उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2017
2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के हाथों कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त के बाद उस के रवैय्ये से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कांग्रेस अपना संतुलन पूरी तरह से खो चुकी हो और मृत शैय्या पर पड़ी आख़िरी सांसें गिन रही हो. इस मायूसी भरे माहौल में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हाल ही में अति-पिछड़ों को उत्तर प्रदेश में आरक्षण देने की घोषणा करके चुनाव प्रचार को एक नया आयाम प्रदान किया है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आशंकाओं के बीच कांग्रेस की यह घोषणा चुनाव प्रचार का एजेंडा बदल सकता है.
जैसा कि हम जानते हैं देश के कई राज्यों में ओबीसी आरक्षण के अन्दर सब-कोटा का प्रावधान है. जहाँ केरल में ओबीसी कोटा के भीतर आठ सब-कोटा हैं, वहीँ आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में पांच, और तमिल नाडू और बिहार में दो हैं. बिहार में पिछड़ों को 12% और अति-पिछड़ों को 18% आरक्षण मिलता है. बिहार में मुसलमानो की ज़्यादातर पिछड़ी जातियां अति-पिछड़ा लिस्ट में है. अगर उत्तर प्रदेश पर नज़र डालें तो हिन्दू अति-पिछड़ों की आबादी 18% हैं और मुस्लिम अति-पिछड़े (पसमांदा मुसलमान) करीब 14% हैं [उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या 18.5% है और इस का करीब 80% पसमांदा मुसलमान हैं]. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में अति-पिछड़ों की आबादी लगभग 32% है और तेज़ी से राजनीतिकरण होने के बावजूद अभी भी इनकी कोई पैत्रिक पार्टी नहीं है.
पिछले कई चुनाव के नतीजों से यह स्पष्ट है कि अति-पिछड़ा वह वोट बैंक है जो जिस तरफ करवट लेता है उस पार्टी को रेस जिता देता है. बिहार में 2005 और 2010 के विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार की जीत में सबसे बड़ी भूमिका अति-पिछड़ों की रही थी. जहाँ 2005 में अति-पिछड़ों (पसमांदा समेत) का नीतीश कुमार के प्रति झुकाव के कारण लालू यादव को धूल चाटनी पड़ी थी, वहीँ 2010 में ग्राम पंचायत में अति-पिछड़ों को आरक्षण देने का भरपूर लाभ नीतीश कुमार को मिला. उत्तर प्रदेश के 2012 विधान सभा चुनाव में भी अति-पिछड़ों का सबसे अधिक वोट समाजवादी पार्टी को गया और उसकी विजय का मुख्य कारण बना.
यह बात साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में लगातार सपा और बसपा की सरकारें बनने के बाद भी अति-पिछड़ों को आरक्षण नहीं मिलने से उनमें उदासीनता, निराशा और क्षोभ व्याप्त है. कांग्रेस ने आरक्षण देने की घोषणा करके अति-पिछड़ों की इस मनोदशा का फायदा उठाने की कोशिश की है. अति-पिछड़ों में बड़ी जातियां निषाद, नूनिया, राजभर, कुम्हार, धीमर, जुलाहा (अंसारी), कसाई (कुरैशी), लोहार (सैफी), धुनिया (मंसूरी) इत्यादि तेज़ी से राजनितिक विकल्प तलाश कर रहे हैं. ख़ास तौर पर 2012 के बाद से पसमांदा बिरादरियों पर हुए सतत अत्याचार से सपा से उनका पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. मुज़फ्फरनगर दंगों में मारे जाने वाले ज़्यादातर मुसलमान पसमांदा थे, दादरी में मुहम्मद अखलाक सैफ़ी बिरादरी से थे और अभी हाल ही में बिजनौर की हिंसा की लपेट में धोबी बिरादरी के मुसलमान आये थे. बसपा को 2002 के विधान सभा चुनाव में जहाँ 9.7% मुस्लिम वोट मिला था, वहीँ 2007 में 17% और 2012 में 20% मिला. अभी तक बसपा को जितना वोट भी मुसलमानों का मिला है CSDS-लोकनीति के आंकड़े बताते हैं कि उसमे सबसे ज्यादा हिस्सा गरीब, पसमांदा मुसलमानों का रहा है. अशराफ़ (सवर्ण) मुसलमानों की पहली पसंद तो हमेशा सपा ही रही है. हालाँकि बसपा ने कभी भी खुल के मुसलमानों के अन्दर के जाति प्रश्न को नहीं उठाया है और उनको एकांगी नज़र से देखती रही है तब भी इस बार बसपा के शासन काल में दंगों पर पूर्ण लगाम के इतिहास की वजह से पसमांदा मुसलमानों का वोट उसकी तरफ जाने कि प्रबल सम्भावना है.
