अनिता भारती | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/anita-bharti-6771/ News Related to Human Rights Thu, 28 Jul 2016 10:13:17 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png अनिता भारती | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/anita-bharti-6771/ 32 32 मुजफ्फनगर से लौटने के बाद… रुखसाना का घर.. https://sabrangindia.in/maujaphaphanagara-sae-laautanae-kae-baada-raukhasaanaa-kaa-ghara/ Thu, 28 Jul 2016 10:13:17 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/07/28/maujaphaphanagara-sae-laautanae-kae-baada-raukhasaanaa-kaa-ghara/ 1. सोचती हूँ मैं क्या तुम्हें कभी भूल पाउंगी रुखसाना तुम्हारी आँखों की गहराई में झांकते सवाल तुम्हारे निर्दोष गाल पर आकर ठहरा आंसू का एक टुकड़ा बात करते-करते अचानक कुछ याद कर भय से काँपता तुम्हारा शरीर तुम्हारे बच्चें जिनसे स्कूल अब उतनी ही दूर है जितना पृथ्वी से मंगल ग्रह किताबें जो बस्ते […]

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1.
सोचती हूँ मैं
क्या तुम्हें कभी भूल पाउंगी रुखसाना
तुम्हारी आँखों की गहराई में झांकते सवाल
तुम्हारे निर्दोष गाल पर आकर ठहरा
आंसू का एक टुकड़ा
बात करते-करते अचानक
कुछ याद कर भय से काँपता तुम्हारा शरीर
तुम्हारे बच्चें जिनसे स्कूल
अब उतनी ही दूर है
जितना पृथ्वी से मंगल ग्रह
किताबें जो बस्ते में सहेजते थे बच्चे
अब दुनिया भर की गर्द खा रही है
या यूं कहूं रुखसाना किताबें
अपने पढ़े जाने की सज़ा खा रही है
तुम्हारी बेटी के नन्हें हाथों से
उत्तर कापियों पर लिखे
एक छोटे से सवाल
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की विशेषताएं पर
अपना अर्थ तलाश रहे है
 
 
2.
रुखसाना
सामने कपड़े सिलने की
मशीन पड़ी है
ना जाने कितनी
जोड़ी सलवार कमीज
ब्लाऊज पेटीकोट
फ्राक बुशर्ट झबले
सिले है तुमने
तुम्हारे दरवाजे ना जाने कितनी बार
आई होगीं गांव भर की औरतें
यहां तक की चौधरी की बहु भी
तुम्हारे सिले कपड़े पहन
इतरा कर तारीफ करते हुए
किसी आशिक की तरह
तुम्हारे हाथ चुमकर डॉयलोग मारते हुए
मेरी जान क्या कपडें सिलती हो
पर अब धुआं-धुआं पलों को बटोर
कहती है निराश रुखसाना
शरणार्थी कैम्प के टैंट में पडी- पडी
मैं भी इस सिलाई मशीन की तरह ही हूँ
जंग खाई निर्जीव
मेरे जीवन का धागा टूट गया है
बाबीन है कि अपनी जगह फंस गई है
रुखसाना याद आती है मुझे रहीम की पंक्तियां
पर तुमसे कैसे कहूँ
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाएं
 
 
3
रुखसाना
तेज आवाज के साथ
रात भर बरसा पानी
शरणार्थी कैंप के टैंट में सोते
बच्चों की कमर उस
निर्लज्ज पानी में डूब गई
सब रात में ही अचकचा कर उठ बैठे
बच्चों के पास अब कल के लिए सूखे कपड़े नही है
रुखसाना
तुम्हारी आँखों के बहते पानी ने
कई आंखों के पानी मरने की कलई खोल दी है.
 
 
4
पिछले पंद्रह दिन दिन से
हमारे पास खाने के लिए कुछ नही है
कहती है रुखसाना
दिल-दिमाग में चल रहे झंझावात से
लड़कर निष्कर्ष निकालती है रुखसाना
दंगे होते नही करवाएं जाते है
हम जैसों का वजूद रौंदने के लिए
जो रात-दिन पेट की आग में खटते हुए
अपने होने के अहसास की लड़ाई लड़ रहे है
 
 
5
ओ मुजफ्फर नगर की
लोहारिन वधु
जब तुम आग तपा रही थी भट्टी में
उस भट्टी में गढ़ रही थी औजार
हंसिया, दाव और बल्लम
तब क्या तुम जानती थी
कि ये सब एक दिन
तुम्हारे वजूद को खत्म करने के काम आयेगे
कुछ दिन पहले तुम खुश थी चहक रही थी
अम्मी आजकल हमारा काम धंधा जोरो पर है
भट्टी रात दिन जलती है
इस ईदी पर हम दोनों जरुर आयेगे
तुमसे मिलने और ईदी लेने
पर क्या तुम उस समय जानती थी
यह औजार किसानों के लिए नही
ये हथियार दंगों की फसल
काटने के लिए बनवाएं जा रहे है
कितनी भोली थी तुम्हारी
ये ईदी लेने की छोटी सी इच्छा

 
6
दंगे सिर्फ घर-बार ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा के सामने
पूरे नंगे हो इशारे से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग
 
 
7
रोती हुई रुखसाना कहती है
अब हमारा कौन है
जब हमारे अपने बड़ो ने
ही हमें गांव-घर से खदेड दिया
चार पीढी से पहले से रहते आए है हम यहां
इन सारी पीढियों के विश्वासघात की कीमत क्या होगी
क्या उसको चुकाना मुमकिन है
कितनी कीमत लगाओगे बताओ
प्यार से खाए गए एक नमक के कण का कर्ज
चुकाने में चुक जाते है युग
तब कैसे चुकाओगे तुम
चार-चार पीढियों के भरोसे विश्वास के कत्ल का कर्ज
 
 
8
रखसाना कहती है
नहीं जानती साईबेरिया  कहां है
नही जानती साईबेरिया में कितनी ठंड पड़ती है
नहीं जानती साईबेरिया के बच्चे क्या पहनते है
नही जानती साईबेरिया की  औरतें कैसे रहती है
नहीं जानती साईबेरिया के लोग क्या खाते-पीते है
नहीं जानती कि वहां बीमार बच्चों को देखने डॉक्टर आता है नहीं
नहीं जानती कि वहां मरे बच्चों का हिसाब कैसे चुकाया जाता है
पर रुखसाना जानती है
साईबेरिया की ठंड में कोई खुले आसमान के नीचे नही सोता
 
 
9
रुखसाना
गहरे अवसाद में है
जान बचाकर भागते वक्त
घर में छूट गई
नन्ही बछिया चुनमुन
लड़ाकू मुर्गा रज्जू
घर के बच्चों की लाड़ली
सुनहरे बाल वाली सोनी बकरी
सब  गायब है
रुखसाना को पता चला है
कटने से पहले
रज्जू ने बहुत हाथ पैर मारे थे
बाकी चुनमुन और सोनी
कहां है कौन ले गया
कोई नही बताता

 
10.
रुखसाना
सोचती है
कौन हूं मैं
क्या हूं मैं
औरत मर्द या इंसान
मेरे नाम के साथ या पीछे
क्या जोड़ा जाना चाहिए
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी या
सरफराज की बाजी
जब मैं भाग रही थी
तब मैं कौन थी
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी या
सरफराज की बाजी
रुखसाना सोचती है
इन सब से परे
 
वह बेजान माँस की बनी एक जनाना है बस
 
 

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दलित स्त्री आंदोलन; चिंतन और संघर्ष की चुनौतियां https://sabrangindia.in/dalaita-satarai-andaolana-caintana-aura-sangharasa-kai-caunaautaiyaan/ Thu, 18 Feb 2016 05:12:53 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/02/18/dalaita-satarai-andaolana-caintana-aura-sangharasa-kai-caunaautaiyaan/   भारतीय समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी दलित स्त्री ने समाज की वर्जनाओं निषेधाज्ञाओं को लांघते हुऐ ब्राह्मणवादी व्यवस्था केमुख्य आधार स्तम्भ; पितृसत्ता, धर्म और जातीयता को हमेशा कड़ी टक्कर दी है। चाहें वह चिन्तन का क्षेत्र हो अथवा संघर्ष का, दोनो स्तरों पर उसने अपने अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई को प्राचीन […]

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भारतीय समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी दलित स्त्री ने समाज की वर्जनाओं निषेधाज्ञाओं को लांघते हुऐ ब्राह्मणवादी व्यवस्था केमुख्य आधार स्तम्भ; पितृसत्ता, धर्म और जातीयता को हमेशा कड़ी टक्कर दी है। चाहें वह चिन्तन का क्षेत्र हो अथवा संघर्ष का, दोनो स्तरों पर उसने अपने अस्तित्व व अस्मिता की लड़ाई को प्राचीन काल से लेकर आज तक जारी रखा है।
 
आधुनिक महिला आन्दोलन की शुरूआत 18वीं शताब्दी से मानी जाती है परन्तु दलित महिला आन्दोलन की शुरूआत हम बौद्धकाल से ही मानते है। दलित महिला आन्दोलन महज 200 साल पुराना न होकर सदियों पुराना है, जिसमें सर्वप्रथम बौद्धकालमें दलित वर्ग की, थेरी सुमंगला और पूर्णिमा दासीके द्वारा लिखी गई कविताओं को, हम दलित नारीवाद की प्रथम सशक्त अभिव्यक्ति मानते है। सुंमगला उन्मुक्त स्वर में अपने द्वारा, अपने आप को पा लेने की घोषणा करते हुए यानि अपने अस्तित्व को पहचाने की एक लंबी कष्टदायक प्रक्रिया से गुजरते हुए,एक उन्मुक्त और स्वतंत्र स्त्री की तरह अभिव्यक्त करते हुए गा उठती है-

                                                मुक्त हूं मै, मुक्त
                                                धन कुटे से पिंड छुटा, देगची से भी
                                                मैं कितनी प्रसन्नचित्त हूं
                                                अपने पति से घृणा हो गई है
                                                उसकी छत्र-छाया को मै अब बर्दाश्त नही कर सकती
                                                इसलिए मैं कड़कड़ा कर नष्ट करती हूँ
                                                लालच और नफरत को
                                                और मैं वही स्त्री हूं
                                                जो पेड़ तले जा बैठती है
                                                और अपने आप आपसे कहती है
                                                आह! यह है सुख
                                                और करती है चिंतन मनन सुखपूर्वक

पति की मार से त्रस्त सुंमगला मुक्ति का मार्ग ढूंढ लेती है, तो दलित स्त्रियों के जीवन के दमघोटू और शोषणकारी पलों को दासी पूर्णिमा ने बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति दी है –

                                                मै पनिहारिन थी
                                                सदा पानी भरना मेरा काम
                                                स्वामिनियों के दण्ड के भय से
                                                उनकी क्रोध भरी गलियों से पीड़ित होकर
                                                मुझे कड़ी सर्दी में भी सदा पानी में उतरना पड़ता था’
 
दलित स्त्रियां चौतरफा शोषण की शिकार हैं। दलित होने के कारण, स्त्री होने के कारण, और उस पर भी दलित स्त्रीतथा चौथा गरीबी के कारण। चौतरफा शोषण, अन्याय, अत्याचार के बावजूद वह अनवरत काल से संघर्ष करती रहीं हैं। पूर्व मध्यकाल में कुछ दलित संत कवयित्रियं है जो अपनी अप्रतिम प्रतिभा व जीवटता के कारण ही तमाम जातीय षडयंत्रों की शिकार होकर भी गुमनामी के अंधेरे में ना खोते हुए, समय के पथ पर अपने महत्वपूर्ण पद चिन्ह छोड़ने में सफल रही हैं। हालांकि उनकी राह बहुत कठिन थी। परशुराम चतुर्वेदी अपनी पुस्तक(उतरी भारत की संत परंम्परा पेज 101 से 103) में चौदहवीं शती की दलित संत ललदेह के बारे में अपना मत रखते हुए कहते है कि‘लल्ला या लाल कश्मीर की रहने वाली एक ढेढवा मेहतर जाति की स्त्री थी जो सामाजिक दृष्टि से निम्न स्तर वाले परिवार की होकर भी बहुत उच्च विचार रखती थी। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि यह शैव-सम्प्रदाय का अनुसरण करने वाली एक भ्रमणशील भंगिन थी’’। चौदहवीं शताब्दी की संत ललदेह, जो कि कश्मीरी कविता की जनक भी कही जाती है, कुछ समय पहले तक मु्ख्य धारा के भक्ति काव्य-विमर्श और पटल से एकदम अदृष्य थी। दलित साहित्य और दलित महिला आंदोलन दोनों विदेशी विद्वान डा0 गिर्यसन और डा. बनेट का हमेशा शुक्रगुजार रहेगा जिन्होने अपने अथक प्रयासों से गली-गली, गांव-गांव घूमकर, संत ललदेह का काव्य खोज निकाला और उनके वाखों को ‘‘लल्ला वाक्यानि” में संगृहीत कर दिया। संत ललदेह ने अपने वाखों के माध्यम से जाति प्रथा, धार्मिक कट्टरता, छुआछूत के खिलाफ बहुत ही सरल व सीधी भाषा में वाख यानि पद लिखे है। संत ललदेह ने मूर्ति पूजा के साथ-साथ स्वर्ग नरक की धारणा का भी खंडन किया है। अपने होने के अहसास को जिस मजबूती से संत ललदेह ने स्वीकारा है वह अभिव्यक्ति अपने आप में दलित महिलाओं की उच्च जीवट शक्ति की परिचायक है —

                                                            हम ही थे, होंगे हम ही आगे भी
                                                            अविगत कालों से चले आ रहे हम ही
                                                            जीना मरना न होगा समाप्त प्राणी का
                                                            आना और जाना सूर्य का धर्म है यही’
 
मध्यकाल की ही मराठी भाषा की एक और प्रसिद्ध दलित संत कवयित्री है जनाबाई, जो कि संत ज्ञानदेव की दासी थी। भक्ति की धारा जो उस समय बह रही थी जनाबाई उस भक्तिधारा के खिलाफ अलग तरह की भक्ति की धारा चलाती है जिसमें भगवान भगवान नही एक साधारण मनुष्य बन जाता है। जनाबाई कहती है-

                                                            जनी फर्श बुहार रही है
                                                            ओर भगवान कूड़ा इकट्ठा कर रहे है
                                                            अपने सिर पर रखकर दूर ले जा रहे है
                                                            भक्ति से विजित
                                                            ईश्वर नीचा काम कर रहें है
                                                            जनी बिठोवा से कहती है
                                                            मै तुम्हारा कर्ज कैसे उतारूंगी
 
यह वही भगवान (बिठोवा) है जिसे प्रख्यात कवि मीराबाई ‘एक मात्र पुरूष कहती है। हालांकि मै इस बात से बिल्कुल सहमत हूं कि मीराबाई जैसा क्रांतिकारी चरित्र भक्तिकाल में दुर्लभ है, परन्तु दलित संत कवयित्रियां उसे एकमात्र पुरूष के घेरे से खींच एक समान्य मनुष्य की तरह अपनी जमीन पर उतार लाती है। यहॉ दलित और ‘गैर दलित महिलाओं की रचनाओं में बुनियादी फर्क नजर आता है। जनाबाई भक्ति को अधिकार के रूप में देखती है। उपकार या मोक्ष-स्वर्ग पाने के माध्यम के रूप में नही। ईश्वर पूजने के अधिकार के साथ-साथ वे बाजार में भी पूरी ठसक के साथ बाहर निकलना चाहती है ऐसा करने में उन्हें बदनामी का डर नही सताता-

