हाल की कई घटनाओं से बनी दलित विरोधी पार्टी की छवि से उबरने के लिए भारतीय जनता पार्टी अब सोच-विचार करने पर मजबूर हो रही है। इस छवि से उबरने के लिए उसने कोई खास रणनीति तो अभी तक नहीं बनाई है, लेकिन नेताओं को ये जरूर लगने लगा है कि इस बारे में कुछ न किया तो पार्टी को भारी नुकसान हो सकता है।
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इस साल 17 जनवरी को हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद गुजरात में मृत गायों की चमड़ी निकाल रहे दलितों की सरेआम पिटाई की घटनाओं के लिए भाजपा को सीधे जिम्मेदार माना गया है और भाजपा के लिए इस छवि से छुटकारा पाना एक चुनौती बन गया है।
अब पंजाब और उत्तर प्रदेश में आगामी चुनाव और दोनों राज्यों में दलितों की भारी आबादी को देखते हुए भाजपा डैमेज कंट्रोल की कोशिश में जुट रही है। इस क्रम में भाजपा के सौ से ज्यादा नेता सोमवार को दिल्ली में जुटेंगे और खासकर चुनाव वाले राज्यों में दलितों के बीच छवि सुधारने की जुगत लगाएँगे।
बैठक में सोशल, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भाजपा की दलित विरोधी छवि प्रचारित होने से रोकने के लिए रणनीति बनाई जाएगी। चार सत्रों में होने वाली बैठक में पार्टी अपने दलित नेताओं से सुझाव लेगी।
भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चे के अध्यक्ष दुष्यंत गौतम बताते हैं कि पार्टी को ऐसा लगता है कि प्रेस दलितों पर अत्याचार की घटनाओं को लेकर कुछ ज्यादा कड़ा रवैया अपना रहा है। इससे ऐसा संदेश जाता है कि भाजपा दलित विरोधी है, जबकि हमारी सरकार दलितों के सशक्तिकरण के लिए काम कर रही है।
इसी सिलसिले में भाजपा देश भर में दलित युवा सम्मेलन करने की भी योजना बना रही है। इसकी शुरुआत अगले माह दिल्ली से होगी।
देश में करीब 20 करोड़ लोग यानी 17 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों की है। फिलहाल पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें दलितों की संख्या क्रमश: 32, 21 और 19 प्रतिशत है। भाजपा चाहती है कि हर हाल में तीनों राज्यों में उसकी ही सरकार बने।
दलित विरोधी छवि से बचने के लिए प्रधानमंत्री ने गौरक्षा के नाम पर मारपीट करने वालों को अपराधी बताया था, लेकिन उसके बाद भी इसी तरह की कई घटनाएँ हुईं, और सभी में भाजपा समर्थकों का हाथ होने का आरोप लगा।
उज्जैन के सिंहस्थ मेले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी दलितों के साथ स्नान करके पार्टी की छवि बदलने की कोशिश की थी, लेकिन वह तरीका भी काम नहीं आया।
अब देखना यह है कि इस सम्मेलन में कोई कारगर नीति बन पाती है या केवल भाषणबाजी को ही काफी मान लिया जाएगा।