rakesh-kayasth | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/rakesh-kayasth-6556/ News Related to Human Rights Tue, 16 Aug 2016 06:08:54 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png rakesh-kayasth | SabrangIndia https://sabrangindia.in/content-author/rakesh-kayasth-6556/ 32 32 जिन्हे नाज़ है हिंद पर… https://sabrangindia.in/column/jinhe-naaz-ha-hind-pe/ Tue, 16 Aug 2016 06:08:54 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/jinhe-naaz-ha-hind-pe/ आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यानी भारत विभाजन के दो साल पूरे हो चुके थे। दिल्ली में नफरत की आग अब लगभग ठंडी पड़ चुकी थी। उधर भगत सिंह का शहर लाहौर बाकी रंगों के मिटाये जाने और सिर से पांव तक हरे रंग में रंगे जाने के बाद एकदम बदरंग हो चुका […]

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आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यानी भारत विभाजन के दो साल पूरे हो चुके थे। दिल्ली में नफरत की आग अब लगभग ठंडी पड़ चुकी थी। उधर भगत सिंह का शहर लाहौर बाकी रंगों के मिटाये जाने और सिर से पांव तक हरे रंग में रंगे जाने के बाद एकदम बदरंग हो चुका था। ऐसे में लाहौर में रहने वाले एक नौजवान ने मजहबी कट्टरता वाली जहरीली हवा में सांस लेने से इनकार कर दिया। वह पहले दिल्ली आया फिर वहां से उसने बंबई का रुख किया। उस नौजवान का नाम था—अब्दुल हई, जिसे बाद में दुनिया ने शायर साहिर लुधियानवी के नाम से जाना। भारत में बसने के कुछ अरसे बाद साहिर ने पूरे देश से एक सवाल किया—जिन्हे नाज है हिंद पर वो कहां हैं? रुमानियत के उस दौर में जहां नेहरू समेत इस देश के तमाम बड़े नेता भगवान की तरह पूजे जाते थे.. यह सवाल हथौड़े की चोट की तरह था–  जिन्हे नाज है हिंद पर वो कहां हैं? जवाब में सिर्फ सन्नाटा था, लेकिन सवाल यूं ही हवा में तैरता रहा और कई पीढ़ियों के मन-मष्तिष्क को मथता रहा। आजादी से इमरजेंसी और इमरजेंसी से आर्थिक उदारवाद तक वक्त लगातार बदलता रहा। धीरे-धीरे यह सवाल भी बदल गया। अब सवाल नाज़ करने वालों से नहीं बल्कि हिंद पर नाज़ ना करने वालों से पूछे जाने लगे क्योंकि वो भारत पलको पर सुनहरे ख्वाब सजाकर बैठा एक नया नवेला आज़ाद मुल्क था, ये भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है और महाशक्तियों को सवाल पूछा जाना पसंद नहीं होता। विभाजन बहुत स्पष्ट है।

हिंद पर नाज़ करने वाले वतनपरस्त हैं और सवाल पूछने वाले नमकहराम। सवाल के बदले में सवाल है। हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनमी हैं। अंतरमहाद्वीपय बैलेस्टिक मिसाइलों के मालिक और न्यूक्लियर पावर हैं। पच्चीस साल में दर्जन भर मिस वर्ल्ड पैदा कर चुके हैं और दो बार क्रिकेट का वर्ल्ड कप भी जीत चुके हैं। फिर क्यों ना हो हमें अपने हिंद पर नाज़? साढ़े सात परसेंट के ग्रोथ रेट के साथ दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ती आर्थिक असमानता की बात करना स्वतंत्रता दिवस के पवित्र मौके पर मनहूसियत बिखेरना है। देश साझा सुख और साझा दुखों से बनता है लेकिन इस देश में साझा कुछ भी नहीं है, ये याद दिलाना बड़ी हिमाकत है। किसानों की आत्महत्या पर बात करना फैशन है और दलितों के मुद्धे उठाना ओछी राजनीति। हमलावरों का कोई भी समूह अचानक सड़क पर उतरता है और संविधान के पन्ने तार-तार करके चला जाता है। देश का चीफ जस्टिस प्रधानमंत्री के सामने रोता है और प्रधानमंत्रीजी अपनी चिर-परिचित मोदीगीरी छोड़कर गांधीगीरी पर उतर आते हैं—  मुझे गोली मार दो, लेकिन दलितों पर हमले मत करना। कार्यपालिका मजबूर, न्यायपालिका मजबूर, सिस्टम लाचार, मगर भूले से मत पूछना ये सवाल—जिन्हे नाज है, हिंद पर वो कहा हैं?

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अब नायक बनने की बारी बुधिया और मांझी जैसे गरीब लोगो की आई है https://sabrangindia.in/aba-naayaka-bananae-kai-baarai-baudhaiyaa-aura-maanjhai-jaaisae-garaiba-laogao-kai-ai-haai/ Sun, 07 Aug 2016 04:21:48 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/08/07/aba-naayaka-bananae-kai-baarai-baudhaiyaa-aura-maanjhai-jaaisae-garaiba-laogao-kai-ai-haai/ सोनी टीवी पर आने वाला कपिल शर्मा का शो आज संवेदनहीन भोंडे प्रहसन की सारी हदें पार कर गया। शो में मनोज वाजपेयी अपनी फिल्म बुधिया सिंह: बॉर्न टू रन के प्रमोशन के लिए आये थे। मनोज के इंटरव्यू के बाद उस बच्चे को भी पेश किया गया जिसने फिल्म में उड़ीसा के आदिवासी बाल […]

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सोनी टीवी पर आने वाला कपिल शर्मा का शो आज संवेदनहीन भोंडे प्रहसन की सारी हदें पार कर गया। शो में मनोज वाजपेयी अपनी फिल्म बुधिया सिंह: बॉर्न टू रन के प्रमोशन के लिए आये थे। मनोज के इंटरव्यू के बाद उस बच्चे को भी पेश किया गया जिसने फिल्म में उड़ीसा के आदिवासी बाल एथलीट बुधिया सिंह का किरदार निभाया है।

बुधिया का दीन-हीन हमशक्ल खोजना मुश्किल काम था। कास्टिंग टीम ने हज़ारों बच्चो के ऑर्डिशन के बाद बड़ी मेहनत से एक चेहरा ढूंढा। पर्दे के बुधिया की कहानी भी असली बुधिया जैसी ही है। गरीब आदिवासी है, पिता नहीं है, अपनी मां और मामा के साथ रहता है। बच्चे का नाम मयूर है, लेकिन ना तो ठीक से नाम बता पाता है और ना उम्र। सिर्फ हां और ना में जवाब देता है। निरीह बच्चे की चुप्पी पर शो में लगातार ठहाके लगते रहे। बच्चे के बाद कैमरे पर उसके मां और मामा की पेशी हुई। दोनो ही निहायत ही गरीब और सहमे हुए।

कपिल शर्मा ने मयूर की मां से कहा– आपसे से अच्छा तो आपका बेटा है, कम से कम हां ना तो बोलता है। ना बोलने पूरे परिवार का जमकर मजाक उड़ाया गया। मयूर की छोटी बहन तक के बारे में कहा गया– अच्छा आपलोगो की तरह यह भी नहीं बोलती। सेट की लगभग अंधा कर देने वाली लाइटिंग के बीच गांव या कस्बे से आया एक निरीह परिवार चुपचाप इस तरह खड़ा रहा जैसे रैगिंग चल रही हो। हरेक चैनल में एक S& P (stander and practices ) डिपार्टमेंट होता है, जिसका काम यह देखना होता है कि कोई भी शो संवेनशीलता के किसी भी मापदंड का अतिक्रमण ना करे। ऐसा लगता है कि ऑन एयर करने से पहले S& P ने उसे प्रीव्यू ही नहीं किया। अगर किया तो यह बात उनकी समझ क्यों नहीं आई कि शो में मयूर के पूरे परिवार से जिस तरह से बात की गई वो निहायत ही क्रूर और अशोभीनय है। बॉलीवुड आजकल बायोपिक का खजाना खोदने में जुटा है।


