क्लासरूम बनाम स्टाफरूम
by Dilip Mandal ,
22 Jan 2016
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भारत के कैंपस में असंतोष सतह के नीच अरसे से खदबदा रहा था. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या ने तापमान को बढ़ाकर वहां पहुंचा दिया, जहां यह असंतोष फट पड़ा. आज पूरे देश में, हर यूनिवर्सिटी में छात्र और तमाम अन्य लोकतांत्रिक और न्यायप्रिय जमातों के लोग जिस तरह सड़को पर उतर आए हैं, उसकी बुनियाद पुरानी है और बेहद सख्त भी. इसलिए उसमें किसी भी तरह की लहर या दरार पैदा करने के लिए किसी बड़ी घटना की जरूरत थी. अफसोस की बात है कि रोहित की जान जाने से पहले तक इस ओर ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं गया. यह सवाल सिर्फ कैंपस का न होकर भारतीय लोकतंत्र से जुड़ा है.
भारतीय राष्ट्र ने 1950 में गणतंत्र बनने के दौरान नागरिकों से कुछ वादे किए थे. उन्हीं वादों के आधार पर नागरिकों ने खुद को यह संविधान आत्मार्पित किया था. उन वादों में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व प्रमुख हैं. क्या राष्ट्र राज्य उन वादों पर खरा उतर पाया, जिनका वादा उन्होंने अपने सबसे छोटी मगर सबसे महत्वपूर्ण ईकाई यानी नागरिकों से किया था? मुझे संदेह है. संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और राष्ट्रनिर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के आखिरी भाषण में जब संविधान पर उठाए गए तमाम सवाल सवालों का जवाब दिया, तो साथ में यह चेतावनी भी दी थी कि 26 जनवरी,1950 को भारत अंतर्विरोधों के युग में प्रवेश करेगा, जहां राजनीतिक समानता होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी होगी. उन्होंने चेताया था कि अगर इस गैरबराबरी को खत्म नहीं किया गया, तो असंतुष्ट लोग संविधान के उस ढांचे को तबाह कर देंगे, जिसे संविधान सभा ने बनाया है. हम और आप आज जानते हैं कि वह असमानता घटने की जगह बढ़ी है.
अगर शिक्षा क्षेत्र को देखें, तो बाबा साहेब की चेतावनी के संदर्भ में हम समझ सकते हैं कि वहां क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है. भारत में पारंपरिक रूप से शिक्षा पर चंद सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहा है. यह शायद वैदिक काल से चला आ रहा है, जब महिलाओं और शूद्रों के लिए शिक्षा निषिद्ध थी, गुरुकुलों के द्वार बंद थे. अंग्रेजों के आने के बाद बहली बार शिक्षा के द्वारा तमाम जातियों के लिए खुले. 1848 में सावित्रीबाई फुले ने भारत में लड़कियों का पहला स्कूल पुणे के भिडेवाड़ा में खोला, जिसके लिए उनपर पत्थर और गोबर फेंके गए. आजादी के बाद से हालांकि कहने को, शिक्षा के द्वार सबके लिए खुले थे, पर शिक्षा क्षेत्र में सामाजिक वर्चस्व काफी हद तक जस का तस बना रहा.
इसमें अकेली दरार अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण की वजह से आई. इस वजह से इन समुदायों के विद्यार्थी उच्च शिक्षा पाने लगे. लेकिन शिक्षकों की सामाजिक संरचना जस की तस बनी रही. शिक्षा क्षेत्र में अगल बड़ा बदलाव 2006 में उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू होने से आया. इस वजह से सरकारी शिक्षा संस्थानों में वंचित समूहों यानी एससी, एसटी, ओबीसी के स्टूडेट्स की संख्या 50 परसेंट से ज्यादा हो हो गई. लेकिन इस दौर में भी शिक्षकों की सामाजिक संरचना नहीं बदली. खासकर प्रोफेसर पदों पर सवर्ण जातियों का दबदबा जस का तस बना रहा. इस बात को सरकार भी स्वीकार करती हैं. इसलिए लिए सभी दलों की सरकारें जिम्मेदार हैं.