                                                            सारी शर्म छोड़ दो और बेच डालो खुद को भरे बाजार
                                                            केवल तभी
                                                            तुम उम्मीद कर सकते हो
                                                            ईश्वर को पाने की
                                                            जाउंगी भरे बाजार
                                                            हाथ में मंजीरा
                                                            और कंधे पर वीणा लिए
                                                            मैं जाउंगी भरे बाजार
                                                            कौन रोक सकता है मुझे
                                                            मेरी साड़ी का पल्लू गिरता है
                                                            तब भी मैं जाउंगी भीड़ भरे बाजार
                                                            बेपरवाह, बिना सोचे, बिना विचारे
 
दलित संत कवयित्रियों की लड़ाई मंदिर प्रवेश से लेकर भगवान पूजने के अधिकार की होते हुए भी ईश्वर के पक्षपाती रवैये के धिक्कार की भी है क्योंकि वे इस बात को समझती है कि ईश्वर भी उनकीदलित स्त्री होने की पीड़ा को नहीं खत्म कर सकता! बांग्ला भाषा की धोबी जाति की दलित कवयित्री रामी कहती है —

                                                            तूफान को उन लोगों के सिर पर गिर जाने दो
                                                            जो अपने घरों में छिपे, अच्छे लोगों को कोसते है
                                                            मैं और ज्यादा इस अन्याय की भूमि पर नही रह सकी
                                                            मुझे वहां जाना है जहां यातनाएं न हो
 
दलित कवयित्री रामी के साथ विडम्बना यह है कि आज रामी रचित दुर्लभ पद यदि मिल भी जाये तो वह उनके पति व सुप्रसिद्ध वैष्णव कवि चंडीदास के पदों में समाहित है। हमेशा से ऐसा ही होता आ रहा है कि यदि पति-पत्नी दोनों ही समान काम करते हो तो महत्ता पति को ही मिलती है। यही भक्त कवि रामी के साथ भी हुआ है। इसलिए बहुत खोज करने पर भी उनके पद नही मिलते है। हाथ लगती है तो केवल जनश्रुतियां, किस्से-कहानियां और किवदंतियां। मध्य काल में और भी अनेक दलित संत कवयित्रियॉ हुई है जिनमें कई के नाम हम जानते हैं और कई को अतीत के गर्भ से खोजना बाकी है। परन्तु अब वह समय दूर नही कि इतिहास के गर्त में छिपी इन साहित्यकारों को वह उचित स्थान जो अभी तक नही मिला, भविष्य में जरुर मिलेगा।
 
अब सवाल यह उठता है कि क्या कारण है कि ये दलित कवयित्रियॉ अपने चिंतनशील और वैचारिक लेखन के बावजूद साहित्यिक समाज में अपनी जगह नही बना पाई। शायद इसका मुख्य कारण यही था कि इनदलित कवयित्रियों के प्रति शोधकर्ताओं और इतिहासकारों का रवैया भेदभावपूर्ण था तथा वे जातीय पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज में दलित महिलाओं का स्थान सबसे निम्न होने के कारण उनके प्रति दृष्टिकोण हेय था।
 
ऐसा नही है कि दलित स्त्री के साथ पक्षपात केवल साहित्य के क्षेत्र में ही हुआ हो। साहित्य के साथ साथ विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक आंदोलनों में भी इसी पूर्वाग्रहों चलते उनकी हिस्सेदारी व नेतृत्व की तो बात दूर है उनका नाम तक का वर्णननहीं मिलता है। इसी वजह से दलित संत कवयित्रियों के साथ-साथ दलित महिला आन्दोलन की नेत्रियों और कार्यकर्ताओं की भी किसी भी इतिहास में चाहे वह दलित इतिहास हो या गैरदलित दोनो में, उपस्थिति शून्य दिखाई जाती है। दलित महिला आन्दोलन और लेखन की एक लम्बी परम्परा रही है, अब साक्ष्यों का भी अभाव नही है, आज दलित महिलाएं बडी शिद्धत और प्रतिबद्धता से अपने अस्तित्व और अस्मिता के सवालों से जूझने के साथ उन्हें उठा ही नहीं रही बल्कि उन पर विमर्श भी चला रही है। दलित महिला आन्दोलन के अपने आदर्श रहे हैं, सावित्रीबाई फुले से लेकर रमाबाई अम्बेडकर और अन्य दलित महिला नेता। आज भी हम दलित-गैरदलित महिला आन्दोलन पर चर्चा करते समय विदेशी विचारकों की तरफ मुंह उठाकर देखना बंद नही करते जबकि भारत में एक से एक दलित व गैर दलित महिला विचारक रही हैं। क्या हम तारा बाई शिन्दे, पंडिता रमाबाई ओर सावित्रीबाई फुले को भूल गए जिन्होंने विपरीत सामाजिक और स्त्री विराधी परिस्थितियों में काम ही नही किया अपितु स्त्रियों के पक्ष में भी परिस्थितियां बनाने भरपूर कोशिश की। सावित्रीबाई फुले का दलित- गैरदलित महिलाओं के लिए विद्यालय खोलना, विधवा आश्रम चलाना अपने आप में क्रांतिकारी उपलब्धियां है। हम नारी आन्दोलन की शुरूआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से मानते है जबकि दलित महिला आन्दोलन भारत में बहुत पुराना है। दलित फेमनिस्ट मूवमेंट की शुरूआत हम बौद्धकाल से ही मानते है। आज भी भारतीय महिला आन्दोलन की उच्चवर्गीय व उच्चवर्णीय अगुवा महिला नेता, दलित महिला आन्दोलन के नेता व उनके ‘आईडियल को संम्पूर्ण नारीवादी आंदोलन का आई़डियल मानने को तैयार नही है। दलित महिला आन्दोलन की खासियत है कि वह अपने मुक्ति के सवाल को सामाजिक और आर्थिक प्रश्न से जोड़कर देखता है। दलित महिला आन्दोलन के लिए घरेलू हिंसा के साथ-साथ सामाजिक हिंसा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि दलित महिलाएं रोज-रोज गांवों-शहरों में फैक्ट्रियों- खेतों में दलित स्त्री होने के कारण अपमान शोषण और अत्याचार की शिकार होती है। दुख की बात है कि इस सामाजिक हिंसा के सवाल को महिला आन्दोलन उस प्रतिबद्धता के साथ नही उठाता जितना कि घरेलू हिंसा को।
 

दलित महिला आन्दोलन महज 200 साल पुराना न होकर सदियों पुराना है, जिसमें सर्वप्रथम बौद्धकालमें दलित वर्ग की, थेरी सुमंगला और पूर्णिमा दासीके द्वारा लिखी गई कविताओं को, हम दलित नारीवाद की प्रथम सशक्त अभिव्यक्ति मानते है।

 
आज दलित स्त्रियां उच्चपद पर होने के बावजूद चाहे वह राजनैतिक हो शैक्षिक या फिर अन्य कोई, उन्हे जिस तरह से समाजिक हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है वह आंकड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। दलित छग्गीबाई सरपंच बनने के बाद भी अपमानित होती है, उड़ीसा में दलित बच्ची ममतानाईक को साईकिल से स्कूल जाने पर उससे साइकिल छीन कर बेइज्जत किया जाता है। डायन, चुडै़ल बताकर आज भी दलित आदिवासी महिलाओं को पत्थरों से मार दिया जाता है। बेड़िनी और बांछड़ा जाति की औरतों को जातिगत पेशे के नाम पर वेष्यावृति में धकेला जा रहा है। देवदासी के नाम पर दलित महिलाओं के शोषण का सिलसिला अनवरत जारी है। भारतीय महिला आन्दोलन के लिए दलित महिलाओं के मुद्दे जैसे मन्दिर, पानी की लड़ाई, सामाजिक यौन शोषण अस्पृष्यता कोई अहमियत नही रखते। मन्दिर पानी के मुद्दे उनके इसलिए अहमियत नहीं रखते क्योंकि उन्हें जन्म से ही जाति आधार पर ये सुविधाएं प्राप्त है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस जो कि प्रत्येक वर्ष आठ मार्च को मनाया जाता है इतने सालों में मंहगाई से भ्रूण हत्या तक मुद्दें बने पर दलित महिलाओ के मुद्दों को कभी प्राथमिकता नही मिली। क्या इसका कारण हम यह माने भारतीय महिला आन्दोलन अति उच्च शिक्षित मध्यम वर्ग की महिलाओं द्वारा चलाए जा रहें है। इसलिए उसमें उसी वर्ग की भागीदारी रही, और मुद्दे भी उन्ही के द्वारा प्रायोजित थे। पर ऐसा भी नही हैं, भागीदारी तो दलित पिछड़ी महिलाओं की बहुत अधिक रही पर लीडरशिप और मुद्दे उनके नही थे। किसी भी आन्दोलन में चाहे वह जनवादी हो राष्ट्रीय आन्दोलन, दलित महिलाओं ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। सहभागिता के नाम पर वे भीड़ के रूप में आन्दोलन में जुड़ी रही।
 
दांडी यात्रा में गांधी जी के हजारों संख्या में दलित महिलाओं ने भागीदारी निभाई। नमक सत्याग्रह में 80,000 लोग गिरफ्तार किए गए जिनमें 17,000 महिलाएं थी जिनमें सर्वाधिक संख्या दलित व गरीब महिलाओं की थी। देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वालो में झलकारी बाई, उदादेवी पासी, रानी अवन्तीबाई लोधी, वीरांगना महावीरी देवी, सिनगी दई, कइली दई, फूलों, झानों, रानी गूडियालों देवमनी उर्फ बंधनी, राजस्थान की वीर बाला काली बाई आदि अनेक नाम मिल जायेगे। जिन्होने अकेले-अकेले कई-2 मोर्चों पर संघर्ष किया। परआज भी आजादी की लड़ाई में उन्ही शिक्षित सभ्य और ऊॅच घरानों की महिलाओँ के नाम ही गिनाएं जाते है। जो समाज, घर व अपने परिवार की अच्छी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक हैसियत होने के कारण जुड़ी थी। दूसरी ओरइन हैसियतों से वंचित दलित वंचित गरीब समुदाय की इन औरतों को याद भी नही किया जाता है। यह पूर्वाग्रह साहित्य से लेकर समाज में गहरे तक व्याप्त है।
 
डा0 अम्बेडकर का समय दलित महिलाओ की अपनी व समाज की स्वतन्त्रता समानता को लेकर की गई सक्रिय भागीदारी का स्वर्ण काल है। परन्तु दुःख इस बात का है कि अम्बेडकर कालीन 30-40 साल चले दलित आन्दोलन में इस आन्दोलन में लाखो-लाख शिक्षित-अशिक्षित घरेलू गरीब मजदूर किसान व दलित शोषित महिलाएं जुड़ी। केवल वे दलित आन्दोलन में ही नही जुड़ी अपितु उन्होंने अलग से दलित महिला संगठनों की स्थापना भी की। 25 दिसम्बर 1927 को चावदार तालाब के महाड़ सत्याग्रह में ढाई हजार दलित औरतो ने भाग लिया। 12 अक्टूबर 1929 को डा0 अम्बेडकर और दलित महिला नेता तानुबाई के नेतृत्व में हजारों महिलाओं ने पूना के पार्वतीबाई के मन्दिर में प्रवेश करते हुए लाठी- डंडे खाये। नासिक के कालाराम मन्दिर प्रवेश के दौरान एक पुजारी द्वारा दलित महिलाओं को धक्का मारने पर एक दलित महिला ने पुजारी के मुंह पर सनसनाता थप्पड़ जड़ दिया था। इस आन्दोलन को सम्बोधित करते हुए राधाबाई बडाले नामक सत्याग्रही ने अपने ओजस्वी भाषण में कहा- हमें मंदिरों मे जाने का, पनघट से पानी पीने का, भरने का अधिकर मिलना चाहिए यह हमारा सामाजिक हक है। शासन करने का राजनैतिक अधिकार भी हमें मिलना चाहिए। हम कठोर सजा की चिन्ता नही करतीं । हम देश भर की जेलों को भर देंगे। हम लाठी गोली खाएंगे। हमें हमारा हक चाहिए। योद्धा कभी अपनी जान की चिन्ता नही करता। गुलामी के साथ मिल कर जी गई जिन्दगी से मौत बेहतर है। हम जान दे देगें मगर अधिकर छीन कर रहेगें।
 
दलित महिला आन्दोलन अस्पृष्यता, लिंगभेद, असमानता के खिलाफ लड़ता हुआ दलित महिलाओं को स्कूल, कालेज. हॉस्टल खोलने के साथ पत्र-पत्रिकाओं में लिखने की प्रेरणा देता रहा। इस आन्दोलन में कौशल्या बैसन्त्री, बेबीताई काम्बले, सुलोचना डोगरे, सीताबाई गायकवाड़, तानुबाई काबले, राधाबाई बरालै और भी अनेक दलित नेत्रियां थी, जिनके नामों को अगर मैं गिनाने लगूं तो सूची- बहुत लम्बी हो जायेगी। यहां यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि अम्बेडकर के समय चला दलित महिला आन्दोलन 56 के बाद एकदम रूका क्यों नजर आने लगा? वह वास्तव में रूका था या दलित आन्दोलन की कमी थी जो वह दलित महिलाओं के आन्दोलन व उनके मुद्दों को उचित जगह नही दे पाया। बाबा साहब के साथ आंदोलन में इतनी बडी सख्या मे जुड़ी दलित महिलाएं उनके परिनिर्वाण के बाद एकाएक घरों में क्यों लौट गई? इसमें कोई शक नही की दलित आंदोलन भी अन्य आन्दोलनों की तरह दलित स्त्री को बराबरी की हिस्सेदारी देने में नाकाम रहा।

 

दांडी यात्रा में गांधी जी के हजारों संख्या में दलित महिलाओं ने भागीदारी निभाई। नमक सत्याग्रह में 80,000 लोग गिरफ्तार किए गए जिनमें 17,000 महिलाएं थी जिनमें सर्वाधिक संख्या दलित व गरीब महिलाओं की थी। देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वालो में झलकारी बाई, उदादेवी पासी, रानी अवन्तीबाई लोधी, वीरांगना महावीरी देवी, सिनगी दई, कइली दई, फूलों, झानों, रानी गूडियालों देवमनी उर्फ बंधनी, राजस्थान की वीर बाला काली बाई आदि अनेक नाम मिल जायेगे।

आज दलित महिलाओं के सामने पितृसत्ता जातिवाद, निरक्षरता, तंगहाली और पूर्वाग्रह चुनौतियों के सामने खड़े है। यह पूर्वाग्रह समाज से लेकर साहित्य व आन्दोलन से लेकर वैचारिक धरातल पर बिखरे पड़े हैं। दलित साहित्य जहां एक ओर उसकी छवि उत्श्रृंखल कामचोर, पेटू आदि खीचने मे व्यस्त है वही दूसरी ओर उसकी क्षमता व प्रतिभा को नित नये फतवों से नेस्तनाबूद करने की साजिश रच रहा है। जिस आजादी और मुक्ति का स्वप्न लेकर दलित साहित्यकार दलित साहित्य को समृद्ध कर रहा है उन्ही मूल्यों के खिलाफ, दलित स्त्री कोदलित पुरूष परतन्त्रता की बेड़ियों मेंजकड़ना चाहता है। यौन शुचिता के नाम पर वह उसे अपने पांव की जूती व अपने उपभोग की वस्तु बनाकर सुरक्षित रखना चाहता है। मुझे उन दलित साहित्यकारों की बु़द्धि पर तरस आता है जो बार-बार दलित महिला लेखिकाओं को और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अहसास कराने में कोई कसर नही छोड़ते कि दलित महिलाएं निपट मूर्ख, अक्षम, सवर्णो की गोद में बैठकर दलित पुरूष को सताने वाली होती है। वे उत्पीड़क और उत्पीड़ित का अन्तर भूल गए है। उन्हें बार-बार अहसास होता है आराम से गटकी जा रही घी चुपड़ी रोटी में ये आधा हिस्सा मांगने वाली कहां से टपक गई और अगर मांगती है तो गिड़गिड़ा कर दयनीय होकर क्यों नहीं मांगती, सिर ऊंचा करके क्यों मांगती है?
 
