qamar-waheed-naqvi | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/qamar-waheed-naqvi-6593/ News Related to Human Rights Sun, 06 Mar 2016 10:38:41 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png qamar-waheed-naqvi | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/qamar-waheed-naqvi-6593/ 32 32 ‘भक्त’, ‘अभक्त’ और कन्हैया! https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%ad%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%85%e0%a4%ad%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%b9%e0%a5%88%e0%a4%af/ Sun, 06 Mar 2016 10:38:41 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%ad%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%85%e0%a4%ad%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%b9%e0%a5%88%e0%a4%af/ इक्कीस महीनों से इक्कीसवीं सदी के इस महाभारत का चक्रव्यूह रचा जा रहा था. अब जा कर युद्ध का बिगुल बजा. लेकिन चक्रव्यूह में इस बार अभिमन्यु नहीं, कन्हैया है. तब दरवाज़े सात थे, इस बार कितने हैं, कोई नहीं जानता! लेकिन युद्ध तो है, और युद्ध शुरू भी हो चुका है. यह घोषणा तो […]

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इक्कीस महीनों से इक्कीसवीं सदी के इस महाभारत का चक्रव्यूह रचा जा रहा था. अब जा कर युद्ध का बिगुल बजा. लेकिन चक्रव्यूह में इस बार अभिमन्यु नहीं, कन्हैया है. तब दरवाज़े सात थे, इस बार कितने हैं, कोई नहीं जानता! लेकिन युद्ध तो है, और युद्ध शुरू भी हो चुका है. यह घोषणा तो ख़ुद संघ की तरफ़ से कर दी गयी है. संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी का साफ़-साफ़ कहना है कि देश में आज सुर और असुर की लड़ाई है.
 

Kanhaiya Kumar- Nationalism Debate and RSS - Raag Desh 050316.jpg

'भक्त' और 'अभक्त' में देश विभक्त है! और तप्त है! इक्कीस महीनों से इक्कीसवीं सदी के इस महाभारत का चक्रव्यूह रचा जा रहा था. अब जा कर युद्ध का बिगुल बजा. लेकिन चक्रव्यूह में इस बार अभिमन्यु नहीं, कन्हैया है. तब दरवाज़े सात थे, इस बार कितने हैं, कोई नहीं जानता! लेकिन युद्ध तो है, और युद्ध शुरू भी हो चुका है. यह घोषणा तो ख़ुद संघ की तरफ़ से कर दी गयी है. संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी का साफ़-साफ़ कहना है कि देश में आज सुर और असुर की लड़ाई है.

Kanhaiya Kumar and the battle between 'Sur' and 'Asur'

तो सुर कौन? और असुर कौन? और सुर-असुर के युद्ध में समुद्र मंथन भी होता है. विष भी निकलता है, अमृत भी. मंथन होगा क्या? कैसा होगा मंथन? विष कौन पियेगा? कोई नीलकंठ बनेगा या नहीं? अमृत किसके खाते में जायेगा? और कोई राहू-केतु भी होगा क्या? प्रश्न बहुत हैं. उनके उत्तर देने के लिए हमारे पास कोई यक्ष नहीं.

 

कौन सुर? कौन असुर?

तो 'भक्त' और 'अभक्त' में तो कोई कन्फ़्यूज़न है नहीं. परिभाषा स्पष्ट है कि 'भक्त' किसे कहते हैं और 'अभक्त' क्या होता है. यह भी तय है कि जो 'भक्त' है, वह निस्सन्देह 'देशभक्त' है. और जो 'अभक्त' है, वह क्या है? वैसे फ़ेसबुक पर अपने मित्र नीलेन्दु सेन की बड़े मार्के की सलाह थी कन्हैया को, 'जो भक्त नहीं, वह देशभक्त नहीं कन्हैया बाबू!'

Kanhaiya Kumar : A Creation of 'Parivar' and Modi Govt Antics!

यानी 'देशभक्त' कहलाना हो तो 'भक्त' बन जाओ! तो समझ ही गये होंगे आप कि देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट बाँटने वाला दफ़्तर कहाँ है. और सुर-असुर का मतलब? वह आप अपने विवेक से तय कर लीजिए! या फिर संघ वालों से पूछ लीजिए कि वह 'सुर' किसे मानते हैं और 'असुर' किसे? आख़िर यह जुमला तो उन्हीं का आविष्कार है!

 

संघ क्यों है इतनी जल्दी में?

2013 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने एक भाषण में कहा था कि भारत अगले तीस साल में हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा. तब शायद बहुत लोगों ने इसे बिलकुल गम्भीरता से नहीं लिया होगा, लेकिन मैं तभी से लगातार लिखता आ रहा हूँ कि यह मोहन भागवत का 'जुमला' नहीं, बल्कि उनका ठोस राजनीतिक आकलन हैं, जिसके ठोस कारण धरातल पर दिख रहे हैं. (Click to Read) हालाँकि अब पिछले इक्कीस महीनों को देख कर मुझे तो लगता है कि तीस साल तो क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शायद हिन्दू राष्ट्र को लेकर वाक़ई बड़ी जल्दी में है. शायद इसीलिए 'सुर-असुर युद्ध' की एकतरफ़ा घोषणा संघ ने इतनी जल्दी कर दी.

एकतरफ़ा लड़ाई की उम्मीद

और शायद संघ को उम्मीद है कि यह लड़ाई एकतरफ़ा ही रहेगी और आसानी से जीत ली जायेगी. क्योंकि मामला राष्ट्रवाद से जोड़ा जा चुका है, लोगों में राष्ट्रप्रेम का ज्वार जगाया जा चुका है और इस राष्ट्रवाद को आसानी से 'हिन्दू राष्ट्रवाद' की तरफ़ मोड़ा जा सकेगा. संघ को लगता है कि अब भी मौसम उसके लिए साफ़ है क्योंकि विपक्ष इक्कीस महीनों में संसद में भले गरजा हो, कुछेक चुनावों में भले ही कुछ जगहों पर कड़कड़ा कर चमका भी हो, लेकिन वह बरस तो बिलकुल नहीं सका. जनता फ़िलहाल विपक्ष को केन्द्र में सत्ता सौंपने को तैयार नहीं दीखती. न उसके पास विश्वसनीयता है, न नारे हैं, न कार्यक्रम हैं, न नेता है और न दिशा है. इससे बेहतर स्थिति भला और क्या होगी? और मोदी हवा का जो ढलता हुआ रुख़ है, उसे देखते हुए कौन जाने ऐसा अनुकूल मौसम कब तक रहे, इसलिए जल्दी-जल्दी सब कर डालो, यही सोच कर शायद संघ इतनी जल्दी में है. वरना तीस साल में तो अभी पूरे सत्ताइस साल बाक़ी हैं.

From Intent to Content, Kanhaiya Kumar Speech had every right element

लेकिन यह लड़ाई क्या वाक़ई एकतरफ़ा होगी या वैसी दिख रही है? कम से कम रिहाई के बाद दिये गये कन्हैया के भाषण से तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता. छात्रों की ऐसी भारी भीड़, टीवी चैनलों पर ऐसी ज़बर्दस्त कवरेज और फिर ऐसा सधा हुआ भाषण, ऐसी ज़बर्दस्त राजनीतिक सूझबूझ, और यह समझ कि आगे की लड़ाई कैसे और किन मुद्दों पर लड़नी है, रणनीति क्या होगी, तरीक़े क्या होंगे, हथियार क्या होंगे, कन्हैया के भाषण में सब था. और यह इरादा भी साफ़ था कि वह इस लड़ाई में कूद चुका है.

कहीं मुसीबत न बन जाये कन्हैया?

और आज यह सवाल हर तरफ़ चर्चा में है कि कन्हैया कहीं मोदी सरकार की नयी मुसीबत न बन जाये? जेएनयू के आभामंडल को इस तरह निशाना बना कर दिल्ली में वामपंथ की 'नर्सरी' को ढहा देने की संघ, बीजेपी और मोदी सरकार का तीर कहीं उलटा तो नहीं लौटने वाला है? और क्या 'काँग्रेस-मुक्त भारत' की बात के बाद अब 'वाम-नाश' की अकुलाहट में 'परिवार' और मोदी सरकार से ऐसी ग़लती हो गयी, जो बहुत भारी पड़ सकती है?

Kanhaiya Kumar says Rohith Vemula is his Icon

कन्हैया का साफ़-साफ़ आरोप है कि रोहित वेमुला के मामले को लेकर छात्रों में फैली बेचैनी को नेपथ्य में ढकेलने के लिए जेएनयू को निशाना बनाने की साज़िश रची गयी. जेएनयू प्रकरण में अब तक जो बातें सामने आयी हैं, उनसे सवाल तो कई उठते हैं. पहला तो यही कि 9 फ़रवरी को जेएनयू में मीडिया को किसने बुलाया? जिसने कार्यक्रम का आयोजन किया, उसने तो नहीं बुलाया! कार्यक्रम किसी और संगठन का हो, तो मीडिया को एबीवीपी के लोग क्यों बुलाने जायें? क्या उन्हें पहले से पता था कि कार्यक्रम में देश-विरोधी नारे लगेंगे? और अगर पता था तो यह भी पता होगा कि ऐसे नारे कौन लगायेगा? तो उन्होंने पुलिस को पहले से इसकी सूचना क्यों नहीं दी? और नारे लगने के तीन दिन बाद तक इस घटना को उजागर क्यों नहीं किया गया? फ़र्ज़ी वीडियो किसने बनाये? पुलिस ने अब तक यह जाँच करने की कोशिश नहीं की कि वे नक़ाबपोश लड़के कौन थे, जिन्होंने ऐसे नारे लगाये? पुलिस ने यह जाँचने की भी कोशिश नहीं की फ़र्ज़ी वीडियो किसने बनाये और किन न्यूज़ चैनलों ने उसे बिना जाँचे-परखे क्यों चला कर लोगों को भड़काने की कोशिश की. ख़ास कर तब, जबकि एक चैनल का एक पत्रकार यह आरोप लगा कर इस्तीफ़ा दे चुका है कि उससे वीडियो में छेड़छाड़ करने के लिए कहा गया. क्या यह जाँच का मुद्दा नहीं है? और अगर पुलिस इस सबकी जाँच की ज़रूरत नहीं समझती तो साफ़ है कि जेएनयू के मामले के पूरे सच को दबाया जा रहा है.

कन्हैया एक बुलबुला या नयी छात्र राजनीति की आहट?

