javed-anees | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/javed-anees-9755/ News Related to Human Rights Wed, 08 Feb 2017 08:00:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png javed-anees | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/javed-anees-9755/ 32 32 पुरूषों को भी “स्त्री मुक्ति” का गीत गाना होगा https://sabrangindia.in/paurauusaon-kao-bhai-satarai-maukatai-kaa-gaita-gaanaa-haogaa/ Wed, 08 Feb 2017 08:00:28 +0000 http://localhost/sabrangv4/2017/02/08/paurauusaon-kao-bhai-satarai-maukatai-kaa-gaita-gaanaa-haogaa/ तकनीकी रूप से बेंगलुरु को भारत सबसे आधुनिक शहर मना जाता है लेकिन बीते साल की आखिरी रात में भारत की “सिलिकॉन वैली” कहे जाने वाले इस शहर ने खुद को शर्मशार किया है. रोशनी से चमचमाते और नए साल के जश्न में डूबे इस शहर की गलियाँ उस रात लड़िकयों के लिए अंधेरी गुफा […]

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तकनीकी रूप से बेंगलुरु को भारत सबसे आधुनिक शहर मना जाता है लेकिन बीते साल की आखिरी रात में भारत की “सिलिकॉन वैली” कहे जाने वाले इस शहर ने खुद को शर्मशार किया है. रोशनी से चमचमाते और नए साल के जश्न में डूबे इस शहर की गलियाँ उस रात लड़िकयों के लिए अंधेरी गुफा साबित हुई जब भीड़ द्वारा महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ की गयी. लेकिन जैसे कि यह नाकाफी रहा हो इसके बाद नेताओं की बारी थी जिन्होंने महिलाओं को लेकर हमारी सामूहिक चेतना का शर्मनाक प्रदर्शन करने में कोई कसर नहीं छोड़ा. पहले कर्नाटक के गृहमंत्री जी.परमेश्वरा का बयान आया कि  "ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं." फिर समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी कहते हैं कि,"यह तो होना ही था महिलाएं नंगेपन को फैशन कहती हैं वे छोटे छोटे कपड़े पहने हुए थीं.” पुलिस भी पीछे नहीं रही और उनकी तरफ से इस तरह की घटनाओं के लिए स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों आदि की जिम्मेदार को ठहराया गया.

Bengluru molestation

महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है कि “भगवान पांच लड़कियों के बाद लड़का देकर अपने होने का सबूत देता रहता है”. यही हमारे समाज का साच है दरसल महिलायों को लेकर जीवन के लगभग हर क्षेत्र में हमारी यही सोच और व्यवहार हावी है जो “आधी आबादी” की सबसे बड़ी दुश्मन है. तकनीकी भाषा में इसे पितृसत्तात्मक सोच कहा जाता है, हम एक पुरानी सभ्यता है समय बदला, काल बदला लेकिन हमारी यह सोच नहीं बदल सकी उलटे इसमें नये आयाम जुड़ते गये , हम ऐसा परिवार समाज और स्कूल ही नहीं बना सके जो हममें पीढ़ियों से चले आ रहे इस सोच को बदलने में मदद कर सकें. वैसे तो शिक्षा शास्त्री  ने स्कूलों को बदलाव का कारखाना कहते हैं लेकिन देखिये हमारे स्कूल क्या कर रहे वे पुराने मूल्यों को अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करने के माध्यम साबित हो रहे हैं.

अगर हम महिला-पुरुष समानता की अवधारणा को अभी तक स्वीकार नहीं कर सके हैं तो फिर तरक्की किस बात की हो रही है ? वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि देश में पुरूष-महिला लिंगानुपात के बीच की खाई लगातार बढ़ती गयी है, पिछले 50 सालों के दौरान  0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट आयी है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी तो वही 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिषत कम) हो गया है,ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सारी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यून्तम है यानी गिरावट की दर कम होने के बजाये तेज हुई है. यदि देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात को देखें तो पाते हैं कि यह अनुपात संपन्न राज्यों में पिछड़े राज्यों की मुकाबले ज्यादा खराब है, इसी तरह से  गरीब गांवों की तुलना में अमीर (प्रति व्यक्ति आय के आधार पर) शहरों में लड़कियों की संख्या काफी कम है. कूड़े के ढेर से कन्या भ्रूण मिलने की ख़बरें अब भी आती रहती हैं लेकिन उन्नत तकनीक ने इस काम को और आसान बना दिया है.
 
उपरोक्त स्थिति बताती है कि आर्थिक रूप से हम ने भले ही तरक्की कर ली हो लेकिन सामाजिक रूप से हम बहुत पिछड़े हुए समाज है गैर-बराबरी के मूल्यों और यौन कुंठाओं से लबालब. नयी परिस्थतियों में यह स्थिति विकराल रूप लेता जा रहा है. वैसे तो शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या और अवसर बढ़े हैं और आज कोई  ऐसा काम नही बचा है जिसे वो ना कर रही हों, जहाँ कहीं भी मौका मिला है महिलाओं ने अपने आपको साबित किया है. लेकिन इन सबके बावजूद  हमारे सामाजिक ढाँचे में लड़कियों और महिलाओं की हैसियत में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है. असली चुनौती इसी ढांचे को बदलने की है जो की आसान नहीं है.

दरअसल लैंगिक समानता एक जटिल मुद्दा है, पितृसत्ता पुरषों को कुछ विशेषधिकार देती है अगर महिलाऐं इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती है समस्याऐं सामने आने लगती हैं. हमारे समाज में शुरू से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि महिलायें  पुरषों से कमतर होती हैं बाद में यही सोच पितृसत्ता और मर्दानगी की विचारधारा को मजबूती देती है. मर्दानगी वो विचार है जिसे हमारे समाज में हर बेटे के अन्दर बचपन से डाला जाता है, उन्हें सिखाया जाता है कि कौन सा काम लड़कों का है और कौन सा काम लड़कियों का है. बेटों में खुद को बेटियों से ज्यादा महत्वपूर्ण होने और इसके आधार पर विशेषाधिकार की भावना का विकास किया जाता है. हमारा समाज मर्दानगी के नाम पर लड़कों को मजबूत बनने, दर्द को सहने, गुस्सा करने, हिंसक होने,दुश्मन को सबक सिखाने और खुद को लड़कियों से बेहतर मानने का प्रशिक्षण देता है, इस तरह से समाज चुपचाप और कुशलता के साथ पितृसत्ता को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तांतरित करता रहता है.
 
आधुनिक समय में इस मानसिकता को बनाने में मीडि़या की भी हिस्सेदारी है. भूमंडलीकरण के बाद से तो मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है.अब महिलायें, बच्चे, प्यार, सेक्स, व्यवहार और रिश्ते एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं. कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा, बेचा या अदला बदला जा सकता है. आज महिलाओं और पुरुषों दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है, कैसे व्यवहार करना है,क्या खाना है, किसके साथ कैसा संबंध बनाना है. यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, यहाँ भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है.
 
आजादी के बाद हमारे संविधान में सभी को समानता का हक दिया गया है और इन भेदभावों को दूर करने के लिए कई कदम भी उठाये गये हैं, नए कानून भी बनाये गए हैं जो की महत्वपूर्ण हैं परन्तु इन सब के बावजूद बदलाव की गति बहुत धीमी है. इसलिए जरुरी है कि इस स्थिति को बदलने का प्रयास केवल भुक्तभोगी लोग ना करें बल्कि इस प्रक्रिया में समाज विशेषकर पुरुष और लड़के भी शामिल हो. ये जरुरी हो जाता है कि जो भेदभाव से जुड़े सामाजिक मानदंडों को बनाये रखते हैं वे भी परिस्थियों को समझते हुए बदलाव की प्रक्रिया में शामिल हो.

अब यह विचार स्वीकार किया जाने लगा है कि जेंडर समानता केवल महिलाओं का ही मुद्दा नही है. जेंडर आधारित गैरबराबरी और हिंसा को केवल महिलाऐं खत्म नही कर सकती हैं लैंगिक न्याय व समानता को स्थापित करने में महिलाओं के साथ पुरुषों और किशोरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है.व्यापक बदलाव के लिए जरुरी है कि पुरुष अपने परिवार और आसपास की महिलाओं के प्रति अपनी अपेक्षाओं में बदलाव लायें. इससे ना केवल समाज में हिंसा और भेदभाव कम होगा बल्कि समता आधारित नए मानवीय संबंध भी बनेगें. जेंडर समानता की मुहिम में महिलाओं के साथ पुरुष को भी जोड़ना होगा और ऐसे तरीके खोजने होगें जिससे पुरुषों और लड़कों को खुद में बदलाव लाने में मदद मिल सके और वे मर्दानगी का बोझ उतार कर महिलाओं और लड़कियों के साथ समान रुप से चलने में सक्षम हो सकें. अगर हम इस सोच को आगे बढ़ा सके तो हर साल 24 जनवरी को मनाये जाने वाले  राष्ट्रीय बालिका दिवस की सार्थकता और बढ़ जायेगी.