दलित महिलाओं के सामने दलित पितृसत्ता भी एक गम्भीर चुनौती है, जिसका आज सजग सचेत होकर दलित साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता विरोधकर रहे है।
 
दलित साहित्यकार दलित नारीवाद को बार-बार अपनी जातीय गुलामी का कारण मान रहे है। दलित स्त्रियों के प्रति मीडिया से लेकरशासन-प्रशासन, पुलिस-न्यायप्रकिया अपनी पूर्वाग्रह ग्रसित भूमिका निभा रहे है। साथिन भंवरी बाई के साथ हुएबलात्कार के अन्तहीन उत्पीड़न में पुलिस से लेकर कोर्ट ने अपनी भूमिका बहुत ही हास्यास्पद तरीके से निभाई। जयपुर के जिला एंव सत्र न्यायधीश ने तो भंवरी के बलात्कार को झूठा कहते हुए यहां तक कह दिया कि ‘‘ऊंची जाति के लोग नीची जाति की स्त्री के बदसलूकी कैसे कर सकते है। फिर वे बड़ी उम्र के वयस्क है कोई बच्ची तो नहीं, ऐसे लोग कभी बदसलूक नही हो सकते।“ आज भी भंवरी लड़ रही है ।वह थकेगी नही और वह लड़ती रहेगी।
 
पिछले दिनों खैरलाजी में दलित स्त्रियों सुरेखा और प्रियंका की बलात्कार के बाद की गई निर्मम हत्या को प्रशासन, पुलिस, मीडिया व स्त्री संगठनों ने जिस हल्के स्तर से लिया वह अत्यंत चिंतनीय ही नही निंदनीय भी है। दलित समाज के सामने खड़ी चुनौती भूमंडलीकरण, आरक्षण, साम्प्रदायिकता, नीजिकरण दलित स्त्री के लिए भी चुनौती है। चाहे साम्प्रदायिक दंगे हो या निजीकरण और भूंमडलीकरण के बढ़ते प्रभाव से खत्म होते रोजगार के अवसर, या फिर आरक्षण, इन सबसे वह ही सबसे अधिक प्रभावित होती है। भूंमडलीकरण, बाजारीकरण के चलते उसके श्रम की कीमत दिन पर दिन कम होती जा रही है, जिसके कारण उसके परिवार पर व उसके ऊपर इसका सीधा असर पड़ रहा है। आर्थिक चुनौतियां सुलझने की जगह और उलझ रही है। घर और बाहर थोड़ा हो या बहुत उसे ही मैनेज करना है। दलित स्त्रियों की शिक्षा की दर बहुत नीचे है, वे अधिकांशतः खेत और फैक्ट्रियों में अल्प वेतन पर काम कर रहीं है। विकास के नाम पर उसे जल, जंगल, जमीन से वंचित किया जा रहा हैं। दलित आदिवासी लड़कियॉ देह व्यापार में और घरेलू कार्यों की भट्टी में जबरदस्ती धकेली जा रही है, जहां उनके वेतन मान से लेकर काम के घण्टे व छुट्टियों तक नियत नही है।
 
अधिकांश दलित महिला आन्दोलन व उनके मुद्दों को महिलाओं के गैर सरकारी संगठनों द्वारा जिस तरीके से पेश किया जा रहा है वह भी चिंतनीय है। इन गैर सरकारी संगठनों द्वारा उठाऐ जा रहे सवाल फंड पर निर्भर करते है, मुद्दे की गम्भीरता पर नहीं । आज अनेक गैर सरकारी महिला संगठन दलित महिलाओं के मुद्दे जैसे देवदासी व खेती मजदूरी के सवाल पर काम कर रहे हैं। पर उनका नजरिया दलित महिलाओं की समस्याओं को समाजिक दायरे में न देखकर व्यक्तिगत रूप से देखा जा रहा है। जातिगत पेशे जैसे बेडनी या देवदासी जैसे  मुद्दों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ ना जोड़कर सामाजिक संदर्भो में देखा जाना चाहिए जैसे स्त्री मुक्ति का सवाल व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक है। इस बात को मैं इस तरह समझती हूं।
 
जैसे यदि कोई 18 साल से ऊपर की महिला सोच विचार के स्वेच्छा से देवदासी बनना चाहे तो हलांकि इसमें भी मैं देह को साधन बनाने के पक्ष में नही हूं, क्योंकि देह की अपनी गरिमा होती है चाहे वह स्त्री की हो या पुरूष की। परन्तु एक जाति की ही औरतें देवदासी या बेड़नी या बार-बाला बनने के लिए मजबूर हो तब हम उस मजबूरी को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का मुद्दा नही बता सकते।

इस चौतरफा शोषण के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ उसे अन्य महिला समूहों व विचारधाराओं के अलावा उसको अपनेसमाज-परिवार की मुक्ति के साथखुद की मुक्ति और बराबरी की भी लड़ाई लड़नी है। इन सबके बीच वह कैसे इन सब मुद्दों पर अपना तालमेल बैठायेगी,यह भी चिंतन का विषय है आज दलित महिलाओं से जुडे मुद्दे चाहे वह महिला रिर्जेवेशन का मुद्दा हो या कोई अन्य स्त्री मुद्दा, इनके नाम पर उसे अन्य महिला संगठनों द्वारा उसे बार-बार कहा जाता है कि जाति के नाम पर महिला आन्दोलन को दो हिस्सों में मत बांटों या फिर एक बार महिला आरक्षण बिल पास होने दो तब बात करेगे। यही बात जब वह अपने घर परिवार के जाति भाईयों से कहती है तो उसका यह कहकर मजाक उड़ा दिया जाता है कि“बड़ी-बड़ी गुलामियों को छोटी-छोटी आजादियों से मत तोलो” या व्यंग्य में “इतनी छोटी कहां हैमेरी आजादी कि तुम्हें और तुम्हारे जैसों को पूरी जगह ना हो” तो मेरा मानना है दलित स्त्रियों के चिंतन और संघर्ष की अत्यन्त कठिन है, पर वह लड़ रही है और लड़ती रहेगी। और अंत में निर्मला पुतुल की कविता के साथ दलित-आदिवासी महिलाओं का एक सशक्त  वक्तव्य जिसके लिए वे हरदम तैयार रहेगी —

                                    मैं चाहती हूं
                                    आंख रहते अंधे आदमी की
                                    आंखे बने मेरे शब्द, उनकी जुबान बने
                                    जो जुबान रहते गूंगे बने
                                    देख रहे है तमाशा
                                    चाहती हूं मैं
                                    नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द
                                    और निकल पड़े लोग
                                    अपने-अपने घरों में सड़कों पर ।

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रोहित वेमुला को एक उदास पुष्प- जो अन्याय की धरती से कल चला गया https://sabrangindia.in/raohaita-vaemaulaa-kao-eka-udaasa-pausapa-jao-anayaaya-kai-dharatai-sae-kala-calaa-gayaa/ Mon, 18 Jan 2016 14:31:27 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/01/18/raohaita-vaemaulaa-kao-eka-udaasa-pausapa-jao-anayaaya-kai-dharatai-sae-kala-calaa-gayaa/ ‎ आओ हम फिर एक शोकगीत गाएँ, अपने प्यारे बच्चे रोहित वेमुला के नाम उसी शोक गीत को जो जिंदा है न जाने कितनी सदियों से पेशवा युग, पाषाण युग से भी पहले से  जिसे सुन रहे हो तुम, न जाने कितने वषों से तुम्हारे सतयुग त्रेतायुग द्वापर युग  और युग पर युग बीतते गए. न […]

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आओ हम फिर एक शोकगीत गाएँ,
अपने प्यारे बच्चे रोहित वेमुला के नाम
उसी शोक गीत को जो जिंदा है
न जाने कितनी सदियों से
पेशवा युग, पाषाण युग से भी पहले से 
जिसे सुन रहे हो तुम, न जाने कितने वषों से
तुम्हारे सतयुग त्रेतायुग द्वापर युग 
और युग पर युग बीतते गए.
न बदली तुम्हारी जुबान न बदले तुम्हारे वार
अब जबकि ये कलयुग है
तुम्हारे झूठे किस्से कहानियाँ मनगंढत 
शास्त्रों पुराणों की बातों का नही
पर साहेब,
न्यायाधिकारी दंडाथिकारी
धर्माधिकारी, महागुरु द्रोणाचार्यों 
की पूरी जमात लगी है
कलयुग को पलटने में
कलयुग तो कलयुग  है 
जिसकी जुबान काली है
मजबूत है तीखी है
भोथरी है धारदार है
जिसमें संघर्ष के लिए तनी कई मुट्ठियाँ है
तैयार हो रहे है सब हाथ में हाथ डालकर
लिपट रहे है गले मिल मिलकर
एक साथ साथ रोने और लड़ने के लिए।

अनिता भारती

 

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लोकसाहित्य और दलित आदिवासी स्त्री की अभिव्यक्ति https://sabrangindia.in/laokasaahaitaya-aura-dalaita-adaivaasai-satarai-kai-abhaivayakatai/ Mon, 11 Jan 2016 08:07:34 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/01/11/laokasaahaitaya-aura-dalaita-adaivaasai-satarai-kai-abhaivayakatai/ Image Courtesy: Jiaur Rahman: Tribal Dance   किसी भी देश के लोकगीतऔर लोकगाथाएं उस देश की आम जनता की भावना, संस्कृति, राग-द्वेष, दुख दर्द, भावनाओं और उनकी सांझी विरासत का दर्पण होती है। लोकगीत और लोकगाथाओं का सृजन आम जनजीवन कीभावनाओं की उन्मुक्त स्थिति है। समाज में जैसा भी अच्छा-बुरा, सुंदर-असुंदर, रहा है, उसके प्रति […]

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Image Courtesy: Jiaur Rahman: Tribal Dance
 
किसी भी देश के लोकगीतऔर लोकगाथाएं उस देश की आम जनता की भावना, संस्कृति, राग-द्वेष, दुख दर्द, भावनाओं और उनकी सांझी विरासत का दर्पण होती है। लोकगीत और लोकगाथाओं का सृजन आम जनजीवन कीभावनाओं की उन्मुक्त स्थिति है। समाज में जैसा भी अच्छा-बुरा, सुंदर-असुंदर, रहा है, उसके प्रति साधारण जन मानस की भावनाएं लोकसाहित्य में ही दिखती है। लोकसाहित्य से ही जन मानस के दुख-दर्द, आशा-निराशा, पीडा, संवेदना, छटपटाहट-चिंताएं, कष्ट और जीवन के प्रति उनका दर्शन समझना संभव है। लोकसाहित्य का आधार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु की समाप्ति तक के दर्शन से जुडा होने के कारण इसमें कहीं हर्षोल्लास के क्षण हैतो कहीं दु:ख के बादल मंडराते है। लोकसाहित्य का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि इसके मूल में मनुष्य होने की का दर्द छिपा है।

स्त्री के संदर्भ में लोकसाहित्य की सबसे बडी विशेषता उनके मनुष्य होकर भी, मनुष्य के समान ना जीने के अवसर मिलने की पीड़ाऔर उसके अनुभव का व्यक्त होना है। और स्त्रियों में खासकर दलित और आदिवासी स्त्री के साथ तो यह पीड़ा बहुत ही मर्मांतक है। दलित आदिवासी स्त्री जिस ब्राह्मणवादी पुरूषसत्तात्मक समाज में जी रही है, वह उसे निम्न से भी निम्नतर श्रेणी में जीने को मजबूर करता है। लोकसाहित्य दलित आदिवासी स्त्री की अस्मिता, उसकी पहचान से जुड़े गीत, कहानियां उसके प्रति बरती जा रही अमानवीय क्रूरता, उपेक्षा, हिंसा और भेदभाव की पोल पट्टी खोलते हुए, उसके समर्थन में आकर समाज को चुनौती देता है। दलित आदिवासी स्त्री द्वारा रचे गए गीत-प्रगीत, किस्से कहानियां, उनके शारीरिक शोषण से लेकर मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना की शिकायत करते है। उनके प्रति की जा रही घरेलू और सामाजिक हिंसा की मार्मिक दास्तान सुनाते है।

लोकसाहित्य जनमानस की धड़कन होते हुए भी समाजिक उपेक्षा के शिकार रहे है। इसका कारण है लोकसाहित्य का जनमानस से जुडा होना। लोकसाहित्य अपनी सहज अभिव्यक्तीय क्षमता और संपेक्षणीयता के कारणशास्त्रीय साहित्य को हमेशा टक्कर देता रहा है। एक तरफ शास्त्रीय साहित्य हमेशा सत्ता- वैभव- शक्ति सम्पन्न और वर्णव्यवस्था के हिमायती झंडाबरदारों द्वारा पोषित रहा है, दूसरी तरफ लोकसाहित्य आम जन द्वारा अपने द्वारा रोज रोज जिए जा रहे संघर्ष, अनुभव और स्वभाव की सहज सरल संपदा से परिपूर्ण रहा है। शास्त्रीय साहित्य और उसकी कलाएं एक नियम, अनुशासन, रीति से बंधी होती है जबकि लोकसाहित्य भावनाओं की मुक्त-स्वछंद और स्वतंत्र अभिव्यक्ति है। इसीलिए लोकसाहित्य मेंजहां एक ओर आम जनमानस का खुशी से नाचता-झूमता रूप नज़र आता है वहीं दूसरी ओर वह अपने रूदन को भी उतने ही सहज रूप से अभिव्यक्त करता है।

दलित साहित्य में अभी लोकसाहित्य पर काम होना बाकी है।पर सवाल यह है कि दलितों- आदिवासियों के बीच बिखरा पड़े लोकसाहित्य का संग्रह कैसे किया जाए? मेरा मानना है कि दलित- आदिवासी समाज की मनोदशा और उसकी स्थिति को समझने में लोकसाहित्य की बहुत बडी भूमिका हो सकती है, इसलिए इस दुश्कर लेकिन इस अति महत्वपूर्ण और रोमांचकारी काम को सामाजिक काम या सामाजिक उत्तरदायित्व समझकर करना पडेगा।