यह सब बातें अब सामने हैं और ज़ाहिर-सी बात है कि कन्हैया इन मुद्दों को लेकर छात्रों के बीच जायेगा. फ़िल्म इंस्टीट्यूट, हैदराबाद विश्विद्यालय, फिर जेएनयू और उसके बाद एएमयू यानी अलीगढ़ मुसलिम विश्विद्यालय को लेकर शुरू हुए ताज़ा विवाद के बीच क्या मोदी सरकार ने कन्हैया के रूप में एक नये छात्र नेतृत्व को रातोंरात नहीं पैदा कर दिया? कन्हैया का एजेंडा साफ़ है—समानता, समाजवाद और सेकुलरिज़्म. और राजनीतिक गँठजोड़ भी स्पष्ट है. सीमा पर लड़ रहे जवान से लेकर खेतों में क़र्ज़ के बोझ तले मर रहे किसान तक, ग़रीब मज़्दूर, दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएँ— इन सबके लिए इनसाफ़ और इज़्ज़त की आवाज़ उठाना. रोहित वेमुला उसका नायक है. इसमें सुर कौन है और असुर कौन? लड़ाई अगर शुरू हुई तो दूर तक पहुँचेगी. सवाल यह है कि संसद में रस्मी लड़ाई के आदी हो गये विपक्ष के कारण सड़कों पर उपजी राजनीतिक शून्यता में कन्हैया बुलबुले की तरह उठ कर ग़ायब हो जायेगा या सुर-असुर की लड़ाई के चक्रव्यूह को भेदनेवाला महारथी बन कर उभरेगा, यह देखना दिलचस्प होगा.

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ताकि रोज़ का यह टंटा ख़त्म हो ! https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%bf-%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%bc-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%af%e0%a4%b9-%e0%a4%9f%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%be-%e0%a4%96%e0%a4%bc%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae/ Tue, 01 Mar 2016 08:19:10 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%bf-%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%bc-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%af%e0%a4%b9-%e0%a4%9f%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%be-%e0%a4%96%e0%a4%bc%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae/ दिल्ली में जेएनयू के मामले पर और हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर जो कुछ हुआ, उसके संकेत एक बड़ी चेतावनी हैं. हरियाणा में चुन-चुन कर जैसे ग़ैर-जाटों को निशाना बनाया गया, वह भयानक था. देश भीतर-भीतर कितना बँट चुका है, कैसी नफ़रतें पसर चुकी हैं? देश को इस भीड़तंत्र में बदल देने का जुआ […]

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दिल्ली में जेएनयू के मामले पर और हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर जो कुछ हुआ, उसके संकेत एक बड़ी चेतावनी हैं. हरियाणा में चुन-चुन कर जैसे ग़ैर-जाटों को निशाना बनाया गया, वह भयानक था. देश भीतर-भीतर कितना बँट चुका है, कैसी नफ़रतें पसर चुकी हैं? देश को इस भीड़तंत्र में बदल देने का जुआ बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता है.

बात गम्भीर है. ख़ुद प्रधानमंत्री ने कही है, तो यक़ीनन गम्भीर ही होगी! पर इससे भी गम्भीर बात यह है कि प्रधानमंत्री की इस बात पर ज़्यादा बात नहीं हुई. क्योंकि देश तब कहीं और व्यस्त था. उस आवेग में उलझा हुआ था, जिसके बारूदी गोले प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के युवा संगठन ने दाग़े थे! भीड़ फ़ैसले कर रही थी. सड़कों पर राष्ट्रवाद की परिभाषाएं तय हो रही थीं. पुलिस टीवी कैमरों के सामने हो कर भी कहीं नहीं थी. टीवी कैमरों को सब दिख रहा था. पुलिस को कुछ भी नहीं दिख रहा था. दुनिया अवाक् देख रही थी. लेकिन इसमें हैरानी की क्या बात? क्या ऐसा पहले नहीं हुआ है? याद कीजिए!

From JNU row to the theory of conspiracy against PM Modi

कौन कर रहा है प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ षड्यंत्र?

और प्रधानमंत्री उड़ीसा जा कर कह रहे थे कि कुछ एनजीओ वाले और कुछ कालाबाज़ारिये उनकी सरकार को सफल होते नहीं देखना चाहते! वे उनके ख़िलाफ़ लगातार षड्यंत्र रच रहे हैं ताकि उनकी सरकार फ़ेल हो जाये. और दिल्ली की सड़कों पर पसरी उस उन्मत्त भीड़ में हम उन ‘षड्यंत्रकारी’ एनजीओ वालों और कालाबाज़ारियों को ढूँढ रहे थे, जो बक़ौल प्रधानमंत्री उनकी छवि ख़राब करने की साज़िशों में लगे हैं. एनजीओ और कालाबाज़ारियों को तो हम पहचान नहीं पाये, कुछ काले कोट वाले ज़रूर टीवी कैमरों ने दिखाये. भीड़ में कुछ और लोग भी दिखे, जो प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के निकले!

Who is hatching conspiracy against PM Modi

जो दिख कर भी नहीं दिखता है!

तो प्रधानमंत्री की छवि को कौन ख़राब कर रहा है? वे कौन लोग हैं, जो उनकी सरकार पर धब्बे लगा रहे हैं? वे कौन लोग हैं, जो पिछले इक्कीस महीनों में अचानक हर जगह दिखने लगे, और जिनकी कारगुज़ारियों से अख़बारों के पन्ने रंगे जाने लगे. देश के अख़बारों पर भरोसा न हो, तो दुनिया भर के अख़बारों को उठा कर देख लीजिए. जो बात दुनिया भर के अख़बारों को पिछले इक्कीस महीनों में लगातार दिखती रही है, वह प्रधानमंत्री को अब तक नहीं दिखी! हैरत है. और जो बात प्रधानमंत्री को दिख रही है, वह दुनिया भर के अख़बारों में से किसी को अब तक नहीं दिखी!

सवालों में उलझा देश

प्रधानमंत्री मानते हैं कि कुछ लोग उनकी सरकार को विफल करने में लगे हैं. हम भी मानते हैं कि पिछले इक्कीस महीनों में कुछ लोग प्रधानमंत्री को विफल करने में लगातार लगे हैं. इस मुद्दे पर कोई मतभेद नहीं. मतभेद सिर्फ़ इस बात पर है कि वे लोग हैं कौन? कुछ एनजीओ वाले और कालाबाज़ारी या फिर ‘परिवार’ वाले?पिछले इक्कीस महीनों में देश किन सवालों में उलझा रहा? और ये सवाल इन इक्कीस महीनों में ही क्यों इस तरह बलबला कर उठे? और उठे तो एक दिन अचानक ‘स्विच ऑफ़’ क्यों हो गये? यह ‘स्विच’ कहाँ है? इसे कौन ‘ऑन’ और ‘ऑफ़’ करता है? गिरजाघरों पर हमले हो रहे थे. सुना कुछ चोर-उचक्के ऐसा कर रहे थे! दुनिया भर में हल्ला-गुल्ला हुआ. तो एक दिन अचानक हमले बन्द हो गये! हैरत है. वे ‘चोर-उचक्के’ इक्कीस महीने पहले क्यों इन गिरजाघरों में क्यों नहीं घुसते थे और अब क़रीब साल-सवा साल से क्यों नहीं घुस रहे हैं? किसके कहने पर देश भर के ‘चोर-उचक्कों’ ने गिरजाघरों से अचानक मुँह मोड़ लिया?

कौन करता है स्विच ऑन, स्विच ऑफ़?

‘घर-वापसी’ का स्विच ‘ऑन’ हुआ, फिर ‘ऑफ़’ हो गया, ‘लव जिहाद’ का स्विच ‘ऑन’ हुआ, फ़िलहाल ‘ऑफ़’ दिखता है. ‘बीफ़’ के मुद्दे पर हाहाकार हुआ, बिहार चुनावों में मुद्दा वैसा कारगर साबित नहीं हुआ, जैसा सोचा गया था. इसलिए अब उतना गरम नहीं, लेकिन फ़िलहाल अभी ‘स्विच ऑफ़’ नहीं हुआ है, क्योंकि ‘जनता की आस्था’ के नाम पर इसे गुड़गुड़ाये रखा जा सकता है! और अब ताज़ा मुद्दा है राष्ट्रवाद का, देशप्रेम और देशद्रोह का. भावुक सवाल है. देश फ़िलहाल आवेग में है.

बहस गम्भीर है, गम्भीरता से कीजिए!

लेकिन गम्भीर सवालों पर बहस क्या आवेग में होती है? भला हो सकती है क्या? ऐसे फ़ैसले क्या सड़कों पर या टीवी चैनलों के स्टूडियो में होंगे? और ऐसे मुद्दों को परखने के पैमाने क्या होंगे, कोई एक या अपनी सुविधानुसार अलग-अलग?मुद्दा यह नहीं कि जिन्होंने देश-विरोधी नारे लगाये, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई न की जाये. कार्रवाई ज़रूर की जाये, जो न सिर्फ़ क़ानूनन उचित हो बल्कि दिखे भी कि उचित है. लेकिन पुलिस ने क्या कार्रवाई की और क्यों की, यह सबके सामने है. सबको पता है कि देश-विरोधी नारे कुछ कश्मीरी छात्रों ने लगाये. उनको पकड़ने की आज तक कोई कोशिश क्यों नहीं की गयी? क्या इसलिए कि पीडीपी के साथ सरकार बनाने का मामला इससे खटाई में पड़ जायेगा? कन्हैया कुमार के मामले में पुलिस का रवैया क्या रहा और ओ.पी. शर्मा और विक्रम चौहान के मामले में क्या रहा, यह सबके सामने है. किसने फ़र्ज़ी वीडियो बनाये, लोगों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए वह किसने बँटवाये, इस साज़िश के पीछे कौन लोग थे और क्यों थे, पुलिस ने जानने की कोई कोशिश नहीं की. समाज में जानबूझकर ज़हर घोलने की इतनी बड़ी साज़िश करना क्या कोई संगीन अपराध नहीं है कि पुलिस उसका पता लगाने की कोई कोशिश न करे?

JNU row and question of sedition and limits of freedom of expression

सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की

यह तर्क ग़लत नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी एक सीमा होती है और इसका मतलब देश-विरोधी नारे लगाना नहीं है. लेकिन यह तर्क भी सही नहीं कि नारे लगा देने भर से ही देशद्रोह का मामला बन जाता है! ऐसे ही पिछले कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले आ चुके हैं. इस मामले को उन फ़ैसलों की रोशनी में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए था?

तो यह क्यों देशद्रोह नहीं हुआ?