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डिकोडिंग “रईस” https://sabrangindia.in/daikaodainga-raisa/ Thu, 02 Feb 2017 07:48:34 +0000 http://localhost/sabrangv4/2017/02/02/daikaodainga-raisa/ हिंदी सिनेमा देश के मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा है और ऐसे मौके बहुत दुर्लभ ही रहे हैं जब किसी मुसलमान को मुख्य किरदार या हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया गया हो. “गर्म हवा”,“पाकीज़ा”,“चौदहवीं का चांद”,“मेरे हुज़ूर”,“निकाह”,“शमा”, “नसीम”, “चक दे इंडिया”, “इक़बाल”, “माय नेम इज खान”, “सुलतान” जैसी चुनिन्दा […]

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हिंदी सिनेमा देश के मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा है और ऐसे मौके बहुत दुर्लभ ही रहे हैं जब किसी मुसलमान को मुख्य किरदार या हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया गया हो. “गर्म हवा”,“पाकीज़ा”,“चौदहवीं का चांद”,“मेरे हुज़ूर”,“निकाह”,“शमा”, “नसीम”, “चक दे इंडिया”, “इक़बाल”, “माय नेम इज खान”, “सुलतान” जैसी चुनिन्दा फिल्में ही रही हैं जिनकी पृष्ठिभूमि या मुख्य किरदार मुस्लिम रहे हैं. परदे पर मुस्लिम समुदाय या तो ज्यादातर गायब रहे हैं या अगर दिखे भी हैं तो नवाब, हीरो के वफादार दोस्त, रहीम चाचा और आतंकवादी जैसी भूमिकाओं में. 90 के दशक से हिंदी सिनेमा में “खान तिकड़ी” का आगमन होता है जिसके बाद से अभी तक वे अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं लेकिन इसी के साथ ही सिल्वर स्क्रीन पर मुस्लिम किरदारों के प्रस्तुतिकरण में और गिरावट होती है, इस दौरान वे स्टीरियोटाइप टोपी पहने, नकारात्मक किरदारों जैसे कट्टरपंथी, आतंवादी, देशद्रोही जैसे किरदारों में ही पेश किये जाते रहे.

Raees
 
पिछले दिनों चर्चित पत्रकार राणा अय्यूब ने एक लेख लिखा था जिसमें वे ध्यान दिलाती हैं कि किस तरह से बालीवुड के सबसे लोकप्रिय कलाकारों में एक शाहरुख खान ने अपनी पिछली कई फिल्मों में मुस्लिम किरदार निभाया है. वे गिनती है कि कैसे उन्होंने “'ऐ दिल है मुश्किल' में अपने कैमियो किरदार ताहिर खान, 'डियर ज़िन्दगी' के जहांगीर खान, 'माई नेम इज़ खान' के रिज़वान खान, 'चक दे इंडिया' के कबीर खान जैसे किरदारों को निभाकर सिनेमा के परदे पर मुस्लिम छवि का 'सामान्यीकरण' किया है जो कि आपसी अविश्वास और नफरत की लकीरों के इस दौर में एक बहादुराना व सकारात्मक सन्देश है. पिछले साल खान तिकड़ी के एक और सदस्य सलमान भी अपनी फिल्म “सुलतान” में यह काम कर चुके हैं जहाँ उनका किरदार एक मुस्लिम पहलवान का था.
 
कुछ सालों पहले तक इस बात की कल्पना मुश्किल थी कि हिंदी सिनेमा का कोई सुपर स्टार परदे पर 'बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग” जैसा डायलाग बोलेगा लेकिन आज शाहरुख खान अपनी नयी फिल्म “रईस” में ऐसा करते हुए दिखाई देते हैं. लेकिन “रईस” में सिर्फ यही नहीं है, इस फिल्म की पूरी पृष्ठभूमि और लगभग सभी मुख्य किरदार मुस्लिम हैं. इसके किरदार भले ही “लार्जर दैन लाईफ” हों लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट सामान्य है जो इस फिल्म की खूबी है और शायद सीमा भी. इस फिल्म में मुस्लिम किरदारों का आम जीवन, व्यवहार, रहन-सहन, खान पान हकीकत के करीब है. गोश्त की दूकानें, ईद, मस्जिद, रोजा, नमाज, मुहर्रम के मातम बिरयानी, निकाह आदि को किसी अजूबे नहीं बहुत सामन्य तरीके से बताया गया है.    
  
रईस सहित पिछली फिल्मों में शाहरुख के मुस्लिम किरदार अपने आप में एक सन्देश हैं, ये फिल्में चाहे जैसी भी रही हों मुस्लिम समुदाय को सामान्य तरीके से पेश करने की एक ख़ास अहमियत है. लेकिन दुर्भाग्य से हर कोई इसकी तारीफ नहीं कर पा रहा है. कई लोग ऐसे हैं जिन्हें इससे परेशानी हो रही है. सत्तारूढ़ भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव उन्हीं लोगों में से एक हैं जिन्होंने “रईस” और शाहरुख खान को लगातार निशाना बनाया है, यहाँ तक कि उन्होंने शाहरुख़ की तुलना दाऊद इब्राहिम से कर दी. कैलाश विजयवर्गीय सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ बाकायदा अभियान चलते रहे. जहाँ पर उन्होंने लिखा ''जो "रईस" देश का नहीं, वो किसी काम का नहीं और एक "काबिल" देशभक्त का साथ, तो हम सभी को देना ही चाहिए.'' एक दूसरा सन्देश भी आया जिसमें वे लिखते हैं “प्रधानमंत्री मोदी जी ने नोट बंदी कर काले धन वाले ‘रईसों’ को ज़मीन पर ला दिया. अब बारी देश की ‘काबिल’ जनता की है. जो ‘काबिल’ है, उसका हक़ कोई बेईमान ‘रईस’ न छीन पाए.” अपने एक और सन्देश में वे बाकायदा प्रधानमंत्री और राहुल गाँधी की तस्वीर लगाते हुए लिखते हैं कि “काबिल हो तो एक चाय वाला भी प्रधानमंत्री बन जाता है, वरना चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुआ रईस भी फटे कुर्ते पहनता है”. जाहिर हैं अपने इन  संदेशों में वे एक ही तीर के कई निशाने साधने की कोशिश करते हैं  जिसमें सबसे बड़ा निशाना रईस और शाहरुख़ खान थे, वे साफ़ कह रहे हैं कि “रईस” मत देखो, “काबिल” का साथ दो.  यह एक तरह से एक “मुस्लिम सुपर स्टार” के मुकाबले एक “हिन्दू सुपर स्टार” पेश करने की कोशिश थी. हृतिक और शाहरुख को लेकर दिवगंत बाल ठाकरे भी ऐसा प्रयास पहले कर चुके हैं.
 
शाहरुख खान अपनी पिछली फिल्म ‘दिलवाले’ के समय भी इसी तरह के अभियानों का सामना कर चुके हैं. जिसके पीछे अहिष्णुता के मुद्दे पर दिया गया उनका बयान था कि ‘देश में बढ़ रही असहिष्णुता से उन्हें तकलीफ महसूस होती है’. जिसके बाद उनको और उनकी फिल्म को निशाना बनाया गया और भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह दी थी. 
 
पिछले कुछ सालों में शाहरुख़ की फिल्मी हैसियत कम हुई है अन्य दोनों खानों की तरह वे बदलते वक्त और ढलती उम्र के अनुसार अभी तक खुद को ढाल नहीं पाए हैं. 2014 में रिलीज हैप्पी न्यू ईयर के बाद उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पायी हैं, रईस से उन्हें बहुत उम्मीदें हैं. शायद इसीलिए “रईस” में वे अपने लिए कोई नया रास्ता चुनने के बजाये अपने पुराने फार्मूलों को ही आजमाते हुए नजर आते हैं. शाहरुख के उदय में 'बाज़ीगर', 'डर' जैसी फिल्मों के खलनायक चरित्रों का बड़ा रोल रहा है. एंटी-हीरो किरदारों ने ही उन्हें स्टार बनाया है. रईस में इसी फार्मूले को एक बार फिर आजमाया गया है.

आधिकारिक रूप से इस फ़िल्म को किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से जुड़ा होने से नकार दिया गया है लेकिन बताया जा रहा है कि रईस का किरदार गुजरात के बदनाम शराब माफ़िया अब्दुल लतीफ़ के जीवन पर आधारित है. यह रईस की कहानी है जो "ड्राई स्टेट" गुजरात में शराब के धंधे की मदद से अपना साम्राज्य बनाता है और इस खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी बन जाता है. लेकिन इसी के साथ रॉबिनहुड अंदाज़ में लोगों का मददगार भी है. फिल्म का बैकड्रॉप  2002 से पहले के गुजरात का है. कहानी में रईस की मां उसे सबक देती है कि “धंधा छोटा नहीं होता है और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है ,जिससे किसी का नुकसान न हो”, लेकिन रईस इस सबक का आधा हिस्सा ही याद रखता हैं और  गैर-कानूनी तरीके से शराब का धंधा और अन्य गैर कानूनी काम करने लगता है.उसके इस काम में सत्ता,पक्ष-विपक्ष के नेता, बड़े पुलिस अधिकारी मददगार बनते हैं जिससे वह खूब फलता फूलता है. लेकिन इसी बीच एस पी जयदीप अम्बालाल मजूमदार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) एक रूकावट के रूप में सामने आते हैं. यही दोनों किरदार कहानी को अपने अंजाम तक पहुँचाते हैं. यह एक नायकविहीन फिल्म है जिसके अंत में दोनों प्रमुख किरदार अपना-अपना पश्‍चाताप करते हैं, इस तरह से “लार्जर दैन लाईफ”होते हुए भी वे अपना कोई आदर्श नहीं छोड़ते हैं. 
 