एक समय लोकगीतों का संकलन काग़ज की बरबादी माना जाता था परन्तु बाद में विख्यात साहित्यकार रामनरेश त्रिपाठी और देवेन्द्र सत्यार्थी आदि ने अपने हाथ में बीड़ा लिया और जगह-जगह घूम-घूम कर इन गीतों को संग्रह किया। आज भी अगर लोकमानस की नस पहचाननी है तो हमें लोकगीतों का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि लोकगीत उनकी धड़कन में बसे है। जहाँ आदिवासी लोकगीतों की रचना उनकी संस्कृति और उसके रहन सहन, उनके जल जंगल जमीन से जुड़ाव के गीत है तो वहीं दलित समाज के गीत, समाज में अन्याय, पीड़ा अभाव और मजबूरी में बने रचे। आदिवासियों के जीवन में अशिक्षा, गरीबी उनके शरीर में खून की तरह घुल-मिल गए है । लोकगीत समाज में व्याप्त भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न की बेबाक अभिव्यक्ति करते है। अधिकतर लोकगीत कन्या विवाह व कन्या विदाई से सम्बन्धित है, परन्तु कहीं-कहीं कन्या के जन्म पर भी गीत मिल जाते है। आश्चर्य की बात है कि जहां पुत्र जन्म या पैदा होने के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों की भरमार है, वहीं कन्या जन्म पर मुश्किल से एका-आध ही गीत मिलते है और वह भी कन्या पैदा ना करने के बारे में, या कन्या पैदा होने पर माँ दादी दादी पिता के मायूस होने व दुखी होने की स्थिति को ही अधिक दर्शाते है।आखिर हमारे समाज में हर कोई चाहे वह शिक्षित तबका हो या अशिक्षित, सबको पुत्र प्राप्ति की कामना ही क्यों रहती है? समाज में यह पितृसत्तात्मक मूल्य कूट कूट कर भरा गया है कि पुत्र ही वंश-वृद्धि और मोक्ष का द्वार है, मृत माता-पिता को कंधा देकर वहीं उन्हे स्वर्ग की सीढियां चढवाता है। इसलिए पुत्र होने पर स्त्री भाग्यशाली और पुत्री होने पर तरह-तरह के तानों से नवाजी जाती है। पुत्र पैदा होकर उसे जग हँसाई से बचाता है। दुनिया में उसका रूतबा बढ़ाता है। यही कारण है कि पुत्रों की कामना में वह व्रत रखती है मनौतियां मानती है। दूसरी ओर जब लड़की होती है तो शोक मनाया जाता है। समाज में लड़की पैदा होने को इस तरह बताया जाता है मानों लड़की होना माने 'कुछ नहीं होना' है। पुत्रों को ज्यादा महत्व देने के संदर्भ में एक अहम बात और है, वह यह कि पुत्र पैदा करना पुरुष के लिए उसकी मर्दानगी की कसौटी है. जिसके पुत्र नही पैदा होते और पुत्रियां ही पैदा होती है वह पिता चाहे अनचाहे मर्दानगी के अभाव के सामाजिक दबाब में जीता है। पुत्रियों वाला पिता, बाकी पुरुष समाज द्वारा या पूरे समाज दवारा हेय अथवा दया की देखा जाता है और अक्सर उपहास का कारण बनता है। जबकि यह एक वैज्ञानिक कारण है कि पुत्र और पुत्री होना ना तो औरत के हाथ में है ना ही पुरुष के हाथ में। फिर भी समाज में तरह तरह के अंधविश्वास और भ्रांतियां फैली हुई हैं, जिस में दोष सिर्फ और सिर्फ स्त्री के सिर ही मढा जाता है।

बन्जारा समाज में भी पुत्री जन्म के समय थाली और पुत्र जन्म के समय नगाड़ा बजाया जाता है।घऱ में बच्चा( पुत्र) पैदा होने के छठे दिन छठी मनाई जाती है। छठी माता की पूजा की जाती है तथा पुत्र के लिए तरह-तरह की दुआएं मांगी जाती है। छठी माता से अनुरोध किया जाता है कि आगे भी उसे पुत्र ही देना पुत्री नहीं देना।नीचे दिए गए बंजारा लोकगीत में एक स्त्री कहती है,“हे ! जन्म देने वाली देने वाली देवी! सन से सुतलीकातने तथा बुनने वाली पुरूष जाति को स्त्री के गर्भ से जन्म देना , सुई-धागे से कपड़े सीने वाली स्त्री जाति को हमारे कोख से जन्म न देना"

वे माता हासत-हासत आयेस
रोतो-रोतो पर जायेस
सण ढेरो लेन वर आयेस
सुई दोरा लेन पर आयेस
सुओ सुतली लेन वर जायेस
लेपो लावण लेन पर जायेस
वे माता हासत-हासत आयेस
रोतो-रोतो पर जायेस
           (बंजारा जाति, समाज और संस्कृति यशवन्त जाधव, वाणी प्रकाशन पृष्ठ 25-26)

अब क्या कारण है कि इस देश की धरती पर एक स्त्री दूसरी स्त्री का जन्म ही देना नही चाहती ? क्या इसका कारण परिवारों में महिलाओं का पितृसत्ता के कलंक में अपने हाथ रंगना, स्त्री होने की पीड़ा से अपनी बेटी को बचाना है, या फिर दहेज प्रथा या महिलाओं की समाज में सबसे निम्नतम जगह होना है अथवा कुछ और?बन्जारा जाति में औरतों का जीवन जीवट भरा होता है। घर के अधिकांश काम जिनमें घर-बाहर के सारे कामकाज के साथ-साथ अपने खुद के कपड़े भी स्वयं सीना भी शामिल है, सब उसे ही करने पड़ते है। पुत्री के विवाह के समय उसका वर पक्ष से मूल्य लेना क्या एक बंजारा औरत को आहत नही करता होगा, जब उसके कौमार्य को, उसके स्वाभिमान को, कुछ रूपयों में पति रुपी मर्द के हाथ में बेच दिया जाता है? उसे दिनभर लोहे की बड़ी-2 भट्टियों में तपना पड़ता है। लोहे के हंसिये, तवे, चिमटे बेचने के लिए, बाजार में बेठकर सभ्य समाज की गन्दी निगाहों का शिकार होना पड़ता है, शायद उसकी यही व्यथा गीतों में फूट पड़ती है कि सूई से कपड़े सीने वाली स्त्री जाति को धरती पर जन्म मत देना।

पर बेटी होने की अपनी खुशियां भी है। कहीं कहीं लोकगीतों में बेटी होने का जश्न या खुशी भी दिखती है, पर वह क्षणिक ही होती है, जैसे इस लोकगीत में जिसमेंकबदायूं क्षेत्र की एक गर्भवती बहू भगवान से बेटी देने की इच्छा प्रकट करती है-

मैं तो पहले जनौगी धीयरी,
मेरी जौ कौख होय सुलच्छनी।।
जाकी गरजति आवैगी बराइति री,
पालिकी चढ़ि आवै साजन

परन्तु तुरन्त ही उसे यह अहसास हो जाता है कि बेटी तो ब्याह के अपने घर चली जायगी। घर और मेरी कोख दोनों खाली हो जायेगी। इसलिए मैं बेटी ना जनके बेटा जनूंगी जिससे मेरा घर भरा पूरा रहे। बहू घर में रूप भरती हुई घर में डोलेगी। महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य यह है कि लोक साहित्य में जहाँ कन्याजन्म की चर्चा बहुत ही कम है जबकि पुत्र जन्म के ऊपर हजारों गीत हैं, दूसरी ओर कन्या के विवाह को लेकर अनगिनत गीत मिलते है। एक लोकगीत में कन्या अपने पिता से सवाल पूछती है,“हे ! पिताकौन ग्रहण रात में लगता है? कौन दिन में? और कौन ग्रहण बेवक्त लगता है? और कब छूटता है?”पिता अपनी पुत्री के सवालों का जबाब देता हुआ कहता है,“हे बेटी! चन्द्र ग्रहण रात में लगता है और सूर्य ग्रहण दिन में। कन्या ग्रहण का कोई ठिकाना नहीं कि कब लगे और कब छूटे?”

आदिवासी समाज में भी जन्मगीत खूब मिलते है परन्तु आदिवासी समाज में लड़की होना उतनी शर्म की बात नहीं जितना की अन्य समाज में। इसका कारण शायद यही है कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुषों के संबंधों में कुछ तो समानता रही ही है। एक मुण्डा लोकगीत जिसमें एक स्त्री अपनी पुत्री की जन्मk संबंधी जिज्ञासा शांत करते हुए कहती है कि-जब लड़का पैदा होता है तब सूर्य उगा, जब चांद उगा तू लड़की पैदा हुई। जब लड़का पैदा हुआ तब गोहाल उजड़ गया और जब लड़की पैदा हुई तब गोहाल भर गया।
 

दलित आदिवासी स्त्री द्वारा रचे गए गीत-प्रगीत, किस्से कहानियां, उनके शारीरिक शोषण से लेकर मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना की शिकायत करते है। उनके प्रति की जा रही घरेलू और सामाजिक हिंसा की मार्मिक दास्तान सुनाते है।

दलित स्त्रीजाति के बाण से किस प्रकार घायल होती है, वह अपने दलित होने की सजा हमेशा पाती है। एक तरफ उसे दलित समझकर उसको उपभोग की वस्तु समझा जाता है तो दूसरी और उसको सबसे ज्यादा सामाजिक हिंसा का शिकार होना पडता है। सवर्ण समाज के स्त्री पुरुष दोनों ही उसको तरह तरह से उत्पीड़ित करते है। वह जीवन के प्रत्येक स्तर पर जातीय भेदभाव, धार्मिक पाखंड तथा अंधविश्वास झेलती है।दलित औरतों का किस प्रकार यौन शोषण किया जाता है, उनकी गरीबी का, उनके देह का इस्तेमाल किस कदर किया जाता है,इसका एक मैथिली गीत 'भंडौवा' में छूआछूत मानने वाले एक ब्राह्मण के इसी स्वरूप का पर्दाफाश किया है। जिस ब्राह्मण की बात बात किसी के स्पर्श मात्र से ही जात चली जाती है, उसी ब्राह्मण का दलित स्त्री के साथ जबर्दस्ती शारीरिक संबंध बनाने से, उनका चुंबन लेने से जाति नही जाती है। दलित स्त्रियां ऐसे ढोंगी ब्राह्मण पर ताने कसते हुए और उसका मजाक बनाते हुए कहती है कि-  

अरे हो बुडबक बमना, अरे अरे हो बुडबक बमना
चुम्मा लेते में जात नहीं जाएं रे।
सुपति- मडनियां लाए डोमिनियां, मांगे प्यास से पनियां
कुआं के पानी ना पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियां,
सोही डोमनियां जब बनली नटिनियां, आंखी मारे पिपनियां?
ते करे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बमनियां।
जोलहा, धुनिया, तेलनियां के पीए न छुअल पनियां
नटिनी के जोबना के गंगा जमुनुवां में डुबकी लगा के नहनियां।
दिन भर पूजा पर आसन लगा के पोथी पुरान बचनियां
रात के ततमा टोली के गलियन में जोत खीजी पतरा गननियां
भकुआ बमना चुम्मा लेवे में जात नहीरे जाए।

 -(लोकगीतों में क्रान्तिकारी चेतना- विश्वमित्र उपाध्यय पृ.स.18 प्रकाशन विभाग)
ऐसे ही एक गरीब दलित महिला जब गांव की सभी गैर दलित महिलाओं को त्यौहार पर सुंदर सुंदर कपडे पहने देखती है तो अपनी सहेली से कहती है कि- कार्तिक माह में सब महिलाएं अच्छेवस्त्र पहनकर स्नान करने जायेगी। परन्तु मैं तो फटा पुराना वस्त्र पहनकर ही जाऊंगी क्योंकि मेरे पास अच्छे वस्त्र नहीं हैं-
कातिक हे सखि पुन्य महीना, सखि
सब कोई पहिने पाट पंय्बर
हम सखि गुदरी पुरान है।।
पूस हे सखि ओस पड़ि गेल,
भीजि गेल लामी लामी केश है।
जाड़ा छेदे, तन सुई सन छन छन
थर थर कांपई करेज हे।
(लोकगीतों में क्रान्तिकारी चेतना पृ.स.16, प्रकाशन विभाग)

अकाल, भूख, गरीबी, अभाव की मार सबसे ज्यादा गरीबदलित तबके की स्त्री को ही झेलनी पड़ती है। दलितों के पास ना तो अपनी जमीन होती है और ना ही खेत-खलिहान होते है। सौ मेंनब्बे प्रतिशत खेतिहर मजदूर- किसान, असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूर दलित समाज के ही होते है। इन दलित आदिवासी भारतीय मजदूरों की हालत किसी से छिपी नही है। वे बेहद गंदे और छोटे घरों में रहते है. जहां बिजली, पानी, हवा, स्कूल, अस्पताल आदि किसी भी तरह की व्यवस्था नही होती। पुरुष कामगारों से भी अधिक स्त्री मजदूर कामगारों की हालत खराब होती है। ना उन्हे मजदूरी ठीक से मिलती है और ना ही एक कामगार के बराबरी का रुतबा और ना ही सम्मान । ऐसे में वह घर से लेकर बाहर तक शोषण अन्याय उत्पीड़न की चक्की मे रात-दिन पिसती है। ऐसी ही परिस्थितियां झेल रही एक श्रमिक महिला समाज से सवाल करती है कि वह कड़ी धूप में जब मिट्टी तोड़ रही है, उसके पास इतनी मेहनत करने के बाद भी ना पहनने को पूरे कपड़े हैं और ना ही भूख मिटाने का खाना. जब वह पसीने और मिट्टी से तरबतर है तब मालिक और अमीर लोग अपने अपने घरों में गट्ट-गट्ट खाना खाकर आराम से सो रहे है। 

अंग पर अंगिया नही, भूखी प्यासी मैं
गिट्टी तोड़ती हूँ इस भरे घास में
पत्थर की किरच छक की आवाज़ से
मेरे शरीर पर टकराती है,
मेरा जीवन हराम है।
अंग पर पसीना छक छक करता है
नयनों से आंसुओं का परनाला बहता है।
ओ मां मेरे शरीर पर मिट्टी खप से चुभ जाती है।
रक्त की धार बह उठती हैं
पैसे वाले गट्ट गट्ट खाना खाकर
घर पर आराम करते है।
(लोकगीतों में क्रान्तिकारी चेतना वही पृष्ठ 161)
 
सर्दी गर्मी बरसात चाहे कोई मौसम हो हरेक मौसम में गरीब दलित आदिवासी लोगों का जीवन दूभर होता है। सर्दी की विभीषिका को झेलते हुए एक मुंडा आदिवासी स्त्री कहती है-
हाय जाड़ा तुम चले जाओ।
हाय ठंड तुम उठ जाओ.
हे जाड़ा तुम उन व्यापारियों के पास चले जाओ
हे ठंड तुम उन सौदागरों के पास चले जाओ
जिनके पास मोटे कपड़े है
( बांसुरी बज रही है- मुण्डा लोकगीत- पृष्ठ 136, श्री जगदीश त्रिगुणायत)
 
अधिकांश लोकगीतों में सास, ननद, पति, ससुर, देवर के नाकारात्मक चित्र है। दरअसल सास ससुर, देवर नंद और पति यह सब लोग भारतीय परिवारों में पितृसत्तात्म मूल्यों के प्रहरी बन असहाय स्त्री पर जुल्म करते है। यह जातिवादी भारतीय मानसिकता ही है कि ताकतवर कमजोर पर अत्याचार करने में अपनी शेखी समझता है। चूंकि बहु को विवाह करके लाया गया है, उसे अच्छी तरह तोल-मोल और देख-दाख के परिवार के लिए लाया गया है इसलिए उस से रात-दिन काम करवाकर, उसके साथ खरीदी गई दासी की तरह बर्ताव करने का अधिकार अनचाहे ही पूरे परिवार को मिल जाता है ।ज्यादातर लोकगीतों में भाई अपनी बहन के लिए, बेटा अपनी माँ के लिए तो कहीं-कहीं बेहद संवेदनशील दिखाई देता है, पर वह अपनी पत्नी के लिए वैसा स्नेह, सुरक्षा की भावना, संवेदनशीलता नही जुटा पाता है। जैसे ही उसकी पत्नी बच्चे के रुप में बेटा नही जन्मती, पत्नी के रुप में उसके माता पिता की सेवा नही करती, या घर के काम काज को परिवार के मानदण्डो पर पूरा नही करती, वैसे ही पति उसका किसी बहाने परित्याग, या फिर दूर नौकरी के बहाने से उसे छोड कर चला जाता है। बहुत सारे लोकगीतों में पति के खिलाफ एक पत्नी के दुख दर्द और वेदना ही प्रकट हुई दिखती है।एक निमाड़ी गीत में पति को पंखा करते समय पत्नी को नींद आ गई तो उसे उसका पति उसे बुरी तरह से पीट देता है।