वैसे वेंकैया नायडू ने जेएनयू के नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखे जाने की अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा की सलाह की आलोचना की है और पूछा है कि क्या अमेरिका के किसी विश्विद्यालय में कोई उसामा बिन लादेन की ‘शहादत’ की बरसी मनाने की इजाज़त दे सकता है? वेंकैया जी का सवाल बिलकुल जायज़ है. सवाल ही नहीं उठता कि अमेरिका ऐसी इजाज़त दे दे! और अमेरिका क्यों, भारत में भी कोई ऐसी इजाज़त दिये जाने की न माँग कर सकता है और न ही समर्थन. लेकिन इसी तर्क पर भिंडरावाले की ‘शहादत’ की बरसी मनाने की इजाज़त भी नहीं दी सकती, जो अभी कुछ ही महीने पहले जम्मू में मनायी गयी, जहाँ बीजेपी तब सत्ता में साझेदार थी. और जब दिल्ली में जेएनयू का मामला गरमा रहा था, तभी पंजाब में भिंडराँवाले का जन्मदिन धूमधड़ाके से मनाया जा रहा था. वहाँ भी बीजेपी सत्ता में साझीदार है. लेकिन किसी के ख़िलाफ़ देशद्रोह तो दूर, कैसा भी मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ!और यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि जेएनयू के नारों पर जैसी प्रतिक्रिया हुई, जादवपुर विश्विद्यालय में ठीक वैसे ही नारों पर लगभग उदासीन प्रतिक्रिया क्यों रही? ममता बनर्जी सरकार अगर अपने राजनीतिक हितों के लिए ‘देशद्रोहियों’ पर नरम है, तो देश के बाक़ी हिस्सों में ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा क्यों नहीं फूटा, वैसे फ़र्ज़ी वीडियो क्यों नहीं बने, टीवी चैनलों पर वैसी गरमी क्यों नहीं दिखी?

सरकार की मर्ज़ी तो देशद्रोह, नहीं तो नहीं!

और देशद्रोह के आरोप का क्या? जब मर्ज़ी हो सरकार लगा दे, जब मर्ज़ी हो वापस ले ले! सुना है कि पटेलों को मनाने के लिए गुजरात सरकार हार्दिक पटेल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा वापस लेने की तैयारी कर रही है. इस पर भी कहीं कोई हंगामा नहीं हुआ कि एक ‘देशद्रोही’ के ख़िलाफ़ कार्रवाई ऐसे कैसे छोड़ी जा सकती है? उसने तो पुलिसवालों की हत्या के लिए भीड़ को बाक़ायदा उकसाया था! हालाँकि जब उस पर देशद्रोह का मामला लगाया गया था, तब भी मैंने उसे आनन्दीबेन सरकार का मूर्खतापूर्ण क़दम कहा था और आज भी मेरी राय वही है.

हम कैसा देश बनाना चाहते हैं?

हम कैसा देश बनाना चाहते हैं? हमें कैसा राष्ट्रवाद चाहिए? देशद्रोह की परिभाषा क्या हो? हमें कैसा संविधान चाहिए? हमें कैसा सेकुलरिज़्म चाहिए? चाहिए या नहीं चाहिए? हिन्दू राष्ट्र चाहिए? अन्तर्धार्मिक शादियाँ हों या नहीं हों? फ़ासीवाद चाहिए? आरक्षण का क्या हो? यह सवाल अगर अब भी बाक़ी हैं या अब भी उठ रहे हैं तो दंगाई भीड़ बनने के बजाय इन पर खुल कर बहस कर लीजिए और एक अन्तिम बार तय कर लीजिए कि आपको कैसा देश चाहिए? एनजीओ वालों को कोसने के बजाय प्रधानमंत्री इन सवालों पर देश भर में साल-दो साल बहस चला लें, जनमत संग्रह करा लें और फिर फ़ैसला हो जाये कि देश किस रास्ते पर चलना चाहता है. ताकि रोज़-रोज़ का यह टंटा ख़त्म हो!दिल्ली में जेएनयू के मामले पर और हरियाणा में आरक्षण के मुद्दे पर जो कुछ हुआ, उसके संकेत एक बड़ी चेतावनी हैं. हरियाणा में चुन-चुन कर जैसे ग़ैर-जाटों को निशाना बनाया गया, वह भयानक था. देश भीतर-भीतर कितना बँट चुका है, कैसी नफ़रतें पसर चुकी हैं? देश को इस भीड़तंत्र में बदल देने का जुआ बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता है. यह मानने का दिल नहीं करता कि प्रधानमंत्री इसके निहितार्थ नहीं समझते होंगे.

Courtesy: raagdesh.com

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निशानची बहसों के दौर में! https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a5%8c%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82/ Sun, 14 Feb 2016 03:38:53 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a5%8c%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82/   14 अगस्त 2015 को आसिया अन्दराबी ने पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया और लश्कर-ए-तय्यबा के आतंकवादियों को फ़ोन पर सम्बोधित भी किया, तब तो ऐसा कोई हंगामा नहीं हुआ. आठ महीने पहले जम्मू में भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाने के लिए पोस्टर लगाना देशद्रोह नहीं था क्या? तब वहाँ ख़ालिस्तान और पाकिस्तान समर्थक नारे भी […]

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14 अगस्त 2015 को आसिया अन्दराबी ने पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया और लश्कर-ए-तय्यबा के आतंकवादियों को फ़ोन पर सम्बोधित भी किया, तब तो ऐसा कोई हंगामा नहीं हुआ. आठ महीने पहले जम्मू में भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाने के लिए पोस्टर लगाना देशद्रोह नहीं था क्या? तब वहाँ ख़ालिस्तान और पाकिस्तान समर्थक नारे भी लगे. क्या वह देशद्रोह नहीं था? दोनों ही घटनाओं के समय जम्मू-कश्मीर में 'राष्ट्रवादी' बीजेपी सरकार में शामिल थी.

वसन्त आ गया है. मौसम सुहाना है. लेकिन देश तप रहा है. मन तप रहे हैं. तपतपाये हुए हैं. तपतपाये जा रहे हैं. पूरा देश मानो टीवी की डिबेट और फ़ेसबुक की टाइमलाइन हो गया हो! टीवी में स्क्रीन पर लपलपाती आग की लपटें और खाँचों में कटी और बँटी खिड़कियों से चीख़ते, दहाड़ते, तिलमिलाते, दाँत किटकिटाते चेहरे! और फ़ेसबुकी चक्रव्यूह में सतत, अनवरत युद्धरत तुरतिया-फुरतिया निष्कर्षों की भावातिरेक में डूबी, अकुलाई, उन्मत्त अक्षौहिणी सेनाएँ.

Controversy on Sedition Charges against JNU Students over Afzal Guru Event
मुद्दों पर मुद्दे, ऊपर मुद्दे, नीचे मुद्दे

कोई बहस कहीं पहुँचती नहीं, बस आग लगा कर, ज़हर फैला कर मर जाती है. अगला दिन, अगली बहस, अगला मुद्दा और फिर वही हाथापाई, झिंझोड़ा-झिंझोड़ी. अभी इन पंक्तियों को लिखते ही लिखते व्हाट्सएप पर लेखिका और स्तम्भकार शीबा असलम फ़हमी की एक चुटकी मिली. वह लिखती हैं, "मुद्दे के एक ऊपर मुद्दा, मुद्दे के एक नीचे मुद्दा, कौन-सा होगा राष्ट्रीय मुद्दा, कौन-सा होगा भूलना मुद्दा!"

निशाना बनाने के लिए मुद्दे
कौन-सा मुद्दा भूला जाये या भुला दिया जाये या देख कर न देखा जाये और कौन-सा मुद्दा उठाया जाये, न भी हो तो भी किस मुद्दे की काट के लिए सही-ग़लत झूठा-सच्चा क्या उछाल दिया जाये, क्या बहस की जाये और क्या न की जाये! और बहस क्यों की जाये, किसको निशाने पर लाने के लिए की जाये! अन्तिम सत्य यही है. निशाना! बहस इसलिए नहीं की जा रही है कि वह ज़रूरी मुद्दा है, बल्कि बहस इसलिए की जा रही है कि उससे किसे निशाना बनाया जाये! किस मुद्दे को निशाना बनाया जाये!

जो सवाल किसी को उत्तेजित नहीं करते
तो हम निशानची बहसों के दौर में है. बहस मुद्दों पर नहीं हो रही है, बल्कि मुद्दों को निशाना बनाने के लिए हो रही है! दिलचस्प नज़ारा है. देश के सामने असली मुद्दे क्या हैं, और जो मुद्दे हैं, वह क्यों हैं, और वह मुद्दे हल हो गये होते तो देश आज कहाँ होता, किसे फ़िक्र है इसकी? वरना देश में इस पर हाहाकार मच गया होता कि देश के सरकारी बैंकों के एक लाख चौदह हज़ार करोड़ रुपये कैसे डूब गये. और जो अभी नहीं डूबे, वह डूबने के कगार पर हैं. बैंकों की एक-तिहाई पूँजी अमीर क़र्ज़ों और विकास के नये मॉडल की भेंट चढ़ चुकी है. श्रीमान जी, यह किसका पैसा है, जो डूब गया? क्यों डूब गया? कौन ज़िम्मेदार है इसका? कोई जाँच होनी चाहिए इसकी? कोई जेल जायेगा इसके लिए? यह किसकी जेब थी, जो कट गयी? इतना पैसा न डूबा होता तो किसके काम आता? ये सवाल किसी को उत्तेजित नहीं करते और इन सवालों में किसी की दिलचस्पी नहीं है, न सरकार की, न विपक्ष की. क्योंकि बरसों से यह मिलीभगत

लूट चल रही थी और चलती रहेगी!
अमीर क़र्ज़ लेकर गड़पें, ग़रीब क़र्ज़ लेकर मरें!किसानों की आत्महत्याएँ लगातार जारी हैं. यह सिलसिला काँग्रेसी सरकार वाले कर्नाटक और बीजेपी सरकार वाले महाराष्ट्र समेत उन सभी राज्यों में बदस्तूर जारी हैं, जहाँ पिछले बीस वर्षों से किसान लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं. क्यों कर रहे हैं, यह भी सबको पता है. आर्थिक उदारवाद ने किसानों को कंगाल कर दिया. विकास के शहरी मॉडल से पैदा हुए नये लम्पट मध्य वर्ग को क्यों चिन्ता हो किसानों के मरने की? इसलिए देश की राजधानी के बीचोंबीच एक राजनीतिक दल की रैली में एक किसान की आत्महत्या पर राजनीति तो ख़ूब होती है, फ़ेसबुकिया विलाप भी ख़ूब होता है, लेकिन कहीं कोई गम्भीर विमर्श हुआ क्या कि किसानों को क़र्ज़ से कैसे उबारा जाये, उन्हें आत्महत्याएँ करने से कैसे बचाया जाये? अमीर क़र्ज़ ले कर गड़प गये, कोई फ़िक्र नहीं. ग़रीब किसान क़र्ज़ से लगातार मरता है तो मरे, कोई फ़िक्र नहीं.

