भूखे आदिवासियों के बीच कैशलेस ट्रांजेक्शन का जाप

मोदी सरकार अपनी सनक में आदिवासियों से डिजिटल ट्रांजेक्शन के लिए कह रही है। भूखे आदिवासियों से डिजिटल ट्रांजेक्शन के लिए कहना क्रूर मजाक नहीं तो और क्या है?

Adivasis
Image: NDTV

मध्य भारत के दूरदराज गांवों के जनजातीय लोग भूख से मर रहे हैं।
 
नीचे की कुछ घटनाओं पर गौर फरमाएं 

1.  झारखंड के हजारीबाग जिले के काटकामसांडी ब्लॉक के सारुगारू गांव के इंद्रदेव माली की भूख से 11 दिसंबर, 2016 को मौत हो गई।
इंद्रदेव की पत्नी ने बताया कि दो महीने पहले ब्लॉक अधिकारियों ने उनका बीपीएल कार्ड हेल्थ कार्ड में बदल दिया था और इस तरह उनका राशन बंद हो गया। इंद्रदेव की मौत से ग्रामीणों में गुस्सा फैल गया। ब्लॉक अधिकारी तुरंत गांव पहुंचे और लोगों को शांत करने की कोशिश की । लेकिन पीड़ित परिवार को न तो कोई नकदी मिली और न ही किसी तरह की अन्य सहायता  (स्त्रोतः  प्रभात खबर, रांची संस्करण, 12 दिसंबर 2016)
 
क्या ऐसे परिवार को डिजिटल और कैशलेस ट्रांजेक्शन के लिए कहा जा सकता है।
 
2. झारखंड के ही गिरीडीह जिले के डुमरी ब्लॉक के गांव परतापुर की सबीजन बीबी अपने बच्चों ( एक लड़का, एक लड़की) के साथ दो दोनों से भूखी थी। जब उसे अपने बच्चों का भूख से बिलबिलाना बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह अपने बच्चों को कुएं में फेंक कर भाग गई। जब गांव वालों को बच्चों की लाश मिली तो उन्होंने सबीजन को ढूंढ़ कर पुलिस को सौंप दिया। पुलिस ने उसे तुरंत गिरफ्तार कर हत्या के आरोप में जेल में डाल दिया। ( स्त्रोत – हिन्दुस्तान रांची संस्करण, 14 दिसंबर 2016)। स्थानीय प्रशासन के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती थी।
 
क्या यह परिवार डिजिटल और कैशलेस ट्रांजेक्शन कर सकता है?
 
3. मध्य भारत के इलाकों में एक और त्रासद स्थिति उभर रही है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब भी आदिवासी अपनी छोटी बचत बैंक में जमा करने जा रहे हैं उन पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे नक्सलियों का पैसा बैंक में जमा करने जा रहे हैं। गाढ़ी कमाई के उनके पैसों को काला धन करार दिया जा रहा है। उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है और जेल में डाला जा रहा है। इस तरह पहले ही बेहाली में जी रहे आदिवासियों को पूरी तरह बरबाद करने का खतरनाक खेल चल रहा है।
 
क्या ऐसे आदिवासियों को कैशलेस और डिजिटल ट्रांजेक्शन का फरमान सुनाया जा सकता है।  

4. मध्य भारत के आधे गांवों में इंटरनेट कनेक्शन नहीं है। बिजली की कनेक्टिविटी ठीक नहीं है और आधी ग्रामीण आबादी निरक्षर है। ऐसे में आप इन लोगों को डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने के लिए कह सकते हैं?
 
क्या ऐसे में डिजिटल और कैशलेस ट्रांजेक्शन का दबाव डाला जा सकता है?
 
5.इधर हाल में इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली और बेंगलुरू की ओर से एक बड़ा नेशनल बेसलाइन सर्वे शुरू हुआ है। इसका मकसद लोगों के अलग-अलग अधिकारों पर एक स्टेटस रिपोर्ट पेश करना है। जून से अगस्त 2016 तक 12 राज्यों – बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के 1840 गांवों में सर्वे किए गए। ये आंकड़े परेशान करने वाले हैं।
 
आइडेंटिटी कार्ड- 62 फीसदी लोगों को जाति या जनजातीय सर्टिफिकेट नहीं है।
 
कइयों का कहना है कि जाति और जनजातीय सर्टिफिकेट बनवाने में उन्हें बेहद परेशानी होती है। निराश होकर वह सर्टिफिकेट बनवाने से तौबा कर लेते हैं। जाति और जनजातीय सर्टिफिकेट न होने से सरकार से मिलने वाली बेसिक सुविधाओं से उनके महरूम होने की पूरी आशंका होती है।