धणियेर राजा सोया सुख सेज
रणुबाई रीझ रणों जी.
डोलत जे डोलत आई गई झपकी
हाथ का रीझणों, भुई गिरयो जी
धणियेर राजा की खुलि गई नींद,
तड़ा  तड़ मारयो  ताजणी ।
(पृष्ठ संख्या-110, लोकगीतों में वेदना और विद्रोह- संपादक माता प्रसाद, सम्यक प्रकाशन)

दलित समाज में अपना हास्य-बोध, सौन्दर्य-बोध और प्रेम-बोध है। जहां गैर दलित लोकगीतों में पति के अत्याचार वाला रूप प्रमुख है पर दलित स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों में पति-पत्नी के हास्य विनोद, प्रेम-स्नेह, लड़ाई- झगड़े के चित्र भी खूब दिखाई देते है। दलित समाज में गाए जाने वाले गीतों में दहेज-प्रताड़ना के गीत कम है, क्योंकि इस समाज के पास देने के लिए दहेज है ही नही।दलित आदिवासी परिवारों में अभी भी स्त्री-पुरुष समानता के कुछेक तत्व बचे हुए है। एक लोकगीत में पति पत्नी के बीच आपस का प्यार इस प्रकार प्रकट हुआ है-

मैं बड़ी दूर से आया, मेरो गोरी.. मुन्डसे बीच नगीना
मैंने ऐसा पंखा डोला, जल्दी मरा पसीना
मुझे ऐसी करके राखियों, मेरा राजा, जैसे गूंठी बीच नगीना
मैं बडी दूर से आया, मेरो गोरी, सुरमें बीच सपीना
मैंने ऐसा पंखा डोला जल्दी मरा पसीना
मुझे ऐसा करके रखियों, मेरा राजा, जैसा किंगूठी बीच नगीना
( पृष्ठ संख्या 146, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)

पति के बाहर कमाने के लिए जाने पर पत्नी का उसके साथ जाने की बात पर अड़ना, उससे लडाई झगडा करने वाली भावनाओं पर बहुत सारे लोकगीत है। इन लोकगीतों में पति के बाहर जाने पर पत्नी का अकेले पड़ जाने का भय, तथा ससुराल के अत्याचार झेलने का डर स्वाभाविक दिखता है। अक्सर होता भी यही था कि जिसमें पति बाहर नौकरी करने चला जाता है फिर अपनी ब्याहता औरत को सुध नही लेता था। आदमी के लिए बाहर की दुनिया है तो औरत के लिए घर की घुटनभरी दुनिया। ऐसे ही एक लोकगीत में कमाने के लिए परदेश जा रहे पति के किसी भी शर्त पर जाने के लिए एक ब्याहता स्त्री कहती है-

'अपने बलम की टोपी बनूंगी, जुल्फो में रहूंगी रे
मेरे राजा फूल गुलाब के, गुलकन्द बनूंगी रे
मैं रो रो अखियों लाल, बलम तेरे साथ चलूंगी रे
अपने बलम का सुरमा बनूंगी रे, डोरों में रहूंगी रे
मैं रो रो अंखियों लाल, बलम तेरे संग चलूंगी रे'
( पृष्ठ संख्या 149, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)
 
पति के परदेश जाने पर, औरत अकेली हो जाती है ऐसे में उसके अकेले पड़ जाने पर अक्सर परिवार के ही दूसरे लोग चाहे वह पड़ोसी हो या रिश्तेदार, या फिर अपने ही घर के सगे-संबंधी, वे इन अकेली पड़ गई औरतों का जबर्दस्ती फायदा उठाने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। छोटे भाई के कमाई के लिए परदेस जाने पर, बडा भाई यानि जेठ कैसे छोटे भाई की बीबी को छेडता है इसका बड़ा ही मार्मिक वर्णन एक लोकगीत में मिलता है। जेठ की शिकायत करने पर परिवार का कोई सदस्य उसको उसकी इस हरकत के लिए नही रोकता, अपितु बहु को ही दोष देने लगता है। यहां तक कि बहु को अपनी रक्षा करने के लिए जेठ पर तेल छिड़क-छिड़क कर मरने मारने की भी धमकी देने का असर नही होता –

पकड़ आम की डाली, धनि क्यूं खड़ी
का तुझै लगा है बैराग, ता का मैथिली हारी
चला जा रे मूरख गंवार, तुझे मेरी का पड़ी
मेरे राजा गए परदेश, अन्देसे में मैं खड़ी
गंगा रे जमन के बीच, जउड़े दो मक्खियां
अरे देख राजा तेरी बाट, दुख मेरी अंखियां।
मैं गम गम कोठे चढ़ गई री, मेरे हाथ में घड़ी।
पीछे से जेठा चढ़ गए री, मेरी बईया पकड़ी।
घरों में बैठी सासल, मैंने उनसे कहीं
मना लो अपने पेटा ने,मेरी बईया पकड़ी
म्हारा क्या इसमें दोस, तू ता सुथरी घणी।
आजा रे मेरे जेठा, जोड़ी अजब मिली।
छिड़कूंगी मटिया का तेल, बोतल आले में धरी।
( पृष्ठ संख्या 151, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)
 

पुत्रों को ज्यादा महत्व देने के संदर्भ में एक अहम बात और है, वह यह कि पुत्र पैदा करना पुरुष के लिए उसकी मर्दानगी की कसौटी है. जिसके पुत्र नही पैदा होते और पुत्रियां ही पैदा होती है वह पिता चाहे अनचाहे मर्दानगी के अभाव के सामाजिक दबाब में जीता है।

 
मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन के लेखक डॉ. देवी सिंह ने दलित समाज में प्रचलित ऐसे लोकगीतों का संकलन किया है जिसमें दलित समाज की स्त्रियां अपने परिवार में अपनी इच्छाओं आकांक्षाओं को खुलकर बताती है। उनके इच्छाओं आंकाक्षाओं पर परिवार के द्वारा रोक ना होकर अपितु इन इच्छाओं को पूरा करने में सहयोग ही दिखाई देता है। निश्चय ही दलित समाज में दलित स्त्री की आजादी के लिए बंधन उतने कठोर नही रहे है जितने कि सवर्ण समाज में रहे है। लोकगीतों में कुछ ऐसे भी गीत है जहां कुंवारी लड़किया अपने होने वाले पति से मिलना चाहती है या फिर उन्हें किसी से प्रेम हो जाता है तो वे उसके साथ जाना चाहती है। वह किसी से छुपकर या छुपाकर नहीं बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों को बताकर मिलने जाना चाहती है।

कमला लिकड बाग ते, बाग में कौन बटेऊ सै
अम्मा बैल्ले में दूध सेल्ला, बाग में तेरा जमाई सै
मेरी अम्मा रान्धे दाल, भावज मेरी मान्डे पोवे सै
मेरी लाई कई कसार, सखी मेरी तेल दिखावै सै
मणे पहरी रेशमी सूट, के झिल मिल होरी सै
मणे ओड़ी काल बेल, के झिलमिल होरी सै
मणे दिया सीट पे पैर के गाड़ी चालू हो री सै
छोरूं ने मारी किलकारी , है रै र र होरी सै
( पृष्ठ संख्या 140, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)
 
इसी तरह एक और लोकगीत में विवाह से पूर्व लड़की अपनी दादा-चाचा-ताऊ से अपने होने वाले दूल्हे से मिलने के लिए जाना चाहती है तो वह अपने चाचा ताऊ दादा से अरज करती है कि मेरे होने वाले पति बाग में आ गये है मैं उनसे कैसे मिलने जाऊ ? तब चाचा ताऊ और दादा लड़की को उसके भावी दूल्हे से मिलने के लिए मालन और धोबिन बनकर जाने के लिए कहते है –
लाडो बेटी अरज करे दादा से, मैं किस विद देखन जाऊ
रंगीले आ गये बागन मैं।
हाथ छबडियां फूलन की है , लाडो मालनियां बनके जाऊ
रंगीले आ गये बागन मैं।।
बोल गये बतलाए गये बागन मैं,
मेरी हलद चढ़ी लाडों कू, नजर लगाए गये बागन मैं
मेरी केस खिली लाडो को, नजर लगाय गये बागन मैं
लाड़ो अरज करै बाबा से, मैं किस विद देखन जाऊं
रंगीले आ गए बागन में
जल का लोटा हाथन में लाड़ो धोबनियां बन के जाओ।
छबीले आ गये तालन में
बोल गये बतलाय गये तालन में
मेरी सीरी चढ़ी लाडों कू, नजर लगाए गये तालन मैं
मेरी केस खिली लाडो को, नजर लगाय गये तालन मैं
( पृष्ठ संख्या 143, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)
 
ऐसी गीतों की रचयिता स्वयं औरतें ही रही है और वे इन्ही गानों के माध्यन से अपने मन की इच्छाओं को बताती रही है। दलित-आदिवासी स्त्रियों की एक बडी खूबी है कि वे अपने जीवन को पूरी जीवटता से जीती है। वे किसी भी परिस्थितियों में हार नही मानती है। झलकारी बाई, फूलो झानो,सिनगी दई, ऊदादेवी पासी, महावीरी देवी से लेकर फूलन देवी तक दलित आदिवासी स्त्रियां असख्य की संख्या में हमारे सामने शूरवीरता की मशाल लेकर खडी है। यह स्त्रियां जितनी जाबांज, जितनी मेहनती होती है उतनी ही हास परिहास में भी माहिर होती है। अगर किसी को देखना हो तो इनके हास-परिहास व इनके व्यंग्य की मारक क्षमता लड़के के विवाह में बारात जाने के बाद देखी जा सकती है जिसमें बारात में ना जाकर घर पर रुकी औरतें मिलकर विवाह की पैरोडी बनाकर नाटक की तरह खेलती है। जिनमें उनकी हंसी के पात्र पंडित-जमींदार- शोहदे से लेकर ऐसे लोग बनते है जो उनको किसी तरह तंग या बुरी निगाह से देखते है। समाज में फैली कुरीतियां भी इनके व्यंग्य की धार से लहुलुहान हो जाती है।

ऐसे ही एक लोकगीत में एक पत्नी अपने पति के साथहास्य-विनोद करती हुई और पति को जलाने, चिढ़ाने के लिए अपने देवर का सहारा लेती हुई कहती है –
मेरे राजा ने बाग लगाय दिया रै,
छोटे देवर ने नीमड़ी लगाई रै।
मन रसिया, रसिया रे, गेटूरा रै।।
राजा के बागों में ना जाऊं रै।
छोटे देवर की नीमड़ी की नीमड़ी में सोऊ जाय रै।
( पृष्ठ संख्या 145, मेरठ जनपद की परिगणित जातियों के लोकसाहित्य का अध्ययन- लेखक डॉ. देवी सिंह)

इसमें कोई संदेह नही कि अगर दलित-आदिवासी संस्कृति की खोज करनी है, दलित-आदिवासी समाज को समझना है तो हमें लोकसाहित्य को खंगालना पड़ेगा। क्योंकि लोकसाहित्य मनुष्य के आपसी संबंधो से लेकर उनके सामाजिक व्यवहार, उनके प्रति बाकी समाज का रवैया, उनकी परंम्पराएं, उनके हर्ष-विषाद के क्षण को खोजने की कुंजी है। सबसे पहले किसी समाज को जानने के लिए सबसे प्राथमिक तथ्य उनकी अपनी वाचिक और मौखिक परंपरा ही होती है। खासकर ऐसे समाज की मनोदशा को जनाने के लिए, जिस पर सदियों से जुल्म अत्याचार, भेदभाव, शोषण होता रहा हो. जो मात्र दलित समाज में जन्म लेने के कारण ही प्रत्येक मानवीय अधिकार से दूर कर दिए गए। जिनकी हालत जानवरों से भी बदतर कर दी गई हो। जिनके शरीर के साथ दिमाग को भी गुलाम बना लेने का पूरा षड़यंत्र रचा जाता रहा हो। ऐसे समाज को जानने के लिए उस समाज की लोकसाहित्य की परम्परा को पढा जाना, उसे लिखा जाना और उसे स्थापित किया जाना बेहद जरुरी है।

(अनिता भारती सुप्रसिद्ध दलित स्त्रीवादी साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता है।)
 
 

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विद्रोह की मशाल से समाज को रोशनी – कवियित्री भी थी सावित्री बाई फुले https://sabrangindia.in/vaidaraoha-kai-masaala-sae-samaaja-kao-raosanai-kavaiyaitarai-bhai-thai-saavaitarai-baai/ Sun, 03 Jan 2016 12:05:48 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/01/03/vaidaraoha-kai-masaala-sae-samaaja-kao-raosanai-kavaiyaitarai-bhai-thai-saavaitarai-baai/   यह जानकर गहरा आश्चर्य होता है कि 18 वीं शताब्दी में भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादीख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री, अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती है लेकिन किसी की निगाह उन पर जातीभी नहीं? या फिर दूसरे […]

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यह जानकर गहरा आश्चर्य होता है कि 18 वीं शताब्दी में भारत की पहली अध्यापिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादीख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री, अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती है लेकिन किसी की निगाह उन पर जातीभी नहीं? या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर, मौन धारण कर लिया जाता है। सवाल है इस मौन का, अवहेलना और उपेक्षा का क्या कारण है? क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरा स्त्री होना माना जाए?सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों, खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता। ज्योतिबा संग सावित्रीबाई फुले ने जब क्रूर ब्राह्मणी पेशवाराज का विरोध करते हुए,लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी सामाजिक, नैतिकऔर धार्मिक रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वासों के खिलाफ मजबूती से बढ-चढकर डंके की चोट पर जंगलड़ने की ठानी, तब इस जंग में दुश्मन के खिलाफ लडाई का एक मजबूत हथियार बना उनका स्वरचित साहित्य।इसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया। सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है।
 
कवयित्री सावित्रीबाई बाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकों की रचना की, जिनमें उनका पहलासंग्रह‘काव्य-फुले’ 1854 में तब छपा; जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थी। उनका दूसरा काव्य-संग्रह ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में आया, जिसको सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था।
 
अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद का कट्टरतम रूप अपने चरमोत्कर्ष पर था। उस समय सवर्ण हिन्दू समाज और उसके ठेकेदारों द्वारा शूद्र, दलितों और स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार-उत्पीड़न-शोषण की कोई सीमा नहीं थी। बाबा साहेब ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' में करते हुए कहा है-'पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी, जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से भी ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बांधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिह्न झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं।अछूत अपने गले में हांडी बाँधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा'।
 
ऐसी विपरित परिस्थितियों में सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1931 को महाराष्ट्र के सतारा जिला के एक छोटे से ग्राम नायगांव में हुआ। मात्र 9 साल की उम्र में ग्यारह साल के ज्योतिबाके संग ब्याह दी गई। केवल सत्रह वर्ष की उम्र में ही सावित्रीबाई ने बच्चियों के एक स्कूल की अध्यापिका और प्रधानाचार्या दोनों की भूमिका को सवर्ण समाज के द्वारा उत्पन्न अड़चनों से लड़ते हुए बडी ही लगन, विश्वास और सहजता से निभाया। समता, बंधुत्व, मैत्री और न्यायपूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, सामाजिक क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए सावित्राबाई फुले ने साहित्य की रचना की। आज भी यह बात बहुत कम लोग जानते है कि वे एक सजग, तर्कशील, भावप्रवण, जुझारू औरक्रांतिकारी कवियित्री थी। मात्र 23 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह काव्य-फुले आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंडों और कुरीतियों के खिलाफ जम कर लिखा। औरतों की सामाजिक स्थिति पर कविताएं लिखी और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार धर्म, जाति, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार किया। अपनी एक कविता में वे दलितों औऱ बहुजनों को समाज में बैठीअज्ञानता को पहचान कर, उसे पकड़कर कुचल- कुचल कर मारने के लिए कहती है क्योंकि यह अज्ञानता यानी अशिक्षा ही दलित बहुजन और स्त्री समाज की दुश्मन है। जिससे जानबूझकर सोची समझी साजिश के तहत वंचित समूह को दूर रखा गया है।
 