निशाने पर जेएनयू
तो किसानों की आत्महत्या पर फ़िक्र क्यों हो? आत्महत्या पर तो यह मध्यवर्ग फ़तवा जारी करता है कि आत्महत्या तो कायर लोग करते हैं! रोहित वेमुला कायर था या दलित नहीं था, ऐसे क्रूर और बेशर्म तर्क जो समाज गढ़ रहा हो, उससे और किस विमर्श की उम्मीद की जा सकती है? राष्ट्रवाद अब एक नया मुद्दा है. जहाँ हर विरोधी राषट्रविरोधी हो जाता है. हैदराबाद से शुरू हो कर राष्ट्रवाद की बहस अब जेएनयू पहुँच चुकी है. फ़िलहाल जेएनयू निशाने पर है, क्योंकि वहाँ कुछ छात्रों ने Afzal Guru और 'कश्मीर की आज़ादी' को लेकर भारत-विरोधी नारे लगाये थे. बेहद निन्दनीय घटना है. देश का कोई नागरिक उसका समर्थन नहीं कर सकता. कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और इस बात को न मानना भारत के संविधान का विरोध करना है, इसमें किसे सन्देह है. लेकिन ख़तरनाक यह है, जैसा रंग उसे देने की कोशिश की जा रही है. असली मुद्दा यह है.

Is JNU being targeted over Afzal Guru event because it is considered a fort of Left Wing Politics?
यही शोर आसिया अन्दराबी पर क्यों नहीं मचा?

कश्मीर में अलगाववादी उपद्रवी तत्त्वों द्वारा पाकिस्तानी झंडे फहराये जाने की घटनाएँ अकसर होती रहती हैं. अभी पिछले साल जुलाई और अगस्त में भी वहाँ ऐसी घटनाएँ हुईं, तब तो बीजेपी वहाँ सत्ता में ही थी. 14 अगस्त 2015 को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस के दिन दुख़्तरान-ए-मिल्लत की प्रमुख आसिया अन्दराबी (Asiya Andrabi) ने ख़ुद पाकिस्तान का झंडा फहराया और अख़बारों की रिपोर्ट के मुताबिक़ लाहौर में लश्कर-ए-तय्यबा (Lashkar-e-Taiba) के आतंकवादियों को फ़ोन पर सम्बोधित भी किया.  इस पर तो कोई देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ! जम्मू-कश्मीर सरकार में शामिल बीजेपी रस्मी आपत्ति जता कर चुप बैठ गयी. आश्चर्य है न! फिर आज इतना हंगामा क्यों हो रहा है? क्या इसलिए कि यह घटना जेएनयू में हुई? अगर यही घटना जेएनयू के बजाय कश्मीर घाटी में होती तो क्या बिलकुल यही प्रतिक्रिया हो रही होती, जो जेएनयू के कारण हो रही है? और जेएनयू को अगर वामपंथ का गढ़ न समझा जाता, तो भी क्या यही प्रतिक्रिया होती? शायद नहीं. तो निशाने पर कौन है? क्या असली निशाने पर वामपंथी नहीं हैं? और क्या यह खीझ रोहित वेमुला मामले के कारण और ज़्यादा नहीं बढ़ गयी है?

भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाना देशद्रोह नहीं है क्या?
अगर गिनती के कुछ छात्रों की ऐसी नारेबाज़ी देशद्रोह है तो आठ महीने पहले जम्मू में भिंडरावाले का 'शहीदी दिवस' मनाने के लिए पोस्टर लगाना देशद्रोह नहीं था क्या? और पुलिस के पोस्टर फाड़ देने पर क्या हंगामा हुआ, ख़ालिस्तान और पाकिस्तान समर्थक नारे भी लगे. क्या वह देशद्रोह नहीं था? उस समय भी जम्मू-कश्मीर में 'राष्ट्रवादी' बीजेपी सरकार में शामिल थी. और आपको याद ही होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सारी की सारी पच्चीस सीटें जम्मू क्षेत्र से ही जीती थीं. तो वहाँ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोग 'मार डालेंगे, काट डालेंगे' के नारे लगाने क्यों नहीं पहुँचे? भिंडरावाले आतंकी था या नहीं? वह अलग ख़ालिस्तान की माँग को लेकर भारत की सरकार के विरुद्ध युद्ध कर रहा था या नहीं? अगर इन दोनों सवालों के जवाब हाँ हैं, तो उन ही लोगों को यही बहस, यही सवाल तब भी उठाना चाहिए था, जो आज राष्ट्रवाद की बहस उठा रहे हैं.

'शहीद' भिंडरावाले की याद में पंजाब सरकार के पैसे से बना स्टेडियम!
और यही नहीं, स्वर्ण मन्दिर के संग्रहालय में चले जाइए. भिंडरावाले समेत हाल फ़िलहाल तक मुठभेड़ों में मारे गये सारे 'आतंकवादी' वहाँ 'शहीद' के तौर पर गर्व से चित्रित हैं. जगह-जगह लिखा गया है कि वे भारत की सेना और पुलिस (जैसे भारत कोई दूसरा देश हो) के ख़िलाफ़ लड़ते हुए 'शहीद' हुए! वहाँ यह देशद्रोह का सवाल अब तक क्यों नहीं उठा? पंजाब में भिंडरावाले के गाँव में उसकी याद में उस सरकार के पैसे से स्टेडियम भी बना है, जिसमें 'राष्ट्रवादी' बीजेपी साझीदार है. यह किसी को अब तक दिखा नहीं! आश्चर्य है न! चलिए, अब तक नहीं दिखा, तो अब बताने पर तो देख लीजिए. आख़िर देशद्रोह की दो परिभाषाएँ, दो पैमाने तो हो नहीं सकते!

किस रास्ते पर हैं हम, कहाँ पहुँचेंगे?
विडम्बना है. दुनिया के विज्ञानी आज इस बात पर झूम रहे हैं कि उन्होंने ब्रह्मांड की गुरुत्वाकर्षण लहरों की आवाज़ पहली बार सुन ली है. विज्ञानी उत्साहित हैं कि वह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य जानने के कुछ और क़रीब पहुँच गये और शायद अगले कुछ वर्षों में विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दे! और हम? गाली-गलौज और विष-वमन के एजेंडों में उलझे हैं! साफ़ दिख रहा है कि कहाँ पहुँचेंगे?

http://raagdesh.com/sedition-charges-against-jnu-students-over-afzal-guru-event/

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देश की त्रासदी है रोहित की आत्महत्या https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%80/ Mon, 25 Jan 2016 04:31:37 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%b9%e0%a5%88-%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%80/   रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों की? वह कायर था? अवसाद में था? ज़िन्दगी से हार गया था? उसके मित्रों ने उसकी मदद की होती, तो उसे आत्महत्या से बचाया जा सकता था? क्या उसकी आत्महत्या के ये कारण थे? नहीं, बिलकुल नहीं. रोहित वेमुला की आत्महत्या (Rohith Vemula Suicide) एक निराश युवा की निजी […]

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रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों की? वह कायर था? अवसाद में था? ज़िन्दगी से हार गया था? उसके मित्रों ने उसकी मदद की होती, तो उसे आत्महत्या से बचाया जा सकता था? क्या उसकी आत्महत्या के ये कारण थे? नहीं, बिलकुल नहीं.

रोहित वेमुला की आत्महत्या (Rohith Vemula Suicide) एक निराश युवा की निजी त्रासदी नहीं है. हाँ, निराशा थी उसमें, लेकिन यह निराशा अपनी स्थितियों को लेकर नहीं थी. यह निराशा अपने आसपास के हालात को लेकर थी, देश को लेकर थी. उसकी आत्महत्या देश की त्रासदी है, जिस पर देश को चिन्तित होना चाहिए, देश को सोचना चाहिए कि हम जैसा देश गढ़ रहे हैं, उसमें ऐसी त्रासदियाँ क्यों होती हैं, क्यों होती जा रही हैं? और उससे भी बड़ी यह त्रासदी क्यों होती है कि उस आत्महत्या पर शर्म से डूब जाने के बजाय देश दो खाँचों में बँट जाये, एक ओर निराशा, हताशा, आवेश और क्षोभ हो और दूसरी ओर हो विद्रूप प्रतिक्रियाओं का क्रूर अमानवीय अट्टहास, आत्महत्या पर उठ रहे बर्बर सवाल, उड़ायी जा रही खिल्लियाँ और झूठ के कारख़ानों के निर्लज्ज उत्पाद!

The first letter, which Rohith Vemula wrote to his VCरोहित ने आत्महत्या इसलिए नहीं की कि वह निराश था. उसने आत्महत्या न की होती तो क्या इस सवाल पर हम बात कर रहे होते? बात आज क्यों हो रही है? हंगामा तो तभी खड़ा होना चाहिए था जब बाबासाहेब आम्बेडकर की तसवीर हाथ में लेकर हॉस्टल से बाहर निकले पाँच छात्रों की तसवीरें अख़बारों में छपी थीं. शोर तो तब भी उठना चाहिए था, जब रोहित ने अपने कुलपति को लिखा था कि विश्विद्यालय में दाख़िले के वक़्त हर दलित छात्र को सोडियम एज़ाइड की गोली और फंदा लगाने के लिए अच्छी रस्सी भी दे दी जाये! और सवाल तो तब भी उठना चाहिए था, जब एक केन्द्रीय मंत्री इन दलित छात्रों को 'राष्ट्रविरोधी' घोषित करते हुए अपनी सरकार को चिट्ठी लिख रहा था. दोष हम सबका है कि इन मुद्दों पर तब बात नहीं हुई. बात आज इसीलिए हो रही है क्योंकि रोहित ने आत्महत्या कर ली. रोहित ने आत्महत्या हमको आइना दिखाने के लिए की थी. बात समझ में आयी आपको!

रोहित ने हमें आइना दिखाया!

