संघ परिवार के इशारे पर चलने वाली भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 18 फीसदी मुस्लिम वोटरों के असर को खत्म कर दिया था। यूपी में 11 फरवरी को चुनाव शुरू होंगे। लेकिन इस बीच संघ परिवार ने जिस तरह मुस्लिमों के प्रति अवमानना का रुख अपनाया है उसे देखते हुए यह साफ हो गया है के हाशिये का यह समुदाय बेहद समझ-बूझ के साथ रणनीतिक ढंग से वोट डालेगा।
मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की रणनीति में मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां माहिर रही हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और उनकी पार्टी मुस्लिम वोटों में बंटवारे के जरिये अपने वोट बैंक को मजबूत कर रही है। दलितों और आदिवासियों के एक वर्ग के साथ तालमेल बिठाना एक अन्य रणनीति है।
यह पहली दफा नहीं है कि बीजेपी ने मुस्लिमों के प्रति सांप्रदायिक और घृणा की राजनीति की रणनीति अपनाई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मीडिया भाजपा की सबका साथ, सबका विकास की रणनीति को जोर-शोर से पेश करता रहा। पूरे देश में भाजपा इस नारे के साथ वोटरों के पास गई। लेकिन यूपी में घृणा और सांप्रदायिकता की भाषा बोली जाती रही। बेजीपी के स्टार प्रचारक अमित शाह और गोरखपुर के सांसद आदित्यनाथ घृणा की भाषा बोलते रहे। इस तरह बहुसंख्यक वोटरों की गोलबंदी होती रही।
बीजेपी का एक बार फिर इस पुरानी रणनीति पर लौटना उसकी हताशा और घबराहट को जाहिर करता है। यूपी चुनाव की जमीनी हकीकत ने उसकी पतली हालत जाहिर कर दी है।
28 जनवरी को बीजेपी ने अपना चुनावी घोषणापत्र जारी (released) किया। इसमें लोकलुभावन योजनाओं और विकास के वादों के साथ नफरत भरी बातें हैं। पार्टी ने एक बार फिर पश्चिम उत्तर प्रदेश के कैराना (exodus of Hindus ) से हिंदुओं के कथित पलायन का मुद्दा उठाया था। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की वजह पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जबरदस्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका है। मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद हजारों मुस्लिमों का पलायन हुआ लेकिन भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इस मामले पर बिल्कुल चुप्पी है।
हां, बूचड़खानों पर रोक लगाने, हिंदू तीर्थों के लिए हेलीकॉप्टर सेवा और अयोध्या में राम मंदिर बनाने का वादा जरूर किया गया है। यह कहते हुए कि मंदिर बनाने का काम संवैधानिक ढांचे के तहत किया जाएगा। घोषणापत्र जारी होने के तुरंत बाद अमित शाह ने ( followed ) एक इंटरव्यू में कहा कि लड़कियों को लुभाने वालों से बचाने के लिए वह एंटी रोमियो स्कवाड बनाएंगे। (गुजरात में बाबू बजरंगी 1990 से 2008 और इसके बाद बेधड़क होकर यह काम करता रहा है)।
कइयों का मानना है बीजेपी ने एंटी रोमियो स्कवाड बनाने की बात कर उन मुस्लिम युवाओं के ‘लव जेहाद’ के खिलाफ अभियान चलाने की बात की है जो हिंदू लड़कियों को कथित तौर पर लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बाद बीजेपी के ही विधायक सुरेश राना ने दावा ( claimed ) किया कि अगर वह जीते तो कैराना और मुरादाबाद जैसे मुस्लिम इलाकों में कर्फ्यू लग जाएगा।
