अरविंद-शेष | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/अरविंद-शेष-9503/ News Related to Human Rights Thu, 06 Oct 2016 08:19:09 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png अरविंद-शेष | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/अरविंद-शेष-9503/ 32 32 विश्वविद्यालयों में आपातकाल है! महाश्वेता बैन हैं https://sabrangindia.in/vaisavavaidayaalayaon-maen-apaatakaala-haai-mahaasavaetaa-baaina-haain/ Thu, 06 Oct 2016 08:19:09 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/10/06/vaisavavaidayaalayaon-maen-apaatakaala-haai-mahaasavaetaa-baaina-haain/ तो इसका मतलब यह हुआ कि लेखिका महाश्वेता देवी की लिखी रचनाएं भी संघियों-भाजपाइयों की नजर में देशद्रोह है? महज उनके लिखे एक नाटक 'द्रौपदी' का मंचन हुआ महेंद्रगढ़ स्थित हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में। और अब उसके आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली टीचर को कठघरे में खड़ा कर दिया गया…। मौजूदा संविधान अभी लागू […]

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तो इसका मतलब यह हुआ कि लेखिका महाश्वेता देवी की लिखी रचनाएं भी संघियों-भाजपाइयों की नजर में देशद्रोह है? महज उनके लिखे एक नाटक 'द्रौपदी' का मंचन हुआ महेंद्रगढ़ स्थित हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में। और अब उसके आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली टीचर को कठघरे में खड़ा कर दिया गया…।

Hindutva

मौजूदा संविधान अभी लागू है, लेकिन भाजपा के लिए अब उसके कोई मायने नहीं हैं। वह बोलने की तो छोड़ दीजिए, सोचने की आजादी तक को छीन लेने के इंतजाम में लगी है।

उस नाटक में सेना से संबंधित दृश्य 'द्रौपदी' के मुताबिक ही थे, लेकिन उसके आयोजन में सक्रिय रही शिक्षक स्नेहसता को अगले दिन संघियों के मेंढ़क संगठन एबीवीपी और भगवा दिमाग वाले हिंसक ढोंगियों के विरोध के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने अगर तंग करना शुरू कर दिया, तो इससे यह समझना चाहिए कि अब किसी भी तरह के आजाद 'विचार' के लिए भाजपा के राज में क्या जगह है…!

आरएसएस-भाजपा के ब्राह्मण-दर्शन में तो वैसे ही स्त्री की हैसियत गुलाम से ज्यादा की नहीं है। लेकिन 'द्रौपदी' नाटक के बहाने अगर कोई सवाल इस मर्द और पंडावादी व्यवस्था पर उठा तो उस नाटक की परिकल्पना करने वालों को ही तबाह कर दो, ताकि आगे कोई भी सोचने से डरे।

यही आरएसएस-भाजपा का सामाजिक दर्शन है, स्त्रियों और दलित-वंचित जातियों को इस पंडावादी समाज व्यवस्था का गुलाम बना कर रखना… और अगर कहीं से भी बगावत की जमीन बने तो उस पर तेजाब बरसा देना…! तो क्या भाजपा-आरएसएस और एबीवीपी जैसे उसके सहयोगी संगठनों से किसी भी होशमंद इंसान को डरना चाहिए? हां, क्योंकि मनुष्य की शक्ल में जो अविकसित दिमाग के गिरोह और झुंड होते हैं, उन्हें सिर्फ अपनी सत्ता प्यारी होती है और उनके लिए सभ्य और संवेदनशील इंसान चबा के खा जाने लायक चारा होते हैं…!

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पार्च्ड : स्त्रीवाद नहीं, लेकिन मर्दवाद के सिंह-आसन की चिंदी-चिंदी…! https://sabrangindia.in/paaracada-sataraivaada-nahain-laekaina-maradavaada-kae-sainha-asana-kai-caindai-caindai/ Mon, 26 Sep 2016 12:35:34 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/09/26/paaracada-sataraivaada-nahain-laekaina-maradavaada-kae-sainha-asana-kai-caindai-caindai/ मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। […]

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मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत इसके बरक्स खड़ा होने से शुरू होगी, उसके आसरे में नहीं। फिर भी, 'पिंक' की अपनी अहमियत है।

बहरहाल, 'पार्च्ड' अपने उस एजेंडे में पूरी तरह कामयाब है, जिसमें स्त्री की जिंदगी, स्त्री के लिए, स्त्री के हाथों में और स्त्री के द्वारा तय होने की मंजिल तक पहुंचती है। हो सकता है कि 'पार्च्ड' की चारों स्त्रियों ने कथित मुख्यधारा के स्त्रीवाद का कोई आख्यान नहीं रचा हो, लेकिन कहीं उन्होंने मर्दवाद के भरोसे से बाहर खुद पर भरोसा किया, कहीं मर्दवाद को आईना दिखाया, कहीं मर्दवाद के बरक्स खड़े मर्द को स्वीकार किया तो कहीं मर्दवाद का मुंह तोड़ दिया। यानी यह कथित मुख्यधारा का स्त्रीवाद नहीं भी हो सकता है, लेकिन मर्दवाद के सिंहासन के पाए जरूर तोड़े।

दरअसल, 'पार्च्ड' में स्त्री की जमीनी हकीकतों का सामना जो स्त्रियां करती हैं, उन्होंने कोई क्रांति या स्त्रीवाद की पढ़ाई नहीं की है, लेकिन जहां उनके सामने 'आखिरी रास्ता' का चुनाव करने का विकल्प बचता है, वहां वे पुरुषवाद और पितृसत्ता की कुर्सी के पायों की चिंदी-चिंदी करके रख देती हैं। मुमकिन है, उसे स्त्रीवाद की क्लासिकी के दायरे में न गिना जाए। लेकिन स्त्री के अपनी जिंदगी को इसी सिरे से बरतने की पृष्ठभूमि में स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है।

लज्जो अपने 'बांझ' होने को तब तक मजाक बना कर जीती है और पति के हाथों यातना का शिकार होती है, जब तक बिजली उसे यह नहीं बताती कि 'बांझ' उसका पति भी हो सकता है। ('बोल'- जिसमें बेटी या बेटा होने के लिए मर्द जिम्मेदार है।) वह पति, जिसकी मर्दानगी हर अगले पल जागती है और उस वक्त तूफान की शक्ल अख्तियार कर लेती है, जब लज्जो उसे यह खबर देती है कि उसकी नौकरी पक्की हो गई है, नियमित पगार मिलेगी। इस पर उसके पति को अपनी 'जरूरत खत्म होने' के डर और मर्द अहं को ठेस लगने के दृश्य को जिस तरह फिल्माया गया है, वह केवल एक मर्द की नहीं, बल्कि समूचे पुरुषवाद की कुंठा का रूपक है। इसके अलावा, पति के मशीनी संवेदनहीन सेक्स और संतान पैदा करने की अक्षमता का दंश झेलते हुए बिजली के जरिए लज्जो जब एक बाबा के साथ सेक्स के जीवन-तत्व और सम्मान को जीती है और गर्भ लेकर पति को बताती है तो यह खबर पाते ही पति को जो सदमा लगता है, वह उसे खुद उसकी ही मर्दानगी के हमले की आग में जला डालता है।

लज्जो के चरित्र की व्याख्या मर्दवाद के केंद्र पर चोट करती है।

इधर पत्नी से ज्यादा रुचि दूसरी औरत में लेने वाले पति की मौत और अपने बेटे के बाल-विवाह के बाद रानी अपने लिए 'शाहरुख खान' के प्रेम की उम्मीद में खुश होती है। फिर बेटे के भी अपने पति की राह पर चले जाने के बाद बच्ची जैसी बहू के साथ खड़ी हो जाती है, उसे उसके प्रेमी के साथ किताब देकर विदा करती है।

जानकी ने बाल विवाह के बाद के जीवन से लेकर बलात्कार तक की त्रासदी को जिस तरह जीवंत किया है, अपने पति के भीतर के मर्द की मार से उपजी पीड़ा को जो भाव और अभिव्यक्ति दी है, वह हैरान करती है। भविष्य के लिए सिनेमा को एक बेहतरीन कलाकार मुबारक।

और समाज की जुगुप्सा के हाशिये पर खड़ी, लेकिन मर्दानगी की अय्याशी के लिए जरूरी बिजली ने ऊपर की तीनों महिलाओं की आंखों को जिस तरह फाड़ कर खोला, लज्जो को बताया कि बच्चा होने या नहीं होने के लिए उसका पति भी जिम्मेदार हो सकता है… लज्जो के साथ-साथ रानी को भी बताया कि सेक्स का मतलब केवल शारीरिक नहीं, दिमागी-मानसिक स्तर पर भी चरम-सुख होना चाहिए… लज्जो, रानी और जानकी, तीनों को बताती है कि गालियां केवल औरतों के खिलाफ इसलिए होती हैं कि इन्हें मर्दों ने बनाया है तो वह एक गंभीर बागी लगती है। और जब परदे पर चारों महिलाओं के मुंह से एक साथ गालियां गूंज रही थीं, तो समूचे सिनेमा हॉल में  मैं अकेला था जो ताली बजाने लगा! हालांकि मैं किसी भी तरह की गाली के खिलाफ अब भी हूं! देह-व्यापार की त्रासदी को जिस तरह बिजली में उतरता हुआ पाते हैं, वह शायद सबको हिला देगा। लेकिन अपनी बाकी तीनों दोस्तों यानी लज्जो, रानी और जानकी को जिंदगी का सपना भी वही यानी समाज के लिए घिनौनी एक वेश्या ही देती है।

'ये सारी गालियां मर्दों ने ही बनाई है…' 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा…' या 'देखता हूं, मर्द के बिना इस घर का काम कैसे चलता है..' जैसे कई डायलॉग तो सिर्फ बानगी हैं यह बताने के लिए कि फिल्मकार ने अपने एजेंडे को लेकर कितना काम किया है। खासतौर पर रानी का अपने किशोर बेटे को यह कहना कि 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा' उन तमाम आंदोलनों को आईना दिखाता है, जिसमें मर्दों से उनके सुधरने के लिए 'शास्त्रीय संगीत' के लहजे में स्त्री का सम्मान करने की फरियाद की जाती है…!

खैर, आजादी का एहसास करने फटफटिया पर बैठ कर निकल पड़ी तीनों या चारों महिलाएं जब नदी में निर्वस्त्र होकर नहाती हैं, तब वहां किसी कृष्ण के फटकने की जगह नहीं होती जो इन महिलाओं के कपड़े लेकर पेड़ पर भाग जाए! यानी हर अगले दृश्य में यह फिल्म मर्दवाद और पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री के सपने को एक नया आयाम देती है। इस सपने को किसी भी पुरुष के भरोसे पूरा नहीं होना है। जानकी के चोर और अय्याश पति का भाग जाना है, जानकी को उसका प्रेम हासिल हो जाना है, जो जाते समय उसकी किताबें और थैला थामता है, लज्जो के पति का जिंदा जल जाना है और रानी के 'शाहरुख खान' का पीछे छूट जाना है। आखिर समाज और परंपरा की दी हुई शक्ल को नोच और फेंक कर नई शक्ल के साथ जब बिजली, रानी और लज्जो एक चौराहे पर खड़ी होकर इस सवाल का सामना करती हैं कि अब राइट जाएं या लेफ्ट, तो आखिर में जवाब आता है कि इस बार तो हम तीनों अपने दिल की सुनेंगे…!

