Categories
Communal Organisations Communalism Dalit Bahujan Adivasi Dalits Freedom Hate Speech Politics Rule of Law Violence

भाजपा के खिलाफ क्यों उठ खड़े हुए हैं दलित? – 1

हिंदुत्व का दलित विरोधी रुख खुल कर सामने आने लगा है। भाजपा को अगले साल के विधानसभा चुनावों में इसके नतीजे भुगतने होंगे।

हाल में देश के अलग-अलग हिस्सों में उठ खड़े हुए दलितों के आंदोलन में भाजपा विरोध का एक खास रंग दिख रहा है। चाहे रोहित वेमुला की संवैधानिक हत्या पर देश भर में उठ खड़े हुए छात्रों के विरोध का मामला हो या फिर गुजरात में कथित गौरक्षकों की ओर से दलित युवकों की बर्बर पिटाई पर हर राज्य में उठ खड़े हुए आंदोलन का मुद्दा। मुंबई में अंबेडकर भवन गिराने के खिलाफ उनके समर्थकों के उमड़े जन-सैलाब का मामला हो या फिर राजस्थान में नाबालिग लडक़ी के रेप और हत्या के खिलाफ दिखा दलितों का गुस्सा। या फिर मायावती के खिलाफ भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर की बेहद अश्लील टिप्पणी के विरोध में सडक़ों पर दिखे विरोध का मामला।  इन सभी में भाजपा के खिलाफ दलितों का गुस्सा साफ देखा जा सकता है। भाजपा के दलित हनुमानों की टोली भले ही दलितों में भडक़ी आग को बुझाने की कितनी भी कोशिश क्यों न करें लेकिन यह अगले साल कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले बुझने से तो रही।

 दलितों के इन आंदोलनों में एक खास तरह की जागरुकता दिख रही है। अगर दलितों के बीच यह जागरुकता सचमुच ठोस है तो यह संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है। 
 

रोहित की बार-बार हत्या

रोहित की जिस तरह से संवैधानिक हत्या हुई, वह जगजाहिर है।  इसकी दोबारा चर्चा यहां जरूरी नहीं। लेकिन इसे जिस तरह से दबाने की कोशिश की गई वह वास्तविक हत्या से कम आपराधिक करतूत नहीं है।

दलितों के खिलाफ अत्याचार से जुड़े कानून के तहत गाछीबावड़ी पुलिस ने हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के विवादास्पद वाइस चासंलर अप्पा राव पोडाइल, मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, और एबीवीपी के अध्यक्ष एन सुशील कुमार के खिलाफ  रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए मामला दर्ज किया था। लेकिन  पुलिस ने इस मामले में कोई छानबीन नहीं की। रोहित की हत्या ने देश भर छात्रों का बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। छात्रों ने पूरे देश में इस मामले में लडऩे के लिए संयुक्त एक्शन कमेटी खड़े कर दिए। छात्रों के इस विरोध ने अप्पा राव को यूनिवर्सिटी कैंपस  से भागने पर मजबूर कर दिया।  लेकिन छात्रों का गुस्सा थोड़ा कम हुआ तो अप्पा राव 22 मार्च को फिर कैंपस में लौट आए। जाहिर है, छात्रों को विरोध करना ही था और उन्होंने भारी पुलिस मौजूदगी के बावजूद वाइस-चासंलर का घर घेर लिया। अंदर अप्पा राव एक मीटिंग कर रहे थे। छात्र यह देख कर भौचक थे कि अंदर उनके साथ मीटिंग में एबीवीपी के सदस्य मौजूद थे। विरोध कर छात्र अंदर घुसना चाहते थे। इस पर पुलिस ने उन पर जबरदस्त लाठी चार्ज किया। दो फैकल्टी सदस्यों को भी उन्होंने नहीं छोड़ा। पुलिस ने उन्हें कई किलोमीटर तक खदेड़ा। छात्रों को पीटा और छात्राओं के साथ छेडख़ानी की। छात्रों और फैकल्टी सदस्यों पर नए दौर के पुलिस अत्याचार हुए। मानो इतना काफी नहीं था। जिन प्रोफेसरों को गिरफ्तार किया गया था उन्हें निलंबित कर दिया गया। जब ये प्रोफेसर यूनिवर्सिटी गेट पर आमरण अनशन पर बैठ गए और जनता और तमाम प्रगतिशील संगठनों की ओर से उनके लिए समर्थन का सैलाब उमड़ पड़ा तो अप्पा राव डर गए और उन्होंने निलंबन वापस ले लिए।

मानव संसाधन मंत्री जैसे मंत्रालय का जिम्मा लिये बैठी बेहद कम काबिल मंत्री स्मृति ईरानी पालिर्यामेंट में अपनी ड्रामाई क्षमता का प्रदर्शन करते हुए झूठ पर झूठ बोलती रहीं। अपने तुच्छ कदमों के समर्थन में उनके झूठ लगातार जारी रहे।  उन्होंने रोहित के समर्थन में आंदोलन कर रहे छात्रों पर तीखे हमले किए।

