लिए उसे पैसे और हथियार दिए थे। दरअसल उसके साथ सांगठनिक समर्थन न होता तो यह काम करना बेहद मुश्किल था। गांधी की हत्या के सभी आरोपी आरएसएस और हिंदू महासभा से नजदीकी तौर पर जुड़े हुए थे। लेकिन कुछ विचित्र वजहों से तमाम सुरागों और कबूलनामों के बावजूद गांधी की हत्या में इन दोनों संगठनों की भूमिका की कोई जांच नहीं हुई। ऐसा क्यों हुआ। यह अब भी रहस्य बना हुआ है।

गोडसे और गांधी की हत्या के सह अभियुक्त नारायण आप्टे के बारे में यह प्रचलित था कि वे दिखावा पसंद और डींग हांकने वाले थे। उनसे किसी काम को सफलतापूर्वक पूरा करने की उम्मीद नहीं की जाती थी। मनोहर मलगांवकर अपनी किताब द मैन हू किल्ड गांधी में लिखते हैं- विनायक सावरकर को प्रभावित करने के लिए गोडसे और आप्टे मुस्लिमों पर हमले की योजनाओं को लेकर डींगे हांका करते थे। वे हैदराबाद के निजाम और मुस्लिम लीग के लोगों पर भी हमले का इरादा जाहिर करते थे और इस बारे में अपनी लंबी-चौड़ी योजनाओं का जिक्र किया करते थे। वे चाहते थे कि सावरकर उनकी इन योजनाओं को मंजूरी दे दें ताकि आरएसएस, हिंदू महासभा के सदस्यों और कट्टर सावरकरवादियों से पैसा और समर्थन हासिल किया जा सके।

सावरकर के सामने उन्होंने जिन योजनाओं का जिक्र किया था उनमें से एक के तहत हैदराबाद के निजाम की बांबे प्रांत से लगती राजस्व एजेंसियों पर छापा मारना शामिल था। इसके लिए उन्होंने फंड भी इकट्ठा किया था और फिर दीक्षित महाराज के पास पहुंचे थे। वह दादा महाराज के भाई थे, जो धनी हिंदुओं के एक पंथ के प्रमुख थे। गोडसे और आप्टे ने दीक्षित महाराज से उनकी एक बड़ी कार मांगी थी।

तीन दिन बाद जब निजाम की एजेंसियों पर छापे की कोई खबर नहीं आई तो दीक्षित महाराज अपनी कार खोजने निकले। देखा तो पाया कि आप्टे उसमें अपनी गर्लफ्रेंड के साथ रोमांस कर रहा है। इसके बाद दोनों ने पाकिस्तान असेंबली को मोर्टार से उड़ाने की योजना बनाई। इसके लिए उन्हें सावरकार से आशीर्वाद और जरूरी फंड मिल गया। लेकिन गोडसे और आप्टे इस काम को अंजाम देने में नाकाम रहे। जब यह खबर आई कि पाकिस्तान के हिस्से का गोला-बारूद उसे दो ट्रेनों के जरिये भेजा जा रहा है तो भी दोनों ने इन्हें उड़ाने की योजना बनाई। लेकिन इस बार भी वे अपनी योजना में नाकाम रहे।

इसके बाद गोडसे और आप्टे ने पाकिस्तान भाग रहे मुसलमानों को गोलियों से छलनी करने के लिए स्टेनगन खरीदने की योजना बनाई। लेकिन वे इसे ऑपरेट भी नहीं कर पाए। आखिर में दोनों ने कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तानी कबाइलियों से लड़ने के लिए हथियारों और गोलाबारूद की सप्लाई चेन बनाने की ठानी। वे कबाइलियों से लड़ने के लिए हिंदू युवकों की भर्ती करना चाहते थे। मलगांवकर लिखते हैं कि तब तक उनके समर्थकों का दोनों से भरोसा उठ गया था।
बापू की हत्या की असफल कोशिशों और उनकी हत्या के बीच एक संबंध रहा है। बापू की जान लेने की पांच असफल कोशिशों के बारे में अच्छी तरह पता है। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश की जांच करने वाले कपूर आयोग और प्रेस रिपोर्टों के मुताबिक इन पांचों असफल कोशिशों में पूना, गोडसे, आप्टे, आरएसएस और हिंदू महासभा के सदस्य कॉमन किरदार हैं। आजादी से पहले हुई इन कोशिशों की कोई जांच नहीं हुई थी।

बापू पर हमले की पहली कोशिश 25 जून 1934 को पूना में हुई। दूसरी जुलाई 1944 में पंचगनी में हुई। तीसरी सेवाग्राम में सितंबर, 1944 को हुई। चौथा हमला, 19 जून 1946 को पश्चिमी घाट (वेस्टर्न घाट)  में कारजाट और खांदला में कहीं हुआ था। इसके बाद 20 जनवरी, 1948 को नई दिल्ली के बिरला हाउस में भी उन पर हमला हुआ था। ये सारे हमले नाकाम रहे थे। कपूर आयोग के मुताबिक पहले और चौथे हमले के अलावा न किसी की जांच हुई और न कोई पकड़ा गया। अन्य तीन हमलों में आप्टे, गोडसे, आरएसएस और हिंदू महासभा के शामिल होने की बात सामने आई थी।