यहां इन्हें बचाने या इनका उद्धार करने के लिए के लिए कोई पुरुष नायक नहीं आता, शहरों की पढ़ी-लिखी और इंपावर महिलाओं को अपनी लड़ाई के लिए किसी पुरुष हीरो की छांव की जरूरत होती होगी, लेकिन गांव की अनपढ़ और साधनहीन 'पार्च्ड' की तीनों स्त्रियां जब घर की दहलीज से निकल जाती हैं तो वे अपने आप पर भरोसे से लबरेज होती हैं, उन्हें किसी हीरो की तलाश नहीं होती, अगर कोई 'शाहरुख खान' हीरो होना भी चाहता है तो वे उसे भी पीछे छोड़ कर निकल जाती हैं।
इससे ज्यादा और साफ-साफ क्या कहा जा सकता था कि जिंदगी को जिंदगी तरह जीने की राह क्या हो सकती है..! गांव में कपड़े और वेशभूषा के हिसाब से ही दलित-वंचित परिवारों की महिलाओं को पहचान लिया जा सकता है। तो इनके जीवट का अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है…! इससे ज्यादा पहचानना हो तो बिजली (स्त्री) के लिए दलाली करने को तैयार 'राणा' और पहले से दलाली करते 'शर्मा-वर्मा' (पुरुष) की साफ घोषणा का आशय समझा जा सकता है। 'राणा' और 'शर्मा-वर्मा' का मतलब आज के दौर में अलग से समझाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

बाकी टीवी, मोबाइल, स्थानीय कला को बेचने वाले एनजीओ वगैरह सिर्फ सहायक तत्त्व हैं। कहानी का केंद्र इनके सहारे नहीं, जानकी, बिजली, रानी और लज्जो के भरोसे टिका है।

पुनश्च-
एकः इस फिल्म में कमी के बिंदु मेरी निगाह में बस एक है- लज्जो के पति का घर में लगी आग में जलना और दूसरी ओर जश्न के तौर पर रावण के पुतले को जलाना। जब तीनों-चारों महिलाओं के नदी में निर्वस्त्र होकर नहाने के समय किसी कृष्ण को उनका कपड़ा लेकर पेड़ पर भाग जाने की कथा को खारिज किया गया, तो उसी सिरे से रावण-दहन से बचा जा सकता था, राम को भी कृष्ण की तरह खारिज किया जा सकता था।
दोः 'पार्च्ड' सिनेमा आखिर किसके लिए बनाई गई है, उसका दर्शक वर्ग कौन होगा? 'पिंक' जैसी फिल्में भी किसी पीवीआर के साथ-साथ 'रीगल' जैसे साधारण सिनेमा हॉल में भी लगी थीं। इसलिए 'पिंक' तक आभिजात्य और साधारण, दोनों तबके पहुंचे। जबकि 'पार्च्ड' कम से कम दिल्ली के पीवीआर या ऐसे ही और बहुत कम और बेहद महंगे सिनेमा हॉल में लगी है। अंदाजा लगाइए कि यह फिल्म किस तबके की कहानी कहती है और उस तक पहुंचने और मनोरंजन करने वाले लोग किस तबके के ज्यादा होते हैं।
बहरहाल, स्त्री और स्त्रीत्व से जुड़े मुद्दे पर फिल्म बनाते हुए शुजित सरकार और Linaa Yadav  की फिल्मों ने बताया है कि एक ही विषय को डील करते हुए एक पुरुष और स्त्री की दृष्टि में कैसा और कितना फासला हो सकता है। पुरुष को साहस करना पड़ता है, इसलिए चीजें छूटेंगी या फिर गड़बड़ा जाएंगी, लेकिन स्त्री के पास अगर उसकी अपनी, अपने स्व की दृष्टि है तो उस गड़बड़ी को आमतौर पर संभाल लेगी। यह अंतर साफ करके सामने रखने के लिए लीना यादव से लेकर लहर खान तक को बहुत शुक्रिया…!

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बनना ही है तो सुगंधा बनो, शायद बच जाओगी https://sabrangindia.in/bananaa-hai-haai-tao-saugandhaa-banao-saayada-baca-jaaogai/ Thu, 22 Sep 2016 08:04:45 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/09/22/bananaa-hai-haai-tao-saugandhaa-banao-saayada-baca-jaaogai/ वह लड़की उस तरह नहीं मारी जाती। हां, वह उस तरह नहीं मारी जाती…! कम से कम उसकी जान बच सकती थी…! Sugandha दिल्ली के बुराड़ी में एक लड़की को कैंची से गोद कर मार डालने की घटना में सब कुछ शर्मनाक है। ठीक है। अब अफसोस, दुख और गुस्से से ज्यादा हम सबके हिस्से […]

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वह लड़की उस तरह नहीं मारी जाती। हां, वह उस तरह नहीं मारी जाती…! कम से कम उसकी जान बच सकती थी…!


Sugandha


दिल्ली के बुराड़ी में एक लड़की को कैंची से गोद कर मार डालने की घटना में सब कुछ शर्मनाक है। ठीक है। अब अफसोस, दुख और गुस्से से ज्यादा हम सबके हिस्से में कुछ नहीं है।

लेकिन उस वीडियो को देखते हुए एक बात मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह चोट कर रही थी। वह लड़की उस तरह नहीं मारी जाती। हां, वह उस तरह नहीं मारी जाती। महज एक कैंची के साथ एक लड़के ने उसकी जान ले ली। क्यों…! चलिए… बहुत सारे लोगों के शर्म और गुस्से के बीच मेरा भी यही मान लीजिएगा।

मेरा मानना है कि अगर उस लड़की को इस समाज की रिवायतों ने एक नाजुक शारीरिक व्यक्तित्व वाली लड़की नहीं बनाया होता… कि सिर झुका के चलो… पांव दबा के चलो… तो शायद उसकी उस तरह जान नहीं जाती, जैसे गई।

एक बार मैंने सीतामढ़ी में रहने वाली अपनी एक भांजी सुगंधा के बारे में बात की थी। खेतों में धान बोने और काटने से लेकर बोझा ढोकर खलिहान तक लाना और फिर तैयार होकर अस्सी-पचासी किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर में बिहार विश्वविद्यालय में क्लास करने जाकर मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर फर्स्ट क्लास से निकालना। यह सब किया उसने।

काफी पहले एक बार दो लड़कों ने राह चलते उसके साथ छेड़खानी की और उसने दोनों लड़कों को दोनों हाथों से पकड़ा। बाकायदा हवा में उठा-उठा कर जमीन पर पटका, घूंसे-लात से खूब पिटाई की। शहरों के उलट गांव में लोग तुरंत जान देने तक की मदद करने पहुंच जाते हैं। वहां भी पहुंच गए थे। लेकिन सबने आंखें फाड़ कर एक अजूबा देखना जरूरी समझा। दोनों लड़कों की बुरी हालत बनाई सुगंधा ने।

खैर, मैं यहां कहना यह चाह रहा हूं कि लड़की को अगर अपने पलने-बढ़ने के दौरान शरीर के स्तर पर उतना ही खोला जाए, जितना लड़के को, तो वह बुराड़ी जैसी घटना का इतना आसान शिकार नहीं हो सकती कि एक लडका कैंची से उस पर हमला करे और वह समर्पण की मुद्रा में अपनी जान दे दे…! उसने दो हाथों से हमला किया, लड़की भी बराबरी की लड़ाई क्यों नहीं लड़े।

लड़कियों को नाजुक बनाने की जगह शरीर से मजबूत बनने के रास्ते की बाधा बनना छोड़िए, दिमाग भी तेज चलेगा और वह ऐसे वक्त में न केवल खुद को बचा सकेगी, बल्कि शायद हमलावर की दुर्दशा कर दे।

लड़कियों नाजुक बनने की जरूरत नहीं है। नजाकत तुमसे तुम्हारी शख्सियत छीनता जरूर है, देता कुछ नहीं है, सिवाय गुलामी के हालात के…!
 

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दलित-विद्रोह की लपटों में घिरा आरएसएस https://sabrangindia.in/dalaita-vaidaraoha-kai-lapataon-maen-ghairaa-araesaesa/ Sun, 31 Jul 2016 03:52:35 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/07/31/dalaita-vaidaraoha-kai-lapataon-maen-ghairaa-araesaesa/ तब के रावण, आज के नसीमुद्दीन/ तब के लक्ष्मण आज के दयाशंकर सिंह. तब की शूर्पनखा, आज की मायावती/ तब की दुर्गा, आज की स्वाति सिंह. – इलाहाबाद में आरक्षण मुक्त महासंग्राम और भाजपा के छात्र नेता अनुराग शुक्ला   की तरफ से लगाया गया पोस्टर. हिंदुओं के पाप के कारण ही दलित समाज मरी गाय या मरे पशुओं […]

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तब के रावण, आज के नसीमुद्दीन/ तब के लक्ष्मण आज के दयाशंकर सिंह.
तब की शूर्पनखा, आज की मायावती/ तब की दुर्गा, आज की स्वाति सिंह.

– इलाहाबाद में आरक्षण मुक्त महासंग्राम और भाजपा के छात्र नेता अनुराग शुक्ला   की तरफ से लगाया गया पोस्टर.

हिंदुओं के पाप के कारण ही दलित समाज मरी गाय या मरे पशुओं का मांस खाने   को मजबूर है।
– गुजरात के सुरेंद्रनगर में दलित विद्रोह के अगुआ नाटूभाई परमार.
 
ऊपर के दोनों बयान छब्बीस जुलाई, 2016 को लोगों के सामने आए। नाम के टाइटिल के हिसाब से अनुराग शुक्ला ब्राह्मण हैं और नाटूभाई परमार दलित समुदाय से आते हैं। तो क्या इन दोनों बयानों को आमने-सामने रख कर आने वाले दिनों में सीधे सामाजिक टकराव की तस्वीर की भूमिका बनने के कयास लगाए जा सकते हैं?

हालांकि भारतीय हिंदू समाज का जो ढांचा है, उसमें पहले बयान पर हैरान होने की जरूरत नहीं है। दूसरा बयान, हिंदुत्व यानी ब्राह्मणवाद की राजनीति करने वालों, सत्ताधारी सामाजिक जातियों के लिए चौंकाने वाला है और तमाम दलित-वंचित जातियों के लिए अधिकारें के संघर्ष का एक रास्ता खोलता है। लेकिन जब देश की आजादी और समानता के अधिकारों को तय करने वाले संविधान के लागू होने के तकरीबन साढ़े छह दशक के बाद 2016 के जुलाई महीने में भी अगर इस तरह की बातें सार्वजनिक तौर पर दर्ज हो रही हैं, तो यह एक ओर चिंता और दूसरी ओर राहत का मामला है।

चिंता इस बात की कि इस देश के आधुनिक लोकतंत्र के लगभग सत्तर साल के दरवाजे पर पहुंचने के दौर में भी कोई तबका नफरत से भर कर एक महिला दलित नेता मायावती को शूर्पनखा कहके संबोधित कर रहा है। इस तरह तुलना करने वाले जातीय तबके ने एक बार फिर बताया कि उसके सपनों के समाज में अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते दलितों और स्त्रियों के लिए क्या जगह है। मायावती के लिए अनजाने में शूर्पनखा का बिम्ब चुनते समय यह शायद नहीं सोचा गया कि यह करने वाले जातीय तबके की सोच और चेतना आज भी स्त्रियों और 'नीच' कही जाने वाली जातियों को गुलाम मानने के मानस में जड़ होकर सड़ रही है। सैकड़ों या हजार सालों में इस जातीय तबके के दिमाग का इतना ही विकास हो सका है कि देशकाल के मुताबिक और मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के अनुकूल उसे प्रतीक या बिम्ब भी चुनना नहीं आता।
दूसरी ओर, राहत का मामला यह है कि मायावती की नुमाइंदगी वाले जातीय-सामुदायिक तबके की चेतना का स्तर यहां तक आता दिख रहा है कि उसे अब मायावती को शूर्पनखा कहने पर गुस्सा नहीं आएगा, बल्कि उलटे वह इस सवाल के साथ खड़ा हो जाता है कि शूर्पनखा पर तुम्हारे भगवान कहे जाने वाले राम और लक्ष्मण ने भयानक जुल्म ढाए! यानी सैकड़ों सालों से एक कहानी में नकारात्मक पात्र के रूप में जानी जाने वाली शूर्पनखा अब संघर्ष और सशक्त स्त्री की छवि में मौजूद है। इसमें दलित समुदाय में बढ़ती हुई और आक्रामक चेतना का सबसे बड़ा हाथ रहा है।

दोनों ही बयान जिन मौजूदा राजनीतिक संदर्भों से आए हैं। इनमें दूसरे बयान की मौजूदा हवा के तूफान में तब्दील हो जाने की आशंका को थामने के लिए इस पर से ध्यान बंटाने के हथियार के तौर पर पहला बयान या मायावती के लिए दयाशंकर सिंह के 'वेश्या-बयान' जैसे शिगूफे मैदान में उतारे गए। अव्वल तो दयाशंकर सिंह ने मायावती के लिए जिन शब्दों का चुनाव किया, वह कोई तात्कालिक और हड़बड़ी में अनायास निकले हुए शब्द नहीं थे। मेरा खयाल है कि उस हड़बोंग के पीछे एक सुनियोजित खेल था। आरएसएस-भाजपा को अच्छे से पता है कि भारतीय राजनीति में इस तरह के शाब्दिक खेलों का क्या और कितना जोखिम है और इसका किसी भी पार्टी के एजेंडे पर कितना असर पड़ता है, सिवाय कुछ दिखने वाली तात्कालिक कार्रवाइयों के..! इसी तरह, आरएसएस-भाजपा को गुजरात में हुए दलित-विद्रोह की घटना की तीव्रता और गंभीरता का पूरा अंदाजा था। मरी गाय की खाल उतारते चार दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई से शायद ही कोई 'हिंदू मन' आहत हुआ था। लेकिन उसके वीडियो के चारों तरफ फैल जाने के बाद गुजरात के दलितों की ओर से जैसी प्रतिक्रिया हुई, उसकी कल्पना न केवल आरएसएस-भाजपा और उसके राजनीतिक साथियों ने नहीं की थी, बल्कि तमाम गैर-भाजपाई राजनीतिक दलों को भी आरएसएस की गाय-राजनीति का जवाब नहीं सूझ रहा था। एक मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए चारों दलितों पर जुल्म ढाया गया था, सुरेंद्र नगर के दलितों ने इसका ऐसा जवाब दिया कि वह दलित-आंदोलन का एक मॉडल बन सकता है।