फिल्म में शाहरुख खान और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी के आलावा माहिरा खान, अतुल कुलकर्णी, जिशान और नरेन्द्र झा महत्वपूर्ण भूमिकाओं में हैं. शाहरुख 'रईस' के किरदार में फिट बैठते हैं और अपने स्टारडम के बोझ को उतारते हुए वे इस किरदार में ढलने की पूरी कोशिश करते हैं, नवाजुद्दीन सिद्दीकी को फिल्म में जितनी भी जगह मिली है उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया है और ऐसा करते हुए वे कई बार शाहरुख पर भारी भी पड़ते हैं. अपने सहज अभिनय के मदद से वे फिल्म की कमियों को ढकने की पूरी कोशिश करते हैं, जिशान और नरेंद्र झा का काम भी शानदार है, माहिरा खान का किरदार कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता है और उनका अभिनय भी भावहीन लगता है, कई जगह गाने भी जबरदस्ती ठूसे हुए लगते हैं, “लैला मैं लैला' इकलौता  ऐसा गाना है जो कहानी के साथ जुड़ता है और शानदार बन पड़ा है.
 
इस फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया हैं जो “परजानिया” जैसी फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड जीत चुके है, जो कि  2002 में गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार पर आधारित है.  इस बार उन्होंने मसाला जोनर की फिल्म में हाथ आजमाया है लेकिन वे संतुलन साधने से चूक गये हैं. यहाँ उन्हें मनोरंजन आधारित मसाला सिनेमा और लोकप्रिय सुपरस्टार से डील करना था ऐसा करते हुए उन्होंने फिल्म का अप्रोच रियलिस्टिक रखा है, शायद इसीलिए  फिल्म बनावटी नजर नहीं आती है और वास्तविकता के करीब से गुजरती है. लेकिन यही इस फिल्म की खासियत है और सीमा भी .
 
'रईस' की कहानी बेहद साधारण है जिसे कई बार दोहराया जा चूका है. लेकिन इसी के साथ यह 2002 से पहले के गुजरात की कहानी कहती है राहुल ढोलकिया के शब्दों में कहें तो मोदी से पहले के गुजरात की कहानी जब वहां “हम” और “वे” की खायी इतनी चौड़ी नहीं थी और सभी तरह के खान-पान, रहन-सहन के तरीकों के लिए जगह थी. रईस की अपनी राजनीति भी है यह अपनी प्रस्तुति और किरदारों के माध्यम से कई सन्देश देती है जैसे कि दंगे से प्रभावित लोगों को हिन्दू-मुसलमान नहीं बल्कि इंसान की नजर से देखा जाये और मदद के दौरान इनमें कोई फर्क नहीं किया जाये. फिल्म में रईस का एक डायलाग है “मेरे लिए धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं है, लेकिन मैं धर्म का धंधा नहीं करता”. शायद यह कैलाश विजयवर्गीयों के लिए एक पैगाम हैं
 

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मुनाफे की शिक्षा https://sabrangindia.in/maunaaphae-kai-saikasaa/ Thu, 13 Oct 2016 10:37:54 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/10/13/maunaaphae-kai-saikasaa/ पिछले दिनों गुड़गांव  में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले एक बच्चे के अभिभावक ने आरोप लगाया कि फीस न देने पर उनके बच्चे को स्कूल में तीन घंटे तक धूप में खड़ा रखा गया, इस दौरान बच्चे की हालत इतनी बिगड़ गयी कि उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. इससे बच्चा इतना डर गया कि उसने […]

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पिछले दिनों गुड़गांव  में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले एक बच्चे के अभिभावक ने आरोप लगाया कि फीस न देने पर उनके बच्चे को स्कूल में तीन घंटे तक धूप में खड़ा रखा गया, इस दौरान बच्चे की हालत इतनी बिगड़ गयी कि उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. इससे बच्चा इतना डर गया कि उसने स्कूल जाने से ही मना कर दिया .

Education business

दूसरी घटना इंदौर की है वहां के पैरेंट्स एसोसिएशन सदस्य निजी स्‍कूलों में मनमानी फीस बढ़ोत्‍तरी की शिकायत लेकर अपने सांसद सुमित्रा महाजन के पास गये तो इसपर सुमित्रा महाजन ने अभिभावकों की मदद करने के बजाय उलटे यह नसीहत देती हुई नजर आयीं कि ‘अगर वे निजी स्‍कूलों की फीस नहीं भर पा रहे हैं तो अपने बच्‍चों का एडमिशन सरकारी स्‍कूल में करवा दें’. उपरोक्त दोनों घटनाओं को देखकर  अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किस जाल में फंस चुके हैं . यह त्रासदियां हमारे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की हकीकत बयान करती है जिसे धंधे और मुनाफेखोरी की मानसिकता ने यहाँ तक पंहुचा दिया है. आज शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है जिसका मूल मकसद शिक्षा नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा  मुनाफा कमाना है. शिक्षा के बाजारीकरण का असर लगातार व्यापक हुआ है,अब शहर ही नहीं दूर दराज के गांव में भी प्राइवेट स्कूल देखने को मिल जायेगें.

पिछले वर्षों के दौरान देश भर के सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या लगातार घटती जा रही है, वहीं प्राइवेट स्कूलों की संख्या में जबरदस्त इजाफा देखा जा रहा है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2007-08 में 72.6 प्रतिशत छात्र सरकारी प्राथमिक स्कूलों पढ़ते थे, जबकि 2014 में इनकी संख्या घटकर 62 प्रतिशत हो गई. इसी तरह उच्च प्राथमिक सरकारी स्कूलों में 2007-08 में छात्रों का प्रतिशत 69.9 था जो 2014 में घटकर 66 हो गया. यह आंकड़ा निजी स्कूलों की ओर बढ़ते रुझान का संकेत कर रहा है.
 
 ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि भारतीयों में पढ़ाई के प्रति पहले से ज्यादा जागरूकता आयी है. अब वे अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं और इसके लिए अपनी जेब भी ढ़ीली करने को तैयार हैं.आज ना केवल मध्यवर्ग बल्कि सामान्य अभिभावक भी अपने बच्चों की शिक्षा के लिए प्राइवेट स्कूलों को प्राथमिकता देने लगा है और अपने सामर्थ्य अनुसार वह इसका फीस भी चुकाने को तैयार है. दरअसल पिछले कुछ दशकों से इस बात को बहुत ही सुनियोजित तरीके से स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि सरकारी स्कूल तो नाकारा है. अगर अच्छी शिक्षा लेनी है तो प्राइवेट की तरफ जाना होगा. अब जबकि सरकारी स्कूल को मजबूरी के विकल्प बना दिए गये हैं, उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा गया है कि वे उभरते भारत की शैक्षणिक जरूरतों को पूरा कर सके. इन परिस्थितियों ने भारत में स्कूल खोलने और चलाने को एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित किया है और इसका लगातार विस्तार हो रहा है. इसलिए हम देखते हैं कि एक तरफ तो गावं ,गली में एक और दो कमरों में चलने वाले स्कूल खुल रहे है तो दूसरी तरफ इंटरनेशल स्कूलों के चलन भी तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक आज हमारे देश में 600 से ज्यादा इंटरनेशनल स्कूल चल रहे हैं. हमारे देश का नवधनाढ़्य तबका इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मुंहमांगी फीस देने को तैयार है. यह चलन हमारे देश में पहले से ही शिक्षा की खाई को और चौड़ा कर  रहा है. बहुत ही बारीकी से शिक्षा जैसे बुनियादी जरूरत को एक कोमोडिटी बना दिया गया है जहाँ आप अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के शिक्षा खरीद सकते हैं, यह विकल्प हजारों से लेकर लाखों रूपये तक का है.

सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और प्राइवेट स्कूलों की लगातार बढ़ती फीस ने अभिभावकों के लिए इस समस्या को और गंभीर बना दिया है. आज किसी साधारण माता-पिता के लिए अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है. व्यापारिक संगठन एसोचैम द्वारा जारी एक अध्ययन के अनुसार कि बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. आज लखनऊ, भोपाल, पटना, रायपुर जैसे मझोले शहरों में किसी ठीक–ठाक प्राइवेट स्कूल के प्राथमिक कक्षाओं की औसत फीस 1 हजार से लेकर 6 हजार रुपए प्रति माह है. इसके अलावा अभिभावकों को प्रवेश शुल्क परीक्षा/टेस्ट शुल्क, गतिविधि शुल्क, प्रोसेसिंग फीस, रजिस्ट्रेशन फीस, एलुमिनि फंड, कम्प्यूटर फीस, बिल्डिंग फंड, कॉशन मनी, एनुअल तथा बस फीस जैसे कई तरह के शुल्क हैं जो वसूले जाते हैं. एक अनुमान के मुताबिक मासिक फीस के अलावा तमाम तरह के शुल्क के नाम पर अभिभावकों को 30 हजार से लेकर सवा लाख रुपए तक चुकाना पड़ता है. इसके अतिरिक्त बच्चों की ड्रेस, किताब-कापियाँ और स्टेशनरी पर भी अच्छा-खासा खर्च करना होता है. निजी स्कूल की मनमानी इस हद तक है कि एडमिशन के समय अभिभावकों को बुक स्टोर्स और यूनिफार्म की दुकान का विजिटिंग कार्ड देकर वहीँ से किताबें, यूनिफार्म और स्टेशनरी खरीदने को मजबूर किया जाता है. स्कूलों की इन दूकानों से कमीशन सेटिंग होती है. ये दूकान अभिभावकों से मनमाना दाम वसूलते हैं. इसी तरह से सिलेबस को लेकर भी गोरखधंधा चलता है. कई स्कूल संचालक एक ही क्लास की किताब हर साल बदलते हैं, हालाँकि सिलेबस वही रहता है लेकिन इस काम में उनकी और प्रकाशकों की मिलीभगत होती इसलिये एक प्रकाशक किताब में जो चेप्टर आगे रहता है, दूसरा उसे बीच में कर देता है. इन सबके बावजूद ज्यादातर सूबों में निजी स्कूलों में फीस के निर्धारण के लिए फीस नियामक नहीं बने हैं या सिर्फ कागजों में हैं. निजी स्कूलों पर कितनी फीस वृद्धि हो या कितनी फीस रखी जाए, इस संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं और जहाँ हैं वहां भी इसका पालन नहीं किया जा रहा है. इसलिए कई स्कूल से हर साल अपने फीस में 10 से 20 फीसदी तक की वृद्धि कर देते हैं.