रोहित की जाति पर सवाल उठा कर इस मुद्दे को भटकाने की कोशिश की गई। मानो रोहित का दलित होना उन्हें तुरंत न्याय मुहैया करा देता। अगर रोहित दलित नहीं होते तो उनके खिलाफ हुआ अपराध छोटा हो जाता।

उस दौरान तेलंगाना सरकार की पूरी मशीनरी और उसके 600 लोग (इनमें कई दलित थे) ने रोहित की दुखी मां पर पिल पड़े कि वह अपनी जाति साबित करंð।  रोहित के पास दलित होने का सर्टिफिकेट था। वह दलित के तौर पर जिए और मरे। लेकिन तेलंगाना प्रशासन यह झूठ फैलाता रहा कि रोहित दलित नहीं वडेरा जाति के थे। महादुख की इस घड़ी में रोहित का परिवार यह साबित करने के लिए दौड़ता रहा कि वह वास्तव में दलित थे। खुशकिस्मती से सरकार की चालाकियां नाकाम रहीं और रोहित का दलित होना साबित हो गया।

लेकिन जैसी कि उम्मीद थी इससे भी दोषियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वे अपने सत्ता केंद्रों पर काबिज रहे। अप्पा राव ने दमन की हद पार कर दी। रोहित और यूनिवर्सिटी के बर्खास्त दोस्तों के अस्थायी ठिकाने दलित विधि को गिरा दिया गया। उनके आंदोलन के प्रतीक स्थल के तौर पर स्थापित शॉपकॉम को भी हटा दिया गया। अंबेडकर की मूर्ति चुरा ली गई और रोहित की टंगी तस्वीर खराब कर दी गई।

 

गुजरात में गुंडागर्दी

11 जुलाई को गुजरात में सोमनाथ जिले के ऊना तालुका के मोटा समधियाला गांव में कुछ स्वयंभू गो-रक्षकों ने मरे हुए जानवरों की खाल निकालने का काम करने वाले कुछ युवकों पर गोवध का आरोप लगाते हुए उनकी बर्बर पिटाई शुरू कर दी। गो रक्षा समिति के कुछ लोगों ने पहले पूरे परिवार की पिटाई की और फिर चार युवकों को उठा कर ले गए। उन्हें कमर तक नंगा कर दिया गया। जंजीरों से बांधा गया और एसयूवी से बांध कर घसीट कर ऊना शहर तक ले जाया गया। एक पुलिस स्टेशन के ठीक सामने उनकी एक बार पिटाई की गई और यह सबकुछ बड़ी भीड़ के सामने घंटों तक होता रहा।

पिटाई करने वाले कानून से इतने बेखौफ थे कि उन्होंने पूरी पिटाई की वीडियो बनाई और उसे वायरल कर दिया। उनकी इस करतूत ने दलितों में गुस्सा भर दिया और वे स्वत:स्फूर्त ढंग से विरोध प्रदर्शन के लिए सडक़ों पर उतर आए। हालांकि गुजरात दलितों के लिहाज से कोई आदर्श राज्य कभी नहीं रहा लेकिन दिनदहाड़े उन पर इस तरह का अत्याचार इससे पहले वहां कभी नहीं हुआ था।

इस घटना  के बाद वहां खुद ब खुद दलित विरोध की लहर उमड़ पड़ी। करीब 30 दलितों ने अपने प्रति हो रहे अन्यायों का पर्दाफाश करने के लिए खुदकुशी की कोशिश की। लेकिन सबसे कारगर रहा दलितों वह अद्भुत विरोध, जिसके बारे में पूरे देश में चर्चा हो रही है। विरोध के तौर पर दलितों ने कई जगहों पर कलक्टर के दफ्तर के बाहर जानवरों के कंकाल फेंक दिए। उन्होंने मरे हुए जानवरों को उठाने और उनकी खाल निकालने का धंधा बंद कर दिया । दलित विरोध के प्रति अपना समर्थन और अद्भुत एकता जारी रखते हुए उन्होंने इससे होने वाली कमाई से हाथ धोने से भी परहेज नहीं किया।
 