ऊना की घटना के बाद सुरेंद्रनगर में दलितों ने मरी गायों और उनके अवशेष सरकारी दफ्तरों के सामने ले जाकर फेंक दिया, इस संदेश के साथ कि अब इन गायों का अंतिम संस्कार भी वही करें, जिनकी माता हैं ये गाएं..! लेकिन इस छोटे-से संदेश का असर इतना गहरा हो सकता है, जिसके बाद आरएसएस-भाजपा की मौजूदा सामाजिक राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था का जीवन जाति-आधारित पेशों से कायम है। तो दलित समुदाय की अलग-अलग जातियों के लिए जिस तरह के पेशे निर्धारित किए गए हैं, अगर वे सारे काम करना दलित छोड़ दें तो क्या हालत होगी, सिर्फ कल्पना की जा सकती है! यह केवल जानवरों की सड़ी हुई लाशों से पैदा होने वाली दिक्कत या 'गाय-राजनीति' का मामला नहीं है, बल्कि इसके मूल संदेश के फैलने के साथ पहले पेशे से बंधी जाति, फिर जाति के दम पर कायम हिंदू समाज का ढांचा ढहना शुरू हो जा सकता है।

जाहिर है, सामाजिक वर्णक्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था और उसकी दीवारों को मजबूत करने की जो राजनीति आरएसएस करता है, गुजरात का दलित-विद्रोह उसकी जड़ पर चोट है। यह बाबा साहेब के करीब नब्बे साल पहले चलाए गए अभियान का एक बार फिर जमीन पर उतरना है। इसलिए समूची सामाजिक-राजनीतिक सत्ता-व्यवस्था इस कोशिश में लग गई कि किसी भी हाल में गुजरात में दलितों की अपनी जातिगत पेशों से बगावत पर से देश और समाज का ध्यान तुरंत हटाया जाए। इसलिए मायावती को लेकर दयाशंकर सिंह का बयान प्री-स्क्रिप्टेड नहीं भी था, तो वह अपने मकसद में कामयाब हुआ। जिस दिन और उसके बाद समूचे देश और दुनिया भर बहस के केंद्र में गुजरात में मरी गायों को सरकारी दफ्तरों में फेंकने की घटना के जरिए घिनौनी जाति-व्यवस्था और उसके त्रासद दंश को होना चाहिए था, समूची विपक्षी राजनीति मायावती के अपमान और फिर बसपा की ओर से कथित गाली-गलौज में केंद्रित होकर रह गई।

मंशा के मुताबिक गुजरात दलित-विद्रोह की तीव्रता कम करने की कोशिश की गई और उसके बाद हर अगले तीसरे-चौथे घंटे किसी उत्तेजक और उन्माद पैदा करने वाली खबरों के जरिए हालात से निपटना आरएसएस-भाजपा के लिए आसान हो गया। इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो चूंकि लगभग समूचा टीवी मीडिया आरएसएस-भाजपा के पक्ष में बतौर एक पार्टी काम कर रहा है, इसलिए गुजरात में दलित-विद्रोह की बेहद ज्यादा महत्त्व की खबर को ठीक से जगह नहीं मिली। हालत यह है कि इस मामले में खबर अगर सोशल मीडिया के जरिए नहीं आती तो दुनिया को यह पता भी नहीं चलता कि गुजरात में इतने ज्यादा महत्त्व का विद्रोह सामने आया है।

यानी कह सकते हैं कि चूंकि गुजरात में दलितों का विद्रोह ब्राह्मणवाद की फलती-फूलती राजनीति के सामने एक गंभीर और सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई, इसलिए देश के दूसरे हिस्सों के दलित-वंचित तबके और दुनिया का ध्यान इस ओर से हटाना तुरंत जरूरी था। वरना अगर अपने संदेश के रूप में भी इस घटना का प्रसार दूसरी जगहों पर हुआ तो ब्राह्मणवाद की बुनियाद पर टिके हिंदू समाज का समूचा सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा। इसीलिए तकरीबन दस दिन तक दबाई गई खबरें कथित मुख्यधारा के मीडिया में मजबूरी में चलने लगीं तब जाकर आरएसएस का यह डर और ज्यादा गहराया। इसके बाद एक दिन के भीतर उत्तर प्रदेश का दयाशंकर सिंह प्रसंग शायद लिखा गया और उससे जो नतीजे हासिल करने थे, कर लिए गए। लगभग समूचे मीडिया के जरिए गुजरात मामले पर परदा डाल कर उसके असर को सीमित करने के मकसद से पूरी तरह मायावती, उनके समर्थकों और दयाशंकर तक बहस को समेट दिया गया।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि दयाशंकर सिंह के बयान से उपजे तूफान और मायावती के साथ बसपा और दलितों की प्रतिक्रिया से निपटना आरएसएस के लिए बहुत मामूली काम है। यह साफ-साफ गुजरात से ध्यान भटकाने का खेल था, जिसमें मायावती, बसपा और इस मुद्दे पर अपने आक्रोश को केंद्रित करने वाले तमाम लोग उलझे।

जो हो, गुजरात में दलितों ने बगावत का जो रास्ता अख्तियार किया है, उससे लगता नहीं है कि उसका असर अब धीमा पड़ेगा। अभी तक ब्राह्मणवाद के खिलाफ सिर्फ बौद्धिक हलकों में यह बहस का मुद्दा था कि दलितों को इस हिंदू व्यवस्था में जो जगह दी गई है, उसकी मार से मरते दलितों को तो खुद को हिंदू मानना बंद कर देना चाहिए। जमीनी स्तर पर दलित होने की यातना झेलते हुए लोगों की ओर से इस बगावत की शक्ल में केवल मरी हुई गाय सरकारी दफ्तरों में फेंकने के ही रूप में नहीं, बल्कि अब ठोस प्रतिरोध भी सामने आया है। आखिर ब्राह्मणवाद की मार से उपजी किस पीड़ा के बाद गुजरात के सुरेंद्रनगर में दलित विद्रोह के अगुआ नाटूभाई परमार ने यह कहा होगा कि 'हिंदुओं के पाप के कारण ही दलित समाज मरी गाय या मरे पशुओं का मांस खाने को मजबूर है।'

यानी साफ तौर पर अगर वे 'दलित समाज' और 'हिंदुओं' को अलग करके देख रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं?

आरएसएस की असली चिंता यही है। पहले विद्रोह का तरीका, यानी मरी गायों को सरकारी ठिकानों तक फेंकना, मरे जानवरों के निपटान से इनकार करना और फिर दलित समुदाय को 'हिंदू' धर्म के दायरे से बाहर करके पेश करना। अगर किसी हालत में विद्रोह का यह सिरा समूचे दलित आंदोलन के एजेंडे में तब्दील होता है, तो इंसान को जन्म से गुलाम मानने वाली इस व्यवस्था यानी ब्राह्मणवाद के भविष्य की कल्पना की जा सकती है।

इसलिए पिछले दो-ढाई दशक से ब्राह्मणवाद अपने असभ्य और बर्बर शक्ल में पुनरोत्थान में लगा आरएसएस दलित विद्रोह के इस स्वरूप से निपटने के लिए सब कुछ करेगा। सत्ता हासिल करने के बाद वैसे ही उसके लिए बहुत कुछ आसान हो गया है। लेकिन फिलहाल सत्ता के लोकतांत्रिक ढांचे की मजबूरी की वजह से पहली कोशिश यह है कि प्रथम दृष्टया आरएसएस-भाजपा के लिए जोखिम दिखने वाली राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ अपने पक्ष में एक पार्टी के रूप में काम करने वाले मीडिया के जरिए आरएसएस गुजरात से शुरू इस तूफान से समूचे देश और दुनिया का ध्यान बंटा दिया जाए। अगर यह सफल हुआ तो गुजरात में जमीनी लड़ाई के बजाय देश के बाकी हिस्सों के लोग बहस के दूसरे मुद्दों में उलझ जाएंगे या फिर धीरे-धीरे अपने काम में व्यस्त हो जाएंगे। दूसरी ओर, इसी एजेंडे के तहत जमीनी स्तर पर कम आबादी वाले गुजरात में अब मरे हुए जानवरों के निपटान से इनकार करने के बाद दलितों को जिस तरह की धमकियां मिल रही हैं, वह दूसरा मोर्चा है। इसके बाद बेहद गरीब और यहां तक कि मरे जानवरों को फेंक देने के बाद उसके मांस से गुजारा करने वाले लोगों को कानूनी बारीकियों के जरिए परेशान किया जा सकता है। फिर बहुत मजबूरी में वहां के दलित धीरे-धीरे अपनी पहले की स्थिति में लौट जा सकते हैं।

अगर किसी हाल में यह भी नहीं हुआ तो ब्राह्मणवाद के पुनरोत्थान का सुअवसर देख कर इसमें जी-जान से लगा आरएसएस लोभ-लालच का हथियार भी इस्तेमाल कर सकता है। यानी 'पिछड़ी जाति' के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने के बाद इस दौर में अगर आरएसएस अपने मुखिया के तौर पर किसी दलित चेहरे को बिठा दे या यहां तक कि शंकराचार्य भी किसी दलित को बना दे तो इसमें हैरान नहीं होना चाहिए। दलितों और महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश पर यह 'लोच' और 'समझौता' शुरू हो चुका है। ब्राह्मणवाद ने अपने आपको बचाए रखने के लिए अतीत से लेकर आज तक हर तरह के समझौते किए हैं और वे तमाम समझौते आखिर में ब्राह्मणवाद की सत्ता बचाए रखने की धूर्त चाल साबित हुई है।

संभव है कि यह चाल फिर कुछ काम आ जाए। लेकिन चेतना एक ऐसी चीज है कि जो एक बार जाग जाए तो पहले की जगह पर नहीं लौटती। हो सकता है कि ब्राह्मणवादी छल और सत्ता की शातिर चालों के सामने गुजरात के दलित फिलहाल किन्हीं मजबूर हालात में शांत होते दिखें। लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों से आगे बढ़ते हुए जमीनी स्तर तक अभी काफी काम बाकी है। लेकिन उन विचारों के साथ अब तक दलित आंदोलन जहां तक पहुंच सका है, उतने में ही यह ब्राह्मणवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

 
15.9.1956 को लिखी एक टिप्पणी में बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था-

"आज से तीस साल पहले मैंने यह आंदोलन चलाया था कि "महार-चमार मरी हुई गाय-भैंसों को न उठाएं और न मरी हुई गाय-भैसों का मांस ही खायें"। मेरे इस आंदोलन से सवर्ण हिंदुओं को बड़ी परेशानी हुई । मेरी बहस यह थी कि 'जीवित गाय-भैसों का दूध तुम पीओ और मरने पर हम उठाएं, ऐसा क्यों? सवर्ण हिंदू अगर अपनी मृत मां की लाश को खुद उठाते हैं, तो मरी हुई गाय- भैंसों की लाशें, जिनका वे जन्म-भर दूध पीते है, मरने पर क्यों नहीं उठाते? मेरी दूसरी दलील यह थी कि "यदि सवर्ण हिंदू अपनी मृत मां को बाहर फेंकने के लिए हमें दे दें, तो हम अवश्य ही मरी हुई गाय को भी उठा कर ले जाएंगे। इस पर एक चितपावन ब्राह्मण ने पूना के 'केसरी' अखबार में (जो लोकमान्य तिलक का निकाला चितपावन ब्राह्मणों का मुखपत्र है) कई पत्र प्रकाशित करके हमारे भाइयों को बरगलाना शुरु किया कि मृत पशुओं के न उठाने से महार-चमारों का बड़ा नुकसान होगा। उसने ऊटपटांग आंकडे देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मरे हुए पशु की हड्डी, दांतों, सींगों आदि को बेचने से 500-600 सौ रुपया वार्षिक लाभ होता है। डॉ. आंबेडकर उन्हें बहका कर उनका नुकसान कर रहा है।

एक बार 'संगमनेर' (बेलगाव-मैसोर) में वह ब्राह्मण मुझे मिला और उन्हीं बातों को कह कर मुझसे तर्क करने लगा। मैने 'केसरी' में प्रकाशित सभी प्रश्नों का खुली सभा में जवाब दिया । 'मेरे भाइयों के पास खाने को अन्न नहीं है, स्त्रियों के पास तन ढकने को कपड़ा नहीं है, रहने को मकान नही है और जोतने के लिए जमीन नहीं है। इसलिए वे दलित हैं और महादुखी हैं। इस सभा में उपस्थित लोग बताएं कि इसका कारण क्या है?' लेकिन किसी ने उत्तर नहीं दिया। वह ब्राह्मण भी चुप बैठा रहा। तब मैंने कहा- अरे भले लोगों, तुम हमारे लाभ की चिंता क्यों करते हो? अपना लाभ हम खुद सोच लेंगे। अगर तुम्हें इस काम में भारी लाभ दिखाई देता है, तो तुम अपने संबंधियों को क्यों नही सलाह देते कि वे मरे हुए पशुओं को उठा कर पांच-छह सौ रुपया वार्षिक कमा लिया करें?' अगर वे ऐसा करें तो इस लाभ के अलावा उन्हें 500 रुपए इनाम मैं खुद दूंगा। तुम जानते हुए इस बड़े मुनाफे को क्यों छोड़ते हो? लेकिन आज तक कोई सवर्ण हिंदू इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ। शायद खुद करने में मुनाफा नजर न आया होगा!

