
नर्मदा बचाओ आंदोलन को शुरू हुए तीस साल हो चुके हैं। इन तीन दशकों का संघर्ष लाखों आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकार सुरक्षित करने की लड़ाई की कहानी बयां करता है। शुरू से ही सरकारों का रवैया इस परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों के दमन का रहा है। तीस सालों के हर प्रशासन ने न केवल शांतिपूर्ण जनआंदोलनों को पुरज़ोर दबाने की कोशिश की बल्कि नियम-क़ानून और यहां तक कि अदालत के फ़ैसलों की खुल कर अवमानना भी की। ये सरकारी रुख़ आज भी ठीक वैसा ही है।
हालात ये हैं कि आगामी दिसम्बर में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में 244 गांवों और एक नगर हमेशा के लिए डूब जाने की आशंका है। ये इलाक़ा 214 किमी के दायरे में है और नर्मदा घाटी में पड़ता है। इसमें 45,000 परिवार रहते हैं जिनके ढाई लाख से ज़्यादा आदमी, औरत और बच्चे इस तरह बेघर हो जाएंगे। ज़ाहिर है आंदोलन के सामने संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वैसे देखे तो संघर्षो से निकले 2013 के नये भू-अधिग्रहण व पुनर्वास कानून की धारा 24 (2) के तहत डूबने वाले क्षेत्र के लोग अपने-अपने हज़ारों मकानों और खेतों के फिर से मालिक के हो चुके है। इसलिए बीस से अधिक याचिकाओं पर इंदौर उच्च न्यायालय ने डूब पर रोक का आदेश भी दिया है। लेकिन मानता है कौन?

इस ताज़ा सिलसिले की शुरुआत 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के आगमन से हुई। सत्ता के 17वें दिन मोदी सरकार ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 122 मीटर से 139 मीटर – यानि 17 मीटर – बढ़ाने का निर्णय ले लिया। ये फ़ैसला ग़ैरक़ानूनी है। 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सैफ़ुद्दीन सोज़, मीरा कुमार और पृथ्वीराज चव्हाण, जो कि उनके मंत्रिमंडल के सदस्य थे, को नर्मदा घाटी में भेजा था। इसके बाद भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को लिखित आश्वासन दिया था कि पुनर्वास पूरा हुए बग़ैर बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ाई जाएगी। उस वक़्त के अटर्नीजनरल ग़ुलाम वहनवती ने लिखित राय दी थी कि बांध बढ़ाने का काम सुप्रीम कोर्ट की मंज़ूरी के बिना नहीं किया जा सकता है। लेकिन मोदीजी ने इस इलाक़े से जुड़े अपने तीन मंत्रियों – उमा भारती, थावरचंद गेहलोत और प्रकाश जावडेकर – से इस बारे में पूछा तक नहीं और निर्णय ले लिया।
आख़िर कितने परिवारों का पुनर्वास किया जाना है? आंकड़ों का आडंबर सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश शासन ने खोला है। डूब में आने वाले सबसे ज़्यादा – 192 गांव और एक नगर – इसी राज्य में है। पंद्रह मार्च 2005 के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि हर वयस्क पुत्र सहित हर परिवार को पात्रता अनुसार खेती-लायक और सिंचाई-लायक ज़मीन देकर और भूमीहीनों का पुनर्वास पूरा करके ही बांध की उंचाई बढाई जा सकती है। फिर भी 2008 से और एक खेल शुरू हुआ – ‘‘बैकवाटर लेवल’’ कम करने का। तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस पर रोक लगायी तो नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने केन्द्रीय जल आयोग का सिक्का लगवाकर अवैज्ञानिक रिपोर्ट को सही साबित किया। इससे मध्यप्रदेश के 15,900 परिवारों को डूब से बाहर किया गया।
यह बात 2016 में पहली बार सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र द्वारा पेश की गयी, वह भी विस्तृत ब्यौरा के बिना। इन परिवारों की संपत्ति अधिग्रहित होकर कम मुआवज़े में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, मध्यप्रदेश, के नाम नाम चढ़ गई है। इनमें कइयों को वैकल्पिक पुनर्वास के लाभ भी दिए गये है। लेकिन किसी परिवार को एक पत्र तक देकर ख़बर नहीं कर दी है। क्या होगा इनका भविष्य? 2013 में क्षेत्र में बाढ़ न आते हुए भी जो डूब आई उससे साबित है कि बांध की पूरी उंचाई पर परिवारों को डूब भुगतनी ही पड़ेगी।

