तस्वीर में सन 1400 में तैमूर लंग के दमिश्क विजय का चित्रण है। सीरिया की राजधानी दमिश्क को जीतने के बाद तैमूर ने उसे जला दिया। शहर के बाहर 20 हज़ार नरमुंडों की मीनार बनाई गई। ये मुंड उन्हीं लोगों के थे जो इस्लाम में अक़ीदा रखते थे। दो साल पहले ही दिल्ली विजय के समय इस्लाम की दुहाई देने वाले तैमूर को अपने ही धर्म के लोगों के सिर काटने में कोई हिचक नहीं हुई।
लेकिन आजकल यह बताने की होड़ लगी हुई है कि तैमूर हिंदुओं का (ही) हत्यारा था। उसने दिल्ली लूटी और लाखों हिंदुओं का क़त्ल करा दिया। यह विवाद सैफ़-करीना के बेटे के नामकरण से उपजा है। इन फ़िल्मी सितारों ने अपने बच्चे का नाम तैमूर रखा है। क्या यह संयोग है कि इस विवाद में आये दिन कोई नया ऐंगल जोड़ा जाता है ? जिस तरह से इस पूरे विवाद को हिंदू-मुसलमान का रूप दिया जा रहा है, उससे तो मामला सुविचारित योजना का ही लग रहा है। मशहूर मोदीभक्त और कभी एक सम्मानित पत्रकार का दर्जा रखने वाली मधु किश्वर का ट्वीट इस सिलसिले की ताज़ा कड़ी है जो बहुत कुछ कहता है। इस ट्वीट के दो संदेश हैं। पहला तो यह कि भारत के मुसलमान तैमूर (लंग) पर गर्व करते हैं और हिंदुओं की यह ज़िम्मेदारी है कि वे दंगों को रोकें (जो ज़ाहिर तौर पर तैमूर के प्रशंसक यानी भारतीय मुसलमानों का शगल है !)
यह कहना फ़िज़ूल है कि मधु किश्वर से ऐसे सस्ते कमेंट की उम्मीद नहीं थी। बल्कि उनसे ऐसी ही उम्मीद थी कि वे एक बच्चे के नामकरण पर उपजे विवाद को वह दिशा दें जिससे विभाजनकारी राजनीति हमेशा फ़ायदा उठाती रही है। स्मृति ईरानी की वजह से कोप भवन में चली गईं मधु किश्वर के लिए यह 'मुख्यधारा' में लौटने का अच्छा मौक़ा था और वे चूकीं नहीं।
ज़ाहिर है, इस समूह के लिए यह बात संदेह से परे है कि सैफ़-करीना ने अपने बेटे का नाम उसी तैमूर लंग पर रखा है जो 14वीं सदी के अंत में दिल्ली लूटने आया था और उसने ज़बरदस्त क़त्लो-ग़ारत मचाई थी। हालाँकि तैमूुर का अर्थ फ़ौलाद होता है जो तलवार (सैफ़) नामधारी बाप को यूँ भी पसंद आ सकता है। पर ज़ोर इस बात पर है कि नाम तो नि:संदेह तैमूर लंग पर ही है जिसने हिंदुओं को मारा था (जिसका बदला लेना ऐतिहासिक कार्यभार है ! ) । साफ़तौर पर कोशिश इतिहास से सबक़ लेने की नहीं, उसे तीर बनाकर वर्तमान को घायल करने की है।
मधु किश्वर का ट्वीट, अकेला नहीं है। ख़ासतौर पर हिंदी मीडिया इन दिनों तैमूर लंग की क्रूरता के क़िस्से सुनाने में जुट गया है। 'हिंदू-हत्यारे' तैमूर के चित्रण में यह बात सिरे से ग़ायब है कि उसने मुसलमानों और ईसाइयों के साथ भी कम बेरहमी नहीं की। एशिया के उन देशों में भी उसने नरमुंडों के ढेर लगाये जहाँ दूर-दूर तक हिंदू नहीं थे।
बहरहाल, हिंदी के आम अख़बारों और टीवी चैनलों से क्या शिकायत करें जब यह रोग बीबीसी जैसे जगप्रसिद्ध समाचार संस्थान को लग गया हो। 22 दिसंबर को पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर राजीव लोचन के हवाले से बीबीसी हिंदी वेबसाइट में बताया गया है कि कैसे तैमूर ने भारत पर हमले के दौरान 'लाखों हिंदुओं का क़त्ल किया।' लेकिन इस लेख में जब दिल्ली के सुल्तान से युद्ध की बात आती है जिसके पास ‘हाथियों की बड़ी फ़ौज थी’ तो बस इतना लिखा जाता है कि –‘ दिल्ली पर हमला कर नसीरूद्दीन महमूद को आसानी से हरा दिया गया. महमूद डर कर दिल्ली छोड़ जंगलों में जा छिपा।’
सवाल यह है कि सुल्तान महमूद और उसकी सेना में क्या मुसलमान नहीं थे। क्या तैमूर की 'इस्लामी तलवार' ने उन्हें बख़्श दिया। उन्हें फूलो की कटार से मारा ?
