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कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के सोचने-समझने या दृष्टि पर असर का विश्लेषण सामाजिक विकास के कई नए आयाम से रूबरू कराता है। कुछ साल पहले की एक घटना है। राजधानी दिल्ली से सटे और तब ‘हाईटेक सिटी’ के रूप में मशहूर शहर गाजियाबाद में एक काफी वृद्ध महिला को उनके तीन बेटे तब तक (शायद चप्पलों से) पीटते रहे, जब तक उनकी जान नहीं निकल गई। किसी ‘ऊपरी असर’ से छुटकारा दिलाने के मकसद से ऐसा करने का निर्देश एक तांत्रिक बाबा का था।
अंधविश्वासों के अंधेरे कुएं में डूबते-उतराते हमारे समाज में साधारण लोगों के हिसाब से देखें तो इस तरह की यह घटना न अकेली थी और न नई। लेकिन यह घटना मेरी निगाह में इसलिए खास थी कि उस बुजुर्ग महिला को तांत्रिक के आदेश पर पीटते-पीटते मार डालने वाले तीन में से कम से कम दो बेटों की शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान विषय थी। उनमें से एक ने डॉक्टरी और दूसरे ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। यानी जिस विज्ञान और तकनीकी विकास ने समाज में अज्ञानता के अंधकार को दूर करने और समाज को अंधविश्वासों की दुनिया से काफी हद तक बाहर लाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है, उस विषय की शिक्षा-दीक्षा भी उन बेटों की चेतना पर पड़े अंधविश्वासों के जाले को साफ नहीं कर सकी। क्या यह विज्ञान की शिक्षा के ‘लेन-देन’ में वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव का नतीजा नहीं है?
हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव से रूबरू हुआ। हालांकि फिल्मों, टीवी धारावाहिकों और समाज में इस तरह की बातें आम हैं। एक बेहद सक्षम, जानकार और अनुभवी सर्जन-डॉक्टर के क्लीनिक में इस आशय का बड़ा पोस्टर दीवार टंगा था कि ‘हम केवल माध्यम हैं। आपका ठीक होना, न होना भगवान की कृपा पर निर्भर है! -आपका चिकित्सक।’ दूसरी ओर, अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण जैसी विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी की चरम उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाते हुए हमारे इसरो, यानी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के मुखिया जैसे पद पर बैठे लोग भी किसी यान के प्रक्षेपण की कामयाबी के लिए ‘ईश्वरीय कृपा’ हासिल करने के मकसद से किसी मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। 24 सितंबर, 2014 को भारत के मंगलयान की शानदार कामयाबी इसरो के हमारे तमाम वैज्ञानिकों की काबिलियत की मिसाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण के पहले चार नवंबर, 2013 इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की और इसकी अभियान की कामयाबी के लिए प्रार्थना की थी। राधाकृष्णन के पूर्ववर्ती इसरो अध्यक्ष माधवन नायर भी यही करते रहे थे।
वैज्ञानिक चेतना के बगैर विज्ञान का समाज
यह साधारण-सा सच है कि कोई भी पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी व्यक्ति जब यह देखता है कि भारत के अंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन, यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में पूजा करता है तो यह उसके भीतर बैठी हीनताओं को तुष्ट करता है। इसे उदाहरण बना कर वह कह पाता है कि इसरो जैसे विज्ञान के संगठन के वैज्ञानिक ऐसा करते हैं तो उसका कोई आधार तो होगा ही। जाहिर है, हमारे समाज में विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई और उस क्षेत्र में अच्छी-खासी उपलब्धियों में कोई कमी नहीं रही है। लेकिन वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि का लगभग अभाव रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में महान खोजों से प्रशिक्षित, मस्तिष्क, तंत्रिका या हृदय की बेहद जटिल शल्य-क्रिया करके किसी मरीज को जीवन देने वाले सक्षम डॉक्टर जब अपनी काबिलियत और कामयाबी का श्रेय वैज्ञानिक खोजों के साथ-साथ अपनी मेहनत और कुशलता को देने के बजाय ‘अज्ञात शक्ति’ या भगवान को देते हैं तो इससे क्या साबित होता है! ऐसा करके या मान कर क्या हम उन तमाम लोगों की क्षमता, सालों की दिन-रात की मेहनत और वैज्ञानिक दृष्टि को खारिज नहीं करते हैं, जिनके जरिए कई बार हमारा जिंदा बच पाना मुमकिन होता है?
यह कोई नया आकलन नहीं है कि मानव समाज के विकास के क्रम में एक दौर ऐसा रहा होगा, जब मनुष्य ने अपनी सीमाओं के चलते मुश्किलों का हल किसी पारलौकिक शक्ति की कृपा में खोजने की कोशिश की होगी। लेकिन आज जब मंगल पर कदम रखने से लेकर ब्रह्मांड की तमाम जटिल गुत्थियों को खोलते हुए दुनिया का विज्ञान हर रोज अपने कदम आगे बढ़ा रहा है तो ऐसे में अलौकिक-पारलौकिक काल्पनिक धारणाओं में जीते समाज और उसके ढांचे को बनाए रखने का क्या मकसद हो सकता है?
विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना का द्वंद्व
यहीं आकर एक बिंदु उभरता है जिसके तहत समाज में चंद लोगों या कुछ खास समूहों की सत्ता एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में आकार पाती है। यह व्यवस्था अगर शोषण-दमन और भेदभाव पर आधारित हुई तो संभव है कि भविष्य में प्रतिरोध की स्थिति पैदा हो, क्योंकि वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी स्थिति को पैदा होने से रोकने के लिए लौकिक यथार्थों पर पारलौकिक धारणाओं का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। ऐसी कवायदों का संगठित रूप धर्म के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि मानव समाज के लिए धर्म की अलग-अलग व्याख्याएं पेश की जाती रही हैं, लेकिन इसके नतीजे के रूप में सामाजिक सत्ताओं का ‘केंद्रीकरण’ ही देखा गया है। और चूंकि विज्ञान लौकिक यथार्थों पर चढ़े अलौकिक भ्रमों की परतें उधेड़ता है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से धर्म का घोषित-अघोषित दुश्मन हो जाता है।
विडंबना यह है कि ब्रह्मांड और मानव सभ्यता के विकास का आधार होने के बावजूद विज्ञान अब तक दुनिया भर में धर्म के बरक्स एक सत्ता या व्यवस्था के रूप में खुद को खड़ा कर सकने में नाकाम रहा है। जबकि विज्ञान, तकनीकी या प्रौद्यागिकी के सहारे कई देश अपने आर्थिक-राजनीतिक ‘साम्राज्यवाद’ के एजेंडे को कामयाब करते हैं। हालांकि इसकी वजहों की पड़ताल कोई बहुत जटिल काम नहीं है। पहले से ही हमारे सामने अगर ‘राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत’ जैसी व्याख्याएं हैं तो ‘विकासवादी सिद्धांत’ भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि सामाजिक व्यवहार में ‘दैवीय सिद्धांत’ अक्सर हावी दिखता है!
दरअसल, राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं पर कब्जाकरण के बाद इसके विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए उन तमाम रास्तों, उपायों को हतोत्साहित-बाधित किया गया, जो पारलौकिकता या दैवीय कल्पनाओं पर आधारित किसी ‘प्रभुवाद’ की व्यवस्था को खंडित करते थे। चार्वाक, गैलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो से लेकर हाल में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या जैसे हजारों उदाहरण होंगे, जिनमें विज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि को बाधित करने के लिए सामाजिक सत्ताओं के रूप में सभी धर्मों में मौजूद ‘ब्राह्मणवाद’ ने बर्बरतम तरीके अपनाए।
दिलचस्प यह है कि विज्ञान का दमन करने वाली ताकतें यह अच्छे से जानती थीं कि विज्ञान की ताकत क्या है। इसलिए एक ओर उन्होंने समाज में वैज्ञानिक नजरिए या चेतना के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव क्रूरताएं कीं तो दूसरी ओर धार्मिक और आस्थाओं के अंधविश्वास को मजबूत करने के लिए विज्ञान और तकनीकों का सहारा लिया और उनका भरपूर उपयोग किया। एक समय सोमनाथ के मंदिर में जो मूर्ति बिना किसी सहारे के हवा में लटकी हुई थी और जिसे देख कर लोग चमत्कृत होकर और गहरी आस्था में डूब जाते थे, उसमें चुंबकीय सिद्धांतों की बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इसे ‘मैग्नेटिक लेविटेशन’ या चुंबकीय उत्तोलन कहते हैं, जिसका अर्थ है चुंबकीय बल के सहारे हवा में तैरना। इसी तरह, किसी सीधे खड़े संगमरमर के पत्थरों से दूध भरे चम्मच का किनारा सटते ही चम्मच में मौजूद दूध का खिंच जाना गुरुत्व के सिद्धांत से संबंधित है और इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है। लेकिन इसी का सहारा लेकर तकरीबन दो दशक पहले समूचे देश में गणेश की मूर्तियों को अचानक दूध पिलाया जाने लगा था।
विज्ञान के बरक्स अंधविश्वास का समाज
धार्मिक स्थलों के निर्माण से लेकर जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़फूंक, चमत्कार वगैरह विज्ञान और तकनीक के सहारे ही चलता रहा है। यह बेवजह नहीं है कि मर्सिडीज बेंज या बीएमडब्ल्यू जैसी आधुनिक तकनीकी से लैस कारें चलाने वाले और ऊपर से बहुत आधुनिक दिखने वाले लोग अपनी कार में ‘अपशकुन’ से बचने के लिए नींबू और हरी मिर्च के गुच्छे टांगे दिख जाते हैं। इसी तरह, उच्च तकनीकी के इस्तेमाल से बनने वाली इमारतें बिना भूमि-पूजन के आगे नहीं बढ़तीं। बहुत आधुनिक परिवारों के लोग अपने शानदार और हाइटेक घरों के आगे या कहीं पर एक ‘राक्षस’ के चेहरे जैसी आकृति टांगे दिख जाएंगे, जिसका मकसद मकान को ‘बुरी नजर’ से बचाना होता है! यानी जिन वैज्ञानिक पद्धतियों और तकनीकी का इस्तेमाल अंधविश्वासों को दूर कर समाज को गतिमान बनाने या आगे ले जाने के लिए होना था, वे समाज को जड़ और कई बार प्रतिगामी बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।