अंबेडकर की विरासत का विध्वंस

25 जून को मुंबई में तडक़े खुद को अंबेडकरवादी बताने वाले सैकड़ों बाउंसर आए और दलित संघर्ष और अस्मिता के प्रतीक और प्रसिद्ध बिल्ंिडग अंबेडकर भवन और अंबेडकर प्रेस गिरा दिया। दादर में यह कुकृत्य रिटायरमेंट के बाद चीफ इनफॉरमेशन ऑफिसर के मलाईदार कुर्सी पर काबिज रत्नाकर गायकवाड़ के इशारे पर हुआ। बाबा साहेब से जुड़े इस प्रेस का ऐतिहासिक महत्व था। उनके दो अखबार जनता और प्रबुद्ध भारत यहीं से प्रकाशित होते थे। यहीं से इनकी छपाई भी होती थी।  यह प्रेस 1940 से ही अंबेडकरवादी आंदोलन का कें द्र रहा था। उनकी मृत्यु के बाद भी यह प्रेस इस आंदोलन का केंद्र बना रहा।  नामातंर आंदोलन समेत कई आंदोलनों की योजना यहीं से बनी और यहीं से इन्हें चलाया भी गया। दूसरा अंग्रेजी के यू आकार का बनाया गया एक मंजिला अंबेडकर भवन 1990 में स्थापित किया गया था। इन दो भवनों का यह कह कर गिराना कि ये बेहद कमजोर हो चुके हैं और खतरनाक हैं, सिर्फ बहाना है। यह इन भवनों की गिराने की साजिश थी। जिस निर्लज्ज तरीके से इस भवन को गिराने के तर्क दिए गए और जिस तरह के अहंकार का प्रदर्शन किया गया या फिर जिस तरह के घटनाक्रम सामने आए, उससे यह साफ हो गया है कि यह राज्य में भाजपा के बड़े नेताओं  की साजिश थी। मुख्यमंत्री को ट्रस्ट की विवादित स्थिति के बारे में अच्छी तरह से पता था। ट्रस्ट ने यहां 17 मंजिल के अंबेडकर भवन बनाने के लिए चुपचाप कहीं और भूमि पूजन करा लिया था। मुख्यमंत्री ने इसके लिए 60 करोड़ रुपये का अनुदान दिया था। इसलिए 25 जून को जो हुआ वह सीधे तौर आपराधिक कृत्य था और इसके लिए गायकवाड़ को सार्वजनिक रूप से माफी मांगने पर मजबूर किया गया। इस काम के लिए तो गायकवाड़ को गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए लेकिन उनके संवैधानिक पद का झूठा बहाना बना कर ऐसा नहीं किया गया।

गायकवाड़ और भाजपा सरकार की इस कारस्तानी से नाराज होकर मुंबई में 19 जुलाई को विशाल प्रदर्शन रैली हुई। लेकिन इस पूरे एपिसोड ने दलितों में वर्ग विभाजन को एक बार अपने भोंडे रूप में पूरी तरह उजागर कर दिया।  एक ओर विदेश में रहने वाले दलितों, उच्च मध्य वर्ग के दलितों और दलित ब्यूरोक्रेट्स के भ्रष्टाचार के पैसे पर पलने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने गायकवाड़ का पक्ष लिया, जबकि अन्य दलितों ने उसकी गिरफ्तारी की मांग की और अंबेडकर बंधुओं का  उनके रिश्तेदारों का समर्थन किया। अंबेडकर के तीनों पोतों ने आम तौर पर स्वतंत्र रुख अख्तियार किया हुआ है। उन्होंने हमेशा कांग्रेस और भाजपा से दूरी बना रखी है। राजनीतिक रूप से उन्होंने जनसंघर्षों का पक्ष लिया है।  भले  ही वे कितने भी कमजोर क्यों न हो गए हों लेकिन अंबेडकर प्रतिष्ठानों के वे एक मात्र प्रतिनिधि हैं। वे ही उन प्रतिष्ठानों के वारिस हैं, जो हिंदुत्व की ताकतों के खिलाफ तन कर खड़े हैं। लिहाजा भाजपा के लिए यह जरूरी था कि उनकी छवि खराब की जाए। इसके लिए मध्यवर्गीय दलितों के एक वर्ग को उकसाया भी गया। उन लोगों ने धीरे-धीरे यह प्रोपगंडा करना शुरू किया कि बाबा साहेब के वारिस अंबेडकरवादी नहीं बल्कि माओवादी समर्थक हैं। कम से कम एक दलित अखबार महानायक लगातार बड़े जोर-शोर से पिछले पांच साल से इस झूठ का प्रचार कर रहा  है।

अंबेडकर से जुड़े भवन औैर प्रेस को गिराने से जुड़े इस नाटक के दौरान भाजपा ने ऐसी ही कुछ मकसदों को हासिल करने की कोशिश की। गायकवाड़ ने अंबेडकर के तीनों पोतों और उनके पतिा यशवंतराव अंबेडकर को नाकारा वारिस करार दिया और कहा कि ये लोगों की जमीन हड़पने वाले गुंडे हैं।

गायकवाड़ के सामने दो काम थे। एक – अंबेडकर भवन का विध्वंस और दूसरा उनके वारिसों को बदनाम करना। इस काम में भाजपा उनकी मदद कर रही है। लेकिन इस चक्कर में वह यह नहीं देख पा रही भाजपा के खिलाफ देश भर में गुस्सा फैलता जा रहा है।  पुलिस और सरकारी मशीनरी जिस तरह से काम कर रही हैं और जिस निर्ममता से दलितों से निपट रही है, उससे उसका दलित विरोधी रुख साफ है।

जारी…..
 

Exit mobile version