दलित विमर्श में करियर बनाने को बेचैन लोग कहीं उभरते क्रिकेटर प्रणव धनावड़े का करियर खत्म ना करवा दें? सोशल मीडिया पर दो दिन से इस बात का शोर है कि द्रोणाचार्य ने फिर एकलव्य का अंगूठा काट लिया। शोर बेवजह नहीं है। प्रणव के नाम स्कूल क्रिकेट की एक पारी में सबसे ज्यादा रन बनाने का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। सचिन तेंदुलकर के बेटे अर्जुन तेंदुलकर के नाम ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में उनके प्रैक्टिस करने की ख़बरें ज़रूर आती रहती हैं। वेस्ट जोन अंडर 16 टीम में अर्जुन तेंदुलकर का नाम है लेकिन प्रणव धनावड़े को शामिल नहीं किया गया है। पहली नज़र में मामला पक्षपात का लगता है। लेकिन चिंता के जो स्वर उभरे हैं, उनमें सिर्फ शोर है। डर है कि ये शोर प्रणव पर इतना ज्यादा दबाव ना बना दे कि वो बिखर जाये। अगर वाकई नाइंसाफी हुई है तो इसका जवाब प्रणव को अपने बल्ले से देना पड़ेगा, दूसरा कोई और तरीका नहीं है। बेहतर यह होता कि प्रणव के पक्ष में कोई सकारात्मक कैंपेन चलाया जाता जिससे उनका हौसला बढ़ता। इस पूरे प्रकरण पर अपनी समझ के हिसाब से कुछ बातें कहना चाहता हूं।
स्वीकार कर लीजिये कि साधन संपन्न परिवार में पैदा होनेवाले हर व्यक्ति को ऐसे फायदे मिलते हैं जो बाकी लोगो को नहीं मिलते।
1. चयनकर्ताओं को तत्काल यह साफ करना चाहिए कि उन्होने अंडर 16 टीम के चयन के लिए कौन सा क्राइटेरिया फॉलो किया है। जहां तक मुझे मालूम है, भारत के हर राज्य में आधे से ज्यादा खिलाड़ी हैंड पिक होते हैं। नेट पर जो प्लेयर अच्छा लगता है, उसे सीधे उठा लिया जाता है। उसमें जूनियर लेवल या सब-जूनियर लेवल पर किये गये प्रदर्शन का बहुत ज्यादा महत्व नहीं होता। क्या चयनकर्ताओं ने प्रणव धनावड़े के कैंप के लिए बुलाया था और उन्हे खुद को साबित करने का मौका दिया था? मीडिया में यह ख़बर चल रही है कि प्रणव ने एक हज़ार रन की पारी 30 गज की बाउंड्री वाले मैदान पर 10 साल से कम उम्र के गेंदबाज़ों के खिलाफ खेली थी। अगर यह सच है तब भी प्रणव को ट्रायल का मौका मिलना चाहिए। अगर चयनकर्ताओं ने प्रणव को परखे बिना टीम चुन ली और इस मामले में माकूल सफाई नहीं दे पाते हैं तो फिर साफ हो जाएगा कि धांधली हुई है।
2. क्रिकेट भारत में अभिजात्य लोगो का खेल रहा है। चयन में धांधली के मामले नये नहीं हैं। एक समय था जब भारतीय टीम में सिर्फ मुंबई, दिल्ली और बैंगलोर के खिलाड़ी हुआ करते थे। अगर जोनल कोटा सिस्टम लागू नहीं होता तो सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी जैसे खिलाड़ी कभी भारत के लिए नहीं खेल पाते। आईपीएल ने क्रिकेट का और लोकतांत्रीकरण किया। अलग-अलग टीमों में दर्जन भर से ज्यादा ओबीसी और दलित खिलाड़ी है। लेकिन तस्वीर के पूरी तरह बदलने में अभी और वक्त लगेगा। बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि मोटी आमदनी वाले खेलो में बहुजन खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है। दूसरी तरफ ओलंपिक और एशियाड जैसे खेलो में मेडल जीतकर देश का सम्मान बढ़ाने वाले खिलाड़ियों में बड़ी तादाद वंचित समुदायों से जुड़े खिलाड़ियों की होती है। खेलो के समाजशास्त्र पर बहुत गंभीर किस्म की बहस अब तक नहीं उठी है।
