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पिछले कुछ वर्षों से दलित स्त्रीवाद के मुद्दे और सवाल अब धीरे-धीरे अपने सार्थक, उज्ज्वल और स्पष्ट रुप में हमारे सामने आ रहे हैं। अब दलित स्त्रीवाद को लेकर बहस चलाने वालों में, उसके एक दर्शन और सैद्धांतिकी के तौर पर जोरदार स्वागत के स्वर भी सुनाई देने लगे हैं। दलित स्त्रीवाद के पक्ष में, उसकी सैंद्धांतिकी पर पिछले कुछ वर्षों में कुछ चिंतकों द्वारा विशेष काम हुआ है। जिनमें प्रखर स्त्रीवादी चिंतक उमा चक्रवर्ती, गोपाल गुरु, शर्मिला रेगे के नाम उल्लेखनीय हैं। इस धारा के लेखन और उसके अधिकार के पक्ष में खडे साथियों ने भी दलित स्त्रीवाद को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दलित स्त्रीवाद की अवधारणा और तत्व समाज में हमेशा से रहे हैं, जिनको दलित स्त्रियों की अपनी अस्मिता, क्षमता, द्वन्द्, उसके प्रश्नों और मुद्दों के जरिये आसानी से विश्लेषित किया जा सकता था। लेकिन दुख है कि पहले विभिन्न महिला आंदोलनों; चाहे वह जिस भी विचारधारा के तहत चले हो, दलित स्त्रीवाद को सूत्रबद्ध करने की पूरी तरह अनदेखी करते रहे। यूं तो दलित स्त्रीवाद पर पिछले एक दशक से छिटपुट पर महत्वपूर्ण बहस-लेख-आलोचना सामने आते रहे हैं, लेकिन दलित स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी और अवधारणा पर कभी खुलकर बहस नहीं हुई।
सवाल है कि दलित स्त्रीवाद क्या है और अन्य स्त्रीवादी विचारधाराओं से वह कैसे भिन्न है? कौन से ऐसे मुद्दे और सवाल हैं, जिसके कारण दोनों स्त्रीवाद हमेशा एक दूसरे के विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखाई देते है? क्या दलित स्त्रीवाद के स्त्री-मुक्ति के सवाल सवर्ण स्त्रीवाद की स्त्री- मुक्ति से अलग हैं? जिसके कारण दोनों भिन्न स्वर में बात कर रहे है? क्या दोनों स्त्रीवाद के मूल में स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय जैसे मूल्य एक समान महत्व रखते हैं? या फिर इन मूल्यों को सैद्धांतिक रुप और व्यवहारिक रुप में अपनाने में कोई पेंच है, जिसके कारण दलित-स्त्रीवादी अलग तरीके से बात कर रही हैं? कुछ ऐसे ही ज्वलंत सवाल है, जिन पर आज बातचीत करना जरुरी हो गया है। और यह खुशी की बात है कि आज स्वयं दलित स्त्रीवाद और दलित स्त्रीवादी इस पूरी प्रकिया के अनुभव को, इस बहस को आगे बढाने और दलित स्त्रीवाद के पक्ष में अपने वैचारिक दार्शनिक पक्ष को प्रतिबद्धता के साथ लिखने-रचने और स्थापित करने के लिए जी-जान से खडे हो गए हैं।
दलित स्त्रीवाद की कुछ ऐसी बातें हैं, जो उसे अन्य स्त्रीवाद से बिल्कुल अलग करती है; मसलन दलित स्त्रीवाद में परिवार के ढांचे इतने क्रूर तरीके से ध्वस्त करने की बात नही की जाती जितनी कि सवर्ण स्त्रीवाद में। इसका कारण भारत की जाति आधारित व्यवस्था में दलित स्त्री व पुरूष दोनों प्रताड़ित हैं, यह जरूर है कि दलित स्त्री ज्यादा प्रताडित है। परिवारिक ढांचे में दलित स्त्री घरेलू हिंसा जरूर झेलती हैं परन्तु दलित होने के कारण, उसके साथ सामाजिक हिंसा उससे कहीं ज्यादा होती है। परिवार का ढांचा, उसे स्त्री होने के कारण माकूल सुरक्षा नहीं देता क्योंकि दलित परिवारों में भी पितृसत्ता की जड़ें गहरी जमी हुई हैं, लेकिन इन सब के बावजूद परिवार के बाहर वह बिल्कुल असुरक्षित है। अभी परिवार के अलावा सहजीवन आदि शैली में भी दलित स्त्री के जाति और लिंग के आधार पर ज्यादा शोषण होने के अवसर हैं। दलित चिंतक, ज्योतिबा फुले एक ऐसे आदर्श परिवार की कल्पना करते थे जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों बराबरी और सम्मान पाएं और अपनी-अपनी पहचान से जी सकें। दलित स्त्रीवाद के सामने आदर्श जीवन साथी के रूप में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले है। जो तमाम जिंदगी अपने अपने कार्य करते हुए भी समाज से जुड़े रहे। यह मुद्दा अन्य स्त्रीवाद की तरह दलित स्त्रीवाद के लिए प्राथमिक नही है।
लेकिन दुख है कि पहले विभिन्न महिला आंदोलनों; चाहे वह जिस भी विचारधारा के तहत चले हो, दलित स्त्रीवाद को सूत्रबद्ध करने की पूरी तरह अनदेखी करते रहे।