इस अर्धसत्य से हिट्स बटोरे जा सकते हैं, लेकिन यह 2016 में किसी तुलाराम के मन में किसी तौसीफ़ के ख़िलाफ़ नफ़रत बोने की जानी-अनजानी कोशिश भी है। इसलिए ‘तुलाराम’ को पूरी बात बताना ज़रूरी है।
हक़ीक़त यह है कि तैमूर लंग वैसा ही लूटेरा और क्रूर था जैसा कि ऐसे साम्राज्य गढ़ने वाले सारे ही 'महान' विजेता थे। चाहे वह सिकंदर रहा हो, चंगेज़ या अशोक प्रियदर्शी। उन्होंने अपने सैन्य अभियानों की राह में आने वाले सभी को बेरहमी से मारा उनके रक्त से नदियों को लाल कर दिया, चाहे वे उन'के धर्म के रहे हों या दूसरे धर्म के।
माफ़ कीजिए, तैमूर के जीवन का मक़सद हिंदुओं को मारना नहीं था ! उसने लगभग आधी सदी तक एशिया के बड़े हिस्से को बुरी तरह रौंदा, जिसमें हिंदुस्तान का मामला महज़ कुछ महीनों का था। इसके लिए भी उसे किसी पृथ्वीराज नहीं सुल्तानी नसीरुद्दीन महमूद तुग़लक को बरबाद करना था।
वैसे, 1336 में ट्रांसआक्सियाना में पैदा हुए तैमूर के एक 'भेड़चोर' से साम्राज्य निर्माता बनने की कथा बहुत दिलचस्प है। उसमें साहस, वीरता, क्रूरता और कमीनेपन के वे सारे गुण-दुर्गुण मौजूद थे जो मध्ययुगीन शासकों को क़ामयाब बनाते थे। वह उसी अंदाज़ में धर्म का इस्तेमाल भी करता था। पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया तक फैला उसका विशाल साम्राज्य ग़ैरहिंदुओं के ख़ून (ज़्यादातर मुसलमानों) से रँगा था। उसके सिपहसालार भारत आने को लेकर आनाकानी कर रहे थे तो उसने इस्लाम के लिए दौलत बटोरने का झाँसा दिया, लेकिन यहाँ आकर बख्शा मुसलमानों को भी नहीं।
तैमूर इतिहास में नरमुंडों के ढेर लगाने के लिए जाना जाता है। 1385 में खुरासान में विद्रोह को दबाने के बाद उसने हज़ारों क़ैदियों को दीवार में ज़िंदा चुनवा दिया। इस्फ़हान में जब विद्रोह हुआ और तैमूर के टैक्स कलेक्टरों को मारा गया तो उसने पूरे शहर को क़त्लग़ाह बना दिया। कहते हैं कि लगभग दो लाख लोगों को काट डाला गया। इतिहास में एक प्रत्यक्षदर्शी का बयान दर्ज है जिसने 1500 सिरों के 28 ढेर गिने थे। सन 1401 में तैमूर ने जब बग़दाद पर क़ब्जा किया तो 20 हज़ार शहरियों का क़त्ल किया गया। उसने अपने सैनिकों को कम से कम दो कटे सिर लाकर उसे दिखाने का हुक़्म दिया। इतिहासकारों का अनुमान है कि तैमूर के भीषण सैन्य अभियान में लगभग डेढ़ करोड़ लोग मारे गए। इनमें अधिकतर मुसलमान ही थे।
तैमूर का भारत अभियान महज़ कुछ महीनों का था। दिसंबर 1398 में सुल्तान महमूद तुग़लक को परास्त करने, भीषण रक्तपात और लूट के बाद वह मार्च 1399 में वापस चला गया। सन 1400 में उसने अनातोलिया पर हमला किया और 1402 में अंगोरा की लड़ाई में ऑटोमन तुर्कों को बुरी तरह परास्त किया। यहां भी गले काटे गए और नरमुंडों के स्तूप खड़े किए गए। 1405 में वह चीन पर हमले की योजना बना रहा था जब उसकी मौत हुई।
यहाँ एक बार और ग़ौर करने की है कि सैफ़-करीना के बेटे का नाम तैमूर अली 'ख़ान' रखा गया है, जबकि लंगड़ा तैमूर कभी 'ख़ान' नहीं हो पाया था। वह अपने नाम के आगे 'अमीर' लगाता था। ख़ान की उपाधि का रिश्ता राजवंशों से था जबकि तैमूर की शुरुआत एक ग़ुलाम और चोर के बतौर हुई थी। उसने इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया क्योंकि मध्ययुगीन समाज में उसे यह मान्यता कभी नहीं मिलती। दिलचस्प बात यह भी है कि 'ख़ान' का इस्लाम से भी कोई रिश्ता नहीं है। यह चीन के हान वंश के लोगों की शिनाख़्त से जुड़ा है। ख़ान के मूल में हान है। हान आगे चल कर ख़ान बन गया और मंगोलिया से होते हुए मध्य और पश्चिम एशिया में फैला। ध्यान रहे कि चंगेज़, कुबलई और हलाक़ू सभी 'ख़ान' थे, पर मुसलमान नहीं थाे
कहने का मतलब यह है कि इतिहास का अर्धसत्य वर्तमान में ज़हर घोल सकता है। जिस मीडिया कि दिलचस्पी अर्धसत्य में है उसके इरादे में खोट है। मधु किश्वर जैसी बुद्धिजीवी इस आग को भड़का रही हैं जबकि उन्हें पता है कि दुनिया का हर साम्राज्य की बुनियाद किसी लुटेरे और हत्यारे ने ही डाली है। यह प्राचीन और मध्यकाल का आम रिवाज था। लोकतंत्र और सेक्युलर राज्य जैसी अवधारणाएँ सदियों के संघर्ष के बाद अस्तित्व में आईं। इसलिए जो लोग सैकड़ों साल पहले हुई लड़ाइयों को 21वीं सदी में लड़ना चाहते हैं, वे समाज को मध्यकाल में धकेलने की ख़्वाहिश रखते हैं।
अपने ही एक शेर से बात ख़त्म करता हूँ-
कोई हो सल्तनत, बुनियाद डाली है लुटेरों ने
हैं सारे ज़ख्म सुल्तानी तो मरहम आसमानी क्या !
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और इतिहास में डी.फ़िल हैं।)
Courtesy: Media Vigil