Bangladeshi students and social activists protest against the killing of Avijit Roy, in Dhaka, Bangladesh, Friday, Feb. 27, 2015. Image: AP Photo/ A.M. Ahad
सहनशीलता और विविधता का हमारे देश में लंबा इतिहास रहा है। एहसान मंजिल में गहरे प्यार और बेहद बारीकी से तैयार किया गया एक नक्काशीदार दरवाजा है जो सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। इसे मुसलिम नवाब ने बनवाया और हिंदू कारीगरों ने बनाया। इसमें अरबी और बंगाली लिखावट में ईसा, बुद्ध, दुर्गा, कृष्ण आदि को चित्रित किया गया है। यह कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकारियों का प्रवेश द्वार भी था। वह दरवाजा अकेले हमारे दिल और आत्मा की नुमाइंदगी करता है और बताता है कि हमारी पहचान क्या थी। हम एक ऐसी जगह हैं जो आस्थाओं की विविधता से प्रेरित है और जब हम एक हैं तो सबसे मजबूत हैं।
अविभाजित बंगाल ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अंतिम विजित-प्रदेश था। यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहमति का एक केंद्रीय स्थल था, जो टांका जनजातीय आंदोलनों के साथ-साथ अलग-अलग धार्मिक मतों के सांस्कृतिक प्रदर्शनों के तौर पर जाना जाता था। 1905 में बंगाल विभाजन जैसी कवायदों के बावजूद ब्रिटिश शासन इस ताकत को छीन नहीं पाया था। आखिरकार हम 1971 में आजाद हुए।
कहीं ऐसा न हो कि हम यह भूल जाएं कि धर्मनिरपेक्ष संस्कृति हमारी कभी नहीं खत्म होने वाली प्रतिबद्धता रही है जो भाषाई आंदोलन में भी दर्ज की गई। इसी प्रतिबद्धता के चलते हमने एक इस्लामी देश के ठप्पे का सामना किया और 1971 में आजादी हासिल की।
कम से कम दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्षता कभी भी धर्म को खारिज करने का जरिया नहीं रही है। बल्कि बिना किसी का पक्ष लिए यह सभी की आस्थाओं का सम्मान और उनकी सुरक्षा करने का भरोसा देती है। राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ टैगोर के लेखन को पढ़ कर कोई भी यह समझ सकता है कि यह कोई सिर्फ आदर्शवादी राय नहीं है, बल्कि सच है। दक्षिण एशियाई राष्ट्रवाद हमेशा ही धार्मिक और जातीय भेदों में बंधने के बजाय सांस्कृतिक समानता और एकता से संचालित होता रहा है। अगर पहचान और स्वायत्तता के चेहरे के तौर पर धर्म की धारणा को कम करके आंका गया होता, तो मुगलों की तरह मुसलिम शासकों के लिए हिंदू इलाकों पर और हिंदू शासकों के लिए मुसलिम समुदायों पर शासन करना ज्यादा आसान रहा होता। बिना किसी शक के यह कहा जा सकता है कि बंगाली राष्ट्रवाद का धर्मनिरपेक्षता से गहरा जुड़ाव रहा है, जो अब हमने शायद भुला दिया है।
लेकिन इस विरासत को खारिज करने वाले एहसान मंजिल को भूल गए हैं। वे हमारे 'बीर श्रेष्ठ' जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की इस्लामी पहचान पर खुद को केंद्रित कर रहे हैं, जबकि सुरजो सेन और प्रीतिलता वड्डेदर की अनदेखी कर रहे हैं। वे नज़रूल और जसीमुद्दीन जैसे हमारे प्रतीकों को धार्मिक पहचान दे रहे हैं, जबकि अपनी सुविधा के मुताबिक टैगोर और मधुसूदन दत्ता को भूल रहे हैं। वे शायद इस बात की भी अनदेखी कर देंगे कि हमारे देश की राजधानी एक देवी ढाकेश्वरी के नाम पर है। हमारे नए साल का जश्न हिंदू, बौद्ध और यहां तक कि सिक्ख परंपराओं से बेहद प्रभावित है और हमारे यहां शादियों के आयोजन में अलग-अलग आस्थाओं के रंग दिखते हैं।
राजनीतिक समझौतों के तहत हमने खुद को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है और सुप्रीम कोर्ट अब भी देश के धर्म के तौर पर इस्लाम को ऐसा नहीं मानता जिसमें सहिष्णु देश के रूप में हमारी ऐतिहासिक प्रतिबद्धता रही है। और कई ब्लॉगरों की हत्या पर गहरी चुप्पी और कोई कार्रवाई नहीं होना उनकी आवाजों को दफ्न करने की कोशिश है। हालांकि सच यह है कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी आज भी विविधता का चेहरा है और हम इससे ताकत हासिल करते हैं। हमारा इतिहास खतरे में है और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें इसे हर हाल में बचाना होगा।
(Ibtisam Ahmed is a Doctoral Research Student at the School of Politics and IR in the University of Nottingham.)