एनसीडीएचआर यानी नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स की संयोजक और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रहीं विमल थोराट से जब तीस्ता सीतलवाड़ ने बातचीत की तो कई ऐसे सवाल भी उभरे, जिन्हें अब तक अनदेखा करके दफन करके कोशिश की जाती रही है। यह इंटरव्यू कम्युनल कॉम्बैट, न्यूजक्लिक और हिल्लेले टीवी के सौजन्य से। इस बातचीत के मुख्य बिंदुः
♦ भेदभाव के खिलाफ और समानता के बुनियादी मूल्यों के निरंतर और रचनात्मक प्रसार के बिना कोई भी सामाजिक बदलाव नहीं होगा। अगर हम भाईचारा और सौहार्द, न्याय और समानता से लैस समाज चाहते हैं तो इन मुद्दों को सामने लाना और आगे बढ़ाना होगा। लेकिन विडंबना यह है कि इन संवैधानिक और बुनियादी मूल्यों के लिए सिलेबस में कोई जगह नहीं है। ऐसा क्यों है? लड़कियों के लिए सबसे पहला स्कूल 1848 में क्रांतिकारी स्त्रीवादी महिला सावित्रीबाई फुले ने खोला था। उन्होंने उस जटिल दौर में भी शिक्षा व्यवस्था से महिलाओं को बाहर रखने और जाति-व्यवस्थ को चुनौती दी थी। लेकिन हमारी स्कूली किताबों में आज भी यह ब्योरा मौजूद नहीं है।
भेदभाव के खिलाफ और समानता के बुनियादी मूल्यों के निरंतर और रचनात्मक प्रसार के बिना कोई भी सामाजिक बदलाव नहीं होगा। अगर हम भाईचारा और सौहार्द, न्याय और समानता से लैस समाज चाहते हैं तो इन मुद्दों को सामने लाना और आगे बढ़ाना होगा। लेकिन विडंबना यह है कि इन संवैधानिक और बुनियादी मूल्यों के लिए सिलेबस में कोई जगह नहीं है।
अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और आंबेडकर को सिलेबस में शामिल किए जाने का एनसीईआरटी तक में विरोध किया गया। अगर कहीं इन तर्कवादी और क्रांतिकारी चिंतकों से जुड़े संदर्भ थे भी, तो उन्हें भाजपा के नेतृत्व वाली पहली एनडीए सरकार ने 2002 में हटवा दिया था। हमने उन संदर्भों को वापस लाने के लिए संघर्ष किया और 2012 में यह फिर शामिल किया गया। लेकिन मौजूदा भाजपा सरकार की नीतियों को देखते हुए हम इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हैं कि यह क्या करेगी।
♦ दक्षिण भारत में ब्राह्मणवादी नेतृत्व के खिलाफ पेरियार और नारायण स्वामी के नेतृत्व में तर्कवाद और प्रतिरोध की विरासत के साथ मजबूत द्रविड़ आंदोलन की वजह से उस इलाके में सामाजिक ढांचे और शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रभाव पड़ा। अब उत्तर भारत में ऐसी ही शुरुआत की जरूरत है।
♦ यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि 1992 में बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद के दौर में ही पहले के मुकाबले पंजाब और हरियाणा में दलितों के खिलाफ अत्याचारों में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इसका भयानक चरम 2013 में सामने आया जब हरियाणा में बयालीस दलित लड़कियों का बलात्कार हुआ और इसके खिलाफ काफी आक्रोश पैदा हुआ। हमने हर स्तर पर इसके प्रति विरोध जताया। ये मुद्दे मुख्यधारा के स्त्रीवादी आंदोलन के मुद्दे होने चाहिए।
♦ दलित स्त्रीवादी लेखिकाओं ने जो पीड़ा और वंचना झेली है, उसे ही वे अपने साहित्य में सशक्त तरीके से जाहिर कर रही हैं। इनके इस साहित्य को अब तक भारतीय स्त्रीवादी लेखन में वाजिब जगह नहीं मिली है। स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों के कितने बच्चे दलित स्त्रीवादी महिला कुमुद पावडे के काम के बारे में जानकारी रखते हैं? कुमुद पावडे ने अपने जीवन से संबंधित लेख 'द स्टोरी ऑफ माई संस्कृत' में सशक्त विचार जाहिर किया है।
दलित और आदिवासी महिलाओं का जीवन-संघर्ष और उनके अनुभव अलग होते हैं। उनकी जिंदगी और मौत से जुड़े मुद्दे शहरी मध्यवर्ग के स्त्रीवादी आंदोलन में शायद ही कभी दिखते हैं। आदिवासी इलाकों की हकीकत यह बताती है कि आदिवासी महिलाओं के लिए सुरक्षा एक सबसे अहम मुद्दा है। दलित महिलाएं अमूमन रोजाना ही हमले का शिकार होती हैं।
♦ 'दोहरा अभिशाप' जैसी किताब की लेखिका कौसल्या बैसंत्री लेखन बताता है कि अछूत समस्या और पितृसत्ता कैसे आपस में जुड़े हुए 'अभिशाप' हैं। इसी तरह उर्मिला पवार की आत्मकथात्मक किताब 'आयदान' (2003) भी बहुत वास्तविक और उपयोगी चित्र सामने रखती है। वे मराठी में अपनी लघुकथा के लिए भी जानी जाती हैं। उर्मिला पवार, दया पवार, बेबी कांबले और शांताबाई गोखले दलित साहित्य के कई जाने-माने नामों से कुछ हैं।
♦ दलित महिलाओं के लेखन में कई बार प्रतीकों का अपना महत्त्व होता है। मसलन, मांस को सुखा कर तैयार गए टुकड़ों को 'चानी' कहा जाता है। जानवरों की देखरेख करना खासतौर पर 'अछूत' समुदाय का काम बना दिया गया था और उनके बीच की महिलाएं ही इस बेहद मुश्किल काम को करती थीं। दलित महिलाओं की आत्मकथात्मक ब्योरों में दलित महिलाओं का प्रतीक इस रूप में सामने आता है कि वे मृत जानवरों के मांस से भरी टोकरियां अपने सिर पर ढोते हुए ले जा रही हैं और उनके चेहरे और शरीर पर टोकरियों के नीचे से खून बह रहे होते हैं। जाहिर है, भूख से दो-चार इन महिलाओं के लिए भूखे मरने से बचाव का इंतजाम ही मजबूरी का मकसद है और इसीलिए वे मांस को सुखा कर आगे के लिए रखती हैं।
♦ दलित और आदिवासी महिलाओं का जीवन-संघर्ष और उनके अनुभव अलग होते हैं। उनकी जिंदगी और मौत से जुड़े मुद्दे शहरी मध्यवर्ग के स्त्रीवादी आंदोलन में शायद ही कभी दिखते हैं। आदिवासी इलाकों की हकीकत यह बताती है कि आदिवासी महिलाओं के लिए सुरक्षा एक सबसे अहम मुद्दा है। दलित महिलाएं अमूमन रोजाना ही हमले का शिकार होती हैं। मुसलिम महिलाओं के सवाल भी खासतौर पर गौर किए जाने लायक हैं। यानी भारतीय स्त्रीवादी आंदोलन को प्रतिनिधित्वमूलक और सार्थक बनाने के लिए इन सभी मुद्दों को शामिल किए जाने की जरूरत है।