इस महीने की 16 तारीख को राज्यसभा में माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी के भाषण के दौरान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने विजय माल्या जैसे उद्योगपतियों को दिए गए कर्जों के तौर पर बैंको के एनपीए को बट्टे खाते में डालने और संशोधित एफसीआरए (फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) से राजनीतिक दलों को हुए लाभ के मुद्दे पर हस्तक्षेप किया।
येचुरी ने जेटली के दावे का कड़ा विरोध किया। दोनों मुद्दों पर माकपा के महासचिव ने सरकार को माकूल जवाब दिए।
लोन राइट ऑफ्स यानी कर्जों को बट्टे खाते में डालने के सवाल पर येचुरी का बयान
16 नवंबर को राज्यसभा में नोटबंदी के सवाल पर अपनी स्पीच के दौरान मैंने वित्त वर्ष 2014-15 और वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान बैंकों के 1,12,078 करोड़ रुपये के उन कर्जों का मुद्दा उठाया था, जिन्हें चुकाया नहीं गया है। लेकिन वित्त मंत्री जी मानते हैं ये ‘राइट ऑफ्स’ सिर्फ अकाउंटिंग एंट्री हैं।
वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि ये फंसे हुए कर्ज बैंक खातों से उठा लिए गए हैं। फिर भी सरकार इन कर्जों की वसूली की पूरी कोशिश करेगी। जेटली जी का यह बयान वास्तविक स्थिति की अधूरी ( असलियत से परे) तस्वीर पेश करता है।
खाते से उठने या टेकन ऑफ द बुक्स का मतलब?
खाते से उठने का मतलब यह है कि बैंक अब इन कर्जों की रिकवरी की कोशिश नहीं करेंगे और अब यह इनकी बैंलेस-शीट को भी प्रभावित नहीं करेगा। मंत्री ने यह भी कहा कि राइट ऑफ्स का मतलब लोन परफॉर्मिंग एसेट से नॉन परफॉर्मिंग एसेट में बदल गया है। यह गलत है क्योंकि यह वह नॉन परफॉर्मिंग एसेट यानी फंसे हुए कर्ज हैं, जिन्हें बट्टे खाते में डाल दिया गया है। परफॉर्मिंग एसेट को नॉन परफॉर्मिंग एसेट को बदलने के नियमों को आरबीआई ने एक मास्टर सर्कुलर में साफ-साफ बताया है ( खास कर मास्टर सर्कुलर के 3.5, 5.9 और 5.10 सेक्शन में। सर्कुलर का शीर्षक है- प्रुडेंशियल नॉर्म्स ऑन इनकम रेगुलेशन, असेट क्लासिफिकेशन एंड प्रॉविजनिंग –परटेनिंग टु एडवांसेज)
सरकार चाहे तो तथ्यों को इन संदर्भ में जांच सकती है-
बहरहाल ,राइट ऑफ्स के सवाल पर फिर आते हुए मैं आपको ध्यान दिलाना चाहता हूं इंडियन एक्सप्रेस को लिखे एक पत्र में आरबीआई ने खुद स्पष्ट किया, कुल राइट ऑफ्स (मैं दोहराता हूं) में सिर्फ तकनीकी तौर पर राइट ऑफ्स किए गए अकाउंट का बड़ा हिस्सा है, जिसमें रिकवरी की कोशिश जारी है। लेकिन जैसा कि आरबीआई के डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने लिखा है, टेक्निकल राइट ऑफ में जब फंसा हुआ कर्ज (बैड लोन) खातों में नहीं रह जाता है तो रिकवरी की कोशिश का भी कोई मतलब नहीं रह जाता।
सरकार राइट ऑफ्स लोन की रिकवरी के बड़े-बड़े दावे कर रही है। लेकिन आंकड़े पूरी असलियत बता रहे हैं। वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान यानी मोदी सरकार के कार्यकाल में जानबूझ कर कर्ज अदा न करने वाले यानी विलफुल डिफॉल्टरों के खिलाफ मुकदमों की दर 1.14 फीसदी है। यह वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान की 1.45 की दर से भी कम है।
क्या वित्त मंत्री तथ्यों की जांच कर देश को यह बताएंगे कि सरकार ने कितने राइट ऑफ्स किए गए कर्जों की वसूली की है। अगर नहीं तो यह समझ लेना चाहिए कि राइट ऑफ्स लोन्स सिर्फ तकनीकी मामला नहीं है। यह आम जनता का वह पैसा है, जो सरकार अपने नजदीकी कॉरपोरेट घरानों को देकर बट्टे खाते में डाल रही है।
अगर सरकार सचमुच इस कर्ज की रिकवरी के प्रति गंभीर है तो फिर ऐसे कॉरपोरेट घरानों की संपत्तियों की बिक्री कर पैसे को लोगों के सार्वजनिक बैंकों में मौजूद उन लोगों के खाते में क्यों नहीं डाल रही है जहां से ये कर्ज दिए गए थे।
एफसीआरए के मुद्दे पर
नोटबंदी के मुद्दे पर मेरी स्पीच के दौरान वित्त मंत्री ने यह बताने के लिए हस्तेक्षप किया कि फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए), 2010 सिर्फ तकनीकी मुद्दा है और राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। एक बार फिर सरकार तथ्यों को तोड़-मरोड़ रही है।
एफसीआरए बिल में पिछली तारीख से संशोधन किया गया है। मोदी सरकार 2016 के फाइनेंस बिल के जरिये फरवरी, 2016 में इसमें एक संशोधन ले आई ताकि विदेशी अनुदान से आने वाले पैसों की जांच से बचा जा सके। इसने पिछली तारीखों के प्रभाव का प्रावधान जोड़ कर एफसीआरए 2010 की धारा 2 (1) (आई) (छह) में संशोधन कर दिया।
जन-प्रतिनिधित्व कानून राजनीतिक दलों को विदेशी फंड लेने से रोकता है। लेकिन इस संशोधन के बाद पार्टियां विदेशी दानदाताओं से फंड हासिल कर सकती और यह सरकार की जांच के दायरे में नहीं आएगी।
एफसीआरए में पिछली तारीख से संशोधन इसलिए किया गया क्योंकि सत्तारूढ़ बीजेपी पर अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए ब्रिटेन स्थित वेदांता ग्रुप से 2004 से 2012 के बीच फंड लेने का आरोप है। एफसीआरए कानून के इस उल्लंघन का मुकदमा अब भी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।
इस संशोधन के जरिये एक विदेशी कंपनी (यह अक्सर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इकाई होती है) अपनी भारतीय शाखा या इकाई के जरिये ( इसमें 50 फीसदी से ज्यादा भारतीय हिस्सेदारी हो सकती है) भारतीय राजनीतिक पार्टियों को फंड दे सकती है। इस तरह विदेशी कंपनियां सीधे तौर पर भारतीय राजनीतिक दलों को अपनी इकाइयों की जरिये फंड दे सकती हैं। सरकार ने इस कदम से भारतीय राजनीतिक दलों के लिए विदेशी फंडिंग से जुड़े प्रावधानों को इस तरह तोड़ा-मरोड़ा है कि जन प्रतिनिधित्व कानून के बारे में गंभीर चिंता पैदा हो गई है।