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यह आज की तारीख में शिक्षा का बुनियादी अंतर्विरोध है. क्लासरूम और स्टाफरूम एक जैसे नहीं हैं. कैंपस में हो रही हिंसा और तनाव की आज यह सबसे बड़ी वजह है. कई स्तरों पर यह लगातार जारी है.वंचित जातियों के विद्यार्थों को एडमिशन न देना, उनकी स्कॉरशिप रोक लेना, रिटेन में अच्छा नंबर लाने के बावजूद उन्हें इंटरव्यू में कम नंबर देना, रिसर्च के लिए उन्हें सुपरवाइजर न देना, उन्हें क्लास में अपमानित करने जैसे हिंसक घटनाएं असंख्य हो रही हैं और उनमें से ज्यादातर मीडिया या प्रसासनिक तंत्र तक पहुंच ही नहीं पा रही हैं. आईआईटी रुड़की से एक साथ 71 छात्रों के निष्काषन होने पर अचानक पता चलता है कि उनमें लगभग सभी निम्न कही जाने वाली जातियों के हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में कई साल तक ओबीसी की सीटें जनरल कटेगरी को ट्रांसफर की जातीं रहीं और कोर्ट की फटकार के बाद ही यह बंद हुआ. एम्स से लेकर आईआईटी में दलित छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं. दरअसल कैंपस में तूफान मचा हुआ है. शिक्षक यह स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं कि छात्रों की सरंचना बदल चुकी है. इसने उन्हें अमानवीय और क्रूर बना दिया है. इसकी कीमत छात्रों को चुकानी पड़ रही है. अनंत रूपों में, अगर इस समस्या को सुलझाने की कोई बहस शुरू होने है तो इसके तीन बिंदु होने आवश्यक हैं. इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि शिक्षा जगत में भेदभाव, खासकर धार्मिक, लैंगिक और जातीय भेदभाव को दंडनीय अपराध घोषित करने का कानून संसद पास करे. उम्मीद की जानी चाहिए कि रैगिंग के अपराधियों को कैंपस से निकालने जैसे कड़े प्रावधान से जिस तरह देश में रैगिंग पर काफी हद तक रोक लग गई है, वैसा ही असर भेदभाव विरोधी कानून का होगा. दूसरे कदम के रूप में सरकार को, तीन साल के अंदर तमाम रिक्त पदों को वंचित समूहों के शिक्षकों से भर कर शिक्षक जगत में व्याप्त सामाजिक असमानता को कुछ हद तक, दूर करना चाहिए. आरक्षण के प्रावधानों को लागू न करने वाले कुलपतियों और संबंधित अधिकारियों को बर्खास्त कर उनकी पेंशन रोक देनी चाहिए. तीसरा, तमाम शिक्षकों के लिए एक रिफ्रेशर कोर्स चलाकर उन्हें भारतीय समाज की विविधता के बारे मे बताया जाए और उन्हें इस बात की ट्रेनिंग दी जाए कि बदलते भारत में उन्हें कैसे बर्ताव करना चाहिए.
क्लासरूम बनाम स्टाफरूम
by
Dilip Mandal
22 Jan 2016
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भारत के कैंपस में असंतोष सतह के नीच अरसे से खदबदा रहा था. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या ने तापमान को बढ़ाकर वहां पहुंचा दिया, जहां यह असंतोष फट पड़ा. आज पूरे देश में, हर यूनिवर्सिटी में छात्र और तमाम अन्य लोकतांत्रिक और न्यायप्रिय जमातों के लोग जिस तरह सड़को पर उतर आए हैं, उसकी बुनियाद पुरानी है और बेहद सख्त भी. इसलिए उसमें किसी भी तरह की लहर या दरार पैदा करने के लिए किसी बड़ी घटना की जरूरत थी. अफसोस की बात है कि रोहित की जान जाने से पहले तक इस ओर ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं गया. यह सवाल सिर्फ कैंपस का न होकर भारतीय लोकतंत्र से जुड़ा है.
भारतीय राष्ट्र ने 1950 में गणतंत्र बनने के दौरान नागरिकों से कुछ वादे किए थे. उन्हीं वादों के आधार पर नागरिकों ने खुद को यह संविधान आत्मार्पित किया था. उन वादों में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व प्रमुख हैं. क्या राष्ट्र राज्य उन वादों पर खरा उतर पाया, जिनका वादा उन्होंने अपने सबसे छोटी मगर सबसे महत्वपूर्ण ईकाई यानी नागरिकों से किया था? मुझे संदेह है. संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और राष्ट्रनिर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के आखिरी भाषण में जब संविधान पर उठाए गए तमाम सवाल सवालों का जवाब दिया, तो साथ में यह चेतावनी भी दी थी कि 26 जनवरी,1950 को भारत अंतर्विरोधों के युग में प्रवेश करेगा, जहां राजनीतिक समानता होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी होगी. उन्होंने चेताया था कि अगर इस गैरबराबरी को खत्म नहीं किया गया, तो असंतुष्ट लोग संविधान के उस ढांचे को तबाह कर देंगे, जिसे संविधान सभा ने बनाया है. हम और आप आज जानते हैं कि वह असमानता घटने की जगह बढ़ी है.