Rohit Vemula Suicide and mindset against Dalits, a telling Story of former Hindustan Times Journalist!और आइने में क्या दिखता है? यही कि दलितों को लेकर कहीं कुछ नहीं बदला है. वैसा ही छुआछूत है, वैसा ही भेदभाव है, उनका वैसा ही तिरस्कार है और वैसा ही उत्पीड़न है. वरना रोहित को अपने कुलपति को यह क्यों लिखने को मजबूर होना पड़ता कि दलित छात्रों को मौत का सामान दे दिया जाना चाहिए! उसकी इस बात से देश को हिल उठना चाहिए था. लेकिन कुछ नहीं हुआ. होता भी कैसे? यह कोई नयी बात है कि देश के हज़ारों स्कूलों में दलित बच्चे अब भी कक्षा में अलग बैठाये जाते हैं, दलित दूल्हा घोड़ी नहीं चढ़ सकता, यहाँ तक कि दाह संस्कार के लिए भी अलग श्मशान हैं. प्रमुख फ़िल्मकार श्याम बेनेगल का यह कहना बिलकुल सही है कि सवर्ण हिन्दू वाक़ई नहीं जानता कि दलित होने का मतलब क्या है? बिलकुल सच है कि दलित होने का मतलब क्या है, यह सिर्फ़ दलित घर में पैदा हो कर ही जाना जा सकता है. यह बात अपनी एक मार्मिक पोस्ट में हिन्दुस्तान टाइम्स की पूर्व पत्रकार याशिका दत्त ने लिखी है, जो इन दिनों न्यूयार्क में रहती हैं. याशिका ने लिखा कि वह बचपन में कान्वेंट में पढ़ीं, उनके उपनाम से लोगों को उनकी जाति का पता नहीं चलता था, और वह बड़े जतन से क्यों अपनी दलित पहचान छिपाये रहीं. उनके ब्लॉग dalitdiscrimination.tumbler.com पर ऐसी कई कहानियाँ मिल जायेंगी. विडम्बना यह है कि दलितों से ऐसा क्रूर भेदभाव करनेवाला मध्य वर्ग साथ में यह बेहया शर्त भी रखता है कि दलित मेरिट से आगे बढ़ें, आरक्षण ख़त्म हो. इससे बढ़ कर अमानवीय माँग और क्या हो सकती है?

हैदराबाद विश्विद्यालय: दलित विरोधी चरित्रहैदराबाद विश्विद्यालय इसका अपवाद नहीं था. उसके दलित-विरोधी चरित्र की कई कहानियाँ सामने हैं. और केवल वहीं क्यों, देश के तमाम बड़े-बड़े नामी-गिरामी उच्च शिक्षा संस्थानों से लगातार ऐसी कहानियाँ आती रहती हैं, जहाँ असहनीय तिरस्कारों के कारण सैंकड़ों दलित छात्र आत्महत्या करने पर मजबूर हुए. रोहित और उसके साथियों के मामले में जो हुआ, क्या उसके पीछे उनको 'औक़ात बता देने' की बर्बर सोच नहीं काम कर रही थी. विश्विद्यालय के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि उन्हें क्यों निलम्बित किया गया, हॉस्टल से क्यों बाहर निकाला गया, क्या अपराध था उनका और उस सुशील कुमार के ख़िलाफ़ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी जिसका यह झूठ भी सामने आ चुका है कि उसे कोई चोट नहीं लगी थी और वह एपेंडेसाइटिस के ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती हुआ था!

What were 'Anti-national'activities of Rohith Vemula, will anybody tell us please?आरोप है कि रोहित वेमुला (Rohith Vemula) और उसके साथी 'राष्ट्रविरोधी गतिविधियों' में लगे थे. कोई व्यक्ति 'राष्ट्रविरोधी' गतिविधियों में लगा हो, यह तो बहुत ही संगीन आरोप है. विश्विद्यालय तो इसकी जाँच ही नहीं कर सकता. यह मामला तो सीधे पुलिस के पास जाना चाहिए था! तो इन छात्रों के ख़िलाफ़ पुलिस में 'राष्ट्रद्रोह' की शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी गयी? सुशील कुमार पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बजाय केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पास मानव संसाधन मंत्रालय को चिट्ठी लिखाने क्यों गये? इसीलिए न कि उन्हें पता था कि सत्ता अपने हाथ में है, सरकार अपनी है, कुलपति पर दबाव डलवा कर इन 'दलितों' को सबक़ सिखाया जा सकता है! और यह सबके सामने है कि विश्विद्यालय ने कैसे अपनी पहली जाँच बिलकुल पलट दी.

संघ से वैचारिक असहमति राष्ट्रद्रोह है क्या?और क्या थीं इन छात्रों की तथाकथित राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ? 'मुज़फ़्फ़रनगर अभी बाक़ी है' फ़िल्म का प्रदर्शन, याक़ूब मेमन की फाँसी का विरोध, तीस्ता सीतलवाड और असदुद्दीन ओवैसी को छात्रों को सम्बोधित करने के लिए बुलाना– आम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के इन छात्रों पर यही आरोप थे और बीजेपी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) को यही बातें क़तई मंज़ूर नहीं थीं. यह वैचारिक असहमति है या राष्ट्रविरोध? अगर राष्ट्रविरोध है, राष्ट्रद्रोह है तो क़ानून की किस या किन-किन धाराओं के तहत? या आपकी नज़र में राष्ट्रविरोधी और राष्ट्रद्रोही वह सब हैं, जो आपके विचारों से सहमत नहीं हैं? यानी राष्ट्र क्या है? क्या संघ, संघ परिवार, बीजेपी और उसके संगठन ही राष्ट्र हैं, वही तय करेंगे कि राष्ट्र क्या है, उसकी परिभाषा क्या है और जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद की उसकी परिभाषा मानने को तैयार न हो, वह राष्ट्रविरोधी है?

सिद्धार्थ वरदराजन 'साम्प्रदायिक' हैं?इसी सोच के चलते एक बुज़ुर्ग केन्द्रीय मंत्री ने इन छात्रों को 'राष्ट्रविरोधी' घोषित कर दिया. हैदराबाद की इस घटना का दूसरा चिन्ताजनक पहलू यह है, जिसकी आहटें दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के गद्दीनशीन होने के फ़ौरन बाद शुरू हो गयी थीं, और अब हर क़दम पर फ़ासिस्ज़्म के यह निशान दिखने लगे हैं. अभी दो दिन पहले इलाहाबाद विश्विद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन (Siddhartha Varadarajan) को छात्रों को सम्बोधित नहीं करने दिया और उन्हें लगभग बन्धक बना कर रखा क्योंकि परिषद की राय में वरदराजन 'साम्प्रदायिक और राष्ट्रविरोधी' हैं! कुछ दिनों पहले ही मैग्सायसाय पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता सन्दीप पाण्डेय (Sandeep Pandey) को 'राष्ट्रविरोधी' घोषित कर काशी हिन्दू विश्विद्यालय के विज़िटिंग फ़ैकल्टी पद से हटा दिया गया. हद है!

PM Modi's pain on Rohith Vemula Suicide should go beyond emotional talkलखनऊ में शुक्रवार को अपने भाषण में रोहित वेमुला की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भावुक हो गये. निश्चित ही उन्हें इस हादसे से सदमा पहुँचा होगा. ऐसे हादसे से भला किसे संसदमा न पहुँचेगा. हम सबको बहुत सदमा पहुँचा है. लेकिन तसल्ली तो हमें तब होती, जब प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के, अपने संघ परिवार के लोगों को भी कुछ नसीहत देते, उन्हें कुछ तो कहते कि वे जैसी भाषा बोल रहे हैं, उनके लोग अपने विरोधी विचार रखनेवालों पर जैसे हमले कर रहे हैं, समाज में चारों तरफ़ तनाव बढ़ाने-भड़काने की कोशिश कर रहे हैं, वह सब ठीक नहीं है, देशहित में नहीं है और उसे तुरन्त बन्द किया जाना चाहिए. पिछले बीस महीनों से बार-बार, हज़ारों बार प्रधानमंत्री मोदी से यह गुहार लगायी जा चुकी है कि वह कम से कम अपनी सरकार के मंत्रियों, अपनी पार्टी के सांसदों, विधायकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं और संघ परिवार के संगठनों पर चाबुक चलायें, दबाव बनायें कि वे समाज में ज़हर घोलनेवाली हरकतों से बाज़ आयें. लेकिन प्रधानमंत्री का एक भी ऐसा बयान हमें कहीं देखने को नहीं मिला, उनकी तरफ़ से एक भी ऐसी कोशिश कहीं नज़र नहीं आयी. आख़िर क्या मजबूरी है उनकी?

हर घटना के पीछे एक ही वैचारिक उपकरण!मजबूरी नहीं है, बल्कि संघ का सुविचारित एजेंडा है. कभी अटलबिहारी वाजपेयी एक 'उदार' मुखौटा हुआ करते थे, आज मोदी जी विकास का मुखौटा हैं. वह विकास की बाँसुरी बजाते रहेंगे और ऐसे ही फ़ासिस्ज़्म का तम्बू धीरे-धीरे ताना जाता रहेगा. गाँधी की हत्या, बाबरी मसजिद का ध्वंस, दादरी कांड, ईसाई चर्चों पर हमले, लेखकों की हत्याएँ और उन्हें धमकियाँ और रोहित वेमुला की आत्महत्या, इन सबके पीछे कहीं न कहीं एक ही विचार क्यों उपकरण बनता है, सोचने की बात यह है.

http://raagdesh.com/rohith-vemula-suicide-dalit-discrimination-and-beyond/

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माल्दा, मुसलमान और कुछ सवाल! https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a4%b2%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%9b-%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be/ Sat, 09 Jan 2016 10:33:15 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a4%b2%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%9b-%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%be/ मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता […]

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मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है?


Image Courtesy: via YouTube.com


माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए! बेहद गम्भीर और बड़ा सवाल. सवाल के भीतर कई और सवालों के पेंच हैं, उलझे-गुलझे-अनसुलझे. और माल्दा अकेला सवाल नहीं है. हाल-फ़िलहाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जो इसी सवाल या इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द हैं. इनमें बहुत-से सवाल बहुत पुराने हैं. कुछ नये भी हैं. कुछ जिहादी आतंकवाद और देश में चल रही सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस से भी उठे हैं.

 

Malda Riots: Isn't a case of Intolerance by Indian Muslims?

मुसलमानों के विरोध-प्रदर्शन का क्या तुक था?

सवाल पूछा जा रहा है कि माल्दा में जो हुआ, क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके ख़िलाफ़ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किये जायें? ख़ास कर तब, जबकि कमलेश तिवारी के ख़िलाफ़ क़ानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, ख़ास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है. इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी. अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह ग़ुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज़ हैं. और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!

 

माल्दा के पहले केरल की घटनाएँ

माल्दा के कुछ दिन पहले केरल से ख़बर आयी थी एक मुसलिम वीडियोग्राफ़र का स्टूडियो जला देने की. उसकी ग़लती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुसलिम औरतों को बुर्क़े या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस ख़ुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था. इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाये? सुझाव देने वाले ने इसलाम की क्या तौहीन कर दी? क्या ईश निन्दा की? मुसलमानों के ख़िलाफ़ क्या टिप्पणी कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था!

 

रजीना की ग़लती क्या थी?