सरदार सरोवर बांध को लेकर सरकारी झूठ और छल का सिलसिला शुरू से ही देखने को मिला। 1994 में सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 69 मीटर कर दी गई थी जिसकी वजह से तीनों राज्यों के हज़ारों गांव डूब गए थे। इसके बाद प्रशासन ने बांध की ऊंचाई 80 मीटर तक बढ़ाने का फ़ैसला लिया था। इस पर ज़बरदस्त विरोध हुआ और नवम्बर-दिसबर 1994 में भोपाल में 26 दिन के घाटी से प्रतिनिधि विस्थापित सीताराम बाबा, कमला यादव, केवलसिंग वसावे और मेधा पाटकर के दबाव में आकर मध्यप्रदेश विधानसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि विस्थापित होने वाले लोगों का पुनर्वास हुए बिना ये काम नहीं किया जाएगा। इतिहास गवाह है कि विधानसभा का ये वादा एकदम झूठा निकला।
इसके पहले 1990 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने मृणाल गोरेजी और कुछ विधायकों के साथ हेलीकाप्टर से सरदार सरोवर बांध का मुआयना किया था और फिर गुजरात में आकर ऐसा ही वादा किया था। बांध को फिर भी आगे बढ़ाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 1995 से 1999 तक बांध के काम को रोक रखा। नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर 2000 में अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि पुनर्वास और पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति कार्य पूरे हुए बग़ैर बांध की ऊंचाई 90 मीटर से ऊपर नहीं बढ़ाई जा सकती है। अदालत ने कहा कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पुनर्वास उपदल, पर्यावरणीय उपदल और हर राज्य में नियुक्त शिकायत निवारण प्राधिकरण (जो कि भूतपूर्व न्यायाधीशों की अध्यक्षता में गठित हुए) की मंजूरियों के बाद ही ऐसा करने दिया जाएगा।
जैसा कि आंदोलनकर्ता लगातार कहते रहे हैं, इन सोलह सालों में सरकारों ने न पुनर्वास और न ही पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति का कोई काम किया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित देवेंद्र पांडेय समिति ने 2010 में एक जांच रिपोर्ट में पर्यावरणीय कार्य में अपार त्रुटियां बताई थीं। फिर भी 2013 में गुजरात सरकार के – जिसके तब मोदीजी ही मुखिया थे – दबाव में अधिकारियों ने मंज़ूरी दे दी। उस वक़्त दावे किए गए कि घाटी में मलेरिया और फ़ायलेरिया जैसी बीमारियों की रोकथाम, मंदिरों-मस्जिदों और अन्य सांस्कृतिक स्थलों के स्थलांतरण, बांध के निचेवास के लिए पर्याप्त पानी छोड़ने, और मत्स्य संपदा विकास के लिए करोड़ों रुपए ख़र्च किए गए हैं, जो की सफ़ेद झूठ है।
सरदार सरोवर बांध को लेकर प्रशासनिक भ्रष्टाचार की जांच न्यायाधीश झा आयोग ने सात साल – 2008 से 2016 – की। ये आयोग नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट द्वारा नियुक्त किया गया था। आयोग की रिपोर्ट ने 1,589 फ़र्ज़ी विक्रय पत्रों का पर्दाफ़ाश किया जिसमें दलालों और अधिकारियों कि मिलीभगत सामने आई। पुनर्वास के अन्य कार्यों में एक और बड़ा भ्रष्टाचार 40 सरकारी इंजीनियरों ने किया है। सच्चाई सरकारी दावों के प्रतिकूल है। आज भी पुनर्वास स्थल अधिकांश ख़ाली हैं और गांव भरेपूरे। आयोग ने 1,500 करोड़ रुपए से अधिक के इस भ्रष्टाचार के लिए अधिकारियों और दलालों की मिलीभगत को ज़िम्मेदार बताया।
अमानवीय विकास के इस प्रतीक सरदार सरोवर बांध परियोजना में पिछले 35 सालों में सिर्फ़ 35 प्रतिशत ही नहरें बन पाई हैं। इसका पानी कच्छ सौराष्ट्र के आम लोगों को कम और उद्योगों को – जैसे कि कोकाकोला और कार बनाने वाली कंपनियों को – अधिक मिल रह है। सौराष्ट्र में पाइपलाइन से पानी देने की योजना का सफल होना मुश्किल है। धरोई पाइपलाइन अभी तक नहीं चली है। मोदीजी की हर योजना कंपनियों के हित में होती है, दावे भले लोगों के पक्ष में हो।

मोदी सरकार की नीतियां साफ़ तौर पर किसानों दलितों और आदिवासियो के ख़िलाफ दिखाई दे रही हैं। गुजरात में दलित समाज के लोगो सड़कों पर उतर आए है। सरदार सरोवर के गुजरात के ही आदिवासी विस्थापित 15 जुलाई से रोज़ 100 की संख्या में क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। मध्यप्रदेश के बड़वानी ज़िले में ही गांधी समाधि के पास राजघाट पर नर्मदा-जल-जंगल-ज़मीन हक़ का सत्याग्रह 30 जुलाई से जारी है। इनमें देशभर के 400 समर्थक की हाज़िरी में कुमार प्रशांत जी, डॉ. सुनीलम, मेजर जनरल वोबंतकेरे, अरुण श्रीवास्तव (उत्तरप्रदेश), बी आर पाटिल (विधायक, कर्नाटक) के अलावा झारखण्ड पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली से विविध संगठनों के कार्यकर्ता विघार्थी आदि भी जुड़े हैं।
मध्यप्रदेश के बड़वानी ज़िले में राजघाट पर सितंबर 16 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जी नर्मदा घाटी में पधारेंगे। हमें हर समतावादी, ग़ैरसांप्रदायिक संगठन और राजनितिक दल का समर्थन चाहिए। जिससे कि भ्रष्टचार, अत्याचार, अन्याय व विनाश पर आधारित विकास के विरोध में हमारी लड़ाई और मज़बूत हो सके। नर्मदा ही नहीं हर नदी और घाटी को, प्रकृति और खेती को, जनतंत्र को बचाने की लड़ाई हम लड़ेंगे और जीतेंगे।
नोट – नर्मदा नदी की लंबाई 1312 किमी है। यह मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात से समुद्र में मिलती है।









Since the campaign to push and promote Narendra Modi as a prime ministerial candidate began, and was remorselessly funded by corporate houses from 2013 on, the current dominant Indian political regime’s relationship with an autonomous media has been the subject matter of furious debate. Heavy corporate investment in the election campaign and the same corporate share in television network holdings have given a further twist to the debate. Now, in 2016, even a Canadian Radio network appears to have succumbed to pressures to stifle free expression