दूसरो को मिथ्या प्रलोभन देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को 'धूर्तता' कहा जाता है और इतना बडा सफेद झूठ 'केसरी' जैसे पत्र में छपना धूर्तता की पराकाष्ठा है।"

('चार्वाक' ब्लॉग से)
 

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गुजरात में दलित विद्रोह – स्वागत, इस सामाजिक क्रांति का… https://sabrangindia.in/gaujaraata-maen-dalaita-vaidaraoha-savaagata-isa-saamaajaika-karaantai-kaa/ Thu, 21 Jul 2016 10:45:28 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/07/21/gaujaraata-maen-dalaita-vaidaraoha-savaagata-isa-saamaajaika-karaantai-kaa/ Image: PTI गुजरात में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, […]

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Image: PTI


गुजरात में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, उसके सामने बाकी तमाम राजनीतिक दल एक तरह से लाचार थे और उसके विरोध का कोई जमीनी तरीका नहीं निकाल पा रहे थे। गुजरात में दलित समुदाय के विद्रोह ने देश में आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति का सामना करने का एक ठोस रास्ता तैयार किया है।

देश में भाजपा की सरकार बनने के बाद पिछले लगभग दो सालों से लगातार कुछ ऐसे मुद्दे सुर्खियों में रहे हैं, जिनसे एक ओर वास्तविक मुद्दों से समूचे समाज का ध्यान बंटाए रखा जा सके और दूसरी ओर पहले से ही धार्मिक माइंडसेट में जीते ज्यादा से ज्यादा लोगों के दिमागों का सांप्रदायीकरण किया जा सके। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या दूसरे साधुओं-साध्वियों की जुबान से अक्सर निकलने वाले जहरीले बोल के अलावा जो एक मोहरा सबसे कामयाब हथियार के तौर पर आजमाया गया, वह था गाय को लेकर हिंदू भावनाओं का शोषण और फिर उसे आक्रामक उभार देना। हाल में इसकी चरम अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके में हुई, जहां सितंबर, 2015 में हिंदू अतिवादियों की एक भीड़ ने गाय का मांस रखने का आरोप लगा कर मोहम्मद अख़लाक के घर पर हमला कर दिया और उनके परिवार के सामने तालिबानी शैली में उन्हें ईंट-पत्थरों से मारते हुए मार डाला।

लेकिन इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी। अक्टूबर 2000 में हरियाणा में झज्जर जिले के दुलीना इलाके में पांच दलित एक मरी हुई गाय की खाल अलग कर रहे थे। उसी जगह से हिंदुओं के एक धार्मिक आयोजन से लौटती भीड़ ने उन पांचों को घेर लिया और गोहत्या का आरोप लगा कर उन्हें भी ईंट-पत्थरों से मार-मार कर मार डाला था। तब आरएसएस की एक शाखा विश्व हिंदू परिषद के एक नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा था कि एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा कीमती है।

गुजरात में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों को बर्बरता से पीटे जाने की घटना से पैदा हुए तूफान के बाद भी एक बार फिर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी वास्तविक राजनीति के अनुकूल बयान ही जारी किया। परिषद ने कहा- "नैसर्गिक रूप से मरी गायों और पशुओं के निपटान की हिंदू समाज में व्यवस्था है और वह परंपरागत रूप से चली आ रही है। इस व्यवस्था को गोहत्या कह कर कुछ तत्त्वों द्वारा जो अत्याचार हो रहा है, उसका विश्व हिंदू परिषद विरोध करती है।"

यानी सैद्धांतिक तौर पर आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद मरी गायों और पशुओं के निपटान के लिए हिंदू समाज में 'परंपरागत व्यवस्था' होने की बात कहते हैं और व्यावहारिक तौर पर उन्हें जब भी अपनी राजनीति के लिए जरूरत होगी, मरी गायों को ले जाते या उनकी खाल उतारते दलितों को देख कर उन्हें गो-हत्यारा घोषित कर देंगें और फिर उनकी जान तक ले लेंगे। विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस का रवैया इस मसले पर बिल्कुल हैरानी नहीं पैदा करता। बल्कि अच्छा यह है कि कई बार दबाव में आकर ये हिंदू संगठन अपना असली चेहरा दिखाते रहते हैं।

बौद्धिक हलकों में शायद इन सब पहलुओं से विचार किया गया होगा, इसके बावजूद सच यह है कि हिंदुत्व की सियासत में गाय के इस मोहरे का जवाब नहीं ढूंढ़ा जा सका था। पिछले तकरीबन दो सालों से देश के अलग-अलग इलाकों से आने वाली खबरें यह बताती रहीं कि समाज में 'गाय का जहर' हिंदू पोंगापंथियों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है और जगह-जगह पर जिंदा या मरी हुई गाय ले जाते लोगों के साथ गऊ-रक्षक बेहद बर्बरता से पेश आते हैं। इसके अलावा, समूचे समाज में गाय अब एक मुद्दा बन चुकी है। बहुत साधारण रोजी-रोजगार में लगे लोग, जिन्हें गाय से कोई वास्ता नहीं है, वे 'गऊ-हत्या' के नाम पर उन्माद में चले जाते हैं। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के दनकौर में पंद्रह से पच्चीस वर्ष के तकरीबन पंद्रह युवाओं से एक साथ बात करते हुए मुझे हैरानी इस बात पर हुई थी कि वे यह कहने में बिल्कुल नहीं हिचक रहे थे कि 'कोई गऊमाता को मारेगा तो हम उसे काट देंगे जी…!' इन युवाओं में कुछ दलित पृष्ठभूमि से भी थे। दस मिनट की बातचीत के बाद 'गऊमाता' के सवाल पर दलित किशोर चुप हो गए, लेकिन बाकी अपनी राय पर कायम थे।

हालांकि गाय को लेकर उन्माद पैदा करने की कोशिशें हिंदुत्व की राजनीति का एक औजार रही हैं, लेकिन पिछले दो-तीन सालों के लगातार आबो-हवा में गाय के नाम पर जहर घोलने का ही नतीजा है कि एक जानवर के नाम पर लोग इंसानों को मारने-काटने की बातें सरेआम करने लगे हैं। सड़कों पर गोरक्षक गुंडे खुले तौर पर कानून हाथ में लेते हैं और मवेशी ले जाते वाहनों को रोक कर लोगों को बुरी तरह मारते-पीटते हैं या मार भी डालते हैं। झारखंड के लातेहर और हिमाचल प्रदेश से गोरक्षक गुंडों द्वारा मवेशी ले जाते लोगों को पकड़ कर मार डालने की खबरें सामने आईं। लातेहर में एक किशोर और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका दिया गया था। जहां-जहां भाजपा की सरकार है, वहां तो जैसे इन्हें अभयदान मिला हुआ है।
गुजरात के ऊना में जिन लोगों ने चार दलित युवकों को सरेआम बर्बरता से मारा-पीटा, वे भी एक तरह से बाकायदा जिस पुलिस से संरक्षण प्राप्त थे, वह भी भाजपा सरकार की ही है। यों भी, पुलिस अपने राज की सरकार के रुख के हिसाब से ही किसी को खुला छोड़ती है या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करती है। कम से कम गुजरात में तो सन 2002 के दंगों से लेकर अब तक पुलिस ने यही साबित किया है।

लेकिन उन गोरक्षक गुंडों से लेकर शायद आरएसएस-भाजपा तक को इस बात का अंदाजा शायद नहीं रहा होगा कि जिस गाय के हथियार से वे बाकी मुद्दों को दफ्न करने की कोशिश में थे, वह इस रूप में उनके सामने खड़ा हो जाएगा। पिछले दो-ढाई सालों में यह पहली बार है जब गाय की राजनीति को इस कदर और मुंहतोड़ तरीके से जवाब मिला है। ऊना में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों पर बर्बरता ढाई गई, उसी के जवाब में गुजरात के कई इलाकों में दलित समुदाय में मरी हुई गायों को ट्रकों में भर कर लाए और कलक्टर और दूसरे सरकारी दफ्तरों में फेंक दिया। संदेश साफ था। जिस सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें इस पेशे में झोंका था, अगर उससे भी उन्हें अपने जिंदा रहने के इंतजामों से रोका जाता है, उसके चलते उन पर बर्बरता ढाई जाती है तो वे यह काम सरकार और प्रशासन के लिए छोड़ते हैं। अब वही करें गायों के मरने के बाद उनका निपटान।

अपने ऊपर हुए जुल्म के खिलाफ खड़ा होने का यह नायाब तरीका है, यह अपने खिलाफ एक राजनीति का करारा जवाब है, यह एक समूची ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति की जड़ पर हमला है। अच्छा यह है कि मुख्यधारा के मीडिया के सत्तावादी रवैये के चलते गुजरात में आए इस तूफान की अनदेखी और सच कहें तो इसे दबाने की कोशिशों के बावजूद विरोध के इस तरीके की खबर देश के दूसरे इलाकों तक भी पहुंची है और इसके संदेश ने व्यापक असर छोड़ा है। अब जरूरत यह है कि मरी हुई या जिंदा गायों को इस देश में गोरक्षा का कथित आंदोलन चलाने वाले आरएसएस-भाजपा और उनके दूसरे संगठनों के सदस्यों के घर छोड़ दिया जाए, ताकि वे अपनी 'गऊमाता' के प्रति अपनी निष्ठा दर्शा सकें। मरी या जिंदा गाय से पेट भरने लायक जितनी आमदनी होती है, उससे ज्यादा दूसरे किसी रोजगार में हो सकती है।

जाहिर है, यह एक ऐसा जवाब है जिससे आरएसएस-भाजपा की समूची ब्राह्मणवादी राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। अगर यह आंदोलन आगे बढ़ा और समूचे देश के दलितों ने मरे हुए जानवरों के निपटान के काम सहित मैला ढोने, शहरों-महानगरों से लेकर गली-कूचों या फिर सीवर में घुस कर सफाई करने या जातिगत पेशों से जुड़े तमाम कामों को छोड़ कर रोजगार के दूसरे विकल्पों की ओर रुख करते हैं तो बर्बर और अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज के ढांचे को इस सामंती शक्ल में बनाए रखना मुश्किल होगा।

गुजरात में दलित समुदाय ने पहली बार मरी हुई गायों और दूसरे जानवरों के जरिए आरएसएस-भाजपा और हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने एक ठोस चुनौती रखी है। इसके अलावा, उन्होंने सड़क पर उतर कर और उनमें से कुछ ने आत्महत्या की कोशिश में छिपे दुख को जाहिर कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया है। इस स्वरूप के आंदोलन के महत्त्व आरएसएस को मालूम है और वह अपनी ओर से इससे ध्यान बंटाने के लिए कुछ भी कर सकता है। इसलिए इस विद्रोह की अनदेखी करने या दूसरे कम महत्त्व के मुद्दों में उलझने के बजाय अब दलित समुदाय की ओर से शुरू की गई इस सामाजिक क्रांति का स्वागत और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश उन सब लोगों को करने की जरूरत है, जो आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति को दुनिया का एक सबसे अमानवीय सामाजिक राजनीति मानते हैं।

(चार्वाक ब्लॉग से)
 

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कैराना के झूठ के सहारे https://sabrangindia.in/kaairaanaa-kae-jhauutha-kae-sahaarae/ Tue, 14 Jun 2016 08:42:13 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/14/kaairaanaa-kae-jhauutha-kae-sahaarae/ Home Page Image: Indian Express साक्षी महाराज या साध्वी प्राची जैसे नफरत की आग उगलने वाले लोगों की बेलगाम बातों को अब तक भाजपा उनकी व्यक्तिगत राय बता कर दिखने के लिए खुद को दूर करती रही है। हालांकि अब सब जानते हैं कि ये बेलगाम हिंसक बयान किस राजनीति का हिस्सा हैं, लेकिन अब […]

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Home Page Image: Indian Express

साक्षी महाराज या साध्वी प्राची जैसे नफरत की आग उगलने वाले लोगों की बेलगाम बातों को अब तक भाजपा उनकी व्यक्तिगत राय बता कर दिखने के लिए खुद को दूर करती रही है। हालांकि अब सब जानते हैं कि ये बेलगाम हिंसक बयान किस राजनीति का हिस्सा हैं, लेकिन अब वह परदा भी उठ रहा है।

भाजपा के सांसद हुकुम सिंह की ओर से उठाए गए मुद्दे के बाद बाकायदा भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह ने कहा कि 'उत्तर प्रदेश को कैराना की घटनाओं को हलके में नहीं लेना चाहिए, यह एक सदमे में डालने वाली घटना है… कैराना से (हिंदुओं का) भगाया जाना कोई साधारण घटना नहीं है!'