आधार कार्ड – 30 फीसदी परिवारों के पास आधार कार्ड नहीं है। एनएफएसए के तहत जब वो राशन कार्ड लेने जाते हैं तो उन्हें कार्ड इश्यू नहीं किया जाता है। पहले उन्हें आधार कार्ड के लिए अप्लाई करने के लिए कहा जाता है फिर राशन कार्ड के लिए। पुराने राशन कार्ड के आधार पर राशन देने से इनकार करना अन्याय है। इस तरह तकनीक को बहाना बना कर लोगों को भोजन के अधिकार से वंचित किया जा रहा है।
 
वोटर आई कार्ड- 10 फीसदी पात्र वोटरों के पास वोटर आई कार्ड नहीं है – ग्रामीण इलाके में आधार कार्ड और वोटर आई कार्ड से वंचित लोगों की संख्या ज्यादा है। नगरों और छोटे शहरी इलाकों में आई-कार्ड और वोटर आई कार्ड अपेक्षाकृत ज्यादा हैं। 
 

  •   – 55 फीसदी बुजुर्ग और 44 फीसदी विधवाएं पेंशन सुविधा से वंचित हैं- समाज के सबसे कमजोर यानी विधवाओं और बुजुर्गों की देखभाल अभी भी दूर का सपना बना हुआ है। सबसे ज्यादा भुक्तभोगी दलित और आदिवासी समुदाय के लोग हैं।

 
स्तनपान कराने वाली और गर्भवती को मिलने वाली वित्तीय सहायता – कानून के मुताबिक हर गर्भवती महिला को 6000 रुपये मिलने चाहिए ताकि वह खुद की देखभाल कर सके और अपने बच्चे को पोषणयुक्त भोजन दे सके। लेकिन देश भर में 66 फीसदी गरीब महिलाओं को यह नहीं मिल रहा है। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ, गुजरात, कर्नाटक, बंगाल में आबादी का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का और दलितों का है। इन सबसे ज्यादा गरीब आबादी के 70 फीसदी हिस्से को इसका लाभ नहीं मिल रहा है।
  
बच्चों की देखभाल- एनएफएसए में छह महीने से पांच साल के बच्चों को आंगनवाड़ी के जरिये एक बार मुफ्त खाना देने का प्रावधान है। इसी तरह स्कूल जाने वाले बच्चों को मिड डे मील के तहत एक बार भोजन देने का प्रावधान है। लेकिन पांच साल से कम से 40 और स्कूल जाने वाले 25 फीसदी बच्चे एक बार के भोजन के अधिकार से वंचित हैं। भोजन से वंचित रखने का उनके बाद के जीवन पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है।

राशन कार्ड – 20 फीसदी आबादी के पास कोई राशन कार्ड नहीं है। न नया न पुराना। झारखंड और महाराष्ट्र में आदिवासी आबादी काफी अधिक है। लेकिन इनमें से 35 फीसदी के पास राशन कार्ड नहीं है। इस तरह सरकार 20 फीसदी आबादी को भूखा छोड़ दे रही है।

घरों में पेयजल और टॉयलेट सुविधा – पेयजल सुविधा सिर्फ 44 फीसदी घरों में है जबकि टॉयलेट सुविधा 26 फीसदी घरों के पास । घरों में शौचालय न होने की स्थिति में लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं।
 
(इस लेख में इस्तेमाल आंकड़ें डॉ. जोसफ जेवियर के अध्ययन द एक्सेस टु एनटाइटलमेंट ऑफ द मार्जिनलाइज्ड के हैं। इसे लोकमंच सेक्रेटेराइट 10 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली – 110003 ने प्रकाशित किया है।)
 
क्या आप इन सुविधाओं से महरूम इनलोगों पर डिजिटल और कैशलेस ट्रांजेक्शनका फतवा लाद सकते हैं।   
 
दरअसल मोदी सरकार के इस क्रूर मजाक के कईमुखौटे हैं।

पहले कहा गया कि सरकार ने नोटबंटी का फैसला काला धन निकालने के लिए किया गया है। फिर कहा गया कि आतंकवादियों का पैसा निकालने के लिए ऐसा किया गया है।

कई मशहूर अर्थशास्त्रियों,लेखकों और कानूनी विशेषज्ञों ने अपने-अपने तरीके से इसके खिलाफ राय व्यक्त की है। लेकिन अलग-अलग आवाज उठाने के बजाय अब मिल कर एक साझा मंच पर आवाज उठाने की जरूरत है। जरूरत पड़ने पर कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।  मानवता के  लिए गरीबों पर यह अत्त्याचार बंद हो।     
 

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