लम्बे चौड़े दावो के बावजूद जयादातर निजी स्कूल शिक्षा प्रणाली के मानक नियमों को ताक पर रख कर चलाये जा रहे हैं. अधिकतर निजी स्कूल ऐसे हैं जो एक या दो कमरों में संचालित है, यहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक पर्याप्त योग्यता नहीं रखते हैं, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून प्राइवेट स्कूलों को अपने यहाँ 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला देने के लिए बाध्य करता है साथ ही यह शर्त रखता है कि अगर आपको स्कूल खोलना है तो अधोसंरचना आदि को लेकर कुछ न्यूनतम शर्तों को पूरा करना होगा जैसे प्राइमरी स्कूल खोलने के लिए 800 मीटर और मिडिल स्कूल के लिए 1000 मीटर जमीन की अनिवार्यता रखी गई है. यह नियम ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों को भारी पड़ रही है और अगर इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाए तो लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल बंद होने के कगार पर पहुँच जायेंगें. इसलिए ‘सेंटर फॉर सिविल सोसायटी’ जैसे पूंजीवाद के पैरोकार समूहों द्वारा आरटीई के नियमों में ढील देने की मांग को लेकर अभियान चलाया जा रहा है.
 
भारत में शिक्षा की व्यवस्था गंभीर रूप से बीमार है इसकी जड़ में हितों का टकराव ही है.  प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक पढ़ाई के अवसर सीमित और अत्यधिक मंहगें होने के कारण आम आदमी की पहुँच से लगभग दूर होते जा रहे हैं. शिक्षा के इस माफिया तंत्र से निपटने के लिए साहसिक फैसले लेने की जरूरत है. हालत अभी भी नियंत्रण से बाहर नहीं हुए है और इसमें सुधार संभव है. करना बस इतना है कि सरकारें सरकारी स्कूलों के प्रति अपना  रवैया सुधार ले, वहां बुनियादी सुविधायें और पर्याप्त योग्य शिक्षक उपलब्ध करा दें जिनका मूल काम पढ़ाने का ही हो तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अछूतों जैसी नहीं रह जायेगी और वे पहले से बेहतर नजर आयेंगें जहाँ बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकेगी और समुदाय का विश्वास भी बनेगा. अगर सरकारी स्कूलों में सुधार होता है तो इससे शिक्षा के निजीकरण की  प्रक्रिया में कमी आएगी . इसी तरह से बेलगाम व नियंत्रण से बाहर प्राइवेट स्कूलों पर भी कड़े नियंत्रण की जरूरत है जिस तरह से वे हैं और लगातार अपनी फीस बढ़ाते जा रहे हैं उससे इस बात का डर है कि कहीं शिक्षा आम लोगों की पहुँच से बाहर न चली जाए. हालत पर काबू पाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने की जरूरत है. लेकिन समस्या यह है कि राजनेता और प्रभावशाली वर्ग शिक्षा के इस व्यवसाय में संलिप्त है ऐसे में उनसे किसी बड़े कदम की उम्मीद कैसे की जाए ?

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कैराना:- जहर बुझी राजनीति जहर का नया दौर https://sabrangindia.in/kaairaanaa-jahara-baujhai-raajanaitai-jahara-kaa-nayaa-daaura/ Sun, 19 Jun 2016 08:39:17 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/19/kaairaanaa-jahara-baujhai-raajanaitai-jahara-kaa-nayaa-daaura/ भारतीय राजनीति विशेषकर उत्तर भारत में दंगों और वोट का बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है. कवि गोरख पांडे  की लाईनें “इस बार दंगा बहुत बड़ा था, खूब हुई थी खून की बारिश,अगले साल अच्छी होगी, फसल मतदान की” आज भी हकीकत है और कई बार तो लगता है कि हम इस दलदल में और गहरे तक धंस चुके हैं.आपसी रंजिशों की […]

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भारतीय राजनीति विशेषकर उत्तर भारत में दंगों और वोट का बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है. कवि गोरख पांडे  की लाईनें “इस बार दंगा बहुत बड़ा था, खूब हुई थी खून की बारिश,अगले साल अच्छी होगी, फसल मतदान की” आज भी हकीकत है और कई बार तो लगता है कि हम इस दलदल में और गहरे तक धंस चुके हैं.आपसी रंजिशों की खायी चौड़ी करके,डर व अफवाह फैलाकर लामबंदी करने के इस खेल में लगभग सभी पार्टियाँ माहिर हैं लेकिन भाजपा और बाकी सियासी दलों के बीच एक बुनियादी फर्क है, दूसरे दल यह काम फौरी सियासी फायदे के लिए करते हैं जिससे जनता का ध्यान उनके असली और मुश्किल सवालों से हटाते हुए उन्हें ज़ज्बाती मसलों पर तोड़ कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके लेकिन भाजपा का मामला थोड़ा अलग है वह जिस विचारधारा से संचालित है वो अलग तरह के हिन्दुस्तान रचना चाहती है, इसे वे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं. अपने इसी मिशन को ध्यान में रखते हुए भाजपा और उसका पूरा संघ परिवार व्यवस्था और पूरे समाज पर अपना वैचारिक हिजेमनी कायम करना चाहते हैं. इसके लिए वे स्थायी रूप से लोगों का दिमाग बदलने की कोशिश करते हैं. इसीलिए दूसरी पार्टियों के मुकाबले जब भाजपा सत्ता में आती है तो वह समाज के हर हिस्से में अपनी विचारधारा के वर्चस्व स्थापित करने के लिए बहुत ही सचेत और गंभीर प्रयास करती है.

पूर्व में भी लामबंदी होती रही है, भाजपा पहले भी केंद्र में सत्ता में रह चुकी है और कई राज्यों में तो उसकी लम्बे समय से सरकारें हैं, लेकिन पिछले दो साल से व्यवस्था को अपने हिसाब से ढालने और समाज में ध्रुवीकरण करने का जो संस्थागत प्रयास किया गया है वैसा पहले कभी नहीं हुआ है.

2014 में सिर्फ सामान्य सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ था यह एक विचारधारात्मक बदलाव था जिसके बाद तय हो गया कि भारत 15 अगस्त 1947 को नियति से किये गए अपने वायदे से मुकर कर हिन्दू बहुसंख्यवादी राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा. आज यह सब कुछ खुले तौर पर हो रहा है और इसमें सत्ताधारी पार्टी के सांसदों से लेकर केंद्रीय मंत्री तक मुखरता से शामिल होते देखे जा सकते हैं.

पिछले दो सालों में इस देश ने बीफ, लव जिहाद, राष्ट्रवाद, योग जैसे मुद्दों को एक सियासी हथियार के तौर पर उपयोग होते हुए देखा और झेला है. यह एक ऐसा चलन है जिससे देश की तासीर बदल रही है.
 
दिल्ली और बिहार के सदमे के बाद भाजपा को असम में ऐतिहासिक सफलता मिली है. अब उसकी निगाहें उत्तर प्रदेश पर हैं जहाँ अगले साल विधान सभा चुनाव होने वाले हैं.

अमित शाह कह चुके है कि यूपी को किसी भी कीमत पर जीतना है. यूपी में जीत से 2019 का रास्ता तो निकलेगा ही साथ ही राज्यसभा में भी पार्टी का वर्चस्व हो जाएगा. इसलिए भाजपा और मोदी सरकार यूपी के चुनाव को लाइफलाइन मान कर चल रहे हैं .

यह हैरान कर देने वाला मामला है”. इस खबर को मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा भी खूब प्रचारित किया गया और नेताओं के भड़काऊ बयान प्रसारित किये गये.

इसलिए उत्तर प्रदेश में हर वह दावं आजमाया जाएगा जो वोट दिला सके भले ही इसकी कीमत पीढ़ियों को चुकानी पड़े.

भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश में एक ओबीसी को पार्टी में राज्य का कमान सौप कर जाति की गोटियाँ फिट की जा चुकी हैं, मोदी विकास के कसीदे गढ़ने के अपने चिर-परिचित काम में लग गये हैं, “योगी” और “साध्वी” जैसे लोग जहर उगलने के अपने काम पर लगा दिए गये हैं और अब मीडिया के एक बड़े हिस्से की मदद से “कैराना” में “कश्मीर” की खोज चल रही है. यह तो खेल का शुरूआती दौर है आने वाले दिनों में आग में घी की मात्रा  बढ़ती जायेगी.

इस बार भी विवाद के केंद्र में पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही है जहाँ मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के आरोपी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता हुकुम सिंह ने खुलासा किया है कि शामली जिले के कैराना कस्बे में मुस्लिम समुदाय की धमकियों और दहशत की वजह से हिन्दू परिवार पलायन कर रहे हैं. उन्होंने बाकायदा लिस्ट जारी करके बताया कि 346 हिंदु परिवार पलायन कर चुके हैं.

उस दौरान इलाहबाद में चल रही राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा इस मुद्दे को तुरंत आगे बढ़ाते हुए बयान दिया कि ‘कैराना को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए,यह हैरान कर देने वाला मामला है”.

