दिल्ली में जेएनयू के मामले पर और हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर जो कुछ हुआ, उसके संकेत एक बड़ी चेतावनी हैं. हरियाणा में चुन-चुन कर जैसे ग़ैर-जाटों को निशाना बनाया गया, वह भयानक था. देश भीतर-भीतर कितना बँट चुका है, कैसी नफ़रतें पसर चुकी हैं? देश को इस भीड़तंत्र में बदल देने का जुआ बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता है.
बात गम्भीर है. ख़ुद प्रधानमंत्री ने कही है, तो यक़ीनन गम्भीर ही होगी! पर इससे भी गम्भीर बात यह है कि प्रधानमंत्री की इस बात पर ज़्यादा बात नहीं हुई. क्योंकि देश तब कहीं और व्यस्त था. उस आवेग में उलझा हुआ था, जिसके बारूदी गोले प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के युवा संगठन ने दाग़े थे! भीड़ फ़ैसले कर रही थी. सड़कों पर राष्ट्रवाद की परिभाषाएं तय हो रही थीं. पुलिस टीवी कैमरों के सामने हो कर भी कहीं नहीं थी. टीवी कैमरों को सब दिख रहा था. पुलिस को कुछ भी नहीं दिख रहा था. दुनिया अवाक् देख रही थी. लेकिन इसमें हैरानी की क्या बात? क्या ऐसा पहले नहीं हुआ है? याद कीजिए!
From JNU row to the theory of conspiracy against PM Modi
कौन कर रहा है प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ षड्यंत्र?
और प्रधानमंत्री उड़ीसा जा कर कह रहे थे कि कुछ एनजीओ वाले और कुछ कालाबाज़ारिये उनकी सरकार को सफल होते नहीं देखना चाहते! वे उनके ख़िलाफ़ लगातार षड्यंत्र रच रहे हैं ताकि उनकी सरकार फ़ेल हो जाये. और दिल्ली की सड़कों पर पसरी उस उन्मत्त भीड़ में हम उन ‘षड्यंत्रकारी’ एनजीओ वालों और कालाबाज़ारियों को ढूँढ रहे थे, जो बक़ौल प्रधानमंत्री उनकी छवि ख़राब करने की साज़िशों में लगे हैं. एनजीओ और कालाबाज़ारियों को तो हम पहचान नहीं पाये, कुछ काले कोट वाले ज़रूर टीवी कैमरों ने दिखाये. भीड़ में कुछ और लोग भी दिखे, जो प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के निकले!
Who is hatching conspiracy against PM Modi
जो दिख कर भी नहीं दिखता है!
तो प्रधानमंत्री की छवि को कौन ख़राब कर रहा है? वे कौन लोग हैं, जो उनकी सरकार पर धब्बे लगा रहे हैं? वे कौन लोग हैं, जो पिछले इक्कीस महीनों में अचानक हर जगह दिखने लगे, और जिनकी कारगुज़ारियों से अख़बारों के पन्ने रंगे जाने लगे. देश के अख़बारों पर भरोसा न हो, तो दुनिया भर के अख़बारों को उठा कर देख लीजिए. जो बात दुनिया भर के अख़बारों को पिछले इक्कीस महीनों में लगातार दिखती रही है, वह प्रधानमंत्री को अब तक नहीं दिखी! हैरत है. और जो बात प्रधानमंत्री को दिख रही है, वह दुनिया भर के अख़बारों में से किसी को अब तक नहीं दिखी!
सवालों में उलझा देश
प्रधानमंत्री मानते हैं कि कुछ लोग उनकी सरकार को विफल करने में लगे हैं. हम भी मानते हैं कि पिछले इक्कीस महीनों में कुछ लोग प्रधानमंत्री को विफल करने में लगातार लगे हैं. इस मुद्दे पर कोई मतभेद नहीं. मतभेद सिर्फ़ इस बात पर है कि वे लोग हैं कौन? कुछ एनजीओ वाले और कालाबाज़ारी या फिर ‘परिवार’ वाले?पिछले इक्कीस महीनों में देश किन सवालों में उलझा रहा? और ये सवाल इन इक्कीस महीनों में ही क्यों इस तरह बलबला कर उठे? और उठे तो एक दिन अचानक ‘स्विच ऑफ़’ क्यों हो गये? यह ‘स्विच’ कहाँ है? इसे कौन ‘ऑन’ और ‘ऑफ़’ करता है? गिरजाघरों पर हमले हो रहे थे. सुना कुछ चोर-उचक्के ऐसा कर रहे थे! दुनिया भर में हल्ला-गुल्ला हुआ. तो एक दिन अचानक हमले बन्द हो गये! हैरत है. वे ‘चोर-उचक्के’ इक्कीस महीने पहले क्यों इन गिरजाघरों में क्यों नहीं घुसते थे और अब क़रीब साल-सवा साल से क्यों नहीं घुस रहे हैं? किसके कहने पर देश भर के ‘चोर-उचक्कों’ ने गिरजाघरों से अचानक मुँह मोड़ लिया?