गोडसे के हाथ में पिस्तौल किसने थमाई
गांधी जी की हत्या बारीक योजना बना कर की गई थी। यह इस मामले का सबसे खौफनाक पहलू है। आम धारणा यह है कि गोडसे ने मौके का फायदा उठा कर बापू को मारा।

 हालांकि बापू की हत्या की पांचों कोशिशें नाकाम हो गई थीं। लेकिन इन अभ्यासों की वजह से गोडसे और आप्टे अपनी आखिरी कोशिश में कामयाब रहे।

वर्ष 1946 में जिन्ना की ओर से सीधी कार्रवाई यानी डायरेक्ट एक्शन डे के ऐलान के दिन से ही कोलकाता में हिंसा भड़क उठी थी। कोलकाता में हत्याओं के विरोध में देश के अन्य हिस्सों में भी कत्लेआम हुए। इस दौरान बापू ने जब भी दिल्ली में सार्वजनिक प्रार्थना सभा का आयोजन किया तो कुरान की आयतें पढ़ी गईं। लेकिन जब भी इन प्रार्थना सभाओं में कुरान की आयतें पढ़ी जाती थीं तो लोग इसका विरोध करते थे और हल्ले-हंगामे पर उतर आते थे। धीरे धीरे यह विरोध जोर पकड़ने लगा और ज्यादा उग्र हो गया। अपने दिल्ली प्रवास के दौरान जब गांधी सफाईकर्मियों की एक बस्ती में ठहरे थे तो उनकी प्रार्थना सभा में गोडसे और आप्टे ने बेहद उग्र विरोध किया था। बाद में पूना (पुणे) में दोनों ने शेखी बघारते हुए कहा था कि हमने गांधी को डरा दिया।

गांधी की हत्या से पहले इस तरह की आखिरी कोशिश उनकी शाम की प्रार्थना सभाओं में हुई थी। योजना यह दिखाने की थी इन सभाओं में कुरान की आयतें पढ़े जाने से लोग बेहद नाराज थे और गांधी की हत्या उनकी हठधर्मिता की वजह से पैदा हुए स्वतःस्फूर्त गुस्से का नतीजा थी। लेकिन आप्टे और गेडसे में लंबे समय तक इस तरह का विरोध अभियान चलाने की भी क्षमता नहीं थी।

गांधी जी की हत्या से ठीक दो दिन पहले तक गोडसे के पास पिस्तौल भी नहीं थी। लेकिन 28 जनवरी, 1948 को गोडसे और आप्टे आश्चर्यजनक तरीके से ग्वालियर से एक अति आधुनिक पिस्तौल ले आए। यह बेहद कारगर अप-टु-डेट पिस्तौल थी। सामने से वार करने के लिए बेहद मुफीद। पूरी तरह भरी हुई 9 मिमी. की यह शानदार बेरेटा पिस्तौल फासिस्टों की पसंदीदा मानी जाती थी। पिस्तौल खरीदने में मदद देने के लिए दत्तात्रेय परचुरे को गिरफ्तार किया गया था और उसने सब उगल दिया था। लेकिन हाई कोर्ट में उसके वकील ने बड़ी चालाकी से उसे जमानत दिलवा दी। सबसे अचरज की बात यह थी इस बात की कभी जांच नहीं हुई कि गोडसे ने पिस्तौल कहां से हासिल की। उसके पास आखिर यह कहां से आई।

दरअसल पिस्तौल पूरे देश में फैले किसी संगठन की सहायता के बगैर नहीं जुटाई जा सकती थी। एक अखिल भारतीय संगठन, जिसके कट्टर समर्थक हों और जो अपने हेडक्वार्टर से मिले हर आदेश के पालन को आतुर हों, उसके लिए यह काम ज्यादा अच्छे तरीके से किया जा सकता है। देश में अब तक किसी भी अदालत ने या जांच आयोग ने आरएसएस को महात्मा गांधी की हत्या के आरोपों से बरी नहीं किया है। वे कर भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें इसमें आरएसएस के शामिल होने के मामले में निर्णय सुनाने के लिए नहीं कहा गया था।

बहरहाल, तथ्य यही है कि 30 जनवरी, 1948  के शाम 5.17 बजे नाथूराम गोडसे ने गांधी जी के सीने में बिल्कुल सामने से तीन गोलियां दाग दी थीं। यह भी सच है कि गोडसे के हाथ में यह भरी हुई पिस्तौल उसके संरक्षकों और उसका समर्थन करने वाले संगठन ने थमाई थी। और यह भी सच है कि गोली दागने का आदेश इन्हीं संरक्षको और संगठनों ने दिया था।

(तुषार गांधी महात्मा गांधी के प्रपौत्र और लेट्स किल गांधी के लेखक हैं। वह महात्मा गांधी फाउंडेशन के मैनेजिंग ट्रस्टी भी हैं।)

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