दलित स्त्रीवाद की दूसरी खासियत इसका मुद्दों के 'वैश्वीकरण' के साथ 'देशीकरण' तथा 'स्थानीयकरण' है। कहने का मतलब देश-विदेश मे मानव अधिकारों व मानवीय सरोकारों के लिए चल रहे आंदोलनों से दलित स्त्रीवाद का जुडाव है। दलित स्त्रीवाद किसी भी देश, जाति, धर्म, वर्ग समुदाय, रंग, लिंग आदि के आधार पर उत्पीड़न-शोषण और अधिकार-हनन का विरोध करते हुए उनके साथ खड़ा होने में विश्वास रखता है। दलित स्त्रीवाद की पांचवी विशेषता देश-विदेश में मानव अधिकार के पक्ष में चल रहे आन्दोलन को समर्थन देना है। सभी आन्दोलनों में दलित स्त्रियों की भागीदारी सबसे अधिक होती है, बेशक वे लीडरशिप में न हो।
दलित स्त्रीवाद और ग़ैरदलित स्त्रीवाद में मुख्य अंतर और विरोध, मुद्दों की प्राथमिकता को लेकर अंतर है। दलित स्त्रीवाद पहले जाति, फिर वर्ग की बात करता है, जबकि ग़ैरदलित स्त्रीवाद पहले वर्ग फिर जाति। दोनों स्त्रीवाद में प्राथमिकता बदल जाने से स्त्री-अधिकार के मुद्दों की भी प्राथमिकता में अन्तर आ जाता हैं उदाहरण के तौर पर गैर दलित स्त्रीवाद में जाति धर्म दलित स्त्री अस्मिता के बरक्स केवल स्त्री- अस्मिता पर ही फोकस हो जाता है। धर्म और जाति आधारित कुरीतियों, पेशों पर उतनी गंभीरता और समग्रता से बहस नहीं चली। मुद्दों की प्राथमिकता में एक और बात जो विशेष रूप से नोट करने लायक है, वह यह कि दलित स्त्रीवाद में मुख्य क्रम में पहले जाति आधारित सामाजिक हिंसा-यौन हिंसा और फिर यौन स्वतन्त्रता है जबकि ग़ैरदलित स्त्रीवाद में यौन स्वतन्त्रता बनाम यौन हिंसा खासकर घरेलू हिंसा आदि क्रम है। स्त्री के स्त्री आधारित वर्ग बनने के यूटोपिया को पूरा महत्व देने के कारण भारत में दलित महिलाओं के साथ जाति आधारित हिंसा, यौन शोषण एक दलित महिला के एक नागरिक होने के अधिकार पर बात उतनी मुखरता से नहीं हो पाती, जितनी की जानी चाहिए।
दलित स्त्रीवाद की एक और खासियत है, भारत के संदर्भों में स्त्री की स्थिति पर काम कर रहे विचारकों को बिना लिंगीय भेदभाव और पूर्वाग्रह के बिना प्रेरणास्त्रोत के रूप पहचान करते हुए योगदान को स्वीकारना। दलित स्त्रीवाद ने हमेशा अपने परिवेश से अपने प्रेरणास्त्रोत चुने है। बुद्ध कालीन थेरियों से लेकर सावित्री-ज्योतिबा, पेरियार, डॉ.अम्बेडकर, ताराबाई शिंदे, फातिमा शेख, जाईबाई चौधरी, पंड़िता रामाबाई, राजकुमारी अमृतकौर, दुर्गाबाई देशमुख। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसने भी जाति और लिंग आधारित असमानता के खिलाफ ईमानदारी से जंग छेड़ी, दलित स्त्रीवाद के आधार स्तम्भ के रुप में उनको स्वीकार कर लिया है।
दलित स्त्रीवाद की अहम विशेषता यह भी है कि उसके पास दलित स्त्रियों का लिखा हुआ भरपूर रचनात्मक साहित्य है। यह साहित्य दलित स्त्रीवाद को समझने में मदद करता है। देश और राज्य की सीमाओं के पार, दलित स्त्री द्वारा साहित्य और आंदोलन के माध्यम से उठाए गए सवाल दलित स्त्रीवाद पर बात करने तथा सैद्धांतिकी गढ़ने में अत्यंत सहायक हैं। सभी दलित सन्त कवयित्रियों, दलित लेखिकाओं ने अपनी कविता-कहानी-आत्मकथा के माध्यम से अपने दलित और स्त्री होने की पीड़ा को जिस मार्मिकता और प्रखरता से उकेरा है। वह अन्य महिला साहित्य में लगभग असंभव सा ही है।
दलित स्त्रीवाद के वैचारिक और सैंद्धांतिक पक्ष में भी सामाजिक के बाद आर्थिक सवालों का क्रम है, क्योंकि दलित स्त्री के उत्पीडन का कारण उसका दलित होना के कारण ही है। सामाजिक और आर्थिक सवाल एक दूसरे से गुंथे हुए है। जबकि अन्य स्त्रीवाद में सामाजिक सवालों से पहले आर्थिक सवालो पर को महत्व है। प्रमुखता पहले समाजिक फिर आर्थिक है। दलित स्त्रीवाद की लड़ाई एक रेखीय है और वह रेखा है जहां भी शोषण दमन और अत्याचार हो, वहां बिना किसी पूर्वाग्रह के पीड़ित और वंचित के हक में खडे होना। अधिकारों के इस संघर्ष में भटकाव-विचलन और द्वंद का कोई स्थान नहीं है। दलित स्त्रीवाद अपनी लड़ाई संवैधानिक तरीके से लड़ने में विश्वास रखता है और अन्त में दलित स्त्रीवाद पुरूषों से अलग रहकर कोई नयी दुनिया बनाने के यूटोपिया में नहीं जीता। दलित स्त्रीवाद एक ऐसे समाज की ओर अग्रसर है, जहां ‘स्वाभिमान’, ‘सम्मान’ और ‘बराबरी’ के साथ स्त्री अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।