बड़े और संपन्न लोगो के बाद अब नायक बनने की बारी मांझी और बुधिया जैसे गरीब लोगो की आई है। फिल्म का नाम पहले दुरंतो था। इसी नाम से इसे सेंसर सार्टिफिकेट भी मिला है, लेकिन बुधिया की पहचान को भुनाने के चक्कर में बाद में इसका नाम बदला गया। बुधिया सिंह वही बच्चा है, जिसके पीछे 10 साल पहले देश के सारे न्यूज़ चैनल हाथ धोकर पड़े थे। छह साल के विलक्षण एथलीट के रूप में उसकी कहानी घर-घर पहुंची थी। फिल्म रीलीज़ होने की बारी आई तो मीडिया ने जवानी की दहलीज पर कदम रख रहे बुधिया सिंह को फिर से ढूंढ निकाला।

बुधिया को कोच मर चुका है। सरकार पढ़ाई का खर्च तो उठा रही है, लेकिन ट्रेनिंग ठीक से नहीं हो पा रही है। एक बड़ा एथलीट बनने का सपना लगभग मर चुका है। फिल्म के बारे में मीडिया ने पूछा तो बुधिया ने बड़ा मार्मिक बयान दिया– मुझे पता नहीं था कि मैं बचपन में इतना बड़ा आदमी था।

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कारसेवक और खालसेवक https://sabrangindia.in/column/karsevak-aur-khaalsevak/ Wed, 20 Jul 2016 14:32:45 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/karsevak-aur-khaalsevak/ गाय मरी हुई थी, लेकिन इंसान जिंदा थे। वे मरी गाय की खाल उतार रहे थे, बदले में आपने उनकी खाल खींच ली। आपका कदम पूरी तरह नैतिक था। गाय आपकी माता ठहरी, अपना परलोक सुधारने से लेकर दूसरो को परलोक भेजने तक आप जैसे चाहें उनके नाम का इस्तेमाल करें, आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। […]

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गाय मरी हुई थी, लेकिन इंसान जिंदा थे। वे मरी गाय की खाल उतार रहे थे, बदले में आपने उनकी खाल खींच ली।

आपका कदम पूरी तरह नैतिक था। गाय आपकी माता ठहरी, अपना परलोक सुधारने से लेकर दूसरो को परलोक भेजने तक आप जैसे चाहें उनके नाम का इस्तेमाल करें, आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।


A Dalit protests in Ahmedabad on Tuesday against attacks on the community. Photo: PTI


लेकिन हाय रे दुर्भाग्य! खाल आपने मुसलमानों की खींची थी,लेकिन वे बाद में ना जाने कैसे वे दलित हो गये। शायद वैसे ही जैसे फ्रिज में रखा बीफ कभी-कभी मटन हो जाता है।

सारा टंठा उनके मुसलमान ना होने की वजह से हुआ है। सबको पता है कि गाय अगर मरी हुई हो तब भी मुसलमानों से उसकी रक्षा करना धर्म है।

पेड़ पर टांगो या घर में घुसकर मारो मामला कुछ समय बाद रफा-दफा हो ही जाता है। लेकिन दलित! राम-राम ये कैसा प्रश्न है? दलित तो वे आध्यात्मिक पुरुष हैं, जो सदियों से अपनी स्वेच्छा से कचरा उठाते हैं और सिर पर मैला ढोते हैं।

मोदी जी ने अपनी किताब कर्मयोग में लिखा है कि कोई भी इस तरह के काम मजबूरी में नहीं कर सकता, दलित ये सब अपने आध्यात्मिक सुख के लिए करते हैं।

आपलोगो को उम्मीद है कि राम मंदिर की शिलाएं भी दलित खुशी-खुशी उठाएंगे। आपके हिंदू भारत का सपना इन्ही दलित, आदिवासियों और पिछड़ों पर टिका है। इन्हे निकाल दो तो हिंदू के नाम पर जो आबादी बचेगी वह माइनॉरिटी कहलाने लायक ही होगी।

आप जिस राजनीतिक हिंदू की कल्पना करते हैं, वह मुख से तो ब्राहण होगा, लेकिन पैरो से शूद्र होगा। मुख ही मुख्य है, लेकिन बिना पैरो के कोई खड़ा हो पाया है भला?  

इसलिए दलित और पिछड़े ज़रूरी हैं, कलियुग की मजबूरी हैं।

ताज्जुब नहीं अगर गुजरात में मरी गाय की खाल उतारते दलितों की निर्मम पिटाई हुई तो बीजेपी सरकार का दिल भर आया।

आनन-फानन कई आरोपी गिरफ्तार हुए। विश्व हिंदू परिषद तक ने कड़े शब्दों में निंदा की।

हमले का शिकार बने दलितों को लेकर हमदर्दी का जो सैलाब उमड़ा है, उसे देखते हुए अजरज नहीं होगा अगर उनके सामने खाल उतारने में मदद की पेशकश भी आने लगे।

कारसेवक बहुत दिन से खाली बैठे हैं, थोड़ी खालसेवा भी कर लें तो क्या बुरा है। आखिर महान आध्यात्मिक अनुभव पर दलितों का ही रिजर्वेशन क्यों रहे, सबको थोड़ा-थोड़ा मिले। दलितों ने इस खालसेवा पर अपना रिजर्वेशन छोड़ने का इरादा जता दिया है।

गुजरात में मरे हुए जानवर बड़े-बड़े अधिकारियों के दफ्तर पहुंचाये जा जा रहे हैं। कई जगहों से इस तरह की ख़बरें आ रही हैं। अब क्या करेंगे आप?

राजनीति हिंदू बचाना है तो इस महान आध्यात्मिक काम में दलितों का हाथ बंटाइये या फिर उन्हे हर्जाने का लॉलीपॉप थमाकर फुसलाइये।

लेकिन बहुत बड़ी आबादी है, इतनी आसानी से मानेगी नही।

कबीरदास ने कई सदी पहले कहा था—निर्बल को ना सताइये जाकी मोटी हाय/ मरे खाल की स्वास से लोहा भस्म हो जाये।

मरे खाल से उठती स्वास डरा रही है। आसार अच्छे नहीं हैं, उपर से अब ये लोग निर्बल भी नहीं रहे। हाय नहीं देते बल्कि हाय-हाय करने पर मजबूर कर देते हैं। 
 

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ओके साबुन उर्फ भारतीय लोकतंत्र https://sabrangindia.in/column/okay-sabun-urf-bharatiya-loktantra/ Tue, 14 Jun 2016 08:00:21 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/okay-sabun-urf-bharatiya-loktantra/ Image: Orijit Sen पैंतीस साल से ज्यादा उम्र वाले हर भारतीय को दूरदर्शन पर आनेवाला वह विज्ञापन ज़रूर याद होगा। विज्ञापन नहाने के साबुन ओके का था, जिसकी शुरुआत एक जिंगल से होती थी—   जो ओके साबुन से नहाये, कमल सा खिल जाये ओके नहाने का बड़ा साबुन   इस जिंगल के बोल पर […]

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Image: Orijit Sen

पैंतीस साल से ज्यादा उम्र वाले हर भारतीय को दूरदर्शन पर आनेवाला वह विज्ञापन ज़रूर याद होगा। विज्ञापन नहाने के साबुन ओके का था, जिसकी शुरुआत एक जिंगल से होती थी—
 
जो ओके साबुन से नहाये, कमल सा खिल जाये
ओके नहाने का बड़ा साबुन
 
इस जिंगल के बोल पर एक चड्डीधारी नौजवान झूम-झूमकर साबुन मलता था। नहा-धोकर तृप्त हो जाने के बाद वह अनाम मॉडल हाथ में साबुन लिये गर्व से कहता था– सचमुच काफी बड़ा है। बड़ा होना ही उस साबुन की एकमात्र विशेषता थी। ओके साबुन ना जाने कब का गायब हो चुका, लेकिन मेरी बाल स्मृतियों में वह विज्ञापन आज भी ताजा है।

उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री हुआ करते थे और दूरदर्शन राजीव दर्शन हुआ करता था। राजीव जी दिन में तीन बार दोहराते थे–  भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमें इस पर गर्व होना चाहिए। अपनी कल्पनाओं में मुझे ओके साबुन के मॉडल की जगह राजीव गांधी ही नज़र आते थे।

शरीर पर लोकतंत्र का साबुन मलते, झाग उड़ाते और बार-बार दोहराते—सचमुच काफी बड़ा है। वक्त के साथ मैं बड़ा होता गया और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और बडा लोकतंत्र होता चला गया। तीन दशक में मैने कच्चे,पक्के बहुत सारे प्रधानमंत्री देखे। लेकिन हर प्रधानमंत्री में एक बात आम थी। सबने अलग-अलग वक्त ज़रूर दोहराया—सचमुच काफी बड़ा है। भारत का लोकतंत्र इतना बड़ा है कि दुनिया का कोई और लोकतंत्र उसकी बराबरी नहीं कर सकता।

आज़ादी के बाद से लोकतंत्र के इस झाग में  नहाकर तमाम नेता बाग-बाग होते रहे हैं। मुझे भी हमेशा इस बात का कनफ्यूजन रहा कि भारत का लोकतंत्र आखिर कितना बड़ा है? बचपन मैने एक बार अपने मास्टर साहब से पूछा था कि भारत क्षेत्रफल में सातवें नंबर का देश है और जनसंख्या में दूसरे नंबर का तो फिर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कैसे हुआ? मास्टर साहब ने डपट दिया—किताब में लिखा है तो ज़रूर होगा,  चुपचाप रट लो। दूसरे मास्टर साहब सचमुच लोकतांत्रिक थे। उन्होने समझाया–  लोकतंत्र का मतलब लोग। लोकतंत्र क्षेत्रफल से नहीं बल्कि लोगो से बनता है और लोग भी वैसे होने चाहिए जो वोट डाल सकें।

चीन में भारत से ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन उन्हे वोट डालने का अधिकार नहीं है, इसलिए वहां लोकतंत्र नहीं है। अमेरिका आकार में भारत से बड़ा है लेकिन वहां वोटर कम हैं इसलिए दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत है। बात समझ में आ गई। संख्या ही हमें बड़ा बनाती है और एक बार बड़ा बन जाने के बाद कुछ और करने की ज़रूरत नहीं रह जाती।

नेताओं ने कुछ दूरंदेशी दिखाई होती तो कमल निशान वाला ओके भारत का राष्ट्रीय साबुन बन गया होता। लेकिन नेताओं की उदासीनता की वजह से ऐसा हो नहीं पाया और बेचारा ओके कहीं गुम हो गया। गनीमत है कि हमारा लोकतंत्र अभी तक चल रहा है।

लोकतंत्र में जनता भगवान होती है। यही वजह है कि दुनिया ने जब भी यह कहा कि भारत में लोकतंत्र भगवान भरोसे है, लेकिन हमने ज़रा भी बुरा नहीं माना।

इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर यह बता दिया था कि हमारा लोकतंत्र इतना बड़ा है कि जो भी उसकी सेहत पर सवाल उठाएगा वह मिटा दिया जाएगा। राष्ट्रीय नेता अलग-अलग वक्त में यह बताते आये हैं कि लोकतंत्र इतना बड़ा है कि उसके ख़तरे में होने की बात करना देशद्रोह माना जाएगा।

इसलिए पिछले 69 साल में सबसे बड़े लोकतंत्र का नारे में सबसे अच्छा, सबसे उदार या सबसे प्रगतिशील जैसा कुछ और नहीं जुड़ा। बड़ा होना ही अपने आप में काफी है, कुछ और लेकर कोई क्या करेगा! इस मामले में ओके साबुन और भारतीय लोकतंत्र में मुझे कमाल की समानता नज़र आती है।

नेताओं ने कुछ दूरंदेशी दिखाई होती तो कमल निशान वाला ओके भारत का राष्ट्रीय साबुन बन गया होता। लेकिन नेताओं की उदासीनता की वजह से ऐसा हो नहीं पाया और बेचारा ओके कहीं गुम हो गया। गनीमत है कि हमारा लोकतंत्र अभी तक चल रहा है।

वैसे अगर सबसे बड़े लोकतंत्र का क्रेडिट देना हो तो किसी दिया जाये? उन नेताओं को तो नहीं दिया जा सकता जो रात-दिन इसके बड़े होने का दंभ भरते रहते हैं। क्रेडिट हमारे बाप-दादाओं को ज़रूर है।

क्रेडिट इस देश में परिवार नियोजन कार्यक्रम की विफलता और इसके प्रति देशवासियों की अज्ञानता को भी है। लेकिन जो अज्ञानता हमें दुनिया में नंबर वन बनाये रखे, वह अज्ञानता नहीं है।

आबादी बढ़ाने वाले भी सच्चे देशभक्त हैं। अगर वे नहीं होते फिर हम भला किस तरह सीना तानकर यह बताते फिरते कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

अब उन ख़तरों पर गौर करना चाहिए जो भारत से दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र होने का ताज छीन सकते हैं। ख़तरे दो ही हैं। पहला ख़तरा अमेरिका से है। अगर अमेरिका यह ठान ले कि उसे विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र होने के साथ सबसे बड़ा लोकतंत्र भी बनना है तो क्या होगा?

दो सौ साल तक जमकर बच्चे पैदा करने के बाद अमेरिका भारत के करीब पहुंच सकता है। लेकिन भारत भी खामोश थोड़े ना बैठा रहेगा।

कम से कम चार बच्चे पैदा करने की नसीहत देने वालो के मार्गदर्शन में अमेरिका को पछाड़ दिया जाएगा।

दूसरा ख़तरा चीन है। भगवान ना करे वहां कभी लोकतांत्रिक क्रांति हो।

वैसे फिलहाल दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आती। इसलिए सबसे बड़े लोकतंत्र का हमारा ताज एकदम सुरक्षित है। 
 

 

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एक शिक्षाप्रद ऐतिहासिक कहानी https://sabrangindia.in/column/ek-shikshaprad-etehasik-kahani/ Sun, 05 Jun 2016 12:28:51 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/ek-shikshaprad-etehasik-kahani/ देश की गुलामी के दिनों में दो बहुत होनहार छात्र हुआ करते थे। एक था नाम था, मोहनदास करमंचद गांधी और दूसरे का भीमराव आंबेडकर। गांधी का मेन सब्जेक्ट नॉन वॉयलेंस था जबकि आंडबेकर का विषय सोशल जस्टिस। देश की आज़ादी के बाद इन दोनो होनहार विद्यार्थियों का रिजल्ट एनाउंस हुआ। गांधी टॉपर घोषित किये […]

