रविश कुमार की पोस्ट को पढ़ते हुए सरला माहेश्वरी की कविता

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    हिटलर सिर्फ़ ‘हिटलर’ में नहीं होता !
    हाँ
    सही कह रहे हो तुम
    रवीश कुमार !
    हिटलर सिर्फ़
    हिटलर में नहीं होता
    हिटलर सिर्फ़ जर्मनी में नहीं होता
    हिटलर सिर्फ़
    अधकटी मूँछ और फ़ौजी पोशाक में
    नहीं होता
    हिटलर सिर्फ़ यहूदियों के
    ख़िलाफ़ ही नहीं होता
    हिटलर !
    बेरंग
    बेरूप
    हवा की तरह
    बे रोक-टोक
    कहीं भी चला जाता है
    सभी सरहदों के पार
    हर बंदिश को लाँघ
    वह तो
    हवा में विषाणु जैसे
    महामारी बन
    फैल जाता है !
    हिटलर !
    बनने से पहले
    दिखाई नहीं देता
    लेकिन
    हमारे भीतर घुसकर
    हमारे
    दिल-दिमाग़ को रोज़
    थोड़ा-थोड़ा जहरीला बनाता रहता है
    उसके निशान
    यहाँ-वहाँ
    उभरते रहते हैं,
    जब भी हम हिंसक जानवर की तरह
    करने लगते हैं बरताव
    हमारे अंदर का हिटलर
    कभी किसी को काटकर
    सताकर
    लेता है मज़ा !
    हमारी भी बन जाती है एक फ़ौज
    और उसकी
    अपनी एक संहिता !
    ख़ुद के लिये नहीं
    सिर्फ़ दूसरों के लिये
    अब सिर्फ़ हम
    और हम होते हैं,
    बाक़ी सब दुश्मन !
    हम
    धरती पर चाहते हैं
    सिर्फ़
    हमारा साम्राज्य !
    हमें
    धर्म, नस्ल, जाति, भाषा, रंग
    किसी भी बहाने
    ख़ून है बहाना
    यही है मज़ा !
    हम
    आतंक और ख़ौफ़ बन
    चाहते हैं
    बेधड़क घूमना
    पहन आदमी को
    जूते की तरह
    चाहते हैं
    खट-खट कर चलना
    छाती के पूरे ज़ोर के साथ
    आदमी एक चलता हुआ जूता,
    या एक चलती हुई
    लाश
    क्या फ़र्क़ है !
    देखो !
    यह होलोकास्ट म्यूज़ियम !
    यह सिर्फ़
    वाशिंगटन में
    जर्मनी में
    वियतनाम में
    अफ़्रीका में
    अफ़ग़ानिस्तान में नहीं
    हिटलर के ये यातना शिविर !
    मृत्यु शिविर !
    हर जगह हैं !
    हमारे यहाँ भी है
    जलियाँवाला बाग़
    या फिर गुजरात 2002 !
    और सिर्फ़ जूतों में तब्दील हो चुकी जो लाशें
    रवीश कुमार ! तुमने देखी !
    उन जूतों में ही
    इंसानियत अब तक
    ज़िंदा है,
    सिसकती, रोती और पुकारती
    एक तस्वीर के फ़्रेम में क़ैद
    फिर किसी यात्रा पर
    निकल पड़ने को तैयार
    रविश कुमार !
    सुन रहे हैं हम ये सिसकियाँ !
    ये पुकार !