           
उसका नाम है अज्ञान
उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो
और उसे जीवन से भगा दो
 
इस अशिक्षा रूपी अज्ञानता के कारण ही पूरा बहुजन समाज सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना है। इनके पाखंड और कूटनीति के हथियार ज्योतिष, पंचाग, हस्तरेखा आदि पर व्यंग्य करती हुई सावित्री बाई फुले कहती है-
 
ज्योतिष पंचाग हस्तरेखा में पड़े मूर्ख
स्वर्ग नरक की कल्पना में रूचि
पशु जीवन में भी
ऐसे भ्रम के लिए कोईस्थान नहीं
पत्नी बेचारी काम करती रहे
मुफ्तखोर बेशर्म खाता रहे
पशुओं में भी ऐसा अजूबा नहीं
उसे कैसे इन्सान कहे?(पेज-2)
 
सावित्रीबाई फुले जानती है कि शूद्र और दलितों की गरीबी का कारण क्या है। लोग समझते है कि ब्राह्मणवाद केवल एक मानसिकता ही नही वरन् एक पूरी व्यवस्था है जिससे धर्म और ब्राह्मणवाद के पोषक तत्व देव-देवता, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना आदि गरीब दलित दमित जनता को अपने में नियंत्रण में रखकर उनकी उन्नति के सारे रास्ते बंद कर उन्हें गरीबी, तंगी, बदहाली भरे जीवन में धकेलते आए हैं।
 
शूद्र और अति शूद्र
अज्ञान की वजह से पिछड़े
देव धर्म, रीति रिवाज़, अर्चना के कारण
अभावों से गिरकर में कंगाल हुए-
                                     (पेज- 6)
 
वे शूद्रों के दुख को, जाति के आधार पर प्रताड़ना के दुख को दो हजार साल से भी पुराना बताती है। सावित्रीबाई फुले इसका कारण मानती है कि इस धरती पर ब्राह्मणों ने अपने आप को स्वयं घोषित देवता बना लिया है और उसके माध्यम से यह स्वयं घोषित ब्राह्मण देवता अपनी मक्कारी और फरेब का जाल बिछाकर, उन्हें डरा-धमका कर रात-दिन अपनी सेवा करवाते है।
 
दो हजार साल पुराना
शूद्रों से जुड़ा है एक दुख
ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर
झूठे मक्कार स्वयं घोषित
भू देवताओं ने पछाड़ा है।-   पेज 14
 
सावित्रीबाई फुले के अनुसार, ब्राह्मणों का ग्रंथ 'मनुस्मृति', दलित, शूद्र और स्त्री की दुर्दशा का जिम्मेदार है इसलिए वे मनुस्मृति के रचयिता मनु को इस बात के लिए आड़े हाथ लेती है जिसमें यह कहा गया है कि जो हल चलाता है, जो खेती करता है वह मूर्ख है। दरअसल सावित्रीबाई फुले इस बात के पीछे छिपे षडयंत्र को जानती हैं। वे जानती है कि यदि शुद्र और दलित खेती करेंगे तो सम्पन्न होंगे। यदि वे सम्पन्न होंगे तो खुशहाली भरा जीवन जिएंगे, जिससे वे ब्राह्मणों की धर्माज्ञा मानना बंद कर देंगे। इसलिए मनुस्मृति रचयिता को खरी-खरी सुनाते हुए वे कहती हैं – 
 
हल जो चलावे, खेती जी करे
वे मूर्ख होते है, कहे मनु ।
मत करो खेती कहे मनुस्मृति
धर्माज्ञा की करे घोषणा, ब्राह्मणों की।
 
शूद्र और दलित यहाँ के मूलनिवासी यानी 'नेटिव' है। आक्रामक आर्य बाहर से आए थे और उन्होने अपनी चलाकी और धूर्तता से, अन्य सत्ताधारी शासकों से मिलकर यहां के भोले -भाले मूलनिवासियों को पद-दलित कर दिया। लेकिन यहाँ के नेटिव मूलनिवासी अपने शौर्य दयालुता और प्रेम आदि जीवन मूल्यों में विश्वास रखते आए है। इन शूरवीर जननायकों में छत्रपति शिवाजी, महारानी ताराबाई, अंबाबाई आदि हैं, जिन्होने समतामूलक समाज बनाने के लिए अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लडाई लडी। सावित्रीबाई फुले इन शूरवीरों के समक्ष अपना सिर झुकाती हैं। महान शूरवीर योद्धा बलिराजा के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए और अपने तथा अपने वंचित समाज को उनका वंशज मानतीहुई, कहती हैं –
 
शूद्र शब्द का
सही अर्थ है-नेटिव
आक्रामक शासकों ने
शुद्र का ढप्पा लगाया।
 
पराजित शूद्र हुए गुलाम
इराणी ब्राह्मणों के
और ब्राह्मण अंग्रेजों के
बने उग्र शूद्र ।
 
असल में शूद्र ही
स्वामी इंडिया के
नाम उनका था इंडियन
 
थे शूर पराक्रमी हमारे पुरखे
उन्ही प्रतापी योद्धाओं के
हम सब वंशज हैं।
 
शूद्र राजा बलिराजा के राज में समृद्धि है, जनता के पास काम है। वह मेहनती है। खुश है। सुखी है और खुशहाल है। एक वंचित वर्ग के शासक बलिराजा को सिर पर ताज की उपाधि देते हुए सावित्री बाई फुले कहती है-
 
बलिराज में जनता सुखी-संतोषी
 
दान में पाएं याचक स्वर्ण घन कंचन
सिर पर ताज रत्नों का बलिराज
और जनता के विशाल मन
 
छत्रपति शिवाजी बडे शूरवीर योद्धा और जननायक हैं। वंचित तबके की शूद्र-अतिशूद्र जनता उन्हें अपना हमदर्द मानकर सुबह-सवेरे रोज याद करती है और उनका शौर्य गान गाती है-
 
छत्रपति शिवाजी को
सुबह- सवेरे याद करना चाहिए
शूद्र-अतिशूद्र के हमदर्द
उनका गुणगान करे पूरी भावना से।
 
 
आगे वे इसी कविता में कहती है कि राजा नल द्रौपदी युधिष्ठिर आदि का गान तो केवल शास्त्र पुराणों तक ही सीमित है जबकि शिवाजी की शौर्य गाथाएं इतिहास में दर्ज हो गई है और हमेशा रहेगी।
 
नल राजा युधिष्ठिर, द्रोपदी
आदि
नामी गिरामी शास्त्र-पुराणों के
पन्नों तक ही सीमित
किन्तु छत्रपति शिवाजी की शौर्य गाथा
है इतिहास में दर्ज।
 
शूद्र अतिशूद्र और आदिवासी समाज में स्त्रियाँ बहुत बहादुर और जुझारू होती है। वह किसी भी कठिन से कठिन परिस्थिति में भी हार नही मानती हैं। मुसीबत आने पर भी किसी भी मोर्चे अपने समाज के साथ खडी होकर अपने बच्चों को साथ ले, बराबरी से डटकर मुकाबला करती है।महारानी छत्रपति ताराबाई ऐसी ही एक बहादुर योद्धा थी। उनको लड़ाकू वीरांगना की पदवी देते हुए सावित्रीबाई फुले उन्हें शत्रु मर्दिनी, शेर की तरह दहाडने वाली, बिजली से भी अधिक फुर्तीली बताती है और उनको अपना प्रेरणास्त्रोत मानती है।
 
महारानी ताराबाई लड़ाकू वीरागंना
रणभूमि में रण चंडिका तूफानी
युद्ध भूमि में युद्ध की प्रेरणास्त्रोत
आदर से सिर झुक जाता
उसे प्रणाम करना मुझे सुहाता
 
सावित्रीबाई फुले अपनी तमाम उम्र दलित वंचित शूद्र व स्त्री तबके के जिस अधिकार के लिए लड़ती रही वह अधिकार था शिक्षा का। इस पूरे वर्ग को जानबूझकर शिक्षा रहित करके उसी ताकत योग्यता और उसके श्रम का शोषण किया गया। उसके वो तमाम रास्ते जो उसे आगे ले जा सकते थे, जो उसे अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करने की ताकत देते थे, जो उसे शोषण और अत्याचार से लड़ना सिखाते थे, सब के सब शिक्षा के अधिकार के बिना अधूरे रह गए। सावित्रीबाई फुले ने सवर्णों की इस कुचाल को समझा कि यह सवर्ण समाज कभी दलितों वंचितों और शूद्रों को पढने लिखने नही देगा इसलिए सावित्रीबाई ने सबसे ज्यादा अपनी कविताओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने की अलख जगाई। उन्हें अपने सामाजिक कार्यों द्वारा अनुभव हो चुका था कि शिक्षा के बिना, खासकर अंग्रेजी शिक्षा के बिना शूद्र अतिशूद्र तथाकथित मुख्यधारा के विकास में शामिल नहीं हो सकते। अत: वह शूद्र अति शूद्रों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, और अपनी कविता अंग्रेजी मैय्या मे कहती है-
 
"अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी वाणई
शूद्रों को उत्कर्ष करने वाली
पूरे स्नेह से।
 
अंग्रेजी मैया, अब नहीं है मुगलाई
और नहीं बची है अब
पेशवाई, मूर्खशाही।
 
अंग्रेजी मैया, देती सच्चा ज्ञान
शूद्रों को देती है जीवन
वह तो प्रेम से।
 
अंग्रेजी मैया, शूद्रों को पिलाती है दूध
पालती पोसती है
माँ की ममता से।
 
 
अंग्रेजी मैया,तूने तोड़ डाली
जंजीर पशुता की
और दी है मानवता की भेंट
सारे शूद्र लोक को।
 
इसी तरह अपनी दूसरी कविता 'अंग्रेजी पढ़ो' में शूद्रो अतिशूद्रों को अपनी जीवन शिक्षा से सुधारने के लिए कहती है-
 
स्वाबलंबनका हो उद्यम, प्रवृत्ति
ज्ञान-धन का संचय करो
मेहनत करके।
 
बिना विद्या जीवनव्यर्थ पशु जैसा
निठल्ले ना बैठे रहो
करो विद्या ग्रहण।
 
शूद्र-अतिशूद्रों के दुख दूर करने के लिए
मिला है कीमती अवसर
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने का।
 
अंग्रेजी पढ़कर जातिभेद की
दीवारें तोड़ डालो
फेक दो भट-ब्राह्मणों के
षड्यंत्री शास्त्र-पुराणों को।
 
धार्मिक रूढियों, अँधविश्वास और आडंबर की पोल खोलकर उनका मजाक बनाते हुए, उसपर व्यंग्य करती हुई सावित्रीबाई अपनी मन्नत कविता में कहती है-
 
पत्थर को सिंदूर लगाकर
और तेल में डुबोकर
जिसे समझा जाता है देवता
वह असल में होता है पत्थर
 
आगे वह इसी कविता में पत्थर से मन्नत माँगकर पुत्र प्राप्त करने की अवैज्ञानिकता का मखौल उड़ाते हुए कहती है-
 
यदि पत्थर पूजने से होते बच्चे
तो फिर नाहक
नर-नारी शादी क्यों रचाते?
 
जिस समय सावित्रीबाई का प्रथम कविता संग्रह काव्य फुले आया उस समय सावित्रीबाई फुले शूद्र-अतिशूद्र लड़कियों को पढा रही थीं। ज्योतिबा सावित्री ने पहला स्कूल 13 मई 1848 में पहला स्कूल खोला था और काव्यफुले 1852 में आया। जब वे पहले पहल स्कूल में पढ़ाने के लिए निकली, तो वे खुद उस समय बच्ची ही थी। उनके कंधे पर ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल तक लाना तथा उन्हें स्कूल में बनाए रखने की भी बात होती। सावित्रीबाई फुले ने बहुत ही सुंदर बालगीत भी लिखे हैं, जिसमें उन्होंने खेल-खेल में गाते गाते बच्चों को साफ-सुथरा रहना, विद्यालय आकर पढाई करने के लिए प्रेरित करना व पढाई का महत्व बताना आदि है। बच्चों के विद्यालय आने पर वे जिस तरह स्वागत करती है वह उनकी शिक्षा देने की लगन को दर्शाता है –
 
सुनहरे दिन का उदय हुआ
आओ प्यारे बच्चो
आजहर्ष उल्लास से
तुम्हारा स्वागत करती हूँ आज
 
वह विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए कहती है –
 
विद्या ही सच्चा धन है
सभी धन-दौलत से बढ़कर
जिसके पास है ज्ञान का भंडार
है वह सच्चा ज्ञानी लोगों की नज़रो में
 
अपने एक अन्य बालगीत में बच्चों को समय का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहती है
 
करना है जो काम आज
उसे करो तुम तत्काल
 
जो करना है दोपहर में
उसे कर लो तुम अभी 
 
पलभर के बाद का काम
पूरा कर लो इसी वक़्त 
 
काम पूरा हुआ कि नहीं ?
न कभी भी पूछती मृत्यु कारण।
 
 
सावित्रीबाई फुले की एक बालगीत पुस्तक'समूह' एक लघुनाटिका के समान लगती है। इस कविता में वे पांच समझदार पाठशाला जाकर पढने वाली शिक्षित बच्चियों से पाठशाला न जाने वाली अशिक्षित बच्चियों की आपस में बातचीत व तर्क द्वारा उन्हें पाठशाला आकर पढ़ने के लिए कहती हैं तो निरक्षर बच्चियाँ जवाब देती है-
 
अरे, क्या धरा है पाठशाला में
क्या हमारा सिर फिर गया है ?
पाठशाला जाने से तो अच्छा है खेलना
चलो चलो, जाकर खेलें।…..
 
 
उन्हीं में से कुछ बच्चियां कहती है-
 
रूको जरा, जाकर माँ से पूछते हैं
खेल-कूद, घरकाम या पाठशाला ?
चलो, सारी सखियाँ,
उसकी सलाह लेते हैं।…..
 
 
लेकिन सभी अशिक्षित बच्चियाँ जब अपनी- अपनी माँ के पास पहुंची और उन्हें पढाई के लिए हुए सारे वाद-विवाद बताए, तब उन अशिक्षित बच्चियों की मां भी इन बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए कहती है-

स्वाभिमान से जीने के लिए
पढ़ाई करो पाठशाला की 
इन्सानों का सच्चा गहना शिक्षा है
चलो, पाठशाला जाओ।….. 
 
सावित्रीबाई फुले जिन स्वतंत्र विचारों की थी, उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है। वे लड़कियों के घर में काम करने, चौका बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढाई-लिखाई को बेहद जरूरी मानती थी। कविताओं की इन पंक्तियों से पता चल जाता है कि सावित्रीबाई फुले स्त्री अधिकार-चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी.
 
पहला कार्य पढ़ाई, फिर वक्त मिले तो खेल-कूद
पढ़ाई से फुर्सत मिले तभी करो घर की साफ-सफाई
चलो, अब पाठशाला जाओ।…..
 