इस सन्दर्भ में यदि बसपा अति-पिछड़ा आरक्षण के प्रश्न पर तुरन्त नीतिगत फैसला नहीं लेती है तो अति-पिछड़ों का, और ख़ास तौर पर पसमांदा मुसलमानों का, कांग्रेस की ओर झुकाव बढ़ सकता है. ऐसा होने पर सबसे ज्यादा नुकसान बसपा को होगा क्योंकि दलित और अति-पिछड़ा बसपा का परंपरागत सामाजिक आधार रहा है. बसपा एक और गंभीर भूल कर रही है. ‘दलित-मुस्लिम’ एकता के नारे से भाजपा को धार्मिक ध्रुवीकरण करने की ज़मीन मुहैय्या करा रही है. ‘मुस्लिम’ राजनीती बुनियादी तौर पर सवर्ण मुसलमानों की राजनीती है और धार्मिक उन्माद पर फलती-फूलती है. इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को होता है जो मुस्लिम राजनीती का डर दिखा कर हिन्दू वोट बटोरती है. बसपा दलित+मुसलमान (21%+18%) का समीकरण बनाकर 39% वोट पर निगाह लगा के बैठी हुई है (30% पर सरकार बनती है). लेकिन उसे यह अंदाज़ा नहीं है कि ऐसी स्तिथि में जबकि समाजवादी पार्टी के खिलाफ विरोधी लहर चल रही हो बसपा का प्रत्यक्ष ‘मुस्लिम’ कार्ड तमाम गैर-जाटव दलित, ग़ैर-यादव पिछड़ा (कुर्मी/कुशवाहा/लोध), सवर्ण हिन्दू (ब्राह्मण/राजपूत/वैश्य) और हिन्दू अति-पिछड़ा को भाजपा की गोद में भी डाल सकता है. इस के अतिरिक्त तथाकथित मुस्लिम वोट भी, तमाम अशराफ़ ठेकेदारों की वजह से, सपा को पूरी तरह छोड़ के उसके पास नहीं आने वाला है (2012 में सपा को मुसलमानों का 39% वोट मिला था). यह साफ़ है कि भाजपा को तभी फायदा होगा जब कि धार्मिक ध्रुवीकरण हो और भारत में धार्मिक ध्रुवीकरण को केवल जातिगत ध्रुवीकरण ही काट सकता है. ऐसे में, विशेष तौर पर कांग्रेस के अति-पिछड़ा कोटा के ऐलान के बाद, बसपा को अपनी रणनीति पर पुनः विचार करना चाहिए और ‘दलित-मुस्लिम’ एकता कि जगह ‘दलित-अतिपिछड़ा’ एकता पर ज़ोर देना चाहिए. चुनावी समीकरण के भी लिहाज़ से यह बड़ा वोट-बैंक (21% दलित+32% अति-पिछड़ा=53%) निर्मित कर रहा है और इस में 80% मुसलमान (पसमांदा) भी शामिल हैं.
संसदीय लोकतंत्र में किसी मुद्दे पर जो पहल करता है उसको सबसे ज्यादा फायदा होने की संभावना रहती है. किन्तु यहाँ मुद्दा सामाजिक न्याय और आरक्षण का है जिसपर कांग्रेस का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है. इसलिए अभी भी वक़्त है कि बसपा जल्द से जल्द अति-पिछड़ों को आरक्षण देने की घोषणा करे. विलम्ब जितना ज्यादा होगा बसपा का नुकसान बढ़ता जाएगा. इस मुद्दे पर बसपा की घोषणा पर अति-पिछड़े कांग्रेस की तुलना में ज्यादा भरोसा करेंगे. केवल एक बार घोषणा करने से बात नहीं बनेगी. प्रत्येक जनसभा में बहनजी को इसकी घोषणा करनी पड़ेगी जिससे अति-पिछड़ा का विश्वास बसपा पर बना रहे. इसलिए बसपा नौकरी में आरक्षण के साथ ग्राम पंचायत में भी अति पिछड़ों को आरक्षण देने की घोषणा करे. इससे कांग्रेस को भरपूर जवाब देने में मदद मिलेगी. उत्तर प्रदेश में पसमांदा आबादी अति-पिछड़े आरक्षण की मांग करती आयी है. बसपा द्वारा अति-पिछड़ा कोटे की घोषणा करने से मुसलमानो का ज्यादा वोट बसपा की ओर जाएगा. मुझे उम्मीद है कि बसपा के इस कदम न सिर्फ 2017 में लखनऊ बल्कि 2019 में दिल्ली भी बहनजी के शिकंजे में होगा.