इस खबर को मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा भी खूब प्रचारित किया गया और नेताओं के भड़काऊ बयान प्रसारित किये गये. हालांकि बाद में इस लिस्ट को लेकर कई सवाल खड़े हुए और इसमें कई खामियां पायी गयीं जैसे इसमें लिस्ट में शामिल कई नाम ऐसे पाये गये जो अवसरों की तलाश और अपराधियों के डर से बाहर चले गए और कई लोग मर चुके हैं.

मीडिया के एक हिस्से और प्रशासन द्वारा विपरीत खुलासे के बाद हुकुम सिंह थोड़े बैकफुट पर नजर आये और लिस्ट में कार्यकर्ताओं की चूक बताने लगे. हालांकि इसके बाद उनकी तरफ से कांधला से पलायन करने वालों की दूसरी सूची जारी की गयी है जिसमें सभी नाम हिन्दू हैं.

अब वे अन्य शहरों और कस्बों की इसी तरह सूची जारी करने की बात कह रहे हैं. कैराना के इस पूरे घटनाक्रम में अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाले मीडिया की भूमिया भी बहुत निंदनीय है.

जिस मीडिया से इस तरह के समाज को बाटने वाले साजिशों का पर्दाफ़ाश करने की उम्मीद की जाती है उसका एक हिस्सा अफवाह और नफरत फैलाने वालों का भोपूं बना नजर आया.
 
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी कुछ इसी तरह का खेल खेला गया था, तब मुजफ्फरनगर केंद्र में था जहाँ नफरती अफवाहें गढ़ी गयीं थी और परिवारों या व्यक्तियों की लड़ाईयों को समुदायों की लड़ाई में तब्दील कर दिया गया था. जिसके बाद भाजपा को उत्तरप्रदेश से ही सबसे ज्यादा सीटें आयीं थी. इसलिए कोई वजह नज़र नहीं आती कि इस खेल को दोहराया नहीं जाए. भाजपा एक बार फिर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश में है ताकि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में फायदा उठाया जा सके.

लेकिन इस खेल में भाजपा अकेली नहीं है,गणित बहुत सीधा सा है अगर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण होगा तो मुस्लिम वोटर भी पीछे नहीं रहेंगें. सत्ताधारी सपा इस खेल की दूसरी खिलाड़ी है.

पिछले दो सालों में इस देश ने बीफ, लव जिहाद, राष्ट्रवाद, योग जैसे मुद्दों को एक सियासी हथियार के तौर पर उपयोग होते हुए देखा और झेला है. यह एक ऐसा चलन है जिससे देश की तासीर बदल रही है.

पिछली बार मुज़फ्फरनगर भी में जो हुआ उसमें सपा सरकार का रिस्पोंस बहुत ढीला था, जिसकी वजह से मामला इतना आगे बढ़ सका था. पिछले कुछ सालों से पश्चिमी उ.प्र में जो खेल रचा जा रहा है अखिलेश सरकार उसपर पाबंदी लगाने में पूरी तरह नाकाम रही है.

इस बार विधानसभा चुनाव में यह सम्भावना जताई जा रही है कि सपा के मुस्लिम वोट बसपा को जा सकते हैं. ऐसे में अगर भाजपा हिन्दू वोटरों की लामबंदी करती है तो मुस्लिम वोट सपा की तरफ आ सकते हैं. दरअसल कैराना में पूरा मसला राज्य सरकार और प्रशासन की बेपरवाही, निकम्मेपन और गुंडों के राजनीतिक संरक्षण से जुड़ा हुआ है.

ऐसे में अगर भाजपा इसे साम्प्रदायिक घटना के तौर पर पेश कर रही है तो इससे सपा को फायदा ही है. वैसे भी भाजपा पहले ही कह चूकी है कि विधानसभा चुनाव में उसका मुख्य मुकाबला समाजवादी पार्टी से ही है.

दरअसल समस्या आपसी भरोसा टूट जाने का है जिसे यह जहरीली राजनीति और चौड़ी कर रही है. यह केवल कैराना या मुजफ्फरनगर की बात नहीं है और ना ही एक समुदाय का मसला है आज देश के एक बड़े हिस्से में हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे के 'इलाकों' को छोड़कर अपने सहधर्मियों के इलाकों में बस रहे हैं, और नयी बस्तियां धार्मिक आधार पर अलग-अलग बस रही हैं.
 
अगर सोशल मीडिया को समाज का आईना माना जाए तो कैराना में फैलाया गया जहर अपना काम कर चूका है लेकिन धरातल पर हिन्दुओं और मुसलामानों को डरा डराकर वोट बटोरने की रणनीति कितनी कामयाब होगी यह आने वाला समय ही बताएगा. लेकिन हमारे समाज, व्यवस्था और राजनीती से जो लोग इस खेल में शामिल नहीं हैं उन्हें कुछ बुनियादी सवालों को लेकर गंभीरतापूर्वक सोचना होगा.

चुनाव तो इसलिए कराये जाते हैं ताकि एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत जनता अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों को चुन सके लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ भिड़ा देने का इवेंट बना दिया गया, कहाँ सियासी जमातों से यह उम्मीद की जाती है कि अगर समाज में वैमनस्य और आपसी मनमुटाव हो तो उसे दूर करने की दिशा में आगे आयेंगीं लेकिन वे इन्हें दूर करना तो दूर इसे हवा देने के काम में लगे रहते हैं और कई बार झूठे मुद्दे गढ़े जाते हैं ताकि समाज को बांटा जा सके. भाजपा आज सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है और पूरे बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में है भविष्य में भी उसकी संभावनायें अच्छी जान पड़ती हैं.

उसे पता होना चाहिए कि समुदायों के बीच अदावत पैदा करके सत्ता भले ही हासिल कर ली जाए लेकिन स्थायी शासन के लिए समाज में शांति और आपसी सौहार्द का बना रहना बहुत जरूरी है. समाज को भी मिल बैठ कर सोचना चाहिये, क्योंकि आखिर में वही इस पर लगाम लगा सकता है. फिलहाल 2017 के चुनाव का दौर उत्तर प्रदेश पर भारी साबित होने जा रहा है वहां 2013 में आपसी रिश्तों के जो धागे टूटे थे वे अभी तक नहीं जुड़े हैं अब इस धागे सिरे से ही गायब करने की साजिश रची जा रही है.
 
 
 

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मध्यप्रदेश में जाति उत्पीड़न की जड़ें https://sabrangindia.in/madhayaparadaesa-maen-jaatai-utapaidana-kai-jadaen/ Fri, 10 Jun 2016 10:50:19 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/10/madhayaparadaesa-maen-jaatai-utapaidana-kai-jadaen/ Upper caste people broke the arm of a 13-year-old Dalit boy in Sehore because he drank water from the well of an upper caste farmer. Image: Hindustan Times मध्यप्रदेश में सामंतवाद और जाति उत्पीड़न की जड़ें बहुत गहरी रही हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकड़ों पर नजर डालें तो 2013 और 2014 के दौरान […]

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Upper caste people broke the arm of a 13-year-old Dalit boy in Sehore because he drank water from the well of an upper caste farmer. Image: Hindustan Times


मध्यप्रदेश में सामंतवाद और जाति उत्पीड़न की जड़ें बहुत गहरी रही हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकड़ों पर नजर डालें तो 2013 और 2014 के दौरान मध्यप्रदेश दलित उत्पीड़न के दर्ज किये गए मामलों में चौथे स्थान पर था. लेकिन ये तो महज दर्ज मामले हैं. गैरसरकारी संगठन “सामाजिक न्याय एवं समानता केन्द्र” द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि प्रदेश में दलित उत्पीड़न के कुल मामलों में से 65 प्रतिशत मामलों के एफ.आई.आर ही नहीं दर्ज हो पाते हैं.

चाय की दुकानदार द्वारा चाय देने से पहले जाति पूछना और खुद को दलित बताने पर चाय देने से मना कर देना या अलग गिलास में चाय देना, नाई द्वारा बाल काटने से मना कर देना, अनुसूचित जाति , जनजाति से सम्बन्ध रखने वाले पंच/सरपंच को मारना पीटना,शादी में घोड़े पर बैठने पर रास्ता रोकना और मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को जबरदस्ती उठाने को मजबूर करना, मना करने पर सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार कर देना, सावर्जनिक नल से पानी भरने पर रोक लगा देना और स्कूलों में बच्चों के साथ भेदभाव जैसी घटनाऐं अभी भी यहां के अनुसूचित जाति के लोगों के आम बनी हुई हैं। 

साल 2014 में गैर-सरकारी संगठन “दलित अधिकार अभियान” द्वारा जारी रिपोर्ट “जीने के अधिकार पर काबिज छुआछूत” से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश में भेदभाव की जडें कितनी गहरी हैं.
मध्यप्रदेश के 10 जिलों के 30 गांवों में किये गये सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि इन सभी गावों में लगभग सत्तर प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है और भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं. इसी तरह से अध्यन किये गये स्कूलों में 92 फीसदी दलित बच्चे खुद पानी लेकर नहीं पी सकते, क्योंकि उन्हें स्कूल के हैंडपंप ओर टंकी छूने की मनाही है जबकि 93 फीसदी अनुसूचित जाति के बच्चों को आगे की लाइन में बैठने नहीं दिया जाता है,42 फीसदी बच्चों को  शिक्षक जातिसूचक नामों से पुकारते हैं,44 फीसदी बच्चों के साथ गैर दलित बच्चे भेदभाव करते हैं,82 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन के दौरान अलग लाइन में बिठाया जाता है.