इस लघु नाटिका जैसे गीत के अंत में पांचों बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझ में आ जाता है और वे पढने के लिए उत्सुक होते हुए कहती है-
 
चलो, चलें पाठशाला हमें है पढ़ना, नहीं अब वक्त गंवाना
ज्ञान-विद्या प्राप्त करें, चलो हम संकल्प करें
अज्ञानताऔरगरीबी की गुलामीगीरी चलो, तोड़ डालें
सदियों का लाचारी भरा जीवन चलो, फेंक दें।
 
हमें ना हो इच्छा कभी आराम की
ध्येय साध्य करें पढ़कर शिक्षा का
अच्छे अवसर का आज ही सदुपयोग करें
समय की सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं।
 
सावित्रीबाई फुले बेहद प्रकृति प्रेमी थी। काव्यफुले में उनकी कई सारी कविताएं प्रकृति, प्रकृति के उपहार पुष्प और प्रकृति का मनुष्य को दान आदि विषयों पर लिखी गई है। तरह-तरह के फूल, तितलियां, भँवरे, आदि का जिक्र वे जीवन दर्शन के साथ जोड़कर करती है। प्रकृति के अनोखे उपहार हमारे चारों ओर खिल रहे तरह-तरह के पुष्प जिनका कवयित्री सावित्रीबाई फुले अपनी कल्पना के सहारे उनकी सुंदरता, मादकता और मोहकता का वर्णन करती है वह सच में बहुत प्रभावित करने वाला है। पीली चम्पा (चाफा) पुष्प के बारे में लिखते हुए वह कहती है-
 
पीला चम्पा
हल्दी रंग का
बाग में खिला,
ह्रदय के भीतर तक बस गया
 
 
ऐसे ही एक अन्य कविता है'गुलाब का फूल'। इस कविता में सावित्रीबाई फुले गुलाब और कनेर के फूल की तुलना आम आदमी और राजकुमार से करके अपनी कल्पना के जरिए सबको विस्मित कर देती है –
 
गुलाब का फूल और फूल कनेर का
रंग- रूप दोनो का एक- सा
एक आम आदमी, दूसरा राजकुमार
गुलाब की रौनक, देसी फूलो से उसकी उपमा कैसी?
 
तितली और फूलों की कलियां कविता में सावित्री बाई फुले की दार्शनिक दृष्टि का विस्तार दिखता है। जिस तरह से समाज के सारे रिश्ते-नाते स्वार्थ की दहलीज पर खडे होकर अपना स्वार्थ साधते है। इस भाव को अभी तक अन्य कवियों ने अपनी कविताओं में फूल और भंवरे के माध्यम से बताया है, पर सावित्रीबाई फुले ने इस स्वार्थपरता की भावना को तितली के जरिए स्पष्ट किया है  –
 
तितलियाँ रंग-बिरंगी
बहुत ही सुंदर
उनकी आँखे चमकदार, सतरंगी
उनकी हंसी बातुनी
पंख रेशमी उनकी देह पर
छोटे-बड़े, पीले रंग के 
पंख मुड़े हुए, किन्तु भरे उड़ान आकाश में
उनका रूप-रंग मनोहर।
 
तितलियाँ देख-देखमैं खो गयी
बिसर गई अपने आप को
 
फूलों की कलियाँ
कोमल, अति सुन्दर
आतुर होकर तितलियों को
पास बुलाती
राह देखती उनकी
आ जाओ दौड़-दौड़ कर तितली
कहती मन ही मन फूलों की कलियाँ।
 
उड़कर आ पहुँची तितलियाँ
फूलों के पास
इकट्ठा कर शहद पी लिया
मुरझा गयी सारी कलियाँ।
 
फूलोंकी कलियों का रस चखकर
ढूँढा कहीं और ठिकाना।
 
रीत है यही दुनियाँ की
स्वार्थ और पलभर के हैं रिश्ते
देख दुनियां की रीत
हो जाती हूँ मैं चकित।
 
प्रकृति का सार्वभौमिक सत्य है जियो और जीने दो। इन्सान और प्रकृति कविता में वह इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कहती हैं
 
मानव जीवन को करे समृद्ध
भय चिंता सभी छोड़कर आओ,
खुद जिएं और औरों को जीने दें।
 
मानव-प्राणी, निसर्ग-सृष्टि 
एक ही सिक्के के दो पहलू
एक जानकर सारी जीवसृष्टि को
प्रकृति के अमूल्य निधि मानव की
चलो, कद्र करें।
 
सावित्रीबाई फुले अपने दाम्पत्य जीवन में, अपनी आजादी में, अपने आनंद में औरअपने सामाजिक काम में ज्योतिबा फुले के प्यार, स्नेह और सहयोग को हमेशा दिल में जगाए रखती थी। पचास साल के अपने दाम्पत्य जीवन में वे ज्योतिबा के साथ हर पल, हर समय उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रही तथा ज्योतिबा को अपने मन के भीतर संजोकर रखा। ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले जैसा प्यार, आपसी समझदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा और समाज के लिए मिसाल है। सामाजिक काम की प्रेरणा के साथ वे अपने काव्य सृजन की प्रेरणा भी ज्योतिबा फुले को ही मानती। ज्योतिबा से मिले ज्ञान के बोध को वे मन की पोटली में बांधकर रखती है-
 
"ऐसा बोध प्राप्त होता है
ज्योतिबा के सम्पर्क में
मन के भीतर सहेजकर रखती हूं,
मैं सावित्री ज्योतिबा की।
 
'संसार का रास्ता' कविता में संसार के रास्ते से अलग चलते हुए वे कहती है-
 
मेरे जीवन में ज्योतिबा स्वांनद समग्रआनंद
जिस तरह होता है शहद
फूलों, कलियों में।
 
ज्योतिबा को सलाम
ह्रदय से करतेहैं
ज्ञान का अमृत हमें वे देते हैं,
और जैसे हम
पुनर्जीवित होत जाते हैं
 
महान ज्योतिबा,
दीन दलित, शूद्र- अतिक्षुद्र
तुम्हें पुकारते हें
 
ज्योतिबा-सावित्री संवाद कविता, सावित्रीबाई फुले ने अपने और ज्योतिबा फुले के बीच के प्रातःकालीन भ्रमण के समय सुबह की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन किया है। सावित्रीबाई फुले इस कविता में सुबह की प्राकृतिक सुषमा के मनोहारी दृश्य के वर्णन के बीच सामाजिक मुददों पर बहस छिड जाती है, इसका बेहद खूबसूरत से चित्रमय संवाद दिखाया है। ज्योतिबा सावित्रीबाई से सुबह होने पर, रात के दुखी होने की बात करते है। इस बात का सावित्रीबाई फुले जवाब देते हुए कहती है कि क्या रात यदि यह इच्छा करती है कि प्रकृति सूर्य बिन रहे तो उसकी इच्छा उल्लू के सामान है, जो सूरज को गाली गलौज और श्राप देने की कामना करता है?
 
बातें ज्योतिबा की सुन कहे सावित्री
करे इच्छा रात-रजनी
रहे प्रकृति सूरज बिन
रहे अंधियारे में हमेशा-हमेशा
उल्लुओं की इच्छा होती है ऐसी
करे सूरज को, गाली-गलौच और दे शाप
 
सावित्री का तर्क सम्मत जवाब सुन ज्योतिबा कहते है तुम ठीक कहती हो सावित्री शिक्षा के कारण अंधकार छट गया है और शूद्र महार जाग गये है। उल्लुओं की हमेशा इच्छा होती है कि शूद्र और महार दीन-दलित अज्ञानियों की तरह जीवन जिए। मुर्गे को टोकरी से ढकने पर भी वह बांग देना नही छोड़ता। अतः कोई कितना कोशिश करे, एक दिन शूद्र-महार जनता अपना शिक्षा का अधिकार पाकर ही रहेगी –
 
सच कहती हो तुम, छट गया अंधकार
शूद्रादि महार जाग गए हैं।
 
दीन दलित अज्ञानी रहकर दुख सहे
पशु भांति जीते रहे
यह थी उल्लुओं की इच्छा ।
 
टोकरी से ढका रखने पर भी
मुर्गा देता है बांग
और लोगों को देता है, सुबह होने की खबर।
 
कविता के अन्त में सावित्री घोषणा करती है-
 
शूद्र लोगों के क्षितिज के पर,
ज्योतिबा है सूरज
तेज से पूर्ण, अपूर्व, उदय हुआ है।
 
 
सावित्रीबाई फुले का दूसरा काव्य संग्रह 'बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर' ज्योतिबा फुले की याद में लिखा गया है। यह काव्य संग्रह ज्योतिबा फुले की प्रामाणिक जीवनी के रूप में उनके परिनिर्वाण के एक साल बाद 1891 में उनको सादर समर्पण के रूप में प्रकाशित हुआ। बावनकशी या बावन तोले यानी बावन पद हैं, जिसमें प्रत्येक पद पाँच-छह पंक्तियों का है। इन बावन पदों में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा के जीवन संघर्ष, जीवन दर्शन, और उनके सामाजिक कार्यों द्वारा उस समय शूद्रों-महारो-स्त्रियों की स्थिति में आए क्रांतिकारी बदलावों का बहुत सच्चाई, प्रेम और सम्मान के साथ वर्णन हुआ है। एक एक पद में सावित्रीबाई फुले ने ज्योतिबा के प्रति अपने ह्रदय के सच्चे उद्गार प्रस्तुत किए है । बावनकशी सुबोधरत्नाकर सावित्रीबाई फुले के पहले काव्य संग्रह काव्यफुले के पूरे उन्तालीस साल के अंतराल के बाद आया था जिसमें कुल मिलाकर बावन पदों को छह भागों में क्रमश: उपोद्घात, सिद्धांत, पेशवाई, आंग्लाई, ज्योतिबा और अंत में उपसंहार शीर्षक से बांटा गया है। बावनकशी सुबोधरत्नाकर में कवयित्री सावित्रीबाई फुले नेअपनी कविताओं के माध्यम सेउस समय के इतिहास, स्थिति, परिस्थिति, और उसमें ज्योतिबा फुले के योगदान को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। बावनकशी सुबोधरत्नाकर के आरंभ में ही कवयित्री सावित्री बाई फुले अपना काव्य संग्रह अपने जीवन साथी ज्योतिबा फुले को समर्पित करते हुए कहती है कि अब वह इस दुनिया में ही है पर मेरे चिंतन और मन में बसे हुए है-
 
सहज काव्य रचना करती हूँ
भुजंग प्रयात छंद में
मन के भीतर रचती हूँ पंक्तियाँ
फिर उतारती हूँ कागज़ पर गीत 
पति ज्योतिबा को
वो सारे गीत अर्पण करती हूं
आदर के साथ
अब वे यहां नहीं हैं इस जगत में
किन्तु हमेशा रहते हैं मेरे चिंतन में॥2
 
सावित्री ज्योतिबा फुले के बारे में सोचती हुई कहती है कि ज्योतिबा उनके जीवन साथी तो हैं ही लेकिन वे इससे ज्यादा बढ़कर दलित और शूद्र समाज के अंधकारों को दूर करने वाले क्रांतिसूर्य भी है। वे अपनी कविता लिखने का उद्देश्य बताती है कि वे हमेशा वंचित शोषित समाज के लिए कविता लिखना चाहती है. "प्रणाम करती हूं मैं सभी शूद्रों को मैं सावित्री मनोभावसे, हमेशा सृजन करूं मैं कविताएं उनकी उन्नति के लिए।" कहना न होगा की क्रांतिकारी सामाजिक नेत्री कवयित्री सावित्री बाई फुले के लेखकीय सरोकार बहुत बड़े है। इस समाजिक सरोकार में लिखना भी शामिल है। सावित्रीबाई फुले अपने लेखन से सामजिक कार्य और उस सामाजिक कार्य से शूद्र-दलितों की पीड़ा उजागर करते हुए उनके खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है।
 
प्रसिद्ध लेखक एम. जी. माली के अनुसार 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले की सबसे पहली प्रमाणिक, उपलब्ध जीवनी है, जिसे सावित्रीबाई फुले ने बावन पदों में काव्यात्मक शैली में लिखा है'। दूसरे शब्दों में कहे तो बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले पर लिखा गया संक्षिप्त महाकाव्य है जो देखने में छोटा पर अपने उद्देश्य में अत्यन्त विशाल और अति महत्वपूर्ण है। बावनकशी में सावित्री बाई फुले उस समय के धार्मिक पाखंड से पूर्ण समाज और उसके ठेकेदारों चेले चेलियों का वर्णन करते हुए कहती है-
 
परिक्रमा करे चेलियां मेले में शंकराचार्य की
प्रचार करे रूढ़ियों का मूर्खता से
रीति-रिवाज का करो सब अनुशासन से पालन॥9
 
 
सावित्रीबाई फुले के अनुसार मनुस्मृति ही शूद्र समाज की दुर्दशा का कारण है। इस मनुस्मति के कारण ही चार वर्णों का जहरीला निर्माण हुआ है. इसी के कारण समाज में दलित शूद्रों की स्थिति और जीवन भयानक मानसिक और सामाजिक गुलामी में बीता है। यही पुस्तक सारे विनाश की जड़ है।
 
मनुस्मृति की कर रचनामनु ने
किया चातुर्वर्ण का विषैला निर्माण 
उसकी अनाचारी परम्परा हमेशा चुभती रही
स्त्री और सारे शूद्र गुलामी की गुफा में हुए बन्द
पशु की भाँति शूद्र बसते आए दड़बों में॥13
 
 
पेशवा राज में शूद्र और दलितों की स्थिति किसी काल्पनिक नरक की अवधारणा से भी ज्यादा भयंकर थी तथा उस असहनीय यातना घर की तरह थी जिसमें शूद्र और दलितों को एकदम पद दलित की स्थिति पर खड़ा कर दिया। जिसमें उनकी स्थिति पशुओं से भी बदतर हो गई थी।
 
पेशवा ने पाँव पसारे
उन्होंने सत्ता, राजपाट संभाला
और अनाचार, शोषण अत्याचार होता देखकर
शूद्र हो गए भयभीत
थूक करे जमा
गले में बंधे मटके में
और रास्तों पर चलने की पाबंदी
चले धूल भरी पगडंडी पर,
कमर पर बंधे झाड़ू से मिटाते
पैरों के निशान॥17
 
सावित्रीबाई फुले अपने काव्य के माध्यम से पेशवाराज के जुल्मों का वर्णन करते हुए बताती है कि पेशवाराज में शूद्रो अतिशूद्रों के साथ उच्च वर्ग की स्त्रियों के हालात भी इतने बदतर थे कि पेशवा के बुलाने पर उसी की ऊंच जाति कानिर्लज्ज पति अपनी पत्नी को यह कहते हुए कि "चलो हवेली, एक सुनहरा मौका आ खड़ा हुआ है' कहकर रावबाजी पेशवा के यहां छोड़ आया करता था।
 
पेशवा राज के बाद अंग्रेजों के आगमन पर जब शूद्र और दलित वर्ग शिक्षा की ओर थोडा सा अग्रसर हुआ तो भट्ट-ब्राह्मण दलित और शूद्रों का मज़ाक बनाते थे। उनकी इस अभद्रता के खिलाफ बोलते हुए सावित्री कहती है-
 
 
ज्ञानी बनता देख भटलोग बरगलाते
देखो, कैसे हाँके ईसा भेड़-बकरियों को
झूठे बढ़ा-चढ़ाकर॥27
 
बावनकशी में वे ज्योतिबा के जन्म से लेकर पालन-पोषण, शिक्षण और उनके सामाजिक कार्यों का बेहद सरल और रोचक शैली में वर्णन करती है। जब ज्योतिबा केवल नौ ही महीने के थे तब उनकी माँ चल बसी और ज्योतिबा की मौसेरी बहन सगुणाबाई क्षीरसागर ने उनका पालन पोषण किया। ज्योतिबा ने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपनी बड़ी बहन सगुणाबाई और अपनी जीवन साथी सावित्रीबाई को भी पढ़ाया। वे कहती है-
 
मुझे और आऊ को उन्होंने ही
पढ़ना-लिखना सिखाया
नारी शिक्षा की भव्य घटना की
रखी नींव ज्योतिबा ने॥38
 