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देश की गुलामी के दिनों में दो बहुत होनहार छात्र हुआ करते थे। एक था नाम था, मोहनदास करमंचद गांधी और दूसरे का भीमराव आंबेडकर। गांधी का मेन सब्जेक्ट नॉन वॉयलेंस था जबकि आंडबेकर का विषय सोशल जस्टिस। देश की आज़ादी के बाद इन दोनो होनहार विद्यार्थियों का रिजल्ट एनाउंस हुआ। गांधी टॉपर घोषित किये गये। सत्य-अहिंसा ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय में भी उन्हे शत-प्रतिशत अंक मिले, ये अलग बात है कि सामाजिक न्याय गांधी का मेन सब्जेक्ट नहीं बल्कि ऑप्शनल पेपर था।  दूसरी तरफ आंबेडकर की कॉपी कहीं गुम हो गई। कांग्रेसी गुरुजनों ने ढूंढने की बहुत कोशिश की, लेकिन कॉपी मिली ही नहीं। इसके बावजूद न्यायप्रिय सरकार ने आंबेडकर की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हे पास कर दिया लेकिन नंबर गांधी से बहुत कम दिये। आंबेडकर की गुम हुई कॉपी बरसो तक पहेली बनी रही। वक्त गुजरता चला गया। अब इम्तिहान लेने और कॉपी चेक करने की बारी बहुजन मास्टरों की आई। उन्होने आंबेडकर की गुम हुई कॉपी ढूंढ ली। उम्मीद के मुताबिक आंबेडकर की कॉपी सेंट-परसेंट नंबर लायक निकली। बहुजन गुरुजनों का कहना है कि चूंकि सामाजिक न्याय ही सबसे बड़ा विषय है, इसलिए आंबेडकर सही मायने में टॉपर हैं। जहां तक गांधी का सवाल है तो उनका परचा ही अवैध है, क्योंकि उन्होने 1932 में हुए पूना के एग्जाम में चीटिंग की थी। बहुजन गुरुजन यह भी मानते हैं कि सत्य-अहिंसा पर गांधी काम ऑरिजनल नहीं बल्कि गौतम बुद्ध की नकल था, इसलिए गांधी फेल किया जाना ही उचित है। नया रिजल्ट सुनते ही अहिंसावादियों के चेहरे उतर गये। आखिरकार राष्ट्रवादी प्रधान सेवक जी को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा, उन्होने देश को अपने मन की बात बताई— आंबेडकर बहुत अच्छे छात्र थे। अगर वे थोड़ी मेहनत और करते तो नेशनल टॉपर वीर सावरकर से भी आगे निकल जाते। जहां तक गांधी का सवाल है, फेल वे भी नहीं हैं क्योंकि उन्होने सफाई का परचा  बहुत साफ-सफाई के साथ लिखा था। इतना ही नहीं आनेवाली पीढ़ियां उन्हे बकरी के दूध को लोकप्रिय बनाने वाले महात्मा के रूप में भी जानेगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर गांधी को भी पास किया जाता है.. जाओ ऐश करो।
 
शिक्षा—महान भारत निरंतर परिवर्तनशील है। जब मटन बीफ और बीफ मटन बन सकते हैं तो फिर रिजल्ट क्या चीज़ है? यह देश जब भी देता है, बहुत कम या बहुत ज्यादा देता है। उतना कभी नहीं देता, जितना पानेवाले का वाजिब हक़ है।   
 

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कांबली, तेंदुलकर और आबंडेकर https://sabrangindia.in/column/kambli-tendulkar-ambedkar/ Wed, 01 Jun 2016 04:56:10 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/kambli-tendulkar-ambedkar/ दलित विमर्श में करियर बनाने को बेचैन लोग कहीं उभरते क्रिकेटर प्रणव धनावड़े का करियर खत्म ना करवा दें? सोशल मीडिया पर दो दिन से इस बात का शोर है कि द्रोणाचार्य ने फिर एकलव्य का अंगूठा काट लिया। शोर बेवजह नहीं है। प्रणव के नाम स्कूल क्रिकेट की एक पारी में सबसे ज्यादा रन […]

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दलित विमर्श में करियर बनाने को बेचैन लोग कहीं उभरते क्रिकेटर प्रणव धनावड़े का करियर खत्म ना करवा दें? सोशल मीडिया पर दो दिन से इस बात का शोर है कि द्रोणाचार्य ने फिर एकलव्य का अंगूठा काट लिया। शोर बेवजह नहीं है। प्रणव के नाम स्कूल क्रिकेट की एक पारी में सबसे ज्यादा रन बनाने का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। सचिन तेंदुलकर के बेटे अर्जुन तेंदुलकर के नाम ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है।

ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में उनके प्रैक्टिस करने की ख़बरें ज़रूर आती रहती हैं। वेस्ट जोन अंडर 16 टीम में अर्जुन तेंदुलकर का नाम है लेकिन प्रणव धनावड़े को शामिल नहीं किया गया है। पहली नज़र में मामला पक्षपात का लगता है। लेकिन चिंता के जो स्वर उभरे हैं, उनमें सिर्फ शोर है। डर है कि ये शोर प्रणव पर इतना ज्यादा दबाव ना बना दे कि वो बिखर जाये। अगर वाकई नाइंसाफी हुई है तो इसका जवाब प्रणव को अपने बल्ले से देना पड़ेगा, दूसरा कोई और तरीका नहीं है। बेहतर यह होता कि प्रणव के पक्ष में कोई सकारात्मक कैंपेन चलाया जाता जिससे उनका हौसला बढ़ता। इस पूरे प्रकरण पर अपनी समझ के हिसाब से कुछ बातें कहना चाहता हूं।

स्वीकार कर लीजिये कि साधन संपन्न परिवार में पैदा होनेवाले हर व्यक्ति को ऐसे फायदे मिलते हैं जो बाकी लोगो को नहीं मिलते।

1.       चयनकर्ताओं को तत्काल यह साफ करना चाहिए कि उन्होने अंडर 16 टीम के चयन के लिए कौन सा क्राइटेरिया फॉलो किया है। जहां तक मुझे मालूम है, भारत के हर राज्य में आधे से ज्यादा खिलाड़ी हैंड पिक होते हैं। नेट पर जो प्लेयर अच्छा लगता है, उसे सीधे उठा लिया जाता है। उसमें जूनियर लेवल या सब-जूनियर लेवल पर किये गये प्रदर्शन का बहुत ज्यादा महत्व नहीं होता। क्या चयनकर्ताओं ने प्रणव धनावड़े के कैंप के लिए बुलाया था और उन्हे खुद को साबित करने का मौका दिया था? मीडिया में यह ख़बर चल रही है कि प्रणव ने एक हज़ार रन की पारी 30 गज की बाउंड्री वाले मैदान पर 10 साल से कम उम्र के गेंदबाज़ों के खिलाफ खेली थी। अगर यह सच है तब भी प्रणव को ट्रायल का मौका मिलना चाहिए। अगर चयनकर्ताओं ने प्रणव को परखे बिना टीम चुन ली और इस मामले में माकूल सफाई नहीं दे पाते हैं तो फिर साफ हो जाएगा कि धांधली हुई है।

2.       क्रिकेट भारत में अभिजात्य लोगो का खेल रहा है। चयन में धांधली के मामले नये नहीं हैं। एक समय था जब भारतीय टीम में सिर्फ मुंबई, दिल्ली और बैंगलोर के खिलाड़ी हुआ करते थे। अगर जोनल कोटा सिस्टम लागू नहीं होता तो सौरव गांगुली और महेंद्र सिंह धोनी जैसे खिलाड़ी कभी भारत के लिए नहीं खेल पाते। आईपीएल ने क्रिकेट का और लोकतांत्रीकरण किया। अलग-अलग टीमों में दर्जन भर से ज्यादा ओबीसी और दलित खिलाड़ी है। लेकिन तस्वीर के पूरी तरह बदलने में अभी और वक्त लगेगा। बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि मोटी आमदनी वाले खेलो में बहुजन खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है। दूसरी तरफ ओलंपिक और एशियाड जैसे खेलो में मेडल जीतकर देश का सम्मान बढ़ाने वाले खिलाड़ियों में बड़ी तादाद वंचित समुदायों से जुड़े खिलाड़ियों की होती है। खेलो के समाजशास्त्र पर बहुत गंभीर किस्म की बहस अब तक नहीं उठी है।