क्या यूपी में बीजेपी को कुछ नहीं सूझ रहा है? यूपी के चुनावी परिदृश्य पर नजर रखने वालों (observers )का कहना है कि जमीनी हकीकत तो यह है तमाम बहादुरी दिखाने और बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद नोटबंदी ने बीजेपी के जनाधार पर करारी चोट की है। हाल में हुई एक सभा में शाहजहांपुर ( कॉमर्शियल मीडिया ने यह खबर दबा दी) में जब बीजेपी के स्टार प्रचारक ने नोटबंदी को सही ठहराना शुरू किया तो गुस्साए गांव वालों ने उनकी पिटाई कर दी। नोटबंदी का जो तांडव किया गया और इससे लोगों को जो दिक्कत हुई उसने लोगों को गुस्से से भर दिया है। बीजेपी का दूसरा ट्रंप कार्ड यानी पाकिस्तान पर सर्जिकल अटैक और अति राष्ट्रवाद का नारा भी लोगों के गम और गुस्से का मुकाबला करने में सक्षम नहीं लगता।
बीजेपी जाति के गणित, पीएम नरेंद्र की निजी अपील और जाहिर है हिंदुत्व की रणनीति पर भरोसा कर रही है। लेकिन क्या किसी सकारात्मक एजेंडे के अभाव में पार्टी की हिंदुत्व की रणनीति कामयाब हो सकेगी।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ‘योगी’ आदित्यनाथ बीजेपी के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारेंगे। 31 जनवरी को उन्होंने भड़काऊ भाषण में कहा कि भारत को ट्रंप की तरह मुस्लिमों पर बैन का आदेश जारी कर देना चाहिए। आदित्यनाथ के इस भाषण से भारत की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी के खिलाफ बीजेपी की महिलाओं और पुरुषों की यह नफरत खुल कर सामने आ जाती है। देश के सामाजिक तान-बाने के लिहाज से इस तरह की नफरत कितनी खतरनाक है, यह समझना मुश्किल नहीं है।
सिर्फ चुनावी नजिरये से ही नहीं, भारत के वंचित तबकों यानी ऐसे लोगों के बीच संबंध काफी मजबूत होने चाहिए जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ताकत में काफी पिछड़े हुए हैं। जब भी समाज में संघर्ष होता है सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों, दलितों और मुसलमान जैसे वंचित तबकों को उठाना पड़ता है। यूपी इन वंचित तबकों के बीच की एकता की प्रयोग भूमि है। अगर इन वंचित तबकों ने सही तरीके से वोट दिया और इन सामाजिक गठबंधनों का नेतृत्व करने वाली राजनीतिक पार्टियों को जीत मिली तो ऐसे वंचित तबकों के लिए सकारात्मक कार्यक्रम होंगे और इससे इनके बीच मजबूती बढ़ेगी।
इस बीच यह पता चल रहा है कि अमित शाह और मोदी के लिए यूपी कितना बड़ा दांव है। जिस तरह से ये मीडिया के साथ खेल रहे हैं उससे साफ पता चल जाता है कि क्या हो रहा है। पिछले दिनों कुछ छात्रों ने दैनिक भास्कर ( एक प्रभावशाली हिंदी अखबार, जिसकी प्रसार संख्या 3,812,599) की ओर से यूपी में लगाए जाने वाले होर्डिंगों की ओर हमारा ध्यान खींचा। यह साफ तौर पर भाजपा का पक्ष लेने वाला और दूसरे राजनीतिक दलों की अवमानना करने वाला लग रहा था।
इसने चुनाव के इस मौसम में लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाले प्रेस और राजनीतिक दलों के अंदरखाने गठजोड़ की कलई भी खोल दी है। साफ है कि इसका एक वर्ग मोदी ब्रिगेड के साथ मिल चुका है।
क्या प्रेस काउंसिल और चुनाव आयोग इसका संज्ञान लेगा। यहां तक ओपिनियन पोल्स भी राज्य में बीजेपी की चुनाव में जीत का हवा फैलाने में लग गए हैं। साफ है कि चुनाव आयोग की नहीं चल रही। एक पार्टी के पक्ष में इस तरह के अभियान सचमुच भारत के लोकतंत्र के लिए एक नई चुनौती है।
यह तस्वीर लखनऊ के लोहिया पथ पर लगे एक होर्डिंग की है। इसने मायावती और अखिलेश को विलेन की तरह दिखाया है। वोटरों को इससे ज्यादा कहने की कोई जरूरत नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी मीडिया का ऐसा ही व्यवहार दिखा था। कॉरपोरेट घरानों के नियंत्रण वाला मीडिया मोदी का बड़ा प्रचारक बन कर उभरा था।