विधवा फैशन शो के बहाने टूटती बेड़ियाँ

पिछले दिनों दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब में हुए विधवा रैंप और फैशन शो के साथ ही एक और बेड़ी टूटती दिखी। आयोजक सुलभ इंटरनेशनल का मकसद चाहे जो भी हो, लेकिन इस कार्यक्रम के बहाने उस रूढ़ि के टूटने की शुरुआत तो हुई कि विधवाओं को रंगीन कपड़े और साज-श्रंगार से दूर रहना चाहिए।

Widow fashion show

हिंदू धर्म में खासकर उच्च जातियों की पुरानी परंपरा यही रही है कि महिला चाहे वह कितनी भी उम्र की क्यों न हो, पति की मौत के बाद रूखा-सूखा खाए, रंगीन कपड़ों और साज-श्रंगार से दूर रहे। प्रत्यक्ष कारण इन विधवाओं को पुनर्विवाह से रोकना था, लेकिन इसकी आड़ में उनका यौन-शोषण करना भी था। लंबे समय तक तो सती प्रथा का ही चलन रहा, जिसे अंग्रेजों के राज में बंद कराया गया। हालाँकि, इसके बाद परिवारों के अंदर ही विधवाओं के यौन-शोषण का दौर शुरू हुआ।

अनेक घरों में ये चलता रहा। राजकपूर ने प्रेमरोग फिल्म में पद्मिनी कोल्हापुरे के चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित घरों में चलने वाले यौन-शोषण को दिखाया तो वह कोई काल्पनिक कहानी नहीं थी। समाज से ही उस कहानी को बुना गया था। रजा मुराद अपने छोटे भाई विजेंद्र घाटगे के मरने के बाद उसकी विधवा पद्मिनी कोल्हापुरे का यौन-शोषण करने की कोशिश करता है। उसके पहले पद्मिनी के बाल मूँड़ने की भी कोशिश होती है।

जिन घरों में ये आंतरिक यौन-शोषण नहीं चल पाया, वहाँ इन महिलाओं का खर्चा पानी उठाने से बचने के बहाने इन्हें धर्म-कर्म की ओर मोड़ दिया गया और वृंदावन तथा बनारस जैसे कथित धर्मनगरियों की ओर भेज दिया गया। इन धर्मनगरों में इन विधवाओं के साथ जो सलूक होता है, उस पर चर्चा तक करने से धर्म के ठेकेदारों को आग लग जाती है। मठों के पंडों के लिए अवैतनिक यौनकर्मियों की भूमिका इन्हें आजीवन ढोनी पड़ती है और एक दिन ऐसे ही मर जाना पड़ता है।

दीपा मेहता ने जब बनारस की विधवाओं पर वाटर फिल्म बनाने की कोशिश की तो इन्हीं पंडों और आरएसएस के सहयोगी संगठनों ने उसकी शूटिंग नहीं होने दी थी। बाद में दीपा ने श्रीलंका में इस फिल्म की शूटिंग की थी।

दिल्ली में विधवाओं के फैशन शो और कैटवाक में वृंदावन, बनारस, केदारनाथ और ऐसे ही इलाकों की करीब 400 विधवाओं ने हिस्सा लिया। सांसारिक सुखों से हर तरह से दूर रहने पर मजबूर इन विधवाओं के लिए ये सब नया-सा ही था। अनेक विधवाएँ ऐसी थीं जिन्होंने शादी के बाद पहली बार आकर्षक और रंगीन कपड़े पहने थे।

यद्यपि विधवाओँ का फैशन शो में भाग लेना, अपने आप में पर्याप्त नहीं है। सबसे ज़रूरी तो इनको अपने घर से निकाल देने की परंपरा ही तोड़नी पड़ेगी, और महिला आत्मनिर्भरता जैसे कार्यक्रम चलाने होंगे। दूसरा, विधवा पुनर्विवाह की परंपरा आज भी केवल गरीब और निचले तबके, या फिर संपन्न-नौकरीशुदा महिलाओं के लिए है। मध्यम वर्ग आज भी इससे बचता दिखता है। विधवा पुनर्विवाह को भी विधुर पुनर्विवाह की तरह सर्वस्वीकृत और आम बनाने की भी ज़रूरत है, तभी विधवाएँ अपनी मौजूदा दारुण स्थिति से उबर सकेंगी।

Trending

IN FOCUS

Related Articles

ALL STORIES

ALL STORIES