*************
 
घर के कुएं से प्यासे अतिशूद्रों के लिए
पानी पिलाने और भरने की
अनोखी हुई शुरूआत
इन्सानों को दिखाया ज्योतिबा ने सदमार्ग
पढ़ाया दलितों को
अपने अधिकारों का पाठ
जोतिबा थे युगचेतना के आविष्कारक॥41
 
ज्योतिबा युग चेतना के अविष्कारक हीं नहीं थे अपितु वे युगदृष्टा भी थे। ज्योतिबा ने एक बच्चे को गोद लिया तथा उसे पढ़ाया लिखाया डॉक्टर बनाया। उसको भी अपने साथ सामाजिक कार्य में जोड़ा। सावित्री बाई फुले ज्योतिबा की तुलना संत तुकोबा से करते हुए कहती है -"जैसे संत तुकोबा वैसे संत ज्योतिबा । क्रांतिसूर्य ज्योतिबा का सबसे बड़ा योगदान उनका शूद्र दलित जनता को लगातार शिक्षा की ओर प्रेरित करते हुए बाह्मणवाद के अस्त्र-शस्त्र के पाखंड से निपटने का रास्ता दिखाना भी है।
 
करते रहे बयान जोतिबा सच्चाई
 कि अंग्रेजी मां का दूध पीकर
बलवान बनो
और पूरे संकल्प से करते रहे प्रयास
लगातार शूद्रों की शिक्षा-प्राप्ति के
शूद्रों के संसार में
 सुख-शांति समाधान के लिए॥46
 
 
* * *
पढ़ा इतिहास
सत्य असत्य ढूंढकर सच्चाई
का बोध ले
 
ज्योतिबा ने दुखी-जन, स्त्रियों, शुद्रों और दलितों की तरक्की, उनकी इंसानी गरिमा को बरकरार रखने, उनके ऊपर हो रहे जुल्मो सितम के खिलाफ खड़े होने, उनको सशक्त बनाने के लिए अनथक कार्य किए। यही कारण था और है कि दलित जनता उन्हें अपना सच्चा हितैषी मानती थी-
 
यद्यपि ज्योतिबा का जन्म हुआ वहां
जिन्हें शूद्र माली के नाम से
पुकारा जाता था
सभी दलित-शोषित उन्हें माली जाति के नहीं
अपना मुक्तिदाता मानते थे
 महान जोतिबा अमर हो गए
प्रणाम करती हूँ ऐसे जोतिबा को॥50॥
 
बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर काव्य-संग्रह के अंत में सावित्री अपने लेखन की कसौटी अपनी दलित शूद्र जनता को ही बनाते हुए कहती है कि-
 
मेरी कविता को पढ़-सुनकर
यदि थोड़ा भी ज्ञान हो जाये प्राप्त
मैं समझूंगी मेरा परिश्रम सार्थक हो गया
मुझे बताओ सत्य निडर होकर
 कि कैसी हैं मेरी कविताएं
ज्ञानपरक, यथार्थ, मनभावनया अद्भुत
तुम ही बताओ॥52॥
 
 
वर्ण-व्यवस्था के पूर्वाग्रह से ग्रसित ब्राह्मणवादी जातीय समाज के कर्ता-धर्ताओं ने सच्ची क्रांतिकारी, महान क्रांति सूर्या सावित्रीबाई फुले के इतने कार्यों के बाद भी उनके अमूल्य योगदान का आकलन कभी ठीक से किया ही नही परंतु वह दिन अब दूर नही जब उनके सम्पूर्ण योगदान के पन्नों को एक-एक करके खोल लिया जायेगा। यह हिन्दी में अनुवादित काव्य संग्रह उसी किताब का एक ढंका पन्ना है जिसे हमने खोलकर पाठकों के समाने रख देने की कोशिश की है।
 
(अनिता भारती सुप्रसिद्ध दलित स्त्रीवादी साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता है)

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दलित स्त्रीवाद पर बहस https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%a6%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a4%b8/ Fri, 11 Dec 2015 06:58:29 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%a6%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a4%b8/ Courtesy: womensforum.blog.com   पिछले कुछ वर्षों से दलित स्त्रीवाद के मुद्दे और सवाल अब धीरे-धीरे अपने सार्थक, उज्ज्वल और स्पष्ट रुप में हमारे सामने आ रहे हैं। अब दलित स्त्रीवाद को लेकर बहस चलाने वालों में,  उसके एक दर्शन और सैद्धांतिकी के तौर पर जोरदार स्वागत के स्वर भी सुनाई देने लगे हैं।  दलित स्त्रीवाद […]

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Courtesy: womensforum.blog.com
 
पिछले कुछ वर्षों से दलित स्त्रीवाद के मुद्दे और सवाल अब धीरे-धीरे अपने सार्थक, उज्ज्वल और स्पष्ट रुप में हमारे सामने आ रहे हैं। अब दलित स्त्रीवाद को लेकर बहस चलाने वालों में,  उसके एक दर्शन और सैद्धांतिकी के तौर पर जोरदार स्वागत के स्वर भी सुनाई देने लगे हैं।  दलित स्त्रीवाद के पक्ष में, उसकी सैंद्धांतिकी पर पिछले कुछ वर्षों में कुछ चिंतकों द्वारा विशेष काम हुआ है। जिनमें प्रखर स्त्रीवादी चिंतक उमा चक्रवर्ती, गोपाल गुरु, शर्मिला रेगे के नाम उल्लेखनीय हैं। इस धारा के लेखन और उसके अधिकार के पक्ष में खडे साथियों ने भी दलित स्त्रीवाद को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दलित स्त्रीवाद की अवधारणा और तत्व समाज में हमेशा से रहे हैं, जिनको दलित स्त्रियों की अपनी अस्मिता, क्षमता, द्वन्द्, उसके प्रश्नों और मुद्दों के जरिये आसानी से विश्लेषित किया जा सकता था। लेकिन दुख है कि पहले विभिन्न महिला आंदोलनों; चाहे वह जिस भी विचारधारा के तहत चले हो, दलित स्त्रीवाद को सूत्रबद्ध करने की पूरी तरह अनदेखी करते रहे। यूं तो दलित स्त्रीवाद पर पिछले एक दशक से छिटपुट पर महत्वपूर्ण बहस-लेख-आलोचना सामने आते रहे हैं, लेकिन दलित स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी और अवधारणा पर कभी खुलकर बहस नहीं हुई।

सवाल है कि दलित स्त्रीवाद क्या है और अन्य स्त्रीवादी विचारधाराओं से वह कैसे भिन्न है?  कौन से ऐसे मुद्दे और सवाल हैं, जिसके कारण दोनों स्त्रीवाद हमेशा एक दूसरे के विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखाई देते है? क्या दलित स्त्रीवाद के स्त्री-मुक्ति के सवाल सवर्ण स्त्रीवाद की स्त्री- मुक्ति से अलग हैं? जिसके कारण दोनों भिन्न स्वर में बात कर रहे है? क्या दोनों स्त्रीवाद के मूल में स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय जैसे मूल्य एक समान महत्व रखते हैं? या फिर इन मूल्यों को सैद्धांतिक रुप और व्यवहारिक रुप में अपनाने में कोई पेंच है, जिसके कारण दलित-स्त्रीवादी अलग तरीके से बात कर रही हैं? कुछ ऐसे ही ज्वलंत सवाल है, जिन पर आज बातचीत करना जरुरी हो गया है। और यह खुशी की बात है कि आज स्वयं दलित स्त्रीवाद और दलित स्त्रीवादी इस पूरी प्रकिया के अनुभव को, इस बहस को आगे बढाने और दलित स्त्रीवाद के पक्ष में अपने वैचारिक दार्शनिक पक्ष को प्रतिबद्धता के साथ लिखने-रचने और स्थापित करने के लिए जी-जान से खडे हो गए हैं।

दलित स्त्रीवाद की कुछ ऐसी बातें हैं, जो उसे अन्य स्त्रीवाद से बिल्कुल अलग करती है; मसलन दलित स्त्रीवाद में परिवार के ढांचे इतने क्रूर तरीके से ध्वस्त करने की बात नही की जाती जितनी कि सवर्ण स्त्रीवाद में। इसका कारण भारत की जाति आधारित व्यवस्था में दलित स्त्री व पुरूष दोनों प्रताड़ित हैं, यह जरूर है कि दलित स्त्री ज्यादा प्रताडित है। परिवारिक ढांचे में दलित स्त्री घरेलू हिंसा जरूर झेलती हैं परन्तु दलित होने के कारण, उसके साथ सामाजिक हिंसा उससे कहीं ज्यादा होती है। परिवार का ढांचा, उसे स्त्री होने के कारण माकूल सुरक्षा नहीं देता क्योंकि दलित परिवारों में भी पितृसत्ता की जड़ें गहरी जमी हुई हैं, लेकिन इन सब के बावजूद परिवार के बाहर वह बिल्कुल असुरक्षित है। अभी परिवार के अलावा सहजीवन आदि शैली में भी दलित स्त्री के जाति और लिंग के आधार पर ज्यादा शोषण होने के अवसर हैं। दलित चिंतक, ज्योतिबा फुले एक ऐसे आदर्श परिवार की कल्पना करते थे जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों बराबरी और सम्मान पाएं और अपनी-अपनी पहचान से जी सकें। दलित स्त्रीवाद के सामने आदर्श जीवन साथी के रूप में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले है। जो तमाम जिंदगी अपने अपने कार्य करते हुए भी समाज से जुड़े रहे। यह मुद्दा अन्य स्त्रीवाद की तरह दलित स्त्रीवाद के लिए प्राथमिक नही है।
 

लेकिन दुख है कि पहले विभिन्न महिला आंदोलनों; चाहे वह जिस भी विचारधारा के तहत चले हो, दलित स्त्रीवाद को सूत्रबद्ध करने की पूरी तरह अनदेखी करते रहे।

दलित स्त्रीवाद की दूसरी खासियत इसका मुद्दों के 'वैश्वीकरण' के साथ 'देशीकरण' तथा 'स्थानीयकरण'  है। कहने का मतलब देश-विदेश मे मानव अधिकारों व मानवीय सरोकारों के लिए चल रहे आंदोलनों से दलित स्त्रीवाद का जुडाव है। दलित स्त्रीवाद किसी भी देश, जाति, धर्म, वर्ग समुदाय, रंग, लिंग आदि के आधार पर उत्पीड़न-शोषण और अधिकार-हनन का विरोध करते हुए उनके साथ खड़ा होने में विश्वास रखता है। दलित स्त्रीवाद की पांचवी विशेषता देश-विदेश में मानव अधिकार के पक्ष में चल रहे आन्दोलन को समर्थन देना है। सभी आन्दोलनों में दलित स्त्रियों की भागीदारी सबसे अधिक होती है, बेशक वे लीडरशिप में न हो।

दलित स्त्रीवाद और ग़ैरदलित स्त्रीवाद में मुख्य अंतर और विरोध, मुद्दों की प्राथमिकता को लेकर अंतर है। दलित स्त्रीवाद पहले जाति, फिर वर्ग की बात करता है, जबकि ग़ैरदलित स्त्रीवाद पहले वर्ग फिर जाति। दोनों स्त्रीवाद में प्राथमिकता बदल जाने से स्त्री-अधिकार के मुद्दों की भी प्राथमिकता में अन्तर आ जाता हैं उदाहरण के तौर पर गैर दलित स्त्रीवाद में जाति धर्म दलित स्त्री अस्मिता के बरक्स केवल स्त्री- अस्मिता पर ही फोकस हो जाता है। धर्म और जाति आधारित कुरीतियों, पेशों पर उतनी गंभीरता और समग्रता से बहस नहीं चली। मुद्दों की प्राथमिकता में एक और बात जो विशेष रूप से नोट करने लायक है, वह यह कि दलित स्त्रीवाद में मुख्य क्रम में पहले जाति आधारित सामाजिक हिंसा-यौन हिंसा और फिर यौन स्वतन्त्रता है जबकि ग़ैरदलित स्त्रीवाद में यौन स्वतन्त्रता बनाम यौन हिंसा खासकर घरेलू हिंसा आदि क्रम है। स्त्री के स्त्री आधारित वर्ग बनने के यूटोपिया को पूरा  महत्व देने के कारण भारत में दलित महिलाओं के साथ जाति आधारित हिंसा, यौन शोषण  एक दलित महिला के एक नागरिक होने के अधिकार पर बात उतनी मुखरता से नहीं हो पाती, जितनी की जानी चाहिए।
 
दलित स्त्रीवाद की एक और खासियत है, भारत के संदर्भों में स्त्री की स्थिति पर काम कर रहे विचारकों को बिना लिंगीय भेदभाव और पूर्वाग्रह के बिना प्रेरणास्त्रोत के रूप पहचान करते हुए योगदान को स्वीकारना। दलित स्त्रीवाद ने हमेशा अपने परिवेश से अपने प्रेरणास्त्रोत चुने है। बुद्ध कालीन थेरियों से लेकर सावित्री-ज्योतिबा, पेरियार, डॉ.अम्बेडकर, ताराबाई शिंदे, फातिमा शेख, जाईबाई चौधरी, पंड़िता रामाबाई, राजकुमारी अमृतकौर, दुर्गाबाई देशमुख। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसने भी जाति और लिंग आधारित असमानता के खिलाफ ईमानदारी से जंग छेड़ी, दलित स्त्रीवाद के आधार स्तम्भ के रुप में उनको स्वीकार कर लिया है।

दलित स्त्रीवाद की अहम विशेषता यह भी है कि उसके पास दलित स्त्रियों का लिखा हुआ भरपूर रचनात्मक साहित्य है। यह साहित्य दलित स्त्रीवाद को समझने में मदद करता है। देश और राज्य की सीमाओं के पार, दलित स्त्री द्वारा साहित्य और आंदोलन के माध्यम से उठाए गए सवाल दलित स्त्रीवाद पर बात करने तथा सैद्धांतिकी गढ़ने में अत्यंत सहायक हैं। सभी दलित सन्त कवयित्रियों, दलित लेखिकाओं ने अपनी कविता-कहानी-आत्मकथा के माध्यम से अपने दलित और स्त्री होने की पीड़ा को जिस मार्मिकता और प्रखरता से उकेरा है। वह अन्य महिला साहित्य में लगभग असंभव सा ही है।

दलित स्त्रीवाद के वैचारिक और सैंद्धांतिक पक्ष में भी सामाजिक के बाद आर्थिक सवालों का क्रम है, क्योंकि दलित स्त्री के उत्पीडन का कारण उसका दलित होना के कारण ही है। सामाजिक और आर्थिक सवाल एक दूसरे से गुंथे हुए है। जबकि अन्य स्त्रीवाद में सामाजिक सवालों से पहले आर्थिक सवालो पर को महत्व है। प्रमुखता पहले समाजिक फिर आर्थिक है। दलित स्त्रीवाद की लड़ाई एक रेखीय है और वह रेखा है जहां भी शोषण दमन और अत्याचार हो, वहां बिना किसी पूर्वाग्रह के पीड़ित और वंचित के हक में खडे होना। अधिकारों के इस संघर्ष में भटकाव-विचलन और द्वंद का कोई स्थान नहीं है। दलित स्त्रीवाद अपनी लड़ाई संवैधानिक तरीके से लड़ने में विश्वास रखता है और अन्त में दलित स्त्रीवाद पुरूषों से अलग रहकर कोई नयी दुनिया बनाने के यूटोपिया में नहीं जीता। दलित स्त्रीवाद एक ऐसे समाज की ओर अग्रसर है, जहां ‘स्वाभिमान’, ‘सम्मान’ और ‘बराबरी’ के साथ स्त्री अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

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