हाय! कमबख्त को किस वक्त ख़ुदा याद आया


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मेरे जीवन में सौ प्रतिशत सर्वधर्म समभाव है। मैं सभी धर्मों से समान रूप से पीड़ित हूं, इसलिए सबके प्रति एक जैसा भाव रखना मजबूरी है। अगर आप कभी दिल्ली से गाज़ियाबाद के बीच कहीं कांवड़ियों के हाथों पिटे हों या पिटते-पिटते बचे हों, शब-ए-बारात की जुलूस से किसी तरह जान बचाकर निकले हों, गुरुपर्व पर रास्ता रोककर श्रद्धालुओं ने आपको कभी ज़बरदस्ती शर्बत पिलाया हो और ना पीने पर मां-बहन की गालियां दी हों, तो फिर यकीनन आप भी मेरी तरह `सर्वधर्म समभाव रखते होंगे। ज्ञानीजन कहते हैं, सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है। मुझे भी लगता है कि सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है और वो है—सार्वजनिक गुंडागर्दी। आध्यात्मिक प्रवचन सुनना अच्छा लगता है। लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में हमारा पाला जिस धर्म से पड़ता है, वो बेहद आक्रामक, ख़ौफनाक़, क्रूर और अश्लील है। यह धर्म उन्मादियों को तो कुछ भी करने की छूट देता है और नागरिकों के शांतिपूर्ण ढंग से जीने के बुनियादी अधिकार का हनन करता है।

मैं मुंबई के अंधेरी इलाके की एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में रहता हूं। महानगरों में रहने वाले तमाम लोगो की मेरी भी रात बहुत देर से ढलती है और सुबह भी देर से होती है। सुबह चार-पांच बजे का वक्त आधी रात की तरह होता है, जब आप गहरी नींद में होते हैं। उसी वक्त भोंपू से सुबह की नमाज़ की आवाज़ आती है और आपको उठकर बैठने को मजबूर कर देती है। कोई भी प्रार्थना या इबादत सीधे रुह तक उतरती है, बशर्ते कि वो सही सुर में सुनाई दे। लेकिन इबादत लाउडस्पीकर से होती हुई जबरन आपके बेडरूम में घुसी चली आये, तो यही लगता है, जैसे किसी ने आपके कान में पिघला हुआ सीसा उंडेल दिया हो। ये तो सुबह की बात है। जिस दिन आपकी छुट्टी हो तो आपको पंचम स्वर में पांच वक्त का नमाज सुनना पड़ता है। ख़ुदा खैर करे, नमाज तो फिर भी ठीक है, उसके बाद तमाम तरह की सामाजिक और सांस्कृतिक उद्घोषणाएं होती हैं, जैसे आज लड्डन के घर आज वलीमा है। बदरुउद्धीन साहब ने ख़ुदा के नेक़ काम के वास्ते मस्जिद कमेटी को पांच हज़ार रुपये दिये, वगैरह-वगैरह। खुदा बदरुउद्धीन साहब को लंबी उम्र बख्शे। लेकिन भइया इन सब से मेरा क्या लेना-देना। एक किलोमीटर तक लाउडस्पीकर लगाकर मुझे क्यों पका रहो हो? मैं कानफोड़ू कर्कश आवाज़े झेलता हूं ये सोचता हूं कि आखिर कबीरदास ने छह सौ साल पहले ये क्यों कहा था —
 
 कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लयो चुनाय
 ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरो भयो खुदाय
 
ये सब पढ़कर कई लोगो को बहुत आनंद आ रहा होगा। लेकिन अफसाना थोड़ा लंबा है। इससे पहले मैं जहां रहता था, वहां मंदिर था और मुझे बॉलीवुड के चवन्नी छाप की गानों पर बनी  बेसुरी धार्मिक पैरोडी रात-दिन सुननी पड़ती थी। ना तो मैं भोंपू पर चलने वाले भजनों की कर्कश पैरोडी बंद करवा पाया और ना ही अब लाउडस्पीकर पर होनेवाला अजान बंद करवा सकता हूं। वैसे मुंबई में ध्वनि प्रदूषण को लेकर पुलिस सक्रिय है। एक वक्त के बाद और सीमा से ज्यादा शोर हो तो फौरन बंद करवा देती है। लेकिन जब शोर धार्मिक हो तो कोई क्या करे? बंद करवाना तो दूर उसके ख़िलाफ आवाज़ उठाने तक के लिए हिम्मत चाहिए। कहीं हिंदू होने का दंभ है, तो कहीं अल्पसंख्यक अधिकारों की दुहाई है, इन सबके बीच आम नागरिक अधिकारों की बात भला कौन सुने? धार्मिक गुंडागर्दी हर समुदाय का जन्मसिद्ध अधिकार है। हफ्ते में कम से कम एक दिन मेरा पाला किसी ना किसी धार्मिक जुलूस से ज़रूर पड़ता है। जहां ट्रैफिक रुका रहता है और और आपको उन्मादी लोगों की भीड़ में से खुद को किसी तरह बचाते और रेंगते हुए निकलना पड़ता है। मुझे याद नहीं आता कि नागरिक अधिकारों के इतने बुनियादी सवाल पर किसी  राजनेता कभी एक शब्द भी बोला हो। मैने आज तक किसी भी धर्मगुरू को ये कहते नहीं सुना कि प्रार्थना और इबादत दूसरों को कष्ट पहुंचाये बिना शांतिपूर्ण ढंग से भी हो सकते हैं। नये ज़माने में टेक्नोलॉजी कहां से कहां पहुंच गई। लेकिन किसी ने आजतक कोई ऐसा डिवाइस नहीं बनाया जिससे मस्जिदो के अजान और मंदिरों की प्रार्थना की आवाज़ सिर्फ उन्हे घरों तक पहुंचे, जहां लोग उसे सुनना चाहते हैं। इस देश में निजी आस्था और उसके नाम पर होनेवाली मनमानी ही असली कानून है। कानून तो बस निजी आस्था है जिसे थोड़े बहुत लोग अपनी श्रद्धा से मान लेते हैं।सर्वधर्म समभाव का मतलब है, हम रामनवमी पर सड़क जाम करेंगे, तुम मुहर्रम की जुलूस के लिए ट्रैफिक रोक लेना। जितनी जिद दूसरो पर निजी पसंद-नापसंद थोपने की है, उतनी अगर कानून के हिसाब से राज चलाने की होती तो सारे मामले कब के सुलझ गये होते। लेकिन मामले सुलझाने में दिलचस्पी किसे है। धर्म की बात करते ही आप कानून से उपर उठ जाते हैं। इसी सुविधा के कारण धर्म के नाम पर गुंडागर्दी की एक सनातन परंपरा भारत में चली आ रही है, जो फिलहाल खत्म होती नही दिखाई देती है। बिस्तर पर लेटे-लेटे जब भी मैं लाउडस्पीकर पर अजान सुनता हूं तो मन ही मन यह शेर दोहराता हूं.
 
दी मुअज्जन ने अजां वस्ल की शब पिछले पहर
हाय कमबख्त को किस वक्त ख़ुदा याद आया
 

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