3.       समझने की कोशिश कर रहा हूं कि सोशल मीडिया में ज्यादा गुस्सा किस बात पर है, प्रणव धनवाड़े का सलेक्शन ना होने पर या फिर अर्जुन तेंदुलकर का सलेक्शन होने पर? अपने ड्राइंग रूम में बैठकर यह दावा करना कि अर्जुन तेंदुलकर को बल्ला पकड़ना नहीं आता, घनघोर किस्म का पूर्वाग्रह है। अगर आप तेजस्वी यादव को सीधे उप-मुख्यमंत्री बनाये जाने और तेजप्रताप को मंत्री बनाये जाने में कुछ भी गलत नहीं मानते तो फिर अर्जुन तेंदुलकर को लेकर इतनी परेशानी क्यों?  स्वीकार कर लीजिये कि साधन संपन्न परिवार में पैदा होनेवाले हर व्यक्ति को ऐसे फायदे मिलते हैं जो बाकी लोगो को नहीं मिलते। तेजस्वी का सीधे उप-मुख्यमंत्री बनना सामाजिक न्याय और जूनियर तेंदुलकर का अंडर-16 टीम में आना एकलव्य की हत्या? राय अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन तर्क के पैमाने अलग-अलग नहीं होने चाहिए।

लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि फर्जी कहानियां बाकी बहुत से मामलों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं और नुकसान अंतत: बहुजन विमर्श का ही होता है। आंबेडकर का दिखाया गया रास्ता सबसे तार्किक और न्यायपूर्ण रास्ता है।

4.       चिंतन की आम भारतीय शैली यही है कि नायक गढ़ने के लिए खलनायक गढ़ना ज़रूरी होता है। नायक को अच्छा बनाने के लिए खलनायक को और बुरा बनाना पड़ता है। दलित हित चिंतन के कई स्वयंभू चैंपियन यही कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर सचिन तेंदुलकर पर अकारण हो रहे हमले इस बात का सबसे बड़ा सबूत हैं। तेंदुलकर ब्राहण परिवार में पैदा हुए हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हे 30 हज़ार से ज्यादा इंटरनेशनल रन और 100 सेंचुरी दक्षिणा में मिले हैं। हर मानवीय उपलब्धि का सम्मान किया जाना चाहिए। सोशल मीडिया पर लगातार इस तरह का कैंपेन चलाया जा रहा है, जैसे विनोद कांबली का करियर सचिन तेंदुलकर की वजह से खत्म हो गया हो। यह कपोल-कल्पित कहानी के सिवा कुछ नहीं है। कांबली जब भारतीय टीम में आये थे, तब दलित नहीं थे। वे दलित तब बने जब उनका करियर खत्म हो गया। ठीक उसी तरह जैसे अज़हरउद्धीन मैच-फिक्सिंग मामले में फंसने के बाद बाद घोषित मुसलमान बने थे। कांबली जैसी प्रतिभा बहुत बड़े मुकाम ना पहुंच पाना एक त्रासद कहानी है। लेकिन यह कहानी भरपूर मिलावट के साथ पेश की जा रही है। कांबली उन बदनसीब खिलाड़ियों में हैं, जिसे मैदान पर सबसे बुरी इंज़री का सामना करना पड़ा। निजी जीवन में उथल-पुथल  और भारतीय उप-महाद्वीप के बाहर बुरी तरह नाकामी जैसे कई पहलू हैं, जो कांबली के करियर के आसामायिक अंत के लिए जिम्मेदार रहे। कांबली को ब्राहणवाद का शिकार बताने वाले या तो इन तथ्यों से अनजान हैं या फिर जानबूझकर उनकी अनदेखी करते हैं।

5.       यह सब कहने मतलब ये कतई नहीं है कि वंचित समाज के लोगो को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता। भेदभाव के अनगिनत वाकये हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि फर्जी कहानियां बाकी बहुत से मामलों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं और नुकसान अंतत: बहुजन विमर्श का ही होता है। आंबेडकर का दिखाया गया रास्ता सबसे तार्किक और न्यायपूर्ण रास्ता है। लेकिन विरासत की दावेदारी करने वाले जब फतवेबाजी पर उतर आये तो फिर ब्राहणवाद और आंबेडकरवाद के बीच का फर्क मिट जाता है। 

 

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हमारे लिए बस संविधान, भारत माता बचायें आपकी जान https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%b9%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%87-%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%8f-%e0%a4%ac%e0%a4%b8-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4/ Mon, 07 Mar 2016 05:49:58 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%b9%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%87-%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%8f-%e0%a4%ac%e0%a4%b8-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4/   देश की सबसे पवित्र किताब यहां का संविधान है। यह किताब इसलिए पवित्र है क्योंकि यह हमें इस बात की आज़ादी देती है कि हम गीता, कुरान, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहिब जैसी अनेक किताबों में से जिसे चाहें, उसे पवित्रतम माने। हम अपनी धार्मिक किताबों के तथाकथित सम्मान के लिए आये दिन सड़क […]

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देश की सबसे पवित्र किताब यहां का संविधान है। यह किताब इसलिए पवित्र है क्योंकि यह हमें इस बात की आज़ादी देती है कि हम गीता, कुरान, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहिब जैसी अनेक किताबों में से जिसे चाहें, उसे पवित्रतम माने। हम अपनी धार्मिक किताबों के तथाकथित सम्मान के लिए आये दिन सड़क पर लाठी, तलवार और त्रिशूल भांजते रहते हैं। लेकिन क्या इस देश में संविधान के अपमान से कभी किसी की भावना आहत होती है? संविधान का अपमान हर दिन, हर क्षण होता है। व्यवस्था के हर कोने में इसकी चिंदियां बिखरी पड़ी हैं। हमलावरों का कोई भी  समूह हरियाणा के जाटों की तरह जब चाहे सड़क पर उतरता है और संविधान की छतरी में सिर छिपाये जन-गन को पैरो तले रौंद देता है। क्या यह सब देखकर कभी किसी का खून खौला है? बाबा साहेब ने खून खौलाने की नहीं बल्कि खून ठंडा रखकर देशवासियों से अपने भीतर वैज्ञानिक सोच पैदा करने को कहा था। ज़ाहिर यह एक अनिवार्य उत्तरदायित्व है। लेकिन क्या हम ऐसा कर पाये? क्या यह देश संविधान की भावनाओं के अनुरूप चल रहा है? कहां है, वह सामाजिक न्याय जिसे लागू करके भारत को एक वेलफेयर स्टेट बनाने का सपना देखा गया था? सामाजिक न्याय के ना होने की चिंता किसे है? इस देश के एक तबके के लिए संविधान अमूर्त या निर्जीव सी चीज़ है। लेकिन भारत माता पूरी तरह सजीव हैं। जब भी जान फंसती है, भारत माता ही आकर बचाती हैं। पहले संविधान के पन्ने जलाइये फिर भारत की माता की गुहार लगाइये, इस देश में आपका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।

ऐसे माहौल में इस देश को संविधान सम्मत तरीके से चलाने का विचार सचमुच क्रांतिकारी है। जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार के भाषण को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। भाषण के पक्ष में आ रहे रियेक्शन रेला यह भी बताता है कि हम नाउम्मीदी के किस दौर में जी रहे हैं।

जिस देश के नागरिकों से साइंटिफिक टेंपरामेंट’ अपनाने की अपेक्षा की जाती है, वहां सूचनाएं ग्रहण करने आधार फोटो शॉप पर डिज़ाइन किये गये पोस्टर और एडिट किये गये वीडियो बन चुके हैं। राजनीतिक विमर्श का स्तर यह है कि कोई भी बहस राहुल के पप्पू और मोदी के महान होने या ना होने से आगे बढ़ ही नहीं पाती। मीडिया अपनी सीमाएं तय कर चुका है और इसमें बदलाव की कोई दूर-दूर तक नहीं दिखती। देश की सबसे बड़ी आबादी के सवाल हाशिये पर ही नहीं बल्कि परिदृश्य से गायब हैं। ऐसे में रोहित वेमूला से आगे कन्हैया प्रकरण ने एक नई उम्मीद पैदा की है। वैकल्पिक राजनीतिक की कोई नई संभावना कहां तक आकार ले पाएगी, इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी है। लेकिन बहुजन विमर्श आहिस्ता-आहिस्ता एक केंद्रीय मुद्धा बन सकता है, इसमें ज़रा भी शक की गुंजाइश नहीं है। भारत माता की आरती गाने वाले ज़रूरत पड़ने पर संविधान की आरती भी गा देंगे। लेकिन आरती गाने से देश नहीं बदलता। संविधान की भावनाओं के अनुरूप देश वही लोग बना सकते हैं, जिन्हे इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है।