इसकी वजह यह है कि विज्ञान अपने आप में दृष्टि है, लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत, संसाधन या तकनीक एक ‘उत्पाद’ की तरह है, जिसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है- विज्ञान का दुश्मन भी। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। मौजूदा दौर में ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार के अलावा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के मंचों और मोबाइल जैसे संचार के साधनों के दौर को हम विज्ञान और तकनीक के चरम विकास का दौर कह सकते हैं। लेकिन हम देख सकते हैं कि इन संसाधनों पर किस तरह वैसे लोगों या समूहों का कब्जा या ज्यादा प्रभाव है जो विज्ञान और तकनीकी का इस्तेमाल वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि को कुंद या बाधित करने में कर रहे हैं।
आधुनिकी उन्नत तकनीकों के इस्तेमाल से बनाई गई अंधविश्वास फैलाने वाली फिल्में या धारावाहिक पहले से चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरते-जीते आम दर्शक की जड़ चेतना को ही और मजबूत करते हैं। टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से अंधविश्वासों को बढ़ाने या मजबूत करने वाले कार्यक्रम ‘धारावाहिक’ के तौर पर चलते ही रहते हैं, कई बार ‘समाचार’ के रूप में भी दिखाए जाते हैं। यह ‘बाबाओं’ और ‘साध्वियों’ के प्रवचनों और विशेष कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों के हीरो-हीरोइनों या मशहूर हस्तियों के जरिए ‘धनवर्षा यंत्र’ या ‘हनुमान यंत्र’ आदि के प्रचारों के अलावा होता है। अखबार इसमें पीछे नहीं हैं। इससे टीवी चैनलों मीडिया संस्थानों को कमाई होती है, मुनाफा होता है, लेकिन समाज को कितना नुकसान होता है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता! इसके अलावा, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का मोबाइल पर व्हाट्स ऐप जैसे संवाद-साधनों के जरिए किस तरह सांप्रदायिकता का जहर परोसा जा रहा है, यहां तक कि दंगा भड़काने में भी इनका इस्तेमाल किस पैमाने पर किया जा रहा है, यह जगजाहिर तथ्य है।
यानी विज्ञान के जरिए की वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना को कैसे कुंद किया जा रहा है और विज्ञान का सहारा लेकर समाज को किस तरह अंधविश्वासों के अंधेरे में झोका जा रहा है, यह साफ दिखता है। दरअसल, किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है कि वह विज्ञान के सहारे अपने जीवन की सुविधाएं तो सुनिश्चित करे, लेकिन उसे किसी ‘अज्ञात शक्ति’ की कृपा माने। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग ही आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते है। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बौद्धिकों, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में कोई हिचक नहीं होती।
दलील दी जाती है कि आस्था निजी प्रश्न है। लेकिन विज्ञान की कामयाबियों के साथ आस्था का घालमेल आखिरकार वैज्ञानिक चेतना को भ्रमित करता है। और यही वजह है कि गहन और जटिल ऑपरेशन हो या भूकम्प और बाढ़ जैसी आपदाएं, इनकी वजहें जानने, उसका विश्लेषण करने के बावजूद व्यक्ति या खुद इसके विशेषज्ञ इन सबको किसी भगवान का चमत्कार, कृपा या फिर कोप के रूप में देखते-पेश करते हैं। यह अपने ज्ञान-विज्ञान और खुद पर भरोसा नहीं होने-करने का, अपनी ही क्षमताओं को खारिज करने का उदाहरण है। क्षमताओं के नकार की यह स्थिति किसी विनम्रताबोध का नहीं, बल्कि भ्रम और हीनताबोध का नतीजा होती है। और जब हम विज्ञान के विद्याथियों या वैज्ञानिकों तक को इस तरह के द्वंद्व और भ्रम में जीते देखते हैं तो ऐसे में साधारण इंसान या समाज से क्या उम्मीद हो, जो जन्म से लेकर मौत तक वैज्ञानिक चेतना से बहुत दूर दुनिया के धर्मतंत्र और अलौकिक-पारलौकिक आस्थाओं के चाल में उलझा रह जाता है।
जाहिर है, असली चुनौती यह है कि विज्ञान केवल लोगों के जीवन को सहज नहीं बनाए, बल्कि दुनिया के यथार्थ को समझने के लिए समाज को वैज्ञानिक चेतना से भी लैस करे। यह समाज के ज्यादातर हिस्से को सोचने-समझने के तरीके या माइंडसेट पर कब्जा जमाए पारलौकिक आस्थाओं के बरक्स एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर यह कहा जाए कि जिस पैमाने पर समाज धार्मिकता के जंजाल में उलझा है, अगर उसी पैमाने पर वैज्ञानिक चेतना होती तो हमारा समाज शायद अभी से कई हजार साल आगे होता, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।
('चार्वाक' ब्लॉग से)