मध्ययुगीन भारत के कई मंदिरों की मूर्तिकला उस समय को परिलक्षित करती है जब कामोत्तेजक प्यार का उन्मुक्त और सार्वजनिक चित्रण शर्म और आलोचना का विषय नहीं था। नरेंद्र मोदी एक बार फिर जॉर्ज बुश की तरह हरकत करते नजर आए, लेकिन इस बार संदर्भ कोणार्क का ऐतिहासिक सूर्यमंदिर था।
यों शिक्षाविदों की जमात भारतीय मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियों के पीछे की प्रेरणा को समझने के लिए जूझ रही है, ऐसा लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री ने इस पूरे मसले को हल कर लिया है। हाल में वाशिंगटन में आयोजित एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि दो हजार साल पुराने कोणार्क के सूर्यमंदिर में उकेरी गई मूर्तियां दरअसल स्कर्ट पहनने वाली और पर्स टांगने वाली आधुनिक फैशनपरस्त लड़कियों को दर्शाती है। 2004 में गांधीनगर स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी के उद्घाटन के वक्त भी उन्होंने कुछ इसी तरह की टिप्पणी की थी। उस अवसर पर उन्होंने इस उदाहरण का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया था कि अतीत में भारत में फैशन संबंधी तकनीक कितना उन्नत था।
तीन चूकें
मोदी ने पहली चूक सूर्यमंदिर के निर्माण के काल को लेकर की। आमतौर पर यह माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में गंगा वंश के शासकों के संरक्षण में हुआ। इस तरह यह मंदिर उतना पुराना नहीं, जितना प्रधानमंत्री मोदी समझते हैं। यह पहला मौका नहीं था जब किसी चीज के समय या काल को लेकर उन्होंने गलती की हो। शायद वे इसे चूक न भी मानते हों। यों दक्षिणपंथी हिंदू अक्सर असलियत के उलट वेदों को बहुत पुराना साबित करने की कोशिश करते रहते हैं।
यह कुछ और नहीं, बल्कि भारतीय हिंदुओं के 'महान' इतिहास को पुराना और ऐतिहासिक साबित करने की एक लगातार कोशिश लगती है। ऐसा ही कुछ स्कर्ट के मामले में है। यह अलग बात है कि इसे पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि इन मूर्तियों में उकेरी गईं अधिकतर महिलाएं कमरबंद पहने नजर आती हैं। हालांकि उनके हाथों में आमतौर पर पर्स नदारद है। सबसे बड़ी भूल तो पर्स टांगने और स्कर्ट पहनने वाली भारतीय महिलाओं को 'आधुनिक' बताना है। निश्चित तौर पर सूर्यमंदिर की पत्थर की दीवारों पर उकेरी गईं अधिकतर महिलाएं, आधुनिक भारतीय महिला की प्रतीक हैं, लेकिन पहनने-ओढ़ेने के संदर्भ में नहीं, बल्कि निर्द्वंद्व यौनिकता वजह से। दक्षिणपंथी हिंदुओं की तरह प्रधानमंत्री मोदी ने भी मध्यकालीन भारतीय मंदिरों में बड़ी तादाद में उकेरे गए कामोत्तेजक मूर्तिकला के विषय को गौण कर दिया।
पत्थरों पर दर्ज आजादी
मोदी या कोई भी चाहे जो सोचे, इन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गईं मूर्तियां पुरातनवादी, दक्षिणपंथी हिंदू विचारधारा को सीधी चुनौती देती है। ये कामोत्तेजक मूर्तियां समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहां कलाकारों को आकर्षक देहयष्टि वाली महिला को अपने प्रेमी के साथ प्रेम करते हुए चित्रित करने की आजादी थी। ये मूर्तियां उस काल का प्रतिनिधित्व करती हैं, जब मंदिरों में मैथुन का चित्रण सार्वजनिक भावनाओं को आहत नहीं करता था।
खजुराहो, सोमनाथपुरा, हलेबिड, मोधेरा के मंदिरों में पाई जाने वाली अधिकांश कामोत्तेजक मूर्तियों का विषय महिलाएं हैं। शुरुआती मूर्तियां में उन्हें अपने प्रेमी का हाथ पकड़े या अपने प्रेमी का आलिंगन करते हुए दर्शाया गया है। लेकिन बाद की मूर्तियां उत्तरोत्तर साहसिक होती चली जाती हैं और यौन-क्रिया के भिन्न पहलुओं को चित्रित करती हैं।
मोदी या कोई भी चाहे जो सोचे, इन मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गईं मूर्तियां पुरातनवादी, दक्षिणपंथी हिंदू विचारधारा को सीधी चुनौती देती है। ये कामोत्तेजक मूर्तियां समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहां कलाकारों को आकर्षक देहयष्टि वाली महिला को अपने प्रेमी के साथ प्रेम करते हुए चित्रित करने की आजादी थी।
इन मूर्तियों में महिला को न सिर्फ एक प्रेमिका के तौर पर, बल्कि नृत्य और अन्य कलाओं का प्रदर्शन करते हुए ही दिखाया गया है। यहं तक कि उनकी शराबनोशी का भी जिक्र है। नाट्यशास्त्र में वर्णित यक्षिणी एक ऐसी महिला थी, जो न केवल विदुषी थी, बल्कि आकर्षक भी थी। इन कामोत्तोजित मूर्तियों में इसी यक्षी का भरपूर चित्रण हुआ है। निश्चत रूप से यौन सुख का आनंद उठाते स्त्री-पुरुष का चित्रण करने वाली ये मूर्तियां बेहद ही दमदार हैं और दर्शकों के जेहन में नफरत के बजाय सार्थक छाप छोड़ती हैं।
अपने एक लेख 'भारत की कामोत्तेजक' मूर्तियों में वाई कृशन कहते हैं- 'मध्यकालीन भारत में सेक्स को लेकर सकारात्मकता थी और उसका सार्वजनिक चित्रण उसकी गरिमा को और बढ़ाता था।'
असहज करने वाला सच
यह साफ है कि मध्यकालीन भारतीय समाज में सेक्स और प्यार को लेकर कोई बंधन नहीं था। अपनी यौनिकता और इच्छाओं के बारे में सजग महिला का सार्वजनिक चित्रण दरअसल वर्तमान पुरातनपंथी हिंदू विचारधारा (लव-जिहाद के संदर्भ में) के उलट एक उन्मुक्त माहौल का निर्माण करता था। पत्थरों पर उकेरे गए असहज करने वाले इस सच को असानी से विस्मृति नहीं किया जा सकता। इन मूर्तियों में चित्रित महिलाएं अपनी यौनिकता को लेकर आधुनिक महिलाओं की तरह सजग नजर आती हैं। अब वक्त आ गया है कि दक्षिणपंथी हिंदू यह सोचें कि वे नैतिकता में लिपटे अपने हिंदू अतीत को महान बताने वाले अपने आख्यान में यौन रूप से स्वतंत्र उन महिलाओं को कहां और कैसे जगह देंगे।
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