अगर शिक्षा क्षेत्र को देखें, तो बाबा साहेब की चेतावनी के संदर्भ में हम समझ सकते हैं कि वहां क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है. भारत में पारंपरिक रूप से शिक्षा पर चंद सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहा है. यह शायद वैदिक काल से चला आ रहा है, जब महिलाओं और शूद्रों के लिए शिक्षा निषिद्ध थी, गुरुकुलों के द्वार बंद थे. अंग्रेजों के आने के बाद बहली बार शिक्षा के द्वारा तमाम जातियों के लिए खुले. 1848 में सावित्रीबाई फुले ने भारत में लड़कियों का पहला स्कूल पुणे के भिडेवाड़ा में खोला, जिसके लिए उनपर पत्थर और गोबर फेंके गए. आजादी के बाद से हालांकि कहने को, शिक्षा के द्वार सबके लिए खुले थे, पर शिक्षा क्षेत्र में सामाजिक वर्चस्व काफी हद तक जस का तस बना रहा.
इसमें अकेली दरार अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण की वजह से आई. इस वजह से इन समुदायों के विद्यार्थी उच्च शिक्षा पाने लगे. लेकिन शिक्षकों की सामाजिक संरचना जस की तस बनी रही. शिक्षा क्षेत्र में अगल बड़ा बदलाव 2006 में उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू होने से आया. इस वजह से सरकारी शिक्षा संस्थानों में वंचित समूहों यानी एससी, एसटी, ओबीसी के स्टूडेट्स की संख्या 50 परसेंट से ज्यादा हो हो गई. लेकिन इस दौर में भी शिक्षकों की सामाजिक संरचना नहीं बदली. खासकर प्रोफेसर पदों पर सवर्ण जातियों का दबदबा जस का तस बना रहा. इस बात को सरकार भी स्वीकार करती हैं. इसलिए लिए सभी दलों की सरकारें जिम्मेदार हैं.
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यह आज की तारीख में शिक्षा का बुनियादी अंतर्विरोध है. क्लासरूम और स्टाफरूम एक जैसे नहीं हैं. कैंपस में हो रही हिंसा और तनाव की आज यह सबसे बड़ी वजह है. कई स्तरों पर यह लगातार जारी है.वंचित जातियों के विद्यार्थों को एडमिशन न देना, उनकी स्कॉरशिप रोक लेना, रिटेन में अच्छा नंबर लाने के बावजूद उन्हें इंटरव्यू में कम नंबर देना, रिसर्च के लिए उन्हें सुपरवाइजर न देना, उन्हें क्लास में अपमानित करने जैसे हिंसक घटनाएं असंख्य हो रही हैं और उनमें से ज्यादातर मीडिया या प्रसासनिक तंत्र तक पहुंच ही नहीं पा रही हैं. आईआईटी रुड़की से एक साथ 71 छात्रों के निष्काषन होने पर अचानक पता चलता है कि उनमें लगभग सभी निम्न कही जाने वाली जातियों के हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में कई साल तक ओबीसी की सीटें जनरल कटेगरी को ट्रांसफर की जातीं रहीं और कोर्ट की फटकार के बाद ही यह बंद हुआ. एम्स से लेकर आईआईटी में दलित छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं. दरअसल कैंपस में तूफान मचा हुआ है. शिक्षक यह स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं कि छात्रों की सरंचना बदल चुकी है. इसने उन्हें अमानवीय और क्रूर बना दिया है. इसकी कीमत छात्रों को चुकानी पड़ रही है. अनंत रूपों में, अगर इस समस्या को सुलझाने की कोई बहस शुरू होने है तो इसके तीन बिंदु होने आवश्यक हैं. इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि शिक्षा जगत में भेदभाव, खासकर धार्मिक, लैंगिक और जातीय भेदभाव को दंडनीय अपराध घोषित करने का कानून संसद पास करे. उम्मीद की जानी चाहिए कि रैगिंग के अपराधियों को कैंपस से निकालने जैसे कड़े प्रावधान से जिस तरह देश में रैगिंग पर काफी हद तक रोक लग गई है, वैसा ही असर भेदभाव विरोधी कानून का होगा. दूसरे कदम के रूप में सरकार को, तीन साल के अंदर तमाम रिक्त पदों को वंचित समूहों के शिक्षकों से भर कर शिक्षक जगत में व्याप्त सामाजिक असमानता को कुछ हद तक, दूर करना चाहिए. आरक्षण के प्रावधानों को लागू न करने वाले कुलपतियों और संबंधित अधिकारियों को बर्खास्त कर उनकी पेंशन रोक देनी चाहिए. तीसरा, तमाम शिक्षकों के लिए एक रिफ्रेशर कोर्स चलाकर उन्हें भारतीय समाज की विविधता के बारे मे बताया जाए और उन्हें इस बात की ट्रेनिंग दी जाए कि बदलते भारत में उन्हें कैसे बर्ताव करना चाहिए.
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