इसी तरह रजीना की ग़लती क्या थी? उसने एक मदरसे में हुई कुछ घटनाओं का ख़ुलासा इस उम्मीद में किया था कि शायद मामले की जाँच हो, शायद दोषियों की पहचान कर उन्हें सज़ा दी जाये, ऐसे क़दम उठाये जायें ताकि भविष्य में वैसी घटनाओं को रोका जा सके, मदरसों के संचालक इसका ध्यान रखें. इसमें क्या ग़लत था? क्या इसलाम विरोधी था? किस बात के लिए रजीना के ख़िलाफ़ गाली अभियान चलाया गया?

 

क्या इसलाम का मतलब असहिष्णु होना है?

हाल-फ़िलहाल की इन तीनों घटनाओं पर मुसलमानों की ऐसी प्रतिक्रिया का कोई जायज़ आधार नहीं था. कोई तर्क नहीं था. कोई तुक नहीं था. क्या यह मुसलमानों के लिए सोचनेवाली बात नहीं है कि किसी का एक सुझाव देना भी उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है, किसी का किसी अपराध को उजागर करना उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है? इससे बड़ी असहिष्णुता और क्या होगी? क्या इसलाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? क़तई नहीं.

 

Why Indian Muslims didn't change with time?

उम्मीद थी कि वक़्त के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ ज़ंजीरें तो टूटेंगी ही. हालाँकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिलकुल नहीं आया है. आया है और वह सोशल मीडिया पर दिखता भी है. वरना आज से तीस साल पहले 1985 में जब शाहबानो मसले पर मैंने मुसलिम कठमुल्लेपन और पर्सनल लॉ के ख़िलाफ़ लिखा था, तब शायद मेरी राय से सहमत होने वाले इक्का-दुक्का ही मुसलमान रहे हों या हो सकता है बिलकुल ही न रहे हों. यह पता लगा पाना तब मुमकिन नहीं था क्योंकि तब सोशल मीडिया नहीं था. लेकिन आज काफ़ी भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर खुल कर यह लिख रहे हैं कि मुसलिम समाज को किस तरह अपनी सोच बदलनी चाहिए, धर्म की जकड़न और कट्टरपंथ से बाहर निकलना चाहिए, वोट बैंक के रूप में दुहे जाने और थोथे भावनात्मक मुद्दों के बजाय शिक्षा, विकास और तरक़्क़ी के बुनियादी सवालों पर ध्यान देना चाहिए और आधुनिक बोध से चीज़ों को देखने की आदत डालनी चाहिए.

 

Religious Fundamentalism and Indian Muslims

लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुसलिम समाज (Indian Muslim Society) का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मग़ज़ है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है. वरना ऐसा क्यों होता कि बलात्कार की शिकार इमराना (Imrana Rape Case) और दो पतियों के भँवर के बीच फँसी गुड़िया (The queer case of Gudia, Taufiq and Arif) के मामले में शरीअत के नाम पर इक्कीसवीं सदी में ऐसे शर्मनाक फ़ैसले होते और देश के मुसलमान चुप बैठे देखते रहते! ऐसे मामलों में मुसलमानों का नेतृत्व कौन करता है, उन्हें राह कौन दिखाता है? ले दे कर मुल्ला-मौलवी या उनका शीर्ष संगठन मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड. राजनीतिक नेतृत्व कभी रहा नहीं. और शहाबुद्दीन, बनातवाला, सुलेमान सैत या ओवैसी सरीखों का जो नेतृत्व यहाँ-वहाँ उभरा भी, धार्मिक पहचान के आधार पर ही उभरा. इसलिए वह मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ही भड़का कर उन्हें हाँकते रहे. रही-सही कसर तथाकथित सेकुलर राजनीति ने पूरी कर दी, जो वोटों की गणित में कट्टरपंथी और पुरातनपंथी कठमुल्ला तत्वों को पालते-पोसते, बढ़ाते रहे और जानते-बूझते हुए उनके अनुदार आग्रहों के आगे दंडवत होते रहे. इसने मुसलमानों के बीच शुरू हुई सारी सुधारवादी कोशिशों का गला घोंट दिया क्योंकि सत्ता हमेशा उनके हाथ मज़बूत करती रही, जो 'इसलाम ख़तरे में है' का नारा लगा-लगा कर मुसलमानों को भी और सत्ता को भी डराते रहे.

 

धार्मिक पहचान से इतर कुछ नहीं!

इसीलिए मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या (biggest problem of Indian Muslims) यही है कि अपनी धार्मिक पहचान से इतर वह और कुछ देख नहीं पाते. और यही वजह कि मुसलमानों के पास अपने कोई नायक भी नहीं हैं. पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को मुसलमान अपना हीरो क्यों नहीं मानते? सवाल पूछनेवाले ने यह ध्यान नहीं दिया कि कलाम के पहले भी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन या फ़ख़रुद्दीन अली अहमद मुसलमानों के हीरो क्यों नहीं बन सके? और छोड़िए, ज़िन्दगी भर मुसलमानों, बाबरी मसजिद और मुसलिम पर्सनल लॉ के लिए लड़ते रहे सैयद शहाबुद्दीन तक को कोई मुसलमान अपना हीरो नहीं मानता, आज कोई उनका नामलेवा क्यों नहीं है? मुसलमानों का यही मुसलमानों का विचित्र मनोविज्ञान है, जिसे समझे बिना यह समझा ही नहीं जा सकता कि मुसलमान आख़िर इस तरह धर्म के फंदे में क्यों फँसा हुआ है?

 

असली मुद्दों पर क्यों नहीं आन्दोलित होते मुसलमान?

समस्या की सारी जड़ यहीं है. इसी मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर कई मुसलिम मित्रों ने ज़ोरदार ढंग से यह सवाल उठाया आख़िर क्यों मुसलमान आज तक कभी अपनी बुनियादी ज़रूरतों पर, आर्थिक मुद्दों पर, सम्मान की ज़िन्दगी जीने को लेकर कभी आन्दोलित नहीं हुआ. जब भी आन्दोलित हुआ तो धर्म के नाम पर. और उसमें भी कभी मुसलमानों ने मुम्बई, गुजरात या कहीं के दंगों की जाँच के लिए, दोषियों को सज़ा दिलाने या बेहतर मुआवज़े की माँग को लेकर कभी आन्दोलन नहीं किया, कभी बड़े-बड़े जुलूस नहीं निकाले. तीस्ता सीतलवाड तो गुजरात के मुसलमानों के लिए लड़ीं, लेकिन मुसलमानों के वे नेता, वे उलेमा कहाँ-कहाँ दंगापीड़ितों को इनसाफ़ दिलाने के लिए लड़े? वे जो हर क़दम पर मुसलमानों को भड़काने के लिए तलवारें भाँजते हैं, वे कभी मुसलमानों की वाजिब लड़ाई के लिए आगे क्यों नहीं आते?

 

Indian Muslims must ponder on these questions!

जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीज़ों को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी कूढ़मग़ज़ी का कोई इलाज नहीं है. तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आख़िर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों 'इसलाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है? और क्या ऐसा होना ठीक है? मुसलमानों को अपने भीतर सुधारों और बदलावों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए.

 

और अन्त में…

Indian Muslims, Negative Image, Media & Social Media

मुसलमानों के ख़िलाफ़ बन रही नकारात्मक छवि के पीछे मुसलमानों का बड़ा हाथ तो है ही, लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से झूठे-सच्चे प्रचार अभियान मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार चलाये जाते हैं, कभी संगठित रूप से और कभी अलग-अलग. उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल के सरपरस्त संगठन की तरफ़ से तीन-तीन बार कैसे बेसिर-पैर के अभियान चलाये गये, यह किसी से छिपा नहीं है. सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ कितना बड़ा गिरोह सक्रिय है, यह बात सबको पता है. लेकिन मीडिया में भी एक तबक़ा बाक़ायदा इस अभियान में जुटा है. अभी हाल में 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने एक ख़बर छापी कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर क़ाज़ी मासूम अख़्तर (Kazi Masum Akhtar) की कठमुल्ला तत्वों ने इसलिए पिटाई कर दी कि वह गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान गाने का अभ्यास करा रहा था, लेकिन मदरसा संचालकों ने इसलिए उसको पीटा कि वे राष्ट्रगान को 'हिन्दुत्ववादी' मानते हैं. इसके बाद यह ख़बर जस की तस कुछ समाचार एजेन्सियों ने जारी की और कई छोटे-बड़े अख़बारों, वेबसाइटों पर छपी, कुछ टीवी चैनलों पर चली, पैनल डिस्कशन भी हो गये. सोशल मीडिया पर ख़ूब बतंगड़ बना. बाद में newslaundry.com ने ख़बर दी कि हेडमास्टर अख़्तर की पिटाई की ख़बर तो सच है, और यह पिटाई कठमुल्लेपन के विरुद्ध उनके प्रगतिशील विचारों के कारण हुई थी, यह भी सच है. लेकिन पिटाई की यह घटना नौ महीने पहले हुई थी और तब से अख़्तर मदरसे आये ही नहीं है. इसलिए इस गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान का अभ्यास कराने का सवाल ही नहीं उठता. मदरसे के एक हिन्दू शिक्षक सुदीप्तो कुमार मंडल के मुताबिक़ वह दस साल से मदरसे में पढ़ा रहे हैं और राष्ट्रगान मदरसे की डायरी में छपा है और हर दिन सुबह की प्रार्थना में गाया जाता है और यह सिलसिला तब से है, जब अख़्तर ने मदरसे की नौकरी शुरू भी नहीं की थी. मदरसे में इस समय सात हिन्दू शिक्षक हैं.

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धर्म-निरपेक्ष कि पंथ-निरपेक्ष? https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%a7%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%a5-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%aa/ Mon, 07 Dec 2015 07:16:40 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%a7%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a4%82%e0%a4%a5-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%aa/   पिछले हफ़्ते बड़ी बहस हुई. सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अँगरेज़ी में जो 'रिलीजन' है, वह हिन्दी में क्या है—धर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इसलाम धर्म है या इसलाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है. गाहे-बगाहे इस कोने […]

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पिछले हफ़्ते बड़ी बहस हुई. सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अँगरेज़ी में जो 'रिलीजन' है, वह हिन्दी में क्या है—धर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इसलाम धर्म है या इसलाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है. गाहे-बगाहे इस कोने से, उस कोने से उठती रही है. लेकिन वह कभी कोनों से आगे बढ़ नहीं पायी!

The Great Debate on Secularism via Constitution Day and Ambedkar
आम्बेडकर के बहाने, कई निशाने!

