बाबा साहब अंबेडकर की बड़ी सी तस्वीर के साथ हॉस्टल से बाहर आते हुए रोहित वेमुला की तस्वीर हर छात्र और छात्रा के कमरे में होनी चाहिए। हाल फिलहाल के तमाम छोटे-बड़े आंदोलनों की यह सबसे महान तस्वीर है।
रोहित और उसके दोस्त बाहर आते हुए चुनौतियों से बेख़ौफ़ है क्योंकि उनकी ज़िंदगी का मकसद उनके साथ है। रोहित एक फ़िलॉसफ़र था। आज हमारे बीच होता तो आज़ाद भारत में पैदा हुए कांशीराम के बाद अंबेडकरवादी आंदोलन का सबसे बड़ा नायक बनता। जब पूरा भारत सांप्रदायिक शक्तियों के ख़ौफ़ से सहमा हुआ था, तब रोहित और उसके दोस्त हैदराबाद में चुनौती दे रहे थे। महान नेताओं के यही लक्षण होते हैं। अफ़सोस रोहित हमारे बीच नहीं है। वो चला गया मगर करोड़ो युवाओं को ख़ौफ़ से आज़ाद कर गया। काश वो होता तो आने वाले दिनों में आज़ादी और भी बड़ी होती।
रोहित वेमुला का सुसाइड नोट दरअसल एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। फाड़ कर फेंक दिया जाने वाला काग़ज़ का टुकड़ा नहीं है । उसका प्रिंट आउट लेकर हर छात्र छात्रा को अपने कमरे में लगा देना चाहिए। जहाँ पर रोहित अपनी कहानी ख़त्म करता है, वहाँ से उसकी कहानी शुरू करने के लिए । रोहित का सुसाइड नोट राजनीतिक कार्यकर्ता को असरदार बनाता है। विद्यार्थी को धारदार बनाता है और एक प्रेमी को बेहतर प्रेमी।
" I loved Science, Stars, Nature, but then I loved people without knowing that people have long since divorced from nature. Our feelings are second handed. Our love is constructed. Our beliefs colored. Our originality valid through artificial art. It has become truly difficult to love without getting hurt.
The value of a man was reduced to his immediate identity and nearest possibility. To a vote. To a number. To a thing. Never was a man treated as a mind. As a glorious thing made up of star dust. In every field, in studies, in streets, in politics, and in dying and living."
" हमारी भावनाएँ दूसरे से उधार में मिली हुई हैं। हमारा प्यार बनावटी है। " मुझे यक़ीन है रोहित के इस सुसाइड नोट का अलग अलग संदर्भों में पाठ किया जाएगा, इस दुख के साथ कि 26 साल की उम्र का यह नौजवान अपनी सोच में कितना आगे था, उसके ख़्वाब कितने ख़ूबसूरत रहे होंगे, वो हम सबको बेहतर बनाने निकला था, क्या पता हम सबके दरवाज़े तब उसके लिए बंद रहे होंगे।
इसलिए ख़ुलापन और नयापन ज़रूरी है। रोहित की राह पर चलने के लिए ज़रूरी है कि नए तरीके से किया जाए। सोचा जाए। लिखे हुए को फिर से पढ़ा जाए और किये हुए की फिर से सख़्त समीक्षा हो। अनेक प्रकार के अंबेडकरवादी समूह हैं। आंदोलन हैं। उन सबका अपनाअपना मकसद है मगर सबका एक मकसद नहीं है। खोमचे खुल गए हैं। खाँचे बन गए हैं। ताक़तों का बँटवारा हो गया है। ज़रूरी हो कि सबकी सख़्त समीक्षा हो। ख़ूबसूरत सपने भी जड़ता के शिकार हो जाते हैं।
डरना हमारी ज़िंदगी का हिस्सा हो गया है। इस डर से आज़ाद करने वालों की तादाद बढ़ती रहनी चाहिए। छोटे छोटे खाँचों में असफल हुए तमाम आंदोलनों और नेताओं को हाथ मिला लेना चाहिए। ये वक्त व्हाट्स अप ग्रुप बना कर उसी में गुड मार्निंग और गुड ईवनिंग करने का नहीं है। व्हाट्स अप पर पोलिटिकल ग्रुप नहीं बनता है। सड़क पर उतरे बिना किसी भी राजनैतिक विचार का परीक्षण नहीं होता है। लिखने के माध्यमों की ताकत जरूरी है मगर बदलाव लिख कर नहीं आएगा। गली कूची में जाकर मिलकर बात करने से आएगा। बात पर बात ही न चले। बात के बाद आवाज़ भी उठे।
भारत की नौजवानी राजनीतिक रूप से जड़ता के दौर में है। वो उफान मारती है मगर साहिल से टकरा कर लौट जाती है। तर्कों का विस्तार कम हो गया है। उन भावनाओं को ही तर्क समझ लिया गया है जिसे रोहित बनावटी कहता था। आंदेलनकारी छात्रों के कमरे में किताबें तो हैं मगर रोहित की तरह चमकते तारों को देखते हुए ख़्वाब देखने का फ़न नहीं है। हर नौजवान को ख़ुद से पूछना चाहिए। उसका सपने क्या हैं? उसके सपने कहाँ हैं ? वो सपने क्यों देखते हैं? क्या सपने सिनेमा हैं जिन्हें तीन घंटे के बाद भुला दिया जाना चाहिए?
हम सब पर घटिया राजनीति थोपी गई है। घटिया नेता थोपे गए हैं। थोड़ी बहुत आलोचना के बाद हम उन्हीं में से बेहतर खोज लेते हैं। नई बहस की गुज़ाइश नहीं है। सड़ी गली भावनाओं के आहत होने का दौर है। कुछ नया चाहिए। कुछ ताज़ा चाहिए। ऐसा कुछ कि एक आँधी उठे और पुराने पेड़ उखड़ जायें। नए की गुज़ाइश बने।
डरने वालों को दिन में दो बार बाबा साहब की तस्वीर हाथ में लेकर हॉस्टल से निकलने का अभ्यास करना चाहिए। बेफ़िक्री को जीना शुरू कीजिये। कुछ जाता है तो जाने दीजिये। दाँव पर लगाने वाला बाज़ी हार कर प्रेस को फोन नहीं करता है। वो अगली जीत का ख़ाका बनाने लगता है। ऐसे लाखों दीवानों का मानवचक्र बन जाना चाहिए। एक के साथ सब लड़े और सबके साथ हरेक लड़े।
आप किसी के सुसाइड नोट से एक साल बाद भी यूँ ही कोट नहीं कर देते हैं। हमारी
सोचने समझने की तमाम सीमाओं तक पहुँच कर
हर तरह के आंदोलनों में जड़ता आती है।
रोहिता वेमुला की याद में इस साल बीते तमाम वर्षों के समतामूलक समाज निर्माण की संघर्षों का मूल्याँकन होना चाहिए।
(यह आर्टिकल डॉ. ओम सुधा के ब्लॉग चौबटिया से साभार लिया गया है।)