हालिया चर्चित घटनाओं पर नजर डालें तो बीते 3 अप्रैल को मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में स्थित दुदलाई गांव में 13 साल के एक दलित बच्चे को इसलिए बुरी तरह से पीटा गया क्योंकि उसने तथाकथित ऊँची जाति के एक किसान के ट्यूबवेल से पानी पी लिया था, वहां फैक्ट फाइंडिंग के लिए गयी एक जांच दल के अनुसार बच्चे को इतना मारा गया कि उसके एक हाथ की हड्डी टूट गई.यही नहीं परिवार वाले जब इसकी रिपोर्ट लिखवाने गए तो थाने में उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी गयी. कुछ दिनों बाद जब इस घटना की खबर अखबारों में छपी तब जाकर रिपोर्ट दर्ज हो हुई लेकिन इसके बाद दबंगों द्वारा गावं में रहने वाले अनुसूचित जाति के करीब 100 परिवारों  का बहिष्कार कर दिया गया. इस गावं के सरकारी स्कूल केवल अनुसूचित जाति के बच्चे ही पढ़ते हैं तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने सरकारी स्कूल का बहिष्कार कर अपने बच्चों के लिए प्रायवेट स्कूल खोल लिया है. इसी तरह से दमोह जिले के खमरिया कलां गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले 8 साल के बच्चे की बावड़ी में गिरने से मौत हो गयी, दरअसल जब बच्चे को  स्कूल के हैंडपंप से पानी लेने से रोका गया तो वह पास ही के एक कुएं पर पानी लेने चला गया जहां संतुलन बिगड़ने की वजह से कुएं में गिरकर उसकी मौत हो गई. पिछले साल हुए पंचायत चुनाव में शिवपुरी जिले के कुंअरपुर गांव में एक दलित महिला अपने गांव की उप सरपंच चुनी गई थीं, जिन्हें गांव के सरपंच और कुछ दबंगों ने मिलकर उनके साथ मारपीट की और उनके मुंह में गोबर भर दिया. अनुसूचित जाति के लोग जब सदियों से चली आ रही अपमानजनक काम को जारी नहीं रखने का फैसला करते हैं तो उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता है इसी तरह की एक घटना 2009 की है जब अहिरवार समुदाय के लोगों ने  सामूहिक रूप से यह निर्णय लिया कि वे मरे हुए मवेशी नहीं उठायेंगें, क्योंकि इसकी वजह से उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है. इसके जवाब में गाडरवारा तहसील के करीब आधा दर्जन गावों में दबंगों ने पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया उनके साथ मार-पीट की गयी और उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराना की दुकान से सामान खरीदने, आटा चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर जबर्दस्ती रोक लगा दी गई थी. उनके दहशत से कई परिवार गाँव छोड़ कर पलायन कर गये थे इसके बाद से उस क्षेत्र में लगातार इस तरह की घटनायें होती रही हैं. पिछले साल जून में भी इसी तरह की घटना हो चुकी है. तमाम प्रयासों के बावजूद इसे रोकने के लिये प्रसाशन की तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.

उत्पीड़न और भेदभाव की उपरोक्त घटनायें बहुत आम हैं लेकिन अब समुदाय में  चेतना बढ़ रही है और उनकी तरफ से इसकी सावर्जनिक अभिव्यक्ति भी हो रही है. लेकिन इधर दलित,अम्बेडकरवादी संघटनों द्वारा आयोजित सावर्जनिक कार्यक्रमों पर भी हमले की घटनायें सामने आ रही हैं. इसी साल फरवरी में ग्वालियर की एक घटना है जहाँ अंबेडकर विचार मंच द्वारा 'बाबा साहेब के सपनों का भारत” विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसमें जेएनयू के प्रो.विवेक कुमार भाषण देने के लिए आमंत्रित किये गये थे. इस कार्यक्रम में भाजयुमो, बजरंग दल, विहिप व एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने अंदर घुस कर हंगामा किया. इस दौरान  दौरान पथराव हुए और गोली भी चलायी गयी, इन सब में कई लोग  चोटिल हुए. आयोजकों का कहना है कि यह संगठन पहले से ही तैयारी कर रहे थे और सुबह से ही वे कार्यक्रम स्थल के आसपास जुटना शुरू हो गये थे.

इसी तरह की एक और घटना झाँसी की है जहाँ 31 जनवरी 2016 को बहुजन संघर्ष दल द्वारा रोहित वेंगुला को लेकर एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था. इस सभा में  बहुजन संघर्ष दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व विधायक फूल सिंह बरैया ने जब यह कहा कि 1857 के संघर्ष का पूरा श्रेय अकेले रानी लक्ष्मीबाई को देकर उन्हें ही महिमामंडित किया जाता है जबकि झलकारी बाई को भी इसका श्रेय मिलना चाहिए. इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इसे रानी झांसी का अपमान बताते हुए सभा पर हमला बोल दिया और सभा स्थल पर तोड़फोड़, मारपीट  की गयी और जमकर उपद्रव मचाया गया. ज्ञात हो जिन झलकारी बाई का जिक्र फूल सिंह बरैया कर रहे थे वे एक गरीब  कोली परिवार से थीं जो बाद में रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना की महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति बनीं.बताया जाता है कि वे रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं और दुश्मनों  धोखा देने के लिए वे रानी के वेष में भी युद्ध पर जाती थीं.रानी के वेश में युद्ध करते हुए ही वे अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं थीं उनकी वजह से रानी को किले से भाग निकलने का मौका मिला था. झलकारी बाई के बहादुरी की कहानी  आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनाई पड़ते हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार मध्यप्रदेश में 15.6 प्रतिशत दलित आबादी है  इसके बावजूद राजनीति में वे ताकत नहीं बन पाए हैं. उत्तर प्रदेश की तरह यहाँ बहुजन समाज पार्टी अपना प्रभाव नहीं जमा पायी. आज भी सूबे पूरी राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमटी है. इन दोनों पार्टियों ने प्रदेश के दलित और  आदिवासी समुदाय में कभी राजनीतिक नेतृत्व उभरने ही नहीं दिया और अगर कुछ उभरे भी तो उन्हें आत्मसात कर लिया. एक समय फूल सिंह बरैया जरूर अपनी पहचान बना रहे थे लेकिन उनका प्रभाव लगातार कम हुआ है. ओबीसी समुदायों की भी कमोबेश यही स्थिति है यहाँ से सुभाष यादव, शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती जैसे नेता निकले जरूर. चौहान व भारती जैसे नेता सूबे की राजनीति में शीर्ष पर भी पहुचे हैं लेकिन यूपी और बिहार की तरह उनके उभार से पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण है .इस तरह से प्रदेश में आदिवासी, दलित और ओबीसी की बड़ी आबादी होने के बावजूद यहां की  राजनीति पर पर इन समुदायों का कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिलता है. यही वजह है कि जाति उत्पीड़न की तमाम घटनाओं के बावजूद ये राजनीति के लिए कोई मुद्दा नहीं बन पाती हैं. 

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मध्यप्रदेश – भगवा मंसूबों की छलांगें https://sabrangindia.in/madhayaparadaesa-bhagavaa-mansauubaon-kai-chalaangaen/ Wed, 08 Jun 2016 10:38:46 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/08/madhayaparadaesa-bhagavaa-mansauubaon-kai-chalaangaen/ ​मध्यप्रदेश वह सूबा है जहाँ संघ परिवार अपने शुरुआती दौर में ही दबदबा बनाने में कामयाब रहा है, इस प्रयोगशाला में संघ ने सामाजिक स्तर पर अपनी गहरी पैठ बना चूका है और मौजूदा परिदृश्य में वे हर तरफ हावी है। पहले मालवा क्षेत्र उनका गढ़ माना जाता था अब इसका दायरा बढ़ चूका है […]

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​मध्यप्रदेश वह सूबा है जहाँ संघ परिवार अपने शुरुआती दौर में ही दबदबा बनाने में कामयाब रहा है, इस प्रयोगशाला में संघ ने सामाजिक स्तर पर अपनी गहरी पैठ बना चूका है और मौजूदा परिदृश्य में वे हर तरफ हावी है। पहले मालवा क्षेत्र उनका गढ़ माना जाता था अब इसका दायरा बढ़ चूका है और प्रदेश के दूसरे हिस्से भी उनका केंद्र बनकर उभर रहे हैं। इधर मध्यप्रदेश में भगवा खेमे के मंसूबे नए मुकाम तय कर रहें हैं, ताजा मामला आईएएस अधिकारी और बड़वानी के कलेक्टर अजय गंगवार का है जिन्हें फेसबुक पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की तारीफ की वजह से शिवराज सरकार के कोप का सामना करना पड़ा और उनका ट्रांसफर  कर दिया गया. यही नहीं उन्हें 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ फ़ेसबुक पोस्ट लाइक करने को सर्विस कोड कंडक्ट का उल्लंघन बताते हुए नोटिस भी जारी किया गया है. सिंहस्थ अभी खत्म हुआ है जोकि पूरी तरह से एक धार्मिक आयोजन था लेकिन जिस तरह से इसके आयोजन में पूरी मध्यप्रदेश सरकार शामिल रही है वे कई सवाल खड़े करते हैं, इस दौरान समरसता स्नान और वैचारिक महाकुंभ के सहारे संघ परिवार  के राजनीति को फायदा पहुचाने की कोशिश की गयी  और इसे पूरी तरह से एक सियासी अनुष्ठान बना दिया गया.