इस बार बहस कोने से नहीं, केन्द्र से उठी है! और बहस केन्द्र से उठी है, तो चलेगी भी, चलायी जायेगी! अब समझ में आया कि बीजेपी ने संविधान दिवस यों ही नहीं मनाया था. मामला सिर्फ़ 26 जनवरी के सामने 26 नवम्बर की एक नयी लकीर खींचने का नहीं था. और आम्बेडकर को अपने 'शो-केस' में सजाने का आयोजन सिर्फ़ दलितों का दिल गुदगुदाने और 'समावेशी' पैकेजिंग के लिए नहीं था! तीर एक, निशाने कई हैं! आगे-आगे देखिए, होता है क्या? गहरी बात है!आदिवासी नहीं, वनवासी क्यों?और गहरी बात यह भी है कि बीजेपी और संघ के लोग 'सेकुलर' को 'धर्म-निरपेक्ष' क्यों नहीं कहते? दिक़्क़त क्या है? और कभी आपका ध्यान इस बात पर गया कि संघ परिवार के शब्दकोश में 'आदिवासी' शब्द क्यों नहीं होता? वह उन्हें 'वनवासी' क्यों कहते हैं? आदिवासी कहने में दिक़्क़त क्या है? गहरे मतलब हैं!

Why 'Adivasi' becomes 'Vanvasi' in Sangh's lexicon?'
आदि' यानी प्रारम्भ से. इसलिए 'आदिवासी' का मतलब हुआ जो प्रारम्भ से वास करता हो! संघ परिवार को समस्या यहीं हैं! वह कैसे मान ले कि आदिवासी इस भारत भूमि पर शुरू से रहते आये हैं? मतलब 'आर्य' शुरू से यहाँ नहीं रहते थे? तो सवाल उठेगा कि वह यहाँ कब से रहने लगे? कहाँ से आये? बाहर से कहीं आ कर यहाँ बसे? यानी आदिवासियों को 'आदिवासी' कहने से संघ की यह 'थ्योरी' ध्वस्त हो जाती है कि आर्य यहाँ के मूल निवासी थे और 'वैदिक संस्कृति' यहाँ शुरू से थी! और इसलिए 'हिन्दू राष्ट्र' की उसकी थ्योरी भी ध्वस्त हो जायेगी क्योंकि इस थ्योरी का आधार ही यही है कि आर्य यहाँ के मूल निवासी थे, इसलिए यह 'प्राचीन हिन्दू राष्ट्र' है! इसलिए जिन्हें हम 'आदिवासी' कहते हैं, संघ उन्हें 'वनवासी' कहता है यानी जो वन में रहता हो. ताकि इस सवाल की गुंजाइश ही न बचे कि शुरू से यहाँ की धरती पर कौन रहता था! है न गहरे मतलब की बात!

Dharma, Panth, Religion and Secularism
धर्म-निरपेक्षता के बजाय पंथ-निरपेक्षता क्यों?

धर्म और पंथ का मामला भी यही है. संघ और बीजेपी के लोग सिर्फ़ 'सेकुलर' के अर्थ में 'धर्म' के बजाय 'पंथ' शब्द क्यों बोलते हैं? क्यों 'धर्म-निरपेक्ष' को 'पंथ-निरपेक्ष' कहना और कहलाना चाहते हैं? वैसे कभी आपने संघ या संघ परिवार या बीजेपी के किसी नेता को 'हिन्दू धर्म' के बजाय 'हिन्दू पंथ' बोलते सुना है? नहीं न! और कभी आपने उन्हें किसी हिन्दू 'धर्म-ग्रन्थ' को 'पंथ-ग्रन्थ' कहते सुना है? और अकसर आहत 'धार्मिक भावनाएँ' होती हैं या 'पंथिक भावनाएँ?''भारतीय राष्ट्र' के तीन विश्वासक्यों? इसलिए कि संघ की नजर में केवल हिन्दू धर्म ही धर्म है, और बाक़ी सारे धर्म, धर्म नहीं बल्कि पंथ हैं! और हिन्दू और हिन्दुत्व की परिभाषा क्या है? सुविधानुसार कभी कुछ, कभी कुछ! मसलन, एक परिभाषा यह भी है कि जो भी हिन्दुस्तान (या हिन्दूस्थान) में रहता है, वह हिन्दू है, चाहे वह किसी भी पंथ (यानी धर्म) को माननेवाला हो. यानी भारत में रहनेवाले सभी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और अन्य किसी भी धर्म के लोग हिन्दू ही हैं! और एक दूसरी परिभाषा तो बड़ी ही उदार दिखती है. वह यह कि हिन्दुत्व विविधताओं का सम्मान करता है और तमाम विविधताओं के बीच सामंजस्य बैठा कर एकता स्थापित करना ही हिन्दुत्व है. यह बात संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दशहरे के अपने पिछले भाषण में कही. लेकिन यह एकता कैसे होगी? अपने इसी भाषण में संघ प्रमुख आगे कहते हैं कि संघ ने 'भारतीय राष्ट्र' के तीन विश्वासों 'हिन्दू संस्कृति', 'हिन्दू पूर्वजों' और 'हिन्दू भूमि'के आधार पर समाज को एकजुट किया और यही 'एकमात्र' तरीक़ा है.

Sangh's model of Secularism
तब क्या होगा सरकार का धर्म?

यानी भारतीय समाज 'हिन्दू संस्कृति' के आधार पर ही बन सकता है, कोई सेकुलर संस्कृति उसका आधार नहीं हो सकती. और जब यह आधार 'हिन्दू संस्कृति', 'हिन्दू पूर्वज' और 'हिन्दू भूमि' ही है, तो ज़ाहिर है कि देश की सरकार का आधार भी यही 'हिन्दुत्व' होगा यानी सरकार का 'धर्म' (यानी ड्यूटी) या यों कहें कि उसका 'राजधर्म' तो हिन्दुत्व की रक्षा, उसका पोषण ही होगा, बाक़ी सारे 'पंथों' से सरकार 'निरपेक्ष' रहेगी? हो गया सेकुलरिज़्म! और मोहन भागवत ने यह बात कोई पहली बार नहीं कही है. इसके पहले का भी उनका एक बयान है, जिसमें वह कहते हैं कि 'भारत में हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-भिड़ते एक दिन साथ रहना सीख जायेंगे, और साथ रहने का यह तरीक़ा 'हिन्दू तरीक़ा' होगा!तो अब पता चला आपको कि सेकुलर का अर्थ अगर 'पंथ-निरपेक्ष' लिया जाये तो संघ को क्यों सेकुलर शब्द से परेशानी नहीं है, लेकिन 'धर्म-निरपेक्ष' होने पर सारी समस्या खड़ी हो जाती है!

गोलवलकर और भागवत
अब ज़रा माधव सदाशिव गोलवलकर के विचार भी जान लीजिए, जो संघ के दूसरे सरसंघचालक थे. अपनी विवादास्पद पुस्तक 'वी, आर अॉवर नेशनहुड डिफ़ाइंड' में वह कहते हैं कि हिन्दुस्तान अनिवार्य रूप से एक प्राचीन हिन्दू राष्ट्र है और इसे हिन्दू राष्ट्र के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए. जो लोग इस 'राष्ट्रीयता' यानी हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा के नहीं हैं, वे स्वाभाविक रूप से (यहाँ के) वास्तविक राष्ट्रीय जीवन का हिस्सा नहीं हैं…ऐसे सभी विदेशी नस्लवालों को या तो हिन्दू संस्कृति को अपनाना चाहिए और अपने को हिन्दू नस्ल में विलय कर लेना चाहिए या फिर उन्हें 'हीन दर्जे' के साथ और यहाँ तक कि बिना नागरिक अधिकारों के यहाँ रहना होगा.तो गोलवलकर और भागवत की बातों में अन्तर कहाँ है? भागवत भी वही बात कहते आ रहे हैं, जो गोलवलकर ने कही थी. और इसीलिए 'धर्म-निरपेक्षता' शब्द संघ की हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सबसे बड़ी बाधा है. हैं न गहरे मतलब!

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क्या चाहिए आपको, लोकतंत्र या धर्म-राज्य? https://sabrangindia.in/kayaa-caahaie-apakao-laokatantara-yaa-dharama-raajaya/ Sun, 29 Nov 2015 12:17:11 +0000 http://localhost/sabrangv4/2015/11/29/kayaa-caahaie-apakao-laokatantara-yaa-dharama-raajaya/ आज आपको रिबेरो, सुशील कुमार, शाहरुख़, आमिर और 'सिकुलरों' को लताड़ना हो, लताड़ लीजिए. लेकिन जिस एजेंडे पर देश को ले जाने की कोशिश हो रही है, उसे समझिए. धर्म पर आधारित कोई राज्य आधुनिक, उदार और लोकताँत्रिक नहीं होता, हो ही नहीं सकता. इतिहास में, अतीत में, दुनिया में चाहे जहाँ खँगाल कर देख […]

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आज आपको रिबेरो, सुशील कुमार, शाहरुख़, आमिर और 'सिकुलरों' को लताड़ना हो, लताड़ लीजिए. लेकिन जिस एजेंडे पर देश को ले जाने की कोशिश हो रही है, उसे समझिए. धर्म पर आधारित कोई राज्य आधुनिक, उदार और लोकताँत्रिक नहीं होता, हो ही नहीं सकता. इतिहास में, अतीत में, दुनिया में चाहे जहाँ खँगाल कर देख लीजिए, धर्म आधारित राज्यों का चरित्र हमेशा, हर जगह एक ही जैसा रहा है. खाप पंचायतों के विराट और कहीं-कहीं कुछ परिष्कृत संस्करणों जैसा!


Courtesy: raagdesh.com

सिर्फ़ बीस दिन हुए थे. शायद ही ऐसा पहले कभी हुआ हो. देश में कोई नयी सरकार बनी हो और महज़ बीस दिनों में ही यह या इस जैसा कोई सवाल उठ जाये! तारीख़ थी 14 जून 2014, जब 'राग देश' के इसी स्तम्भ में यह सवाल उठा था—2014 का सबसे बड़ा सवाल, मुसलमान!और यह सवाल सरकार बनने के फ़ौरन बाद ही नहीं उठा था. 'राग देश' के नियमित पाठक अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर डालें तो उन्हें याद आ जायेगा. लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान ही यह सवाल उठना शुरू हुआ था, जब इसी स्तम्भ में मैंने लिखा था कि इस चुनाव में पहली बार कैसे देश दो तम्बुओं में बँटा हुआ दिख रहा है और कैसे यह चुनाव आशाओं और आशंकाओं के बीच एक युद्ध बन गया है!