3. समझने की कोशिश कर रहा हूं कि सोशल मीडिया में ज्यादा गुस्सा किस बात पर है, प्रणव धनवाड़े का सलेक्शन ना होने पर या फिर अर्जुन तेंदुलकर का सलेक्शन होने पर? अपने ड्राइंग रूम में बैठकर यह दावा करना कि अर्जुन तेंदुलकर को बल्ला पकड़ना नहीं आता, घनघोर किस्म का पूर्वाग्रह है। अगर आप तेजस्वी यादव को सीधे उप-मुख्यमंत्री बनाये जाने और तेजप्रताप को मंत्री बनाये जाने में कुछ भी गलत नहीं मानते तो फिर अर्जुन तेंदुलकर को लेकर इतनी परेशानी क्यों? स्वीकार कर लीजिये कि साधन संपन्न परिवार में पैदा होनेवाले हर व्यक्ति को ऐसे फायदे मिलते हैं जो बाकी लोगो को नहीं मिलते। तेजस्वी का सीधे उप-मुख्यमंत्री बनना सामाजिक न्याय और जूनियर तेंदुलकर का अंडर-16 टीम में आना एकलव्य की हत्या? राय अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन तर्क के पैमाने अलग-अलग नहीं होने चाहिए।
लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि फर्जी कहानियां बाकी बहुत से मामलों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं और नुकसान अंतत: बहुजन विमर्श का ही होता है। आंबेडकर का दिखाया गया रास्ता सबसे तार्किक और न्यायपूर्ण रास्ता है।
4. चिंतन की आम भारतीय शैली यही है कि नायक गढ़ने के लिए खलनायक गढ़ना ज़रूरी होता है। नायक को अच्छा बनाने के लिए खलनायक को और बुरा बनाना पड़ता है। दलित हित चिंतन के कई स्वयंभू चैंपियन यही कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर सचिन तेंदुलकर पर अकारण हो रहे हमले इस बात का सबसे बड़ा सबूत हैं। तेंदुलकर ब्राहण परिवार में पैदा हुए हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हे 30 हज़ार से ज्यादा इंटरनेशनल रन और 100 सेंचुरी दक्षिणा में मिले हैं। हर मानवीय उपलब्धि का सम्मान किया जाना चाहिए। सोशल मीडिया पर लगातार इस तरह का कैंपेन चलाया जा रहा है, जैसे विनोद कांबली का करियर सचिन तेंदुलकर की वजह से खत्म हो गया हो। यह कपोल-कल्पित कहानी के सिवा कुछ नहीं है। कांबली जब भारतीय टीम में आये थे, तब दलित नहीं थे। वे दलित तब बने जब उनका करियर खत्म हो गया। ठीक उसी तरह जैसे अज़हरउद्धीन मैच-फिक्सिंग मामले में फंसने के बाद बाद घोषित मुसलमान बने थे। कांबली जैसी प्रतिभा बहुत बड़े मुकाम ना पहुंच पाना एक त्रासद कहानी है। लेकिन यह कहानी भरपूर मिलावट के साथ पेश की जा रही है। कांबली उन बदनसीब खिलाड़ियों में हैं, जिसे मैदान पर सबसे बुरी इंज़री का सामना करना पड़ा। निजी जीवन में उथल-पुथल और भारतीय उप-महाद्वीप के बाहर बुरी तरह नाकामी जैसे कई पहलू हैं, जो कांबली के करियर के आसामायिक अंत के लिए जिम्मेदार रहे। कांबली को ब्राहणवाद का शिकार बताने वाले या तो इन तथ्यों से अनजान हैं या फिर जानबूझकर उनकी अनदेखी करते हैं।
5. यह सब कहने मतलब ये कतई नहीं है कि वंचित समाज के लोगो को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता। भेदभाव के अनगिनत वाकये हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि फर्जी कहानियां बाकी बहुत से मामलों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं और नुकसान अंतत: बहुजन विमर्श का ही होता है। आंबेडकर का दिखाया गया रास्ता सबसे तार्किक और न्यायपूर्ण रास्ता है। लेकिन विरासत की दावेदारी करने वाले जब फतवेबाजी पर उतर आये तो फिर ब्राहणवाद और आंबेडकरवाद के बीच का फर्क मिट जाता है।