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राष्ट्र हित में कंडोम चिंतन https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a5%8b%e0%a4%ae-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%82/ Wed, 24 Feb 2016 04:58:46 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a5%8b%e0%a4%ae-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%82/   भारत में चरित्र निर्माण पर बहुत ज़ोर है। उतना ही ज़ोर कंडोम निर्माण पर भी है। हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड कंडोम मैन्युफैक्चर करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बन चुकी है। यानी हम भारतवासी सिर्फ चरित्र के धनी नहीं हैं बल्कि कंडोम के भी धनी हैं। वैज्ञानिक शोध प्रमाणित करते हैं कि 99 प्रतिशत […]

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भारत में चरित्र निर्माण पर बहुत ज़ोर है। उतना ही ज़ोर कंडोम निर्माण पर भी है। हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड कंडोम मैन्युफैक्चर करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बन चुकी है। यानी हम भारतवासी सिर्फ चरित्र के धनी नहीं हैं बल्कि कंडोम के भी धनी हैं। वैज्ञानिक शोध प्रमाणित करते हैं कि 99 प्रतिशत मामलो में कंडोम धोखा नहीं देते। चरित्र के बारे में वैज्ञानिक अब तक ऐसा कोई दावा नहीं कर पाये हैं। इसलिए सरकार बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाती हैं—कंडोम के साथ चलो। जहां चरित्र धोखा दे जाएगा, वहां कंडोम ही बचाएगा। सेक्यूलर से लेकर राष्ट्रवादी तक तमाम सरकारें इस मामले में एकमत रहीं है। इसलिए सरकार बदलने के बाद भी दिल्ली की सड़को से `कंडोम के साथ चलो’ वाले होर्डिंग हटाये नहीं जाते। होर्डिंग ही नहीं बल्कि सरकार कंडोम वेंडिंग मशीने भी लगवाती हैं। कंडोम धोखा नहीं देते, लेकिन सरकारी चरित्र की तरह सरकारी मशीन अक्सर धोखा दे जाती है। चरित्रावन लोग कंडोम शब्द से बहुत चिढ़ते हैं। यह देश चरित्रवान लोगो का है और उनकी इसी चिढ़ की वजह से एक अरब का भारत देखते-देखते सवा अरब का हो चुका है।

फादर कमिल बुल्के की अंग्रेजी हिंदी-डिक्शनरी में कंडोम का शाब्दिक अर्थ टोपी लिखा हुआ। यह अर्थ मुझे बेतुका लगता है। लेकिन जेएनयू कैंपस में घुसकर `टोपी’ उछालने की अनोखी कोशिश देखने के बाद लगता है कि अनुवाद ठीक ही है। यह नया `टोपी राष्ट्रवाद’ है। सरकार कहती है, टोपी पहनो। बीजेपी के विधायक जी चीखते हैं–  खबरदार! टोपी पहनने वाले देशद्रोही होते हैं। मैने पता लगा लिया है, जेएनयू वाले टोपी पहनने हैं। एक-एक कमरे में झांककर देखा है। एक-एक डस्बिन में और एक-एक नाली में जाकर ढूंढा है, तब जाकर इतनी बरामदी हुई है। ऐसा लग रहा है, विधायक जी किसी आतंकवादी वारदात के बीच से गोलियों के खोखे ढूंढ लाये हैं और अपने शौर्य के प्रदर्शन के लिए उनकी माला बनाकर गले में पहने घूम रहे हैं। मेहनत की तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन कुछ सवाल हैं। ये तीन हज़ार का जादुई आंकड़ा आपने कैसे प्राप्त किया? दुविधा यह भी है कि ये कैसे पता चलेगा कि उन तीन हज़ार में सब के सब देशद्रोही थे, कुछ राष्ट्रवादी भी तो होंगे! विधायक जी चाहे तो दावा कर सकते हैं कि राष्ट्रवादी लोगो में आधे उनकी तरह ब्रहचारी होते हैं और आधे सदाचारी। इसलिए जेएनयू की ये कारास्तानी सिर्फ दुराचारी देशद्रोहियों की है। मैं भी यह दलील मान लेता अगर मुझे छह महीना पहले खत्म हुए नासिक महाकुंभ की कहानियां पता नहीं होतीं। महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार ने देशी-विदेशी संस्कारी लोगो की भारी भीड़ को देखते हुए नासिक को कंडोम सप्लाई दोगुनी करने का आदेश दिया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुंभ के लिए 5.40 लाख कंडोम नासिक भेजे गये थे। क्या अपनी फैक्ट्स फाइंडिंग कमेटी के साथ विधायक जी कुंभ के मेले में भी गये थे? अगर गये थे तो कितनी बरामदी हुई? क्या विधायक जी ने नेताओं की टोपी की तरह इस टोपी को भी विचारधाराओं में बांट दिया है, राष्ट्रवादी टोपी, सनातनी टोपी, देशद्रोही टोपी और सेक्यूलर टोपी। क्या उन्होने यह पता लगा लिया था कि सनातनी टोपी वाले धारण करने से पहले कामदेव का कीर्तन करते हैं और उसी आधार पर उन्हे माफ कर दिया?

टोपी को कैरेक्टर सार्टिफिकेट मत बनाइये विधायक जी। भारत में एचआईवी के नये मरीजो की तादाद तेजी से गिरी है। इसकी वजह यही है कि लोग अब जागरूक हो रहे हैं। कंडोम का इस्तेमाल करने वाले कहीं ज्यादा चरित्रावान और जिम्मेदार होते हैं। वे यौन संक्रमण नहीं फैलाते। चरित्रहीन वे होते हैं जो एड्स के खतरों को जानते समझते हुए भी असुरक्षित यौन संबंध बनाते हैं। इसलिए आपकी मेहनत फिजूल है। अगर आपको यूज्ड कंडोम जमा करने का गिनीज बुक रिकॉर्ड बनाना था तो आप एलान करते। प्यारी जनता ऐसे ही आपके घर पहुंचा देती। कूड़ेदान छानने की क्या ज़रूरत थी? जब इतना कर ही रहे थे तो कूड़ा और उठा देते, मोदीजी के स्वच्छता मिशन में कुछ योगदान हो जाता। आशा करता हूं कि इस जगहंसाई के लिए पार्टी आपको फटकार ज़रूर लगाएगी। ऐसे मैं आशा ही कर सकता हूं, क्या पता क्रोनी कैपटलिज्म के साथ कंडोम नेशनलिज्म का युग सचमुच आ गया हो।

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रहिमन चुप हो बैठिये.. https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%ae%e0%a4%a8-%e0%a4%9a%e0%a5%81%e0%a4%aa-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%ac%e0%a5%88%e0%a4%a0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%87/ Mon, 15 Feb 2016 04:42:34 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%ae%e0%a4%a8-%e0%a4%9a%e0%a5%81%e0%a4%aa-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%ac%e0%a5%88%e0%a4%a0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%87/   अगर परम पुनीत राष्ट्रवादी धारा रामजदगी और हरामजदगी के ढलानो से उतरती हुई देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में जा घुसी और उसे वेश्यालय में बदल दिया तो कौन सी आफत आ टूट पड़ी? धाराओ का काम बहना है और अपने साथ बहा ले जाना है। धाराएं पहले भी बहती रही हैं, बहाती और […]