Is it Intolerance or agenda of Hindu Rashtra?
सिर्फ़ डेढ़ साल और एक सवाल<

!क्यों? यह सवाल देश में सिर्फ़ डेढ़ साल पहले अचानक उठना क्यों शुरू हो गया? आज़ादी के बाद से अब तक कभी ऐसा सवाल नहीं उठा? लेकिन यह इन्हीं डेढ़ सालों में क्यों उठ रहा है? ऐसा तो नहीं है कि इससे पहले देश में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए! बहुत बड़े-बड़े और भयानक दंगे हुए. लेकिन यह सवाल ऐसे किसी दंगों के बाद भी कभी नहीं उठा! न 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद उठा, न 1992 के मुम्बई दंगों के बाद उठा और न 2002 के गुजरात दंगों के बाद! ऐसा तो नहीं है कि इससे पहले कभी ईसाइयों को निशाना नहीं बनाया गया. बहुत बार उन पर हिंसक हमले हुए. लेकिन गुजरात के डांग और उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स को ज़िन्दा जला दिये जाने की बर्बर वारदातों के बावजूद देश में ऐसा सवाल पहले कभी क्यों नहीं उठा?सवाल यही है कि यह सवाल अभी ही क्यों उठ रहा है? पिछले डेढ़ सालों में ही क्यों उठने लगा है? इन डेढ़ सालों में देश में ऐसा क्या बदला है कि जो सवाल बड़े-बड़े दंगों के बाद कभी नहीं उठा, वह अभी क्यों उठ रहा है. एक दादरी की घटना को छोड़ दें तो इन डेढ़ सालों में देश में साम्प्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी वारदात नहीं हुई, यहाँ-वहाँ छिटपुट घटनाएँ हुईं, जो हमेशा होती ही रहती हैं. हर साल ऐसी सैंकड़ों घटनाएँ होती हैं, तो इस साल भी हुईं और आँकड़ों को देखें तो शायद पहले से कम भी हुईं. फिर यह असहिष्णुता (Intolerance) का सवाल क्यों उठ रहा है?

It is not a matter of Intolerance at all, but a well thought plan to change our Social Landscape!
मामला असहिष्णुता का है नहीं!

सवाल इतना कठिन नहीं है कि इसका जवाब ढूँढने के लिए बड़ी रिसर्च करनी पड़े, मोटी-मोटी पोथियाँ पलटनी पड़ें. जवाब बड़ा आसान है और साफ़ है. मामला असहिष्णुता (Intolerance) का है ही नहीं! जो हो रहा है, उसे असहिष्णुता (Intolerance) कह कर या तो आप 'कन्फ़्यूज़' हैं, या लोगों को 'कन्फ्यूज़' करना चाहते हैं, या मामले की गम्भीरता समझ नहीं रहे हैं, या समझ कर भी उसे कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं. बहरहाल, बात जो भी हो, पिछले डेढ़ सालों में देश में जो भी हुआ, जो भी हो रहा है, वह असहिष्णुता (Intolerance) का मामला नहीं है. हालाँकि इन मुद्दों पर आयी बहुत-सी प्रतिक्रियाओं में ज़रूर बड़ी असहिष्णुता (Intolerance) दिखी, लेकिन हम जानते हैं कि आवेश में कभी-कभी ऐसा हो जाता है!बात को आगे बढ़ाने के पहले यह बात भी साफ़ हो जाये कि यह मामला न असहिष्णुता (Intolerance) का है और न यह हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच किसी झगड़े का है. बल्कि मामला एक घोषित एजेंडे का है, जिसे देश का एक बड़ा संगठन बाक़ायदा चला रहा है. एक ऐसे एजेंडा, जिसकी एक निश्चित योजना है, एक ख़ाका है, एक नक़्शा है, एक 'रोडमैप' है. एजेंडा भी साफ़ है, और सार्वजनिक है, हिन्दुत्व की स्थापना, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना. और इस एजेंडे को वे लोग चला रहे हैं, जिनका कहना है कि आठ सौ साल बाद देश में हिन्दुओं की सरकार आयी है! याद कीजिए साल भर पहले, नवम्बर 2014 में विश्व हिन्दू काँग्रेस में अशोक सिंहल का बयान, जिसका आज तक किसी ने खंडन नहीं किया, सरकार में बैठे किसी व्यक्ति ने या सरकार चलानेवाली देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के किसी नेता ने न इस बयान का खंडन किया और न आलोचना की! मतलब क्या है इसका? आप कह सकते हैं कि सरकार क्यों इस तरह के 'दावों' का खंडन करे? ठीक बात है! लेकिन जब प्रधानमंत्री 'हिन्दू राष्ट्रवादी' हो (नरेन्द्र मोदी ने यह बात ख़ुद ही कही थी), जब विश्व हिन्दू परिषद के वही अशोक सिंहल जी प्रधानमंत्री के शपथ-ग्रहण समारोह में पहली पंक्ति में नज़र आयें और जब संघ, विहिप और परिवार के बाक़ी संगठनों के सामने केन्द्र सरकार के मंत्री अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करें, उनसे निर्देश लें तो इसके बाद इसमें कोई शक रह जाता है कि सरकार किस रिमोट कंट्रोल से चल रही है!

सरकार, परिवार और रिमोट कंट्रोल
और इसी रिमोट कंट्रोल ने मोदी सरकार बनते ही ईसाइयों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ अभियान अचानक शुरू कर दिया. अन्धविश्वास और धार्मिक उग्रवाद के ख़िलाफ़ लिखनेवाले लेखकों को निशाना बनाया जाने लगा. ज़ोर-शोर से 'लव जिहाद' का हंगामा खड़ा किया था. दिलचस्प बात है कि देश के कई राज्यों में बरसों से बीजेपी की सरकारें चल रही हैं, लेकिन इनमें से कोई भी सरकार आज तक 'लव जिहाद' का एक भी मामला पकड़ नहीं पायी! फिर यह मुद्दा क्यों उछाला गया? फिर 'घर-वापसी', चार शादियाँ और चालीस बच्चे, हरामज़ादे और मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की धमकियाँ चलीं. गोमांस के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगला गया. स्कूलों के पाठ्यक्रमों का हिन्दूकरण करने की शुरुआत हुई. इतिहास में जो कुछ भी मुसलमानों के नाम पर अच्छा हो, उसको बदलने का अभियान जारी है. हिन्दू त्योहारों से मुसलमानों को अलग रखने के बाक़ायदा संगठित अभियान चलाये गये. और तो और, उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी की निष्ठा और देशभक्ति पर सवाल उठाये गये, एक बार नहीं, तीन-तीन बार.और सवाल किसने उठाये. संघ के एक बहुत बड़े और ज़िम्मेदार नेता ने! उप-राष्ट्रपति की साख पर बार-बार उँगली उठाने का मक़सद क्या था? क्या यह महज़ चूक थी? तो क्या एक ही चूक तीन बार हो सकती है? और जो पार्टी सरकार चला रही है, जब उसका अध्यक्ष कहता है कि बिहार में एनडीए की हार पर पटाख़े पाकिस्तान में दग़ेंगे, तो वह किस समुदाय को निशाना बना रहा है और क्यों? और जब ख़ुद प्रधानमंत्री कहते हैं कि नीतीश-लालू-सोनिया आपका आरक्षण छीन कर किसी और धर्म के लोगों को देना चाहते हैं, तो वह पूरे हिन्दू समाज को किस समुदाय के ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश करते हैं? इसका क्या सन्देश है?

पहले कब किसी ने सेकुलरिज़्म का पाठ पढ़ाया?
बताइए, आज़ाद भारत के इतिहास में कब ऐसा हुआ कि अमेरिका के किसी राष्ट्रपति को या दुनिया के किसी और राष्ट्रनेता को भारत को सेकुलरिज़्म का पाठ पढ़ाने की ज़रूरत पड़ी हो. और क्यों उस जूलियो रिबेरो को पहली बार अपने ईसाई होने का एहसास अजीब लगा, जिसने पंजाब से आतंकवाद के ख़ात्मे के लिए जी-जान लगा दी थी. क्यों पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार को भी लगभग ऐसा ही लगा? हंगामा तो तब भी मचा था. देशभक्ति पर सवाल तब भी उठे थे. और हंगामा तब भी मचा, जब अभी हाल में शाहरुख़ ख़ान ने कहा कि कुछ 'अनसेकुलर' (यानी जो सेकुलर नहीं हैं) तत्वों की ओर से असहिष्णुता (Intolerance) बढ़ी है. अगर ऊपर दी गयी घटनाएँ ग़लत नहीं हैं, तो शाहरुख़ के बयान में क्या ग़लत है? क्यों हंगामा हुआ उस पर? और फिर आमिर की बात पर हंगामा हुआ. सवाल उठ सकता है कि आमिर ने यह क्यों कहा कि उनकी पत्नी इतनी चिन्तित हुईँ कि पूछने लगीं कि किसी और देश में रहने जायें क्या? आपत्ति क्या इसी बात पर थी? अगर आमिर केवल यह वाली बात न कहते, तो हंगामा नहीं होता क्या? शाहरुख़ ने तो ऐसा कुछ नहीं कहा था, फिर हंगामा क्यों हुआ? उनकी देशभक्ति पर क्यों सवाल उठे?इसमें कोई शक नहीं कि यह देश बड़ा सहिष्णु है और आम हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु है. इसमें भी कोई शक नहीं कि मुसलमानों के लिए भारत से ज़्यादा अच्छी जगह और कहाँ होगी? चिन्ता यही है कि कुछ लोग एक सुविचारित और घोषित एजेंडे के तहत इसे बदलने-बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं. आश्चर्य है कि जो लोग देश बिगाड़ने के इन षड्यंत्रों का विरोध कर रहे हैं, आप उनकी ही देशभक्ति पर सवाल उठा रहे हैं! लेकिन एक बात समझ लीजिए. आज आपको रिबेरो, सुशील कुमार, शाहरुख़, आमिर और 'सिकुलरों' को लताड़ना हो, लताड़ लीजिए. लेकिन जिस एजेंडे पर देश को ले जाने की कोशिश हो रही है, उसे समझिए. धर्म पर आधारित कोई राज्य आधुनिक, उदार और लोकताँत्रिक नहीं होता, हो ही नहीं सकता. इतिहास में, अतीत में, दुनिया में चाहे जहाँ खँगाल कर देख लीजिए, धर्म आधारित राज्यों का चरित्र हमेशा, हर जगह एक ही जैसा रहा है. खाप पंचायतों के विराट और कहीं-कहीं कुछ परिष्कृत संस्करणों जैसा! संस्कृति, परम्पराओं और पोंगापंथी नैतिकताओं के पिंजड़ों में दाना-पानी चुगते हुए जीवन गुज़ार देने की आज़ादी से बड़ा कोई भी सपना देखना वहाँ सबसे बड़ा अधर्म होता है. क्या चाहिए आपको, लोकतंत्र या धर्म-राज्य? चुनाव आपका है.

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