आमतौर पर किसी परीक्षा में टॉप करने वालों की चर्चा इसलिए होती है कि वे आगे कोशिश करने वालों को कुछ हौसला दे सकें। लेकिन बिहार में इंटरमीडियट परीक्षा के दो टॉपर्स इसलिए सुर्खियों में रहे कि वे अपने विषय के साधारण सवालों के जवाब भी नहीं जानते थे। यह सवाल बिल्कुल सही है कि अगर वे जानकारी की इस हालत में थे, तो उन्होंने परीक्षा में सवालों के जवाब कैसे दिए और इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले।
दरअसल, इसमें जितना जरूरी यह पूछना है कि उन्होंने सवालों के जवाब कैसे लिखे, उससे ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले कि वे सबसे शीर्ष पर रहे। जाहिर है, इसमें परीक्षा के आयोजन से लेकर कॉपी जांचने वाले तक की भूमिका है। लेकिन इसे छोड़ भी दिया जाए तो अगली स्थिति क्या आती है? टॉप करने का सर्टिफिकेट लिए वे दोनों विद्यार्थी इससे आगे कहां जाएंगे? खासतौर पर अगर वे किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठते हैं, तो उन्हें क्या हासिल होगा?
अब एक दूसरी स्थिति की बात करते हैं।
हाल ही में मेडिकल कोर्सेज में दाखिले के लिए जो परीक्षा आयोजित की गई, उसमें परीक्षार्थियों को कुछ भी लेकर आने की मनाही थी, यहां तक उनके लिए कपड़े और चप्पल तक के नियम शर्त के तौर पर लागू हुए। ऐसा क्यों हुआ था? दरअसल, इससे पहले भी ऐसे मामले आ चुके हैं कि मेडिकल या इंजीनियरिंग के दाखिले के लिए होने वाली परीक्षाओं में नकल या चोरी की शक्ल उससे ज्यादा अलग नहीं रही है जो बिहार के उन दो टॉपरों ने अपनाया होगा। ज्यादा संभव है कि उनकी जगह पर किसी दूसरे व्यक्ति ने कॉपी तैयार किया होगा, उसके लिए परीक्षा केंद्र के कर्ताधर्ता से लेकर कॉपी जांचने वाले शिक्षक तक 'पहुंच' का मामला 'सेट' किया गया होगा। लेकिन मेडिकल या इंजीनियरिंग की परीक्षाओं में नकल का जो स्वरूप सामने आया है, उसमें किसी दूसरे व्यक्ति को परीक्षार्थी की जगह बैठाने से लेकर आज के तमाम हाईटेक संसाधन, मसलन, स्मार्टफोन में व्हाट्सअप या दूसरी सुविधाएं, गुप्त माइक्रोफोन वगैरह तक का इस्तेमाल हुआ, जो बहुत मुश्किल से पकड़ में आया। प्रश्न-पत्र परीक्षा से पहले ही चार-पांच या छह लाख रुपए में बिकने के मामले अब नए नहीं लगते।
नकल या 'सेटिंग' से टॉप करने वाले विद्यार्थियों का तो मामला 'ज्ञान' और जानकारी का है, इसलिए उनके रिजल्ट पर सवाल उठने चाहिए। मगर इससे इतर मेडिकल या इंजीनियरिंग के कोर्सेज में निजी कॉलेजों का जो एक समूचा समांतर तंत्र खड़ा हो गया है, उसमें पढ़ाई करने और डॉक्टर या इंजीनियर बनने की क्या प्रक्रिया है। क्या यह सच नहीं है कि किसी के पास दस-बीस या पचास लाख रुपए हैं तो वह जानकारी के स्तर पर भले ही 'प्रोडिगल साइंस' वाली रूबी कुमारी के समकक्ष है, लेकिन डॉक्टरी या इंजीनियरी की डिग्री हासिल करने के बाद उनसे उनके विषय से जुड़े सवाल कोई नहीं पूछता कि आपने परीक्षा कैसे पास की? आरक्षण की व्यवस्था के तहत एक तय नंबर लाकर पास करने के बावजूद तैयार डॉक्टर और इंजीनियर 'अयोग्य' होता है, लेकिन तीस-चालीस या पचास लाख रुपए खर्च कर इस तरह डिग्री खरीद कर डॉक्टर या इंजीनियर बनने वाले डॉक्टरों की योग्यता पर कोई सवाल नहीं होगा, जिन्हें नंबर लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
बहरहाल, बिहार में सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की क्या हालत है, पढ़ाई-लिखाई और शिक्षण का क्या स्तर है, कितने शिक्षकों की कमी है, सरकार की ओर से ठेका प्रथा के तहत जो शिक्षक बहाल किए गए हैं उनकी और नियमित शिक्षकों के शिक्षण का स्तर क्या है, हाल के वर्षों में निजी स्कूल-कॉलेजों का कितना बड़ा संजाल खड़ा हुआ और इसके पीछे क्या खेल चल रहे हैं, इन तमाम हालात की मार समाज के किस तबके पर पड़ती है, इन सवालों से जूझने की जरूरत न मीडिया को लगती है, न रूबी कुमारी के 'प्रोडिगल साइंस' से मनोरंजन करते गैर-बिहारी या सत्ताधारी बिहारी समाज को!
'चार्वाक' ब्लॉग से