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अगर परम पुनीत राष्ट्रवादी धारा रामजदगी और हरामजदगी के ढलानो से उतरती हुई देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में जा घुसी और उसे वेश्यालय में बदल दिया तो कौन सी आफत आ टूट पड़ी? धाराओ का काम बहना है और अपने साथ बहा ले जाना है। धाराएं पहले भी बहती रही हैं, बहाती और डुबाती रही हैं।

पहले तो कभी किसी ने शोर नहीं किया तो फिर आज इतना शोर क्यों है, भाई? सवालों के जवाब नहीं हैं, क्योंकि सवालों के जवाब अक्सर नहीं होते। सवालों के बदले सिर्फ सवाल होते हैं। सवालो पर सवाल दागे जा रहे हैं।

शोर के बदले उससे भी ज्यादा शोर उठ रहा है। हांव-हांव कांव-कांव, हाहाकार, फुंफकार, चीत्कार, विलाप और अट्टाहास। सुबह से लेकर रात तक यह सब करते-करते राष्ट्र का दम फूलने लगता है। थका-हारा देश फेसबुक पर गुड नाइट का मैसेज टाइप करके सो जाता है। सुबह किसी और ब्रेकिंग न्यूज़ के साथ आंख खुलती है । देश फिर से अलग-अलग टोलियों में बंट जाता है। सुबह शुरू हुई भुन-भुन शाम तक हुंवा-हुंवा में बदल जाती है। कुछ सुनाई नहीं देता, कुछ समझ नहीं आता।

ऐसे में अगर राष्ट्रवादी धारा फाटक तोड़कर कैंपस में जा घुसी और वहां विश्वविद्यालय की जगह वेश्यालय और ज्ञान की जगह आतंक छप गया तो छप गया, मैं अपना वक्त क्यों बर्बाद करूं?  धाराओं के बारे में मैं वैसे भी कुछ नहीं बोलता, क्योंकि धाराएं सब पवित्र होती हैं। कहते हैं, कर्मनाशा धारा रावण के मूत्र विसर्जन से बनी है,लेकिन लोग डुबकी तो वहां भी लगाते हैं। अपनी-अपनी श्रद्धा, अपना-अपना विश्वास, कोई भला क्या कहे! सच बताउं तो आजकल मैं किसी भी चीज़ के बारे में कुछ भी नहीं बोलता।

एक वक्त था जब देश के सवाल मूंगफली की तरह हुआ करते थे। एक-एक करके चटकाते रहो. जुगाली करते रहो, टाइम पास हो जाता था। अब तो टाइम पास भी नहीं होता। एंटी सोशल मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक उठने वाले तरह-तरह के शोर बहरा बना देते हैं।

हज़ारों खोपड़ियों में जो स्वदेशी गोबर गैस प्लांट प्रत्यारोपित हैं, उनसे प्रदीप्त ज्ञान चक्षुओं की सामूहिक चमक लगभग अंधा कर देती है।

जब कुछ देख, सुन और समझ ही नहीं सकते तो खाली-पीली बोलने का क्या फायदा? बोलने वालों की कमी इस देश में कभी नहीं रही। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले सुनने वाले भी हुआ करते थे। अब सिर्फ बोलने वाले हैं, सुनने वाला कोई नहीं।

पब्लिक इंटलेक्चुअल स्पेस में जो मुट्ठीभर लोग हुआ करते थे, सोशल मीडिया ने उन्हे पान की दुकान पर खड़े रिटायर्ड बाबुओं के झुंड में तब्दील कर दिया है। पान चबाते बाबू लोग सऊदी अरब और ईरान के बीच बढ़ते तनाव से लेकर दो पड़ोसी भाइयो के मनमुटाव तक हर समस्या पर समान रूप से चिंतित रहते हैं। आसपास से गुजरते लौंडे-लपाड़े उनकी इस चिंता को उन्ही के मुंह पर धुएं में उड़ा देते हैं।

सोशल मीडिया के बौद्धिक बाबुओ का हाल पान की दुकान वाले बाबुओ से भी गया बीता है। जिस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को वो जनविरोधी मानते हैं, उसी उड़ाई ख़बरों पर सुबह से लेकर शाम तक बौराये फिरते हैं।

अपने निकृष्टतम रूप में होने के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज भी लोक संवाद का एजेंडा तय करता है। मामूली से मामूली ख़बर भी टीवी चैनलों पर किसी सस्पेंस थ्रिलर की तरह पल-पल रंग बदलती है। इन ख़बरों के पीछे-पीछे सुबह से शाम तक भागता बौद्धिक समुदाय अक्सर झांसे का शिकार बनता है। कोण दर कोण मोड़ दर मोड़ अपनी टिप्पणियां दर्ज कराता शाम तक थक कर चूर हो जाता है।

टीवी पर ख़बरों की मियाद एक या दो दिन होती है। फिर नई ख़बर आती है और उसी हिसाब से सार्वजनिक विमर्श के मुद्धे बदल जाते हैं। मुद्धे कहां से आते हैं, इन्हे कौन लाता है और कहां और क्यों गुम हो जाते हैं, यह मौजूदा दौर के लोकचिंतन का विषय नहीं है।

असाधारण रूप से कूढ़मगज  शासन तंत्र, बेईमान प्रतिपक्ष, कम मेहनत में काम चलाने वाला अपनी निजी पहचना के संकट से गुजरता बौद्धिक समुदाय और टीआरपी, सर्कुलेशन और हिट्स के लिए सगे बाप को भी बेच खाने वाला कॉरपोरेट मीडिया। उम्मीद कौन करे कहां, कहां करे और किससे करे! देश के सवालों पर बात करना अब कायदे का टाइम पास भी नहीं रहा।

बच्चो के साथ पार्क में क्रिकेट खेलना, लांग ड्राइव पर गाने सुनना, एनिमल प्लानेट पर तरह-तरह जानवर देखना और यहां तक कि सनी लियोनी को नेट पर सर्च करना तक भी देश की आबोहवा पर बात करने से ज्यादा रचनातात्मक काम हैं। इतने सारे अच्छे कामो के होते हुए अपना दिमाग कौन खराब करे।

देवालयों की जगह शौचालय बनने थे। लेकिन अब विश्वविद्यालय की जगह वेश्यालय बन रहे हैं, बने मेरी बला से। 
 

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मैं सेक्यूलर सूडो भला https://sabrangindia.in/column/%e0%a4%ae%e0%a5%88%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%b2%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a5%82%e0%a4%a1%e0%a5%8b-%e0%a4%ad%e0%a4%b2%e0%a4%be/ Fri, 15 Jan 2016 11:31:31 +0000 http://localhost/sabrangv4/column/%e0%a4%ae%e0%a5%88%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%b2%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a5%82%e0%a4%a1%e0%a5%8b-%e0%a4%ad%e0%a4%b2%e0%a4%be/   क्रिकेट मेरी रगों में है। भारत मैच के दौरान मुझे बचपन में बड़ा टेंशन होता था। अगर वनडे मैच आखिरी ओवर तक खिंच जाए तो मैं बेचैन होकर टहलने लगता था। नाखून चबाता था और क्रिकेट को लेकर इस पागलपन की वजह से अक्सर परिवार वालों की डांट भी खाता था। लेकिन मेरा लंगोटिया […]

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क्रिकेट मेरी रगों में है। भारत मैच के दौरान मुझे बचपन में बड़ा टेंशन होता था। अगर वनडे मैच आखिरी ओवर तक खिंच जाए तो मैं बेचैन होकर टहलने लगता था। नाखून चबाता था और क्रिकेट को लेकर इस पागलपन की वजह से अक्सर परिवार वालों की डांट भी खाता था। लेकिन मेरा लंगोटिया यार मुझसे चार कदम आगे था। जब तक मैच चलता वह जावेद मियांदाद और सलीम मलिक के करीबी रिश्तेदारों को पंचम स्वर में बारीबारी से याद करता रहता। वह हमारे उन दोस्तों के करीबी रिश्तेदारों को भी याद करना नहीं भूलता, जो साले उसके हिसाब से इंडिया की हार की खुशी मना रहे होंगे। वक्त के साथ हम दोनो बड़े हुए। मेरा लंगोटिया यार सवा सोलह आने सच्चा राष्ट्रवादी निकला और मैं सेक्युलर का सेक्युलर रहा और वो भी एकदम सूडो वाला।