वे उस दिन भी सार्वजनिक रूप से यह कह रहे थे जब हुकुम सिंह की ओर से जारी लिस्ट की कलई खुल चुकी थी और कैराना के झूठ की खबरें चारों तरफ चलने लगी थीं। हालांकि भाजपा के लिए यह कोई नया 'प्रयोग' नहीं है, लेकिन अब शायद भाजपा ने तय कर लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए मैदान में उसकी भावी राजनीति क्या होगी! यानी कैराना के झूठ को बेशर्म तरीके से मुद्दा बनाने के साथ ही अब यह साफ हो गया लगता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के भावी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किस तरह का खेल खेलने जा रही है। हालांकि दादरी में मोहम्मद अख़लाक के मारे जाने के बावजूद अब नए सिरे से कथित फोरेंसिक जांच के बहाने कथित गोवंश के मांस का मुद्दा उठा कर वह यही करने की कोशिश में है। तो एक तरह से भाजपा ने मान लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए उसके पास अब शायद 'विकास' का जुमला भी नहीं रह गया है।

दरअसल, पिछले दो-ढाई दशक के दौरान सत्ता की उसकी राजनीति के केंद्र में यही अफवाह फैलाने या किसी भी रास्ते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फार्मूला रहा है। लेकिन केंद्र की सत्ता के लिए तात्कालिक तौर पर 'विकास' के जुमले का परदा ओढ़ा गया था। अपने इस जुमले के बारे में भाजपा खुद कितनी आश्वस्त है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनावी जीत के लिए उसे अपने इस नारे पर भरोसा नहीं रह गया है। अपने नारे के प्रति ईमानदार नहीं रहना किसी भी व्यक्ति या समूह को इसी हालत में पहुंचा दे सकता है। सो, दो साल के भीतर-भीतर देश में इस कथित विकास के जुमले की हकीकत साधारण लोगों तक पहुंचने लगी है और इसमें खुद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पंद्रह लाख रुपए जैसे शिगूफों को जुमला घोषित कर मदद की।

सवाल है कि कैराना से कथित तौर पर भगाए लोगों की लिस्ट में से कई लोग जब खुद कह रहे हैं कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, यह लिस्ट फर्जी है, मनगढ़ंत है, तब भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह 'कैराना से हिंदुओं के निकाले जाने' पर क्यों 'चिंता' जता रहे हैं! क्या अब भाजपा के पास चुनावी जीत के लिए यही रास्ता बच गया है?

दिक्कत यह भी है कि इस ओढ़े गए परदे के अलावा भाजपा के पास अपनी राजनीति के लिए सनातनी या हिंदुत्व की राजनीति के सिवा और क्या है, जिसके सहारे वह मैदान उतरे!

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद बिहार में 'विकास' के नारे की परीक्षा हो चुकी थी और लोग समझ चुके थे कि भाजपाई विकास का मतलब क्या होता है! इसलिए वहां बेहद बुरी हार के बाद भाजपा ने असम में अपने एजेंडे का खुला खेल खेला और जीत हासिल की। तो वही आदर्श लेकर अब वह उत्तर प्रदेश का मैदान आजमाने की फिराक में है।

थोड़ी राहत की बात यह जरूर है कि दो-तीन दिन के भीतर ही कुछ हलकों की ओर से कैराना के झूठ पर से परदा उठाने की कोशिश की गई और कैराना का खुला भाजपाई फर्जीवाड़ा अब सामने है। सवाल है कि कैराना से कथित तौर पर भगाए लोगों की लिस्ट में से कई लोग जब खुद कह रहे हैं कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, यह लिस्ट फर्जी है, मनगढ़ंत है, तब भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह 'कैराना से हिंदुओं के निकाले जाने' पर क्यों 'चिंता' जता रहे हैं!

क्या अब भाजपा के पास चुनावी जीत के लिए यही रास्ता बच गया है? क्या भारत के इस लोकतंत्र और संविधान के उसूलों को वह ताक पर रख चुकी है? भारत में सत्ता पर काबिज जिस पार्टी के अध्यक्ष खुद झूठ के सहारे नफरत की राजनीति करने वालों को बढ़ावा दे रहे हों, प्रधानमंत्री को अपनी राजनीतिक पार्टी की इस तरह की गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगाने की जरूरत नहीं पड़ रही हो, तो क्या यह भारत के संविधान और लोकतंत्र के तहत भारत में शासन करने की उसकी क्षमता पर सवालिया निशान है?

जिस तरह बहुत मामूली मुद्दों को भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है, उसका हासिल क्या होना है? देशभक्ति और देश की एकता के लिए मर-मिटने का आह्वान करने वाले ही शायद देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं!

'चार्वाक' ब्लॉग से.
 

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‘प्रोडिगल साइंस’ के मनोरंजन के बरक्स https://sabrangindia.in/paraodaigala-saainsa-kae-manaoranjana-kae-barakasa/ Sun, 12 Jun 2016 06:35:36 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/12/paraodaigala-saainsa-kae-manaoranjana-kae-barakasa/ आमतौर पर किसी परीक्षा में टॉप करने वालों की चर्चा इसलिए होती है कि वे आगे कोशिश करने वालों को कुछ हौसला दे सकें। लेकिन बिहार में इंटरमीडियट परीक्षा के दो टॉपर्स इसलिए सुर्खियों में रहे कि वे अपने विषय के साधारण सवालों के जवाब भी नहीं जानते थे। यह सवाल बिल्कुल सही है कि […]

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आमतौर पर किसी परीक्षा में टॉप करने वालों की चर्चा इसलिए होती है कि वे आगे कोशिश करने वालों को कुछ हौसला दे सकें। लेकिन बिहार में इंटरमीडियट परीक्षा के दो टॉपर्स इसलिए सुर्खियों में रहे कि वे अपने विषय के साधारण सवालों के जवाब भी नहीं जानते थे। यह सवाल बिल्कुल सही है कि अगर वे जानकारी की इस हालत में थे, तो उन्होंने परीक्षा में सवालों के जवाब कैसे दिए और इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले।

दरअसल, इसमें जितना जरूरी यह पूछना है कि उन्होंने सवालों के जवाब कैसे लिखे, उससे ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले कि वे सबसे शीर्ष पर रहे। जाहिर है, इसमें परीक्षा के आयोजन से लेकर कॉपी जांचने वाले तक की भूमिका है। लेकिन इसे छोड़ भी दिया जाए तो अगली स्थिति क्या आती है? टॉप करने का सर्टिफिकेट लिए वे दोनों विद्यार्थी इससे आगे कहां जाएंगे? खासतौर पर अगर वे किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठते हैं, तो उन्हें क्या हासिल होगा?
अब एक दूसरी स्थिति की बात करते हैं।

हाल ही में मेडिकल कोर्सेज में दाखिले के लिए जो परीक्षा आयोजित की गई, उसमें परीक्षार्थियों को कुछ भी लेकर आने की मनाही थी, यहां तक उनके लिए कपड़े और चप्पल तक के नियम शर्त के तौर पर लागू हुए। ऐसा क्यों हुआ था? दरअसल, इससे पहले भी ऐसे मामले आ चुके हैं कि मेडिकल या इंजीनियरिंग के दाखिले के लिए होने वाली परीक्षाओं में नकल या चोरी की शक्ल उससे ज्यादा अलग नहीं रही है जो बिहार के उन दो टॉपरों ने अपनाया होगा। ज्यादा संभव है कि उनकी जगह पर किसी दूसरे व्यक्ति ने कॉपी तैयार किया होगा, उसके लिए परीक्षा केंद्र के कर्ताधर्ता से लेकर कॉपी जांचने वाले शिक्षक तक 'पहुंच' का मामला 'सेट' किया गया होगा। लेकिन मेडिकल या इंजीनियरिंग की परीक्षाओं में नकल का जो स्वरूप सामने आया है, उसमें किसी दूसरे व्यक्ति को परीक्षार्थी की जगह बैठाने से लेकर आज के तमाम हाईटेक संसाधन, मसलन, स्मार्टफोन में व्हाट्सअप या दूसरी सुविधाएं, गुप्त माइक्रोफोन वगैरह तक का इस्तेमाल हुआ, जो बहुत मुश्किल से पकड़ में आया। प्रश्न-पत्र परीक्षा से पहले ही चार-पांच या छह लाख रुपए में बिकने के मामले अब नए नहीं लगते।

नकल या 'सेटिंग' से टॉप करने वाले विद्यार्थियों का तो मामला 'ज्ञान' और जानकारी का है, इसलिए उनके रिजल्ट पर सवाल उठने चाहिए। मगर इससे इतर मेडिकल या इंजीनियरिंग के कोर्सेज में निजी कॉलेजों का जो एक समूचा समांतर तंत्र खड़ा हो गया है, उसमें पढ़ाई करने और डॉक्टर या इंजीनियर बनने की क्या प्रक्रिया है। क्या यह सच नहीं है कि किसी के पास दस-बीस या पचास लाख रुपए हैं तो वह जानकारी के स्तर पर भले ही 'प्रोडिगल साइंस' वाली रूबी कुमारी के समकक्ष है, लेकिन डॉक्टरी या इंजीनियरी की डिग्री हासिल करने के बाद उनसे उनके विषय से जुड़े सवाल कोई नहीं पूछता कि आपने परीक्षा कैसे पास की? आरक्षण की व्यवस्था के तहत एक तय नंबर लाकर पास करने के बावजूद तैयार डॉक्टर और इंजीनियर 'अयोग्य' होता है, लेकिन तीस-चालीस या पचास लाख रुपए खर्च कर इस तरह डिग्री खरीद कर डॉक्टर या इंजीनियर बनने वाले डॉक्टरों की योग्यता पर कोई सवाल नहीं होगा, जिन्हें नंबर लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

बहरहाल, बिहार में सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की क्या हालत है, पढ़ाई-लिखाई और शिक्षण का क्या स्तर है, कितने शिक्षकों की कमी है, सरकार की ओर से ठेका प्रथा के तहत जो शिक्षक बहाल किए गए हैं उनकी और नियमित शिक्षकों के शिक्षण का स्तर क्या है, हाल के वर्षों में निजी स्कूल-कॉलेजों का कितना बड़ा संजाल खड़ा हुआ और इसके पीछे क्या खेल चल रहे हैं, इन तमाम हालात की मार समाज के किस तबके पर पड़ती है, इन सवालों से जूझने की जरूरत न मीडिया को लगती है, न रूबी कुमारी के 'प्रोडिगल साइंस' से मनोरंजन करते गैर-बिहारी या सत्ताधारी बिहारी समाज को!

