मोदी सरकार के नोटबंदी का फैसला बुरी तरह सवालों से घिरता जा रहा है। ताजा सवाल यह है कि आखिरकार इस सरकार ने आरबीआई की ओर से प्रतिबंधित कंपनी डेलारू को ही नोट छापने की मशीनें मुहैया कराने का कांट्रेक्ट क्यों दिया। वह भी बगैर किसी आधिकारिक घोषणा के।
अप्रैल, 2016 तक डे ला रू लगातार नोटों की छपाई के लिए कागज की सप्लाई कर रही थी। इसके बाद मोदी सरकार ने इस बेहद संवेदनशील गतिविधि (नोट छपाई के लिए कागज सप्लाई) को जारी रखने के लिए इसका टेंडर दोबारा बहाल कर दिया। इस तथ्य के बावजूद कि 2010-11 में देश की सुरक्षा चिंताओं के मद्देनजर यह कंपनी प्रतिबंधित कर दी गई थी। असली सवाल यह है कि नोटों की छपाई के लिए अब कौन कागज की सप्लाई कर रहा है?
भारतीय रिजर्व बैंक ने बड़े ही रहस्यमय तरीके से बगैर किसी आधिकारिक घोषणा के करेंसी नोटों को दोबारा उन प्रेसों में छापने की इजाजत दे दी, जिनकी मशीनें, 201-11 में काली सूची में डाल दी गई कंपनी डे ला रू ने सप्लाई की थी। इस संबंध में आरबीआई के सर्कुलर में डेलारू (अब केबीए जियोरी) की ओर से सप्लाई की गई अत्याधुनिक मशीनों के बारे में अस्पष्ट संदर्भ दिया गया है। जबकि कंपनी की वेबसाइट में साफ तौर पर नोटों की छपाई में इसकी दिलचस्पी और भूमिका का ब