कौन करता है स्विच ऑन, स्विच ऑफ़?
‘घर-वापसी’ का स्विच ‘ऑन’ हुआ, फिर ‘ऑफ़’ हो गया, ‘लव जिहाद’ का स्विच ‘ऑन’ हुआ, फ़िलहाल ‘ऑफ़’ दिखता है. ‘बीफ़’ के मुद्दे पर हाहाकार हुआ, बिहार चुनावों में मुद्दा वैसा कारगर साबित नहीं हुआ, जैसा सोचा गया था. इसलिए अब उतना गरम नहीं, लेकिन फ़िलहाल अभी ‘स्विच ऑफ़’ नहीं हुआ है, क्योंकि ‘जनता की आस्था’ के नाम पर इसे गुड़गुड़ाये रखा जा सकता है! और अब ताज़ा मुद्दा है राष्ट्रवाद का, देशप्रेम और देशद्रोह का. भावुक सवाल है. देश फ़िलहाल आवेग में है.
बहस गम्भीर है, गम्भीरता से कीजिए!
लेकिन गम्भीर सवालों पर बहस क्या आवेग में होती है? भला हो सकती है क्या? ऐसे फ़ैसले क्या सड़कों पर या टीवी चैनलों के स्टूडियो में होंगे? और ऐसे मुद्दों को परखने के पैमाने क्या होंगे, कोई एक या अपनी सुविधानुसार अलग-अलग?मुद्दा यह नहीं कि जिन्होंने देश-विरोधी नारे लगाये, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई न की जाये. कार्रवाई ज़रूर की जाये, जो न सिर्फ़ क़ानूनन उचित हो बल्कि दिखे भी कि उचित है. लेकिन पुलिस ने क्या कार्रवाई की और क्यों की, यह सबके सामने है. सबको पता है कि देश-विरोधी नारे कुछ कश्मीरी छात्रों ने लगाये. उनको पकड़ने की आज तक कोई कोशिश क्यों नहीं की गयी? क्या इसलिए कि पीडीपी के साथ सरकार बनाने का मामला इससे खटाई में पड़ जायेगा? कन्हैया कुमार के मामले में पुलिस का रवैया क्या रहा और ओ.पी. शर्मा और विक्रम चौहान के मामले में क्या रहा, यह सबके सामने है. किसने फ़र्ज़ी वीडियो बनाये, लोगों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए वह किसने बँटवाये, इस साज़िश के पीछे कौन लोग थे और क्यों थे, पुलिस ने जानने की कोई कोशिश नहीं की. समाज में जानबूझकर ज़हर घोलने की इतनी बड़ी साज़िश करना क्या कोई संगीन अपराध नहीं है कि पुलिस उसका पता लगाने की कोई कोशिश न करे?
JNU row and question of sedition and limits of freedom of expression
सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
यह तर्क ग़लत नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी एक सीमा होती है और इसका मतलब देश-विरोधी नारे लगाना नहीं है. लेकिन यह तर्क भी सही नहीं कि नारे लगा देने भर से ही देशद्रोह का मामला बन जाता है! ऐसे ही पिछले कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले आ चुके हैं. इस मामले को उन फ़ैसलों की रोशनी में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए था?
तो यह क्यों देशद्रोह नहीं हुआ?