'चार्वाक' ब्लॉग से
 
 

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नफरत की बुनियाद पर उन्माद की राजनीति https://sabrangindia.in/napharata-kai-baunaiyaada-para-unamaada-kai-raajanaitai/ Thu, 09 Jun 2016 05:20:05 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/09/napharata-kai-baunaiyaada-para-unamaada-kai-raajanaitai/   ​भाजपा के 'कांग्रेस-मुक्त भारत' के नारे का विस्तार इतनी जल्दी 'मुसलमान-मुक्त भारत' में हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जिस दौर में दादरी में गाय के मांस के हवाले से भीड़ के हाथों मोहम्मद अख़लाक की हत्या कर दिए जाने को सही ठहराने के आशय के बयान बाकायदा सांसद और मंत्री के हैसियत […]

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​भाजपा के 'कांग्रेस-मुक्त भारत' के नारे का विस्तार इतनी जल्दी 'मुसलमान-मुक्त भारत' में हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जिस दौर में दादरी में गाय के मांस के हवाले से भीड़ के हाथों मोहम्मद अख़लाक की हत्या कर दिए जाने को सही ठहराने के आशय के बयान बाकायदा सांसद और मंत्री के हैसियत से संजीव बालियान या फिर सांसद योगी आदित्यनाथ जैसे लोग दे रहे हों तो अब पर हैरानी नहीं होनी चाहिए।

लेकिन क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब भाजपाई हिंदुत्व की रगों में दौड़ती नफरत की बुनियाद पर हिंदू राष्ट्र का हवामहल खड़ा करने का ख्वाब परोसा गया है? और शायद इसे भी एक शुद्ध भाजपाई अभ्यास के तौर पर मान लिया जाना चाहिए कि तीर जब अपना काम कर जाए, तो दिखावे का अफसोस जाहिर कर देने, उससे खुद के अलग रहने या फिर बिना किसी शर्म के पलटी मार देने में कोई हर्ज नहीं है।

भाजपा में, लेकिन कथित तौर पर लोकतंत्र में यकीन रखने वाले वैसे बहुत सारे लोगों को थोड़ी देर के लिए इस बात से राहत मिल जाती होगी कि पार्टी ऐसे बयानों की जिम्मेदारी नहीं लेती। लेकिन भोलेपन और मासूमियत की चाशनी में लिपटा भाजपा का यह ‘सच’ ज्यादा छिपा नहीं रह पाता। दरअसल, न तो योगी आदित्यनाथ या साध्वी प्राची इतने मासूम हैं और न भाजपा इतनी भोली कि इस तरह की ‘बाजियों’ के नफा-नुकसान का अंदाजा इन्हें न हो। इसलिए बयानों के असर को और ज्यादा तीखा बनाने के लिए सब मोर्चे पर खेल लिया जाता है।

नब्बे के दशक की शुरुआत में ही मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल के साथ पैदा हुए सामाजिक न्याय के नारे की भ्रूण हत्या के इरादे से निकली ‘रथयात्रा’ आखिरकार बाबरी मस्जिद विध्वंस की मंजिल तक पहुंची। और इस मंजिल तक पहुंचने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने जो राह तैयार की, साध्वी प्राची, साक्षी महाराज या योगी आदित्यनाथ जैसे लोग तो उस पर अपने तरीके से चलने वाले महज कुछ मुसाफिर हैं। दरअसल, तब से लेकर भाजपा ने लगातार भारतीय राजनीति में एक ऐसी जमीन तैयार की है, जिसमें ‘हीरो’ बनने के लिए सिर्फ एक तयशुदा फार्मूले पर अमल की जरूरत होती है। और प्रवीण तोगड़िया हों या फिर योगी आदित्यनाथ, प्रमोद मुतालिक या साध्वी प्राची, इन सबके लिए यह ज्यादा आसान रास्ता है आग लगाने वाले दो-चार बयान, उत्पात और मीडिया में कवरेज का इंतजाम- जिसके लिए किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती। प्रमोद मुतालिक को मंगलोर में पब पर हुए हमले से पहले कितने लोग जानते थे? या फिर कितने लोगों को यह पता था कि साध्वी प्राची या साक्षी महाराज जैसे लोग क्या हैं?

मगर भाजपा का दुख यह है कि भारतीय भूभाग के पिछले पांच-सात सौ सालों के इतिहास ने यहां ऐसा सामाजिक-राजनीतिक ढांचा खड़ा कर दिया है, जिसका बहुमत इस तरह के उन्माद को ‘इलाज’ के लायक ही मानता है। अगर ‘गुजरात प्रयोग’ जैसे छिटपुट उदाहरण दिए जाते हैं तो यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसे आजादी के बाद देश के सत्ता संचालकों की नाकामी कहें या यथास्थितिवाद को बनाए रखने की महीन राजनीति कि सत्ता के ‘लोकतांत्रिक’ ढांचे के बावजूद हर मोर्चे पर लोकतंत्र को कुंठित करने की कोशिश हो रही है। यही वजह है कि न तो सत्ता अपने मूल स्वरूप में व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक हो सकी और न इसके सामाजिक नतीजे हासिल किए जा सके।

सवाल है कि इन स्थितियों का ज्यों का त्यों बने रहना आखिरकार किसके हित में था या है। समाज को जड़ताओं और विद्रूपों से मुक्त करने के लिए जमीनी स्तर पर कुछ करने की बात तो दूर, क्या कारण है कि पिछले साठ साल की ‘अपनी सत्ता’ के बावजूद हम यह संदेश तक प्रेषित करने में विफल रहे हैं कि हमारा मकसद एक प्रगतिशील मूल्यों के साथ जीने वाले समाज की रचना है? यह कैसे संभव हो सका कि भारत में विकास के पर्याय के रूप में स्थापित होने के बाद देश के कई राज्यों में आज कुछ गिरोह जैसे अभयारण्य में विचर रहे हैं? ऐसे उदाहरण भी सामने आ रहे हैं जो अफगानिस्तान या पाकिस्तान में तालिबान के प्रभाव वाले इलाकों का चेहरा बन चुके हैं।

दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या से लेकर झारखंड के लातेहर में गाय बचाने के नारे के साथ एक बच्चे और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका देने की घटना कोई इक्की-दुक्की नहीं रही। अब इसका विस्तार आए दिन देखने को मिल रहा है जब कहीं से खबर आती है कि जानवरों को ले जाते ट्रक पर सवार लोगों को सार्वजनिक रूप से तालिबानी तरीके से मारा-पीटा गया या मार डाला गया। यह क्रम है, जो मंगलोर के एक पब में घुस कर युवतियों को मारने-पीटने, गिरजाघरों पर हमले वगैरह के रूप में सामने आते रहे हैं।

यह माहौल बनाने की कोशिश हो रही है कि इस देश में गैर-हिंदुओं के अलावा किसी की जगह नहीं होगी, 'मुसलमान-मुक्त भारत' उसी का नया नारा पैदा हुआ है। लेकिन क्या-क्या त्यागेंगे आप? पहले मुसलमान या ईसाई, तो फिर उसके बाद क्या फिर दलित, उसके बाद पिछड़े वर्ग का कोई दोस्त? धार्मिक और सामाजिक वर्णक्रम के विभाजन पर आधारित हिंदुत्व के रास्ते की मंजिल क्या कोई और है? और आखिरी तौर पर इसी का पैरोकार होने का बार-बार सबूत देने वाला आरएसएस और उससे गर्भनाल से जुड़ी भाजपा को रास्ता भी वही चाहिए जो उसे इस मंजिल तक पहंचाए। उसे बहुत अच्छे से मालूम है कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ने इस समाज के असंख्य, लेकिन हर खंड को उसकी जड़ताओं से इस कदर बांध रखा है, जहां यह सोचने की गुंजाइश नहीं है कि साध्वी प्राची या योगी आदित्यनाथ ने क्या और क्यों कहा? जहां यह गुंजाइश बची होती है, वहां से यह सवाल उठता है कि इस तरह की घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति या तो जाहिल है या शातिर। मगर जाहिल की जिद और शातिराना जिद में बड़ा फर्क होता है। और इस नाते साध्वी प्राची जैसे लोग जाहिल नहीं हैं, एक योजना का हिस्सा लगते हैं।

दरअसल, इस्लामी चेहरा लिए तालिबान से ऊपरी तौर पर नफरत करने वाली भाजपा, विहिप, बजरंग दल या श्रीराम सेना जैसी संघी जमातें उसी आबोहवा के निर्माण में लगी हैं, जो तालिबान या आईएसआईएस का मकसद है। फर्क सिर्फ काले और भगवे चोले का है।

यह दुनिया के लिए एक बेहतरीन लतीफा हो सकता है कि जिस तरह टीवी, मोबाइल, मोटरगाड़ियों, एके-47 या टैंकों-मोर्टारों या दूसरे अत्याधुनिक हथियारों जैसे विज्ञान के रहम की बदौलत तालिबान या आईएसआईएस सभ्यता की इच्छा रखने वाले एक समाज को एक असभ्य कुनबे में तब्दील करने की कोशिश में है, ठीक उसी तरह हिंदुत्व के खौफ से भी शायद यही तस्वीर बने। तो क्या हमारा आगे बढ़ना अब पूरा हो चुका है और क्या हम लौट रहे हैं?

भारतीय राजनीति की शतरंजी बिसात पर संघ के मुकाबले का माहिर खिलाड़ी-समूह कोई नहीं है। वह अपनी हर चाल के बरक्स सामने वाले को भी वही चाल चलने को मजबूर करता है जिसकी बाजी संघी झोले में जाए। यह महज संयोग नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष और तमाम वैज्ञानिक प्रगतिशील मूल्यों के कई प्रवक्ताओं में कुछ अचानक प्रतिगामी धारा का प्रतीक बने दिखते हैं। क्या यह सचमुच की लाचारी है? क्या वास्तव में हमारे देश का कानून और संविधान इस हद तक मजबूर है कि साध्वी प्राची जैसे लोग वह करने का हक पा चुके हैं जो वे कर रहे हैं?

('चार्वाक' ब्लॉग से)

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सवालों से डरा हुआ धर्म-तंत्र https://sabrangindia.in/savaalaon-sae-daraa-haua-dharama-tantara/ Mon, 06 Jun 2016 05:51:05 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/06/savaalaon-sae-daraa-haua-dharama-tantara/ खबरों के मुताबिक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादी और अंधविश्वासों के खिलाफ अभियान चलाने वाले प्रगतिशील विचारकों-कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले की जांच में देश की चर्चित एजेंसी सीबीआई ने एक तरह से खुद को नाकाम घोषित कर दिया है और अब वह इन मामलों की जांच के लिए 'स्कॉटलैंड यार्ड' […]

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खबरों के मुताबिक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादी और अंधविश्वासों के खिलाफ अभियान चलाने वाले प्रगतिशील विचारकों-कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले की जांच में देश की चर्चित एजेंसी सीबीआई ने एक तरह से खुद को नाकाम घोषित कर दिया है और अब वह इन मामलों की जांच के लिए 'स्कॉटलैंड यार्ड' का सहारा लेने जा रही है। इसके पहले अंधविश्वासों और तांत्रिकों के खिलाफ लड़ने वाले दाभोलकर के हत्यारों की खोज के लिए पुणे की पुलिस ने तांत्रिक की मदद लेने की कोशिश की थी। लेकिन अब तक देश की 'सर्वोत्कृष्ट' मानी जाने वाली जांच एजेंसियां अपने बूते कुछ पता नहीं सकीं कि ये हत्याएं किसने कीं, क्यों कीं।

दरअसल, यह एक ऐसे तंत्र का ब्योरा है, जिसमें समाज से शुरू कर होकर सत्ता-प्रतिष्ठानों तक में सामाजिक शासन की राजनीति घुली-मिली हुई है, जो अंधेरे में डूबते-उतराते समाज को उसी हालत मं बनाए रखने में लगी रहती है। उसके लिए उसे सत्ता की राजनीति करनी पड़े या फिर किसी की हत्या। यह राजनीति एक धर्म-तंत्र के परदे में, उसके सिरे से संचालित होती है। लेकिन इतना तय है कि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे या एमएम कलबुर्गी जैसे प्रतीक उसे डराते हैं। इसलिए वह इनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करती। सवाल है कि इस डर के पीछे क्या है?