मैं सूडो वाला सेक्युलर हूं, ये मेरे राष्ट्रवादी लंगोटिया यार ने तय किया है। मैने भी चुपचाप मान लिया, बचपन की दोस्ती ठहरी। वैसे भी भारत में सिर्फ राष्ट्रवादी लोग ही तय कर सकते हैं कि इस देश के बाकी लोग क्या हैं। राष्ट्रवादी बनना आसान नहीं है। सच्ची भावना चाहिए, जो ज्यादातर लोगो में नहीं होती। मेरे दोस्त में ये भावना इस कदर कूटकूटकर भरी है कि अगर कोई सवाल उठाए तो उसे वहीं कूट दे। मेरे दोस्त को संस्कृत के पांच मंत्र ठीक से नहीं आते। लेकिन भावना देखिए, जब भी वह सनातन धर्म पर व्याख्यान देता है, तो मुहल्ला हिल जाता है। कश्मीर पर हम दोनो की राय में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। हम दोनो मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह अपने कमरे में बैठेबैठे फूंक मारकर धारा 370 को उड़ा देता है, फौज भेजकर पीओके को छुड़वा लेता है। इस कार्रवाई में अक्सर पानी का ग्लास उलट जाता है। कभीकभी चाय के प्याले भी टूट जाते हैं। लेकिन कोई बात नहीं राष्ट्र के नाम इतनी कुर्बानी नहीं तो फिर जीना किस काम का। ख़ैर मैं ये सब कुछ नहीं कर पाता हूं। इसीलिए मेरा दोस्त सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं सेक्युलर हूं और वह भी एकदम सूडो वाला।

जैसा कि मैने ऊपर बताया कई मामलों में हमारी सहमति है। कुछ ख़ास मौको पर सड़क पर उतरकर हुड़दंग करने वाले दाढ़ीटोपी वालों से मुझे चिढ़ है और ज़ाहिर है, मेरे लंगोटिया यार को मुझसे भी ज्यादा चिढ़ है। मुझे पूरे सावन में लाउडस्पीकर बजाने वाले, रास्ता रोकने वाले और राहगीरों की पिटाई करने वाले कांवड़ियों से भी चिढ़ है। मुझे ट्रैफिक रोककर ज़बरदस्ती शरबत पिलाने वालों और बीच सड़क तलवार भांजकर अपनी मर्दानगी दिखाने वालों से भी चिढ़ है। लेकिन मेरे दोस्त को इन सब से प्यार है। उसकी चिढ़ सिर्फ दाढ़ीटोपी वालों से ही है, इसलिए वह सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं सेक्युलर हूं और वो भी सूडो वाला।

मैं पाकिस्तान की पॉलिटिकल आइडियॉलजी से घृणा करता हूं। लेकिन पाकिस्तान के लोगो से घृणा नहीं करता। मेरे दोस्त को पाकिस्तान की पॉलिटिकल आइडियॉलजी से प्यार है, लेकिन वह पाकिस्तान के लोगो से नफरत करता है। उसे लगता है कि बंटवारे के बाद सारे पाकिस्तानियों को पाकिस्तान भेज दिया गया होता तो मामला निबट जाता।

'पाकिस्तानियों' को पाकिस्तान भेजने की अपनी योजना वह फेसबुक के ज़रिये पूरे देश को बताता है, इसलिए वह सच्चा राष्ट्रवादी है और मैं उसके पोस्ट फारवर्ड नहीं करता, इसलिए मैं सेक्युलर हूं और वह भी सूडो वाला। हमारी दोस्ती ठीकठीक चल रही थी। लेकिन पिछले कुछ दिनो से उसका राष्ट्रवाद इस तरह कुंलाचे मार रहा है कि मैं डरने लगा हूं कि कहीं मैं सूडो सेक्युलर से पाकिस्तानी ना बना दिया जाऊं। कसाब पर हुए खर्चे का हिसाब वह कुछ इस तरह मांगता है, जैसे ऑर्थर रोड के अंडा सेल में मैं ही उसके साथ रोज़ मुर्ग बिरयानी उड़ाता था। बांग्लादेश से होनेवाले घुसपैठ पर मुझसे इस अंदाज़ में सवाल करता है, जैसे लगता है कि सारे घुसपैठियों को बोरियों में भरकर में मैने अपने ताऊजी के गोदाम में छिपा रखा है। चलो माना आइडियॉलजी की मूंगफली है, टाइम पास के लिए ठीक है, कोई शिकायत नहीं। लेकिन अब मामला कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ चला है। अब वह मेरी देशभक्ति के साथ मेरे हिंदू होने पर भी सवाल उठाने लगा है। अत्यंत व्यक्तिगत मामला है, फिर भी बता दूं कि पूजापाठ की परंपरा मेरे घर में शुरू से ही रही है। मैं गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय सुनकर बड़ा हुआ हूं और दुर्गा सप्तशती का एक बड़ा हिस्सा अब भी याद है। इसलिए पांच मंत्र ठीक से ना जानने वाला कोई भी आदमी मुझे ये बताने की जुर्रत नहीं कर सकता कि हिंदू होना क्या होता है। मेरे लिए मेरा धर्म मेरा निजी मामला है। तुम्हारे लिए धर्म सिर्फ पॉलिटकल आइडियॉलजी के लिए इस्तेमाल होने वाली चीज़ है। अगर तुम्हे लगता है कि हिंदू संस्कृति, सनातन धर्म और तुम्हारा राष्ट्रवाद खतरे में है, तो तुम अपने घर में बंजी जंपिंग करो, अपने फर्नीचर तोड़ो, ग्लास तोड़ो, जो करना है, करो। मुझे मत पकाओ प्लीज़। अपनी इन्ही भावनाओं के साथ मैंने अपने प्रिय मित्र को कवितानुमा एक चीज़ भी प्रेषित की.. आप भी पढ़िए

 गर्व से से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन मेरे कान में चीखकर मत कहो
गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन इतनी ज़ोर से मत कहो
कि तुम्हारे हिंदू होने पर शक होने लगे
गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं
लेकिन इतनी बार मत कहो कि यह लगे
कि तुम्हारे पास इसके सिवा
गर्व करने के लिए कुछ और नहीं है
तुम्हे अपने हिंदू होने पर गर्व है
लेकिन हिंदू धर्म तुम्हारे होने पर शर्मिंदा है
 
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह सब पढ़कर मेरे 16 आने सच्चे राष्ट्रवादी दोस्त की क्या प्रतिक्रिया हुई होगी। मैं ऐसी प्रतिक्रियाओं का आदी हूं। वैचारिक बहस दुनिया के किसी भी सवाल पर हो सकती है। जिसके पास विचार होते हैं, वह जवाब विचारों से देता है। जहां विचार नहीं होते वहां नारे होते हैं और नारे चूकने लगते हैं तो गालियां होती हैं। लेकिन गालियां देने की भी सीमा है। मुंह थक जाता है तो कहना पड़ता है, ये सिकुलर लोग बड़े बेशर्म है। बैचो.. इनमें संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है। इनसे उलझना ठीक नहीं है। अब मैं क्या जवाब दूं। सिर्फ इतना कह सकता हूं कि जिस हिंदू धर्म की ठेकेदारी का दावा आप कर रहे हैं, उसकी ध्वजा तो हज़ारो साल से लहरा रही है। कृपया लंगोट उतारकर धर्म ध्वजा बनाने की गलती मत कीजिये, इससे धर्म की इज्ज़त जाएगी और आपकी तो खैर है ही नहीं।

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