वैसे वेंकैया नायडू ने जेएनयू के नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखे जाने की अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा की सलाह की आलोचना की है और पूछा है कि क्या अमेरिका के किसी विश्विद्यालय में कोई उसामा बिन लादेन की ‘शहादत’ की बरसी मनाने की इजाज़त दे सकता है? वेंकैया जी का सवाल बिलकुल जायज़ है. सवाल ही नहीं उठता कि अमेरिका ऐसी इजाज़त दे दे! और अमेरिका क्यों, भारत में भी कोई ऐसी इजाज़त दिये जाने की न माँग कर सकता है और न ही समर्थन. लेकिन इसी तर्क पर भिंडरावाले की ‘शहादत’ की बरसी मनाने की इजाज़त भी नहीं दी सकती, जो अभी कुछ ही महीने पहले जम्मू में मनायी गयी, जहाँ बीजेपी तब सत्ता में साझेदार थी. और जब दिल्ली में जेएनयू का मामला गरमा रहा था, तभी पंजाब में भिंडराँवाले का जन्मदिन धूमधड़ाके से मनाया जा रहा था. वहाँ भी बीजेपी सत्ता में साझीदार है. लेकिन किसी के ख़िलाफ़ देशद्रोह तो दूर, कैसा भी मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ!और यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि जेएनयू के नारों पर जैसी प्रतिक्रिया हुई, जादवपुर विश्विद्यालय में ठीक वैसे ही नारों पर लगभग उदासीन प्रतिक्रिया क्यों रही? ममता बनर्जी सरकार अगर अपने राजनीतिक हितों के लिए ‘देशद्रोहियों’ पर नरम है, तो देश के बाक़ी हिस्सों में ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा क्यों नहीं फूटा, वैसे फ़र्ज़ी वीडियो क्यों नहीं बने, टीवी चैनलों पर वैसी गरमी क्यों नहीं दिखी?
सरकार की मर्ज़ी तो देशद्रोह, नहीं तो नहीं!
और देशद्रोह के आरोप का क्या? जब मर्ज़ी हो सरकार लगा दे, जब मर्ज़ी हो वापस ले ले! सुना है कि पटेलों को मनाने के लिए गुजरात सरकार हार्दिक पटेल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा वापस लेने की तैयारी कर रही है. इस पर भी कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ कि एक ‘देशद्रोही’ के ख़िलाफ़ कार्रवाई ऐसे कैसे छोड़ी जा सकती है? उसने तो पुलिसवालों की हत्या के लिए भीड़ को बाक़ायदा उकसाया था! हालाँकि जब उस पर देशद्रोह का मामला लगाया गया था, तब भी मैंने उसे आनन्दीबेन सरकार का मूर्खतापूर्ण क़दम कहा था और आज भी मेरी राय वही है.
हम कैसा देश बनाना चाहते हैं?
हम कैसा देश बनाना चाहते हैं? हमें कैसा राष्ट्रवाद चाहिए? देशद्रोह की परिभाषा क्या हो? हमें कैसा संविधान चाहिए? हमें कैसा सेकुलरिज़्म चाहिए? चाहिए या नहीं चाहिए? हिन्दू राष्ट्र चाहिए? अन्तर्धार्मिक शादियाँ हों या नहीं हों? फ़ासीवाद चाहिए? आरक्षण का क्या हो? यह सवाल अगर अब भी बाक़ी हैं या अब भी उठ रहे हैं तो दंगाई भीड़ बनने के बजाय इन पर खुल कर बहस कर लीजिए और एक अन्तिम बार तय कर लीजिए कि आपको कैसा देश चाहिए? एनजीओ वालों को कोसने के बजाय प्रधानमंत्री इन सवालों पर देश भर में साल-दो साल बहस चला लें, जनमत संग्रह करा लें और फिर फ़ैसला हो जाये कि देश किस रास्ते पर चलना चाहता है. ताकि रोज़-रोज़ का यह टंटा ख़त्म हो!दिल्ली में जेएनयू के मामले पर और हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर जो कुछ हुआ, उसके संकेत एक बड़ी चेतावनी हैं. हरियाणा में चुन-चुन कर जैसे ग़ैर-जाटों को निशाना बनाया गया, वह भयानक था. देश भीतर-भीतर कितना बँट चुका है, कैसी नफ़रतें पसर चुकी हैं? देश को इस भीड़तंत्र में बदल देने का जुआ बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता है. यह मानने का दिल नहीं करता कि प्रधानमंत्री इसके निहितार्थ नहीं समझते होंगे.