कुछ साल पहले कुछ कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने इस बात पर संतोष जताया था कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून का भारी विरोध हुआ। वे समूह शायद इस तरह के कानून को हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश मानते हैं। ऐसा करते हुए हिंदुत्व के वे उन्नायक खुद ही बता रहे थे कि चूंकि हिंदुत्व की बुनियाद अंधविश्वासों पर ही टिकी है, इसलिए अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा होगा। हालांकि यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका आंख मूंद कर पालन करो। और धर्म की सांस से जिंदा तमाम लोगों के भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि अपने जिन "उद्धारकों" से हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता। दरअसल, वे हमारे स्वघोषित "उद्धारक" होते ही इसीलिए हैं कि न केवल उनकी "भूदेव" की पदवी कायम रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी अनंत काल तक बनी रहे, जिसमें अंधकार का साम्राज्य हो और समूचे समाज को अंधा बनाए रखा जा सके।

खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।

गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर कलबुर्गी जैसे लोग इन्हीं "उद्धारकों" की राह में मुश्किल खड़ी करते हैं, क्योंकि वे इंसान को दिमागी तौर पर शून्य बनाने वाले उन आस्थाओं-विश्वासों को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं। और जाहिर है, ये सवाल चूंकि आखिरकार सामाजिक सत्ताओं के ढांचे को तोड़ते-फोड़ते हैं, इसलिए इस तरह के सवाल उठाने वाले लोगों से "मुक्ति" के लिए सीधे उन्हें खत्म करने का ही रास्ता अख्तियार किया जाता है।

जाहिर है, बेमानी पारलौकिक विश्वासों को हथियार बना कर जड़ता की व्यवस्था को बनाए रखने में लगे लोगों-समूहों के पास अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे सवालों से डरते हैं। अव्वल तो उनकी कोशिश यह होती है कि एक पाखंड और धोखे पर आधारित व्यवस्था को लेकर किसी तरह का सवाल नहीं उठे और इसके लिए वे सवालों और संदेहों को आस्था का दुश्मन घोषित करते हैं। वहीं एक भय की उपज पारलौकिकता की धारणाओं-कल्पनाओं में जीता व्यक्ति सवाल या संदेह करने को अपनी "आस्था" की पवित्रता भंग होना मानता है। अगर किन्हीं स्थितियों में किसी व्यक्ति के भीतर आस्था के तंत्र के प्रति शंका पैदा होती है और वह इसे जाहिर करता है तो धर्माधिकारियों से लेकर उनके अनुचरों तक की ओर से उसकी आस्था में खोट बताया जाता है या उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता है।

इसके अलावा, सवालों से निपटने के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है। सवाल उठाने वाले को संदिग्ध बता कर उसके सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली जाती है। इससे भी हारने के बाद अक्सर धर्माधिकारी यह कहते पाए जाते हैं कि प्रश्न उठाने वाला व्यक्ति "ईश्वर का ही दूत है… और ऐसा करके वह वास्तविक भक्तों की परीक्षा ले रहा है।" कई बार उसे मनुष्य-मात्र की दया का पात्र भी घोषित कर दिया जा सकता है। इसके बावजूद जब "धर्म" की व्यवस्था पर खतरा बढ़ता जाता है, तब खतरे का जरिया बने व्यक्ति की आवाज को शांत करने के लिए हत्या तक के रास्ते का सहारा लिया जाता है।

सामाजिक विकास के एक ऐसे दौर में, जब प्रकृति का कोई भी उतार-चढ़ाव या रहस्य समझना संभव नहीं था, तो कल्पनाओं में अगर पारलौकिक धारणाओं का जन्म हुआ होगा, तो उसे एक हद तक मजबूरी मान कर टाल दिया जा सकता है। लेकिन आज न सिर्फ ज्यादातर प्राकृतिक रहस्यों को समझ लिया गया है, बल्कि किसी भी रहस्य या पारलौकिकता की खोज की जमीन भी बन चुकी है। यानी विज्ञान ने यह तय कर दिया है कि अगर कुछ रहस्य जैसा है, तो उसकी कोई वजह होगी, उस वजह की खोज संभव है। तो ऐसे दौर में किसी बीमारी के इलाज के लिए तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का सहारा लेना, बलि चढ़ाना, मनोकामना के पूरा होने के लिए किसी बाबा या धर्माधिकारी जैसे व्यक्ति की शरण में जाना एक अश्लील उपाय लगता है। बुखार चढ़ जाए और मरीज या उसके परिजनों के दिमाग में यह बैठ जाए कि यह किसी भूत या प्रेत का साया है, यह चेतना के स्तर पर बेहद पिछड़े होने का सबूत है, भक्ति या आस्था निबाहने में अव्वल होने का नहीं। इस तरह की धारणाओं के साथ जीता व्यक्ति अपनी इस मनःस्थिति के लिए जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा समाज का वह ढांचा उसके भीतर यह मनोविज्ञान तैयार करता है। पैदा होने के बाद जन्म-पत्री बनवाने से लेकर किसी भी काम के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए धर्म के एजेंटों का मुंह ताकना किसी के भी भीतर पारलौकिकता के भय को मजबूत करता जाता है और उसके व्यक्तित्व को ज्यादा से ज्यादा खोखला करता है।

सवाल है कि समाज का यह मनोविज्ञान तैयार करना या इसका बने रहना किसके हित में है? किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते हैं। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में शर्म नहीं आती। यही नहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक तक अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण की प्रार्थना करते हुए पहले मंदिरों में पूजा करते दिख जाते हैं। यह बेवजह नहीं हैं कि कला या वाणिज्य विषय तो दूर, स्कूल-कॉलेजों से लेकर उच्च स्तर पर इंजीनिरिंग या चिकित्सा जैसे विज्ञान विषयों में शिक्षा हासिल करने के बावजूद कोई व्यक्ति पूजा-पाठ या अंधविश्वासों में लिथड़ा होता है।

ऐसे में अगर कोई अंतिम रूप से यह कहता है कि मैं ईश्वर और धर्म का विरोध नहीं करता हूं, मैं सिर्फ अंधविश्वासों के खिलाफ हूं तो वह एक अधूरी लड़ाई की बात करता है। धर्म और ईश्वर को अंधविश्वासों से बिल्कुल अलग करके देखना या तो मासूमियत है या फिर एक शातिर चाल। हां, अंध-आस्थाओं में डूबे समाज में ये अंधविश्वासों की समूची बुनियाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई के शुरुआती कदम हो सकते हैं। इसे पहले रास्ते पर अपने साथ लाने की प्रक्रिया कह सकते हैं। लेकिन बलि, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज, बाबा-गुरु, तांत्रिक अनुष्ठान आदि के खिलाफ एक जमीन तैयार करने के बाद अगर रास्ता समूचे धर्म और ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति की ओर नहीं जाता है तो वह अधूरे नतीजे ही देगा।

वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति बलि देने या बीमारी का इलाज कराने के लिए चमत्कारी बाबाओं का सहारा तो न ले, लेकिन ईश्वर या धर्म को अपनी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा माने। अगर वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी तरह के मत-संप्रदाय का अनुगामी है तो उसका रास्ता आखिरकार एक पारलौकिक अमूर्त व्यवस्था की ओर जाता है, जहां वह खुद पर भरोसा करने के बजाय अपने अतीत, वर्तमान या भविष्य के लिए ईश्वर से की गई या की जाने वाली कामना को जिम्मेदार मानता है। इससे बड़ा प्रहसन क्या हो सकता है कि उत्तराखंड में बादल फटने या प्रलयंकारी बाढ़ के बावजूद अगर कुछ लोग बच गए तो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए और उसी वजह से कई-कई हजार लोग बेमौत मर गए, तो उसके लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं माना जाए। बिहार के खगड़िया में कांवड़ लेकर भगवान को जल अर्पित करने जाते करीब चालीस लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते हैं तो इसके लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है और जो लोग बच गए, उन्हें ईश्वर से बचा लिया…!!!

खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।

यह ईश्वरवाद किस सामाजिक व्यवस्था के तहत चलता है। अपनी अज्ञानता की सीमा में छटपटाते लोगों ने पारलौकिकता की रचना की, कुछ लोगों ने उसकी व्याख्या का ठेका उठा लिया, उनकी महंथगीरी ने एक तंत्र बुन दिया, वह धर्म हो गया। यह केवल हिंदू या सनातन धर्म का नहीं, बल्कि सभी धर्मों का सच है। इसके बाद बाकी लोग सिर्फ पालक हैं, जिनके भोलेपन और प्रश्नविहीन होने के कारण ही यह धार्मिक-तंत्र चलता रहता है। ईश्वर-व्यवस्था के प्रति लोगों के भीतर कोई संदेह नहीं पैदा हो, इसके लिए तमाम इंतजाम किए जाते हैं। यह इंतजाम करने वाले वे लोग होते हैं, जो किसी भी धर्म-तंत्र के शीर्ष पर बैठे होते हैं। हालांकि यह "इंतजाम" का मनोविज्ञान अपने आप नीचे की ओर भी उतर जाता है और एक "ईश्वरीय" व्यवस्था या धर्म पर शक करने या उस पर सवाल उठाने वालों से निचले स्तर पर वे लोग भी "निपट" लेते हैं, जो खुद ही किसी धार्मिक-व्यवस्था के पीड़ित और भुक्तभोगी होते हैं।

ये "मैजोकिज्म" और "सैडिज्म" के मनोवैज्ञानिक चरणों के नतीजे हैं। "मैजोकिज्म" की अवस्था में कोई व्यक्ति अपने धर्मगुरु (इसे किसी धार्मिक व्यवस्था में जीवनचर्या को प्रभावित-संचालित करने वाले उपदेश भी कह सकते हैं) की किसी भी तरह की बात या व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठाता, भले कहीं कोई बात उसे गलत लगे। लेकिन वास्तव में यह गलत लगना उसके भीतर एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया को जन्म देता है, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाता, लेकिन अपने भीतर जज्ब कर लेता है। लेकिन यह प्रकृति का नियम है कि आप कुछ ग्रहण करेंगे तो उसका त्याग अनिवार्य है। इसलिए गुरु की किसी बात से मन में उपजी प्रतिक्रिया हर हाल में "रिलीज" होती है, यानी अपने निकलने का कोई न कोई रास्ता खोज लेती है। लेकिन तब इसका स्वरूप खाना सहज तरीके नहीं पचने के बाद उल्टियां होने की तरह बेहद विकृत हो सकता है। यानी यह "सैडिज्म" की अवस्था है। तो अपने धर्मगुरु की हर बात पचाने वाला व्यक्ति अपने घर में अपनी पत्नी या बच्चों के साथ बेहद बर्बर तरीके से पेश आ सकता है, किसी कमजोर व्यक्ति या कमजोर सामाजिक समूह के खिलाफ नफरत से भरा दिख सकता है, जोर-जोर की आवाज में बेहद वीभत्स गालियां बक सकता है या किसी वस्तु की बेमतलब तोड़फोड़ भी कर सकता है। इस तरह की कई मानसिक अवस्थाएं हो सकती हैं।

बहरहाल, नरेंद्र दाभोलकर या गोविंद पानसरे या कलबुर्गी आम जीवन में पसरे जिन अंधविश्वासों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे, उसका सिरा आखिरकार धर्म-तंत्र और फिर ईश्वर पर संदेहों की ओर जाता था। और जाहिर है, यह संदेह अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं पर टिके समूचे कारोबार और समाज के सत्ताधारी तबकों का साम्राज्य ध्वस्त कर सकता है। इसलिए इस तरह के संदेहों के भय से उपजी प्रतिक्रिया भी उतनी विकृत हो सकती है, जिसके शिकार दाभोलकर, पानसरे या कलबुर्गी हुए। यह हत्या दरअसल अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है। यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का प्रतीक है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है, जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है।

लेकिन क्या इन हत्याओं से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा?

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विज्ञान बनाम आस्था के द्वंद्व का समाज… https://sabrangindia.in/vaijanaana-banaama-asathaa-kae-davandava-kaa-samaaja/ Fri, 03 Jun 2016 06:37:12 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/03/vaijanaana-banaama-asathaa-kae-davandava-kaa-samaaja/  Home page Image Credit: Planet Buddha कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के […]

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कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के सोचने-समझने या दृष्टि पर असर का विश्लेषण सामाजिक विकास के कई नए आयाम से रूबरू कराता है। कुछ साल पहले की एक घटना है। राजधानी दिल्ली से सटे और तब ‘हाईटेक सिटी’ के रूप में मशहूर शहर गाजियाबाद में एक काफी वृद्ध महिला को उनके तीन बेटे तब तक (शायद चप्पलों से) पीटते रहे, जब तक उनकी जान नहीं निकल गई। किसी ‘ऊपरी असर’ से छुटकारा दिलाने के मकसद से ऐसा करने का निर्देश एक तांत्रिक बाबा का था।
 
अंधविश्वासों के अंधेरे कुएं में डूबते-उतराते हमारे समाज में साधारण लोगों के हिसाब से देखें तो इस तरह की यह घटना न अकेली थी और न नई। लेकिन यह घटना मेरी निगाह में इसलिए खास थी कि उस बुजुर्ग महिला को तांत्रिक के आदेश पर पीटते-पीटते मार डालने वाले तीन में से कम से कम दो बेटों की शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान विषय थी। उनमें से एक ने डॉक्टरी और दूसरे ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। यानी जिस विज्ञान और तकनीकी विकास ने समाज में अज्ञानता के अंधकार को दूर करने और समाज को अंधविश्वासों की दुनिया से काफी हद तक बाहर लाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है, उस विषय की शिक्षा-दीक्षा भी उन बेटों की चेतना पर पड़े अंधविश्वासों के जाले को साफ नहीं कर सकी। क्या यह विज्ञान की शिक्षा के ‘लेन-देन’ में वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव का नतीजा नहीं है?
 
हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव से रूबरू हुआ। हालांकि फिल्मों, टीवी धारावाहिकों और समाज में इस तरह की बातें आम हैं। एक बेहद सक्षम, जानकार और अनुभवी सर्जन-डॉक्टर के क्लीनिक में इस आशय का बड़ा पोस्टर दीवार टंगा था कि ‘हम केवल माध्यम हैं। आपका ठीक होना, न होना भगवान की कृपा पर निर्भर है! -आपका चिकित्सक।’ दूसरी ओर, अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण जैसी विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी की चरम उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाते हुए हमारे इसरो, यानी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के मुखिया जैसे पद पर बैठे लोग भी किसी यान के प्रक्षेपण की कामयाबी के लिए ‘ईश्वरीय कृपा’ हासिल करने के मकसद से किसी मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। 24 सितंबर, 2014 को भारत के मंगलयान की शानदार कामयाबी इसरो के हमारे तमाम वैज्ञानिकों की काबिलियत की मिसाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण के पहले चार नवंबर, 2013 इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की और इसकी अभियान की कामयाबी के लिए प्रार्थना की थी। राधाकृष्णन के पूर्ववर्ती इसरो अध्यक्ष माधवन नायर भी यही करते रहे थे।
 
वैज्ञानिक चेतना के बगैर विज्ञान का समाज
 
यह साधारण-सा सच है कि कोई भी पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी व्यक्ति जब यह देखता है कि भारत के अंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन, यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में पूजा करता है तो यह उसके भीतर बैठी हीनताओं को तुष्ट करता है। इसे उदाहरण बना कर वह कह पाता है कि इसरो जैसे विज्ञान के संगठन के वैज्ञानिक ऐसा करते हैं तो उसका कोई आधार तो होगा ही। जाहिर है, हमारे समाज में विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई और उस क्षेत्र में अच्छी-खासी उपलब्धियों में कोई कमी नहीं रही है। लेकिन वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि का लगभग अभाव रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में महान खोजों से प्रशिक्षित, मस्तिष्क, तंत्रिका या हृदय की बेहद जटिल शल्य-क्रिया करके किसी मरीज को जीवन देने वाले सक्षम डॉक्टर जब अपनी काबिलियत और कामयाबी का श्रेय वैज्ञानिक खोजों के साथ-साथ अपनी मेहनत और कुशलता को देने के बजाय ‘अज्ञात शक्ति’ या भगवान को देते हैं तो इससे क्या साबित होता है! ऐसा करके या मान कर क्या हम उन तमाम लोगों की क्षमता, सालों की दिन-रात की मेहनत और वैज्ञानिक दृष्टि को खारिज नहीं करते हैं, जिनके जरिए कई बार हमारा जिंदा बच पाना मुमकिन होता है?
 
यह कोई नया आकलन नहीं है कि मानव समाज के विकास के क्रम में एक दौर ऐसा रहा होगा, जब मनुष्य ने अपनी सीमाओं के चलते मुश्किलों का हल किसी पारलौकिक शक्ति की कृपा में खोजने की कोशिश की होगी। लेकिन आज जब मंगल पर कदम रखने से लेकर ब्रह्मांड की तमाम जटिल गुत्थियों को खोलते हुए दुनिया का विज्ञान हर रोज अपने कदम आगे बढ़ा रहा है तो ऐसे में अलौकिक-पारलौकिक काल्पनिक धारणाओं में जीते समाज और उसके ढांचे को बनाए रखने का क्या मकसद हो सकता है?
 
विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना का द्वंद्व
 
यहीं आकर एक बिंदु उभरता है जिसके तहत समाज में चंद लोगों या कुछ खास समूहों की सत्ता एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में आकार पाती है। यह व्यवस्था अगर शोषण-दमन और भेदभाव पर आधारित हुई तो संभव है कि भविष्य में प्रतिरोध की स्थिति पैदा हो, क्योंकि वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी स्थिति को पैदा होने से रोकने के लिए लौकिक यथार्थों पर पारलौकिक धारणाओं का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। ऐसी कवायदों का संगठित रूप धर्म के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि मानव समाज के लिए धर्म की अलग-अलग व्याख्याएं पेश की जाती रही हैं, लेकिन इसके नतीजे के रूप में सामाजिक सत्ताओं का ‘केंद्रीकरण’ ही देखा गया है। और चूंकि विज्ञान लौकिक यथार्थों पर चढ़े अलौकिक भ्रमों की परतें उधेड़ता है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से धर्म का घोषित-अघोषित दुश्मन हो जाता है।
 
विडंबना यह है कि ब्रह्मांड और मानव सभ्यता के विकास का आधार होने के बावजूद विज्ञान अब तक दुनिया भर में धर्म के बरक्स एक सत्ता या व्यवस्था के रूप में खुद को खड़ा कर सकने में नाकाम रहा है। जबकि विज्ञान, तकनीकी या प्रौद्यागिकी के सहारे कई देश अपने आर्थिक-राजनीतिक ‘साम्राज्यवाद’ के एजेंडे को कामयाब करते हैं। हालांकि इसकी वजहों की पड़ताल कोई बहुत जटिल काम नहीं है। पहले से ही हमारे सामने अगर ‘राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत’ जैसी व्याख्याएं हैं तो ‘विकासवादी सिद्धांत’ भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि सामाजिक व्यवहार में ‘दैवीय सिद्धांत’ अक्सर हावी दिखता है!
 
दरअसल, राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं पर कब्जाकरण के बाद इसके विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए उन तमाम रास्तों, उपायों को हतोत्साहित-बाधित किया गया, जो पारलौकिकता या दैवीय कल्पनाओं पर आधारित किसी ‘प्रभुवाद’ की व्यवस्था को खंडित करते थे। चार्वाक, गैलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो से लेकर हाल में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या जैसे हजारों उदाहरण होंगे, जिनमें विज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि को बाधित करने के लिए सामाजिक सत्ताओं के रूप में सभी धर्मों में मौजूद ‘ब्राह्मणवाद’ ने बर्बरतम तरीके अपनाए।
 
दिलचस्प यह है कि विज्ञान का दमन करने वाली ताकतें यह अच्छे से जानती थीं कि विज्ञान की ताकत क्या है। इसलिए एक ओर उन्होंने समाज में वैज्ञानिक नजरिए या चेतना के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव क्रूरताएं कीं तो दूसरी ओर धार्मिक और आस्थाओं के अंधविश्वास को मजबूत करने के लिए विज्ञान और तकनीकों का सहारा लिया और उनका भरपूर उपयोग किया। एक समय सोमनाथ के मंदिर में जो मूर्ति बिना किसी सहारे के हवा में लटकी हुई थी और जिसे देख कर लोग चमत्कृत होकर और गहरी आस्था में डूब जाते थे, उसमें चुंबकीय सिद्धांतों की बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इसे ‘मैग्नेटिक लेविटेशन’ या चुंबकीय उत्तोलन कहते हैं, जिसका अर्थ है चुंबकीय बल के सहारे हवा में तैरना। इसी तरह, किसी सीधे खड़े संगमरमर के पत्थरों से दूध भरे चम्मच का किनारा सटते ही चम्मच में मौजूद दूध का खिंच जाना गुरुत्व के सिद्धांत से संबंधित है और इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है। लेकिन इसी का सहारा लेकर तकरीबन दो दशक पहले समूचे देश में गणेश की मूर्तियों को अचानक दूध पिलाया जाने लगा था।
 
विज्ञान के बरक्स अंधविश्वास का समाज
 
धार्मिक स्थलों के निर्माण से लेकर जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़फूंक, चमत्कार वगैरह विज्ञान और तकनीक के सहारे ही चलता रहा है। यह बेवजह नहीं है कि मर्सिडीज बेंज या बीएमडब्ल्यू जैसी आधुनिक तकनीकी से लैस कारें चलाने वाले और ऊपर से बहुत आधुनिक दिखने वाले लोग अपनी कार में ‘अपशकुन’ से बचने के लिए नींबू और हरी मिर्च के गुच्छे टांगे दिख जाते हैं। इसी तरह, उच्च तकनीकी के इस्तेमाल से बनने वाली इमारतें बिना भूमि-पूजन के आगे नहीं बढ़तीं। बहुत आधुनिक परिवारों के लोग अपने शानदार और हाइटेक घरों के आगे या कहीं पर एक ‘राक्षस’ के चेहरे जैसी आकृति टांगे दिख जाएंगे, जिसका मकसद मकान को ‘बुरी नजर’ से बचाना होता है! यानी जिन वैज्ञानिक पद्धतियों और तकनीकी का इस्तेमाल अंधविश्वासों को दूर कर समाज को गतिमान बनाने या आगे ले जाने के लिए होना था, वे समाज को जड़ और कई बार प्रतिगामी बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।
 
इसकी वजह यह है कि विज्ञान अपने आप में दृष्टि है, लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत, संसाधन या तकनीक एक ‘उत्पाद’ की तरह है, जिसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है- विज्ञान का दुश्मन भी। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। मौजूदा दौर में ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार के अलावा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के मंचों और मोबाइल जैसे संचार के साधनों के दौर को हम विज्ञान और तकनीक के चरम विकास का दौर कह सकते हैं। लेकिन हम देख सकते हैं कि इन संसाधनों पर किस तरह वैसे लोगों या समूहों का कब्जा या ज्यादा प्रभाव है जो विज्ञान और तकनीकी का इस्तेमाल वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि को कुंद या बाधित करने में कर रहे हैं।
 
आधुनिकी उन्नत तकनीकों के इस्तेमाल से बनाई गई अंधविश्वास फैलाने वाली फिल्में या धारावाहिक पहले से चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरते-जीते आम दर्शक की जड़ चेतना को ही और मजबूत करते हैं। टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से अंधविश्वासों को बढ़ाने या मजबूत करने वाले कार्यक्रम ‘धारावाहिक’ के तौर पर चलते ही रहते हैं, कई बार ‘समाचार’ के रूप में भी दिखाए जाते हैं। यह ‘बाबाओं’ और ‘साध्वियों’ के प्रवचनों और विशेष कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों के हीरो-हीरोइनों या मशहूर हस्तियों के जरिए ‘धनवर्षा यंत्र’ या ‘हनुमान यंत्र’ आदि के प्रचारों के अलावा होता है। अखबार इसमें पीछे नहीं हैं। इससे टीवी चैनलों मीडिया संस्थानों को कमाई होती है, मुनाफा होता है, लेकिन समाज को कितना नुकसान होता है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता! इसके अलावा, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का मोबाइल पर व्हाट्स ऐप जैसे संवाद-साधनों के जरिए किस तरह सांप्रदायिकता का जहर परोसा जा रहा है, यहां तक कि दंगा भड़काने में भी इनका इस्तेमाल किस पैमाने पर किया जा रहा है, यह जगजाहिर तथ्य है।
 
यानी विज्ञान के जरिए की वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना को कैसे कुंद किया जा रहा है और विज्ञान का सहारा लेकर समाज को किस तरह अंधविश्वासों के अंधेरे में झोका जा रहा है, यह साफ दिखता है। दरअसल, किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है कि वह विज्ञान के सहारे अपने जीवन की सुविधाएं तो सुनिश्चित करे, लेकिन उसे किसी ‘अज्ञात शक्ति’ की कृपा माने। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग ही आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते है। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बौद्धिकों, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में कोई हिचक नहीं होती।
 
दलील दी जाती है कि आस्था निजी प्रश्न है। लेकिन विज्ञान की कामयाबियों के साथ आस्था का घालमेल आखिरकार वैज्ञानिक चेतना को भ्रमित करता है। और यही वजह है कि गहन और जटिल ऑपरेशन हो या भूकम्प और बाढ़ जैसी आपदाएं, इनकी वजहें जानने, उसका विश्लेषण करने के बावजूद व्यक्ति या खुद इसके विशेषज्ञ इन सबको किसी भगवान का चमत्कार, कृपा या फिर कोप के रूप में देखते-पेश करते हैं। यह अपने ज्ञान-विज्ञान और खुद पर भरोसा नहीं होने-करने का, अपनी ही क्षमताओं को खारिज करने का उदाहरण है। क्षमताओं के नकार की यह स्थिति किसी विनम्रताबोध का नहीं, बल्कि भ्रम और हीनताबोध का नतीजा होती है। और जब हम विज्ञान के विद्याथियों या वैज्ञानिकों तक को इस तरह के द्वंद्व और भ्रम में जीते देखते हैं तो ऐसे में साधारण इंसान या समाज से क्या उम्मीद हो, जो जन्म से लेकर मौत तक वैज्ञानिक चेतना से बहुत दूर दुनिया के धर्मतंत्र और अलौकिक-पारलौकिक आस्थाओं के चाल में उलझा रह जाता है।
 
जाहिर है, असली चुनौती यह है कि विज्ञान केवल लोगों के जीवन को सहज नहीं बनाए, बल्कि दुनिया के यथार्थ को समझने के लिए समाज को वैज्ञानिक चेतना से भी लैस करे। यह समाज के ज्यादातर हिस्से को सोचने-समझने के तरीके या माइंडसेट पर कब्जा जमाए पारलौकिक आस्थाओं के बरक्स एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर यह कहा जाए कि जिस पैमाने पर समाज धार्मिकता के जंजाल में उलझा है, अगर उसी पैमाने पर वैज्ञानिक चेतना होती तो हमारा समाज शायद अभी से कई हजार साल आगे होता, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।

('चार्वाक' ब्लॉग से)
 

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