पिछले महीनों में प्रदेश के कई हिस्सों में सिलसिलेवार तरीके से साम्प्रदायिक तनाव के मामले सामने आये हैं और कुछ ऐसी परिघटनाये भी हुई है जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपना ध्यान खींचा है. फिर वह चाहे खिरकिया रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में बीफ़ होने के शक में एक बुजर्ग मुस्लिम दंपत्ति की पिटाई का मामला हो या धार में भोजशाला विवाद का। भले ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने आप को नरमपंथी दिखाने का मौका ना चूकते हों लेकिन यह सब कुछ उनकी सरकार के संरक्षण में संघ परिवार के संगठनों द्वारा ही अंजाम दिया जा रहा है। इन सबके बीच एक और चौकाने वाली नई परिघटना भी सामने आई है, हिंदू महासभा के नेता द्वारा पैगम्बर के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में जिस तरह से भोपाल, इंदौर सहित जिले स्तर पर बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन हुए हैं और इनमें बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं वह एक अलग और खास तरह के धुर्वीक्रण की तरफ इशारा कर रहे हैं । हालांकि अभी तक यह साफ़ नहीं हो सका है कि एक साथ इतने बड़े स्तर पर हुए इन संगठित प्रदर्शनों की पीछे कोन सी ताकतें है, लेकिन इसको नजरअंदाज नहीं किया सकता है।
 
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान दावा करते हैं कि जबसे उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला है तब से मध्यप्रदेश की धरती पर एक भी दंगा भी नहीं हुआ। लेकिन गृह मंत्रालय के के हालिया आंकड़े बताते हैं कि  देश में हुई सांप्रदायिक घटनाओं में से 86 प्रतिशत घटनायें 8 राज्यों, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार,उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और केरल में हुईं हैं।  2012 और 2013 में दंगों के मामले में मप्र का तीसरा स्थान रहा है। जबकि 2014 में पांचवे स्थान पर था।

सबसे चर्चित मामला मध्य प्रदेश के हरदा जिले का है जहाँ खिरकिया रेलवे स्टेशन ट्रेन पर एक मुस्लिम दंपति के साथ इसलिए मारपीट की गयी क्‍योंकि उनके बैग में बीफ होने का शक था। मार-पीट करने वाले लोग गौरक्षा समिति के सदस्य थे जो एकतरह से दादरी दोहराने की कोशिश कर रहे थे। घटना 13 जनवरी 2016 की है,मोहम्मद हुसैन अपनी पत्नी के साथ हैदराबाद किसी रिश्तेदार के के यहाँ से अपने घर हरदा लौट रहे थे इस दौरान खिरकिया स्टेशन पर गौरक्षा समिति के कार्यकर्ताओं ने उनके बैग में गोमांस बताकर जांच करने लगे विरोध करने पर इस दम्पति के साथ मारपीट शुरू कर दी गयी। इस दौरान दम्पति ने खिरकिया में अपने कुछ जानने वालों को फ़ोन कर दिया और वे लोग स्‍टेशन पर आ गये और उन्हें बचाया। इस तरह से कुशीनगर एक्सप्रेस के जनरल बोगी में एक बड़ी वारदात होते –होते रह गयी। खिरकिया में इससे पहले 19 सितम्बर 2013 को गौ हत्या के नाम पर दंगा हुआ हो चूका है जिसमें करीब 30 मुस्लिम परिवारों के घरों और सम्पतियों को आग के हवाले कर दिया गया था , कईलोग गंभीर रूप से घायल भी हुए थे, बाद में पता चला था कि जिस गाय के मरने के बाद यह दंगे हुए थे उसकी मौत पॉलिथीन खाने से हुई थी। इस मामले में भी  मुख्य आरोपी गौ रक्षा समिति का सुरेन्द्र राजपूत ही था। यह सब करने के बावजूद  सुरेन्द्र सिंह राजपूत कितना बैखौफ है इसका अंदाजा उस ऑडियो को सुन कर लगाया जा सकता है जिसमें वह हरदा के एसपी को फ़ोन पर धमकी देकर कह रहा है कि अगर मोहम्मद हुसैन दम्पति से मारपीट के मामले में उसके संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर से केस वापस नहीं लिया गया तो खिरकिया में 2013 को एक बार फिर दोहराया जाएगा । इतना सब होने के बावजूद राजपूत अभी भी पुलिस की पकड़ से बाहर है। 
 
दूसरी बड़ी घटना धार जिले में स्थित मनावर की है जो अपने “बाग प्रिंट” के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है  इस साल  6 से 9 जनवरी के बीच धार में साम्प्रदायिक झडपें हुई थीं, उस दौरान बाग प्रिंट में माहिर और मशहूर 40 सदस्यों वाले खत्री परिवार पर भी हमले हुए और उनके कारखाने में  आग लगा दी गई थी। खत्री परिवार द्वारा इसकी शिकायत पुलिस में भी की गयी थी लेकिन इसपर  कोई कार्रवाई नहीं हुई, इन सब से तंग आकर यह परिवार जो बाग प्रिंट के लिए 8 नेशनल और 7 यूनेस्को अवॉर्ड जीत चुका है को यह कहना पड़ा कि उनको लगातार धमकियाँ दी जा रही हैं, वे असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और डरे हुए हैं इसलिए अगर हालत नहीं सुधरे तो आने वाले कुछ महीनों वे देश छोड़कर अमेरिका में बसने को मजबूर हो जायेंगें । इस पूरे हंगामे को लेकर हाई कोर्ट में एक दायर जनहित याचिका भी दायर की गयी थी इस याचिका धार प्रशासन को अक्षम बताते हुए कहा गया था कि जिले में कानून व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ चुकी है और प्रशासन अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासियों को सुरक्षा मुहैया कराने में असफल साबित हो रहा है, यहाँ तक कि बाग प्रिंट के जरिए विश्व में भारत को प्रसिद्धि दिलाने वाले मोहम्मद यूसुफ खत्री का परिवार भी असुरक्षित है। याचिका पर सुनवाई के बाद शासन से छह हफ्ते में जवाब देने को कहा था ।
 
धार में ही कमाल मौला मस्जिद-भोजशाला विवाद ने महीनों तक पूरे मालवा इलाके में सम्प्रदायिक माहौल को नाजुक बनाये ये रखा, इस साल बसंत पंचमी शुक्रवार (12 फरवरी) के दिन पड़ने का संयोग था जिसकी वजह से हिन्दुतत्ववादी संगठनों द्वारा वहां माहौल एक बार फिर गरमाने का मौका गया, पूरे मालवा क्षेत्र में उन्माद का माहौल बनाने की पूरी कोशिश की गयी , इस तनाव को बढ़ाने में संघ परिवार से जुड़े संगठनों सहित स्थानीय भाजपा नेताओं की बड़ी भूमिका देखने को मिली । दरअसल धार स्थित भोजशाला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के संरक्षण में एक ऐसा स्मारक है जिसपर हिन्दू और मुसलमान दोनों अपना दावा जताते रहे हैं, एक इसे प्राचीन स्थान वाग्देवी (सरस्वती) का मंदिर मानता है, तो दूसरा  इसे अपनी कमाल मौला मस्जिद बताता है। इसी वजह से एएसआई की ओर यह  व्यवस्था की गयी है कि वहां हर मंगलवार को हिन्दू समुदाय के लोग पूजा करेंगें जबकि  हर जुम्मे (शुक्रवार) को मुस्लिमों समुदाय के लोग नमाज अदा कर सकेंगें. अपनी इसी स्थिति की वजह से भोजशाला – कमाल मौला मस्जिद विवाद को अयोध्या की तरह बनाने की कोशिश की गयी हैं, इस काम में कांग्रेस और भाजपा दोनो ही पार्टियाँ शामिल रही हैं, यह काँग्रेस की दिग्विजयसिंह सरकार ही थी जिसने केंद्र में तत्कालीन अटलबिहारी सरकार से विवादित इमारत को हर मंगलवार हिन्दुओं के लिए खोलने के लिए सिफारिश की थी. इस फैसले ने एक तरह से धार को बारूद के ढेर पर बैठा दिया है, 2003 को भोजशाला परिसर में सांप्रदायिक तनाव के बाद पूरे शहर में हिंसा फैली गयी थी और इस दंगे से काफी नुक्सान हुआ था इसी तरह से 2013 में भी बसंत पंचमी और शुक्रवार पड़ा था उस दौरान भी माहौल बिगड़ गया। इधर कुछ सालों से वहां बसंत पंचमी के आलावा दुसरे त्यौहारों में भी हिंदूवादी संगठनों की तरफ से उग्र प्रदर्शन किये जाते हैं जिससे वहां माहौल बिगड़ जाता है ।

इस साल धार में शुक्रवार के दिन पड़ने वाली बसंत पंचमी बिना किसी बड़ी हिंसा के बीत गयी है,प्रशासन यह कह कर अपनी पीठ थपथपा रहा है कि उसने नीति का अनुसरण करते हुए भोजशाला नमाज और पूजा करवा दी है लेकिन इससे पहले स्थानिय भाजपा नेताओं और संघ से जुड़े संगठनों द्वारा माहौल में जहर खोलने की पूरी कोशिश की गयी जिसमें वे कामयाब भी रहे । यह लोग बहुत ही उग्र तरीके से वसंत पंचमी पर पूरे दिन अखण्ड सरस्वती पूजा करने की मांग कर रहे थे इसके लिए महाराजा भोज उत्सव समिति द्वारा भाजपा सांसद सावित्री ठाकुर के नेतृत्व में एक वाहन रैली निकाली गई, इस रैली में धार शहर के आलावा पूरे जिले से आये लोगों ने हिस्सा लिया, बताया जाता है कि धार के इतिहास में यह सब से बड़ी रैली थी जिसमें करीब १५ से २० हज़ार शामिल हुए। सवाल यह है कि वे कोन लोग है जो अगर बसंत पंचमी शुक्रवार एक साथ पड़ता है तो दोनों समुदायों के बीच तनाव उत्पन्न कराने के लिए कमर कस लेते हैं ? इन सब से किसे फायदा हो रहा है और ऐसा कब तक चलता रहेगा ? दरअसल हर  कोई इस मसले को सुलगाये रखना चाहता है जिससे जरूरत पड़ने पर इसे हवा दी जा सके ।
 
ईसाई समुदाय की बात करें तो बीते 14 जनवरी की एक घटना है जिसमें धार जिले के देहर गांव में धर्मांतरण के आरोप में एक दर्जन ईसाई समुदाय के लोगों को गिरफ्तार किया गया है गिरफ्तार किये गये लोगों में नेत्रहीन दंपति भी शामिल हैं । इन आरोपियों का कहना है कि  उन्होंने किसी का धर्म परिवर्तन नहीं करवाया है औ रउनपर यह कार्रवाई हिन्दुतत्ववादी  संगठनों के इशारे की गयी है, उनका यह भी आरोप है कि पुलिस द्वारा उनके घर में घुसकर तोड़फोड़ और महिलाओं के साथ बदसलूकी की गयी है। दरअसल मध्यप्रदेश में धर्मांतरण के नाम पर ईसाई समुदायभी लगातार निशाने पर रहा है । वर्ष 2013 में राज्यसरकार द्वारा  धर्मांतरण के खिलाफ क़ानून में संशोधन कर उसे और ज्‍यादा सख़्त बना दिया गया था जिसके बाद अगर कोई नागरिक अपना मजहब बदलना चाहे तो इसके लिए उसे सबसे पहले जिला मजिस्‍ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। यदि धर्मांतरण करने वाला या कराने वाला ऐसा नहीं करता है तो वह दंड का भागीदार होगा। इसी तरह ने नए संसोधन के बाद “जबरन धर्म परिवर्तन” पर जुर्माने की रकम दस गुना तक बढ़ा दी गई हैं और कारावास की अवधि भी एक से बढ़ाकर चार साल तक कर दी गई है। हिन्दुतत्ववादी संगठनों द्वारा ईसाई समुदाय पर धर्मांतरण का आरोप लगाकर प्रताड़ित किया जाता रहा है, अब कानून में परिवर्तन के बाद से उनके लिए यह और आसन हो गया है । इन सब के खिलाफ ईसाई समुदाय के तरफ से आवाज भी उठायी जाती रही है, पिछले दिनों ही आर्कबिशप लियो कॉरनेलियो ने कहा है कि मध्‍य प्रदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून का गलत इस्‍तेमाल हो रहा है और ईसाईयों के खिलाफ जबरन धर्मांतरण के फर्जी केस थोपे जा रहे हैं।
 
जाहिर मप्र की भाजपा सरकार संघ परिवार के संकीर्ण एजेंडे पर बहुत मुस्तैदी से चल रही है और भगवा मंसूबे बहुत तेजी अपना मुकाम तय कर रहे हैं.

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मप्र का काला कानून: जबरा मारे और रोने भी न दे https://sabrangindia.in/mapara-kaa-kaalaa-kaanauuna-jabaraa-maarae-aura-raonae-bhai-na-dae/ Tue, 07 Jun 2016 06:51:11 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/07/mapara-kaa-kaalaa-kaanauuna-jabaraa-maarae-aura-raonae-bhai-na-dae/ हाल के दिनों में मध्यप्रदेश  में कुछ ऐसे कानून और पाबंदियां लगायी गयी हैं जो नागरिकों के संवेधानिक अधिकारों का हनन करते हैं.पिछले साल जब व्यापम की वजह से मध्य प्रदेश की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही थी तो उस दौरान शिवराज सरकार द्वारा एक ऐसा विधेयक पास कराया गया जो  कोर्ट में याचिका […]

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हाल के दिनों में मध्यप्रदेश  में कुछ ऐसे कानून और पाबंदियां लगायी गयी हैं जो नागरिकों के संवेधानिक अधिकारों का हनन करते हैं.पिछले साल जब व्यापम की वजह से मध्य प्रदेश की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही थी तो उस दौरान शिवराज सरकार द्वारा एक ऐसा विधेयक पास कराया गया जो  कोर्ट में याचिका लगाने पर बंदिशें लगाती है, इस विधयेक का नाम है “‘तंग करने वाला मुकदमेबाजी (निवारण) विधेयक 2015”( Madhya Pradesh Vexatious Litigation (Prevention) Bill, 2015). मध्यप्रदेश सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में  बिना किसी बहस के ही पारित करवाया लिया था  और इसे कानून का रूप देने के लिए तुरत-फुरत अधिसूचना भी जारी की गई, अदालत का समय बचाने और फिजूल की याचिकाएं दायर होने के नाम पर लाया गया यह एक ऐसा कानून है जिसे विपक्षी दल और सामाजिक कार्यकर्ता संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ मानते हुए इसे  नागरिकों के जनहित याचिका लगाने के अधिकार को नियंत्रित करने वाला ऐसा कानून बताया  है जिसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और अन्य प्रभावशाली लोगों के भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कार्यों के खिलाफ नागरिको को कोर्ट जाने से रोकना है. उनका कहना है कि इस कानून के माध्यम से सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि वह ऐसे लोगों को नियंत्रित करे जो जनहित में न्यायपालिका के सामने बार-बार याचिका लगाते हैं. प्रदेश के वकीलों  और संविधान  के जानकारों ने सरकार के इस कदम को तानाशाही करार दिया है. इस कानून के अनुसार अब न्यायपालिका राज्य सरकार के महाधिवक्ता के द्वारा दी गई राय के आधार पर तय करेगी कि किसी व्यक्ति को जनहित याचिका या अन्य मामले लगाने का अधिकार है या नहीं. यदि यह पाया जाता है कि कोई व्यक्ति बार-बार इस तरह की जनहित याचिका लगाता है तो उसकी इस प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाया जा सकेगा। एक बार न्यायपालिका ने ऐसा प्रतिबंध लगा दिया तो उसे उस निर्णय के विरूद्ध अपील करने का अधिकार भी नहीं होगा. न्यायालय में मामला दायर करने के लिए पक्षकार को यह साबित करना अनिवार्य होगा कि उसने यह प्रकरण तंग या परेशान करने की भावना से नहीं लगाया है और उसके पास इस मामले से संबंधित पुख्ता दस्तावेज मौजूद हैं.

मध्यप्रदेश में लोकतान्त्रिक ढंग से होने वाले प्रदर्शनों पर भी रोक लगाने की कोशिशें हो रही हैं  राजधानी भोपाल में धरनास्थल की जगह निश्चित कर दी गयी है और अब धरना बंद पार्कों में ही किया जा सकता है, पूरे प्रदेश में जलूस निकालने, धरना देने, प्रदर्शन , आमसभाएं में भांति भांति की अड़चने पैदा करने को कोशिश की जा रही हैं,  इस तरह की एक घटना  सिंगरौली की है जहाँ बीते 18 जनवरी को माकपा के जिला सचिव द्वारा जब सूखा राहत में गड़बड़ी, बिजली बिलों की जबरिया वसूली, एक उद्योग के लिए जमीन अधिग्रहित करने के मामले में किये गए फर्जीवाड़े जैसे  विषयों को लेकर जिलाधीश कार्यालय पर प्रदर्शन करके ज्ञापन सौंपने की सूचना के साथ धीमी आवाज में लाउड स्पीकर के उपयोग की अनुमति माँगी गयी  तो इसके जवाब में कलेक्टर ने उन्हें सीआरपीसी की धारा 133 के अंतर्गत कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । इसमें नोटिस में कलेक्टर द्वारा प्रदर्शन, से कार्यालयीन कार्यों तथा जनता के जीवन में “न्यूसेंस” उत्पन्न होने की आशंका जताकर माकपा नेता को  को 14 जनवरी के दिन अदालत में हाजिर को आदेश दे दिया और उपस्थित न होने की स्थिति में एकपक्षीय कार्यवाही की चेतावनी भी दी गयी . इसी तरह की एक और घटना ग्वालियर की है जहाँ माकपा जिलासचिव ने जब धरना  के लिए अनुमति माँगा तो कलेक्टर ने उनके सामने कुछ शर्तों की सूची पेश कर दी जिसमें   प्रदर्शन में  शामिल होने वालों की संख्या, उनमे हर 10 या 20 भागीदारों के ऊपर एक वालंटियर का नाम और मोबाइल नंबर, वे जिन जिन गाँवों से या बस्तियों से आएंगे उनके थानों में पूर्व सूचना, लगाए जाने वाले नारों की सूची पहले से दिए जाने जैसे प्रावधान तक शामिल हैं ।उपरोक्त दोनों घटनाओं में यह बर्ताब एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी के साथ हुआ है ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि प्रदेश में अन्य संगठनो, नागरिकों से कैसा बर्ताब किया जाता होगा.

मध्यप्रदेश में जिस तरह से प्रतिरोध की  आवाज दबाने और विरोध एवं असहमति दर्ज कराने के रास्ते बंद किये जा रहे हैं और नागिरकों से उन्हें संविधान द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों को जिस तरह से कानून व प्रशासनिक आदेशों के जरिये छीना जा रहा है जो कि एक  स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. इससे लोकतंत्र कमजोर होगा और सरकारी निरंकुशता बढ़ेगी. इसलिये शिवराज सरकार को चाहिए कि वो प्रदेश में लोकतांत्रिक वातावरण  का बहल करे और संविधानिक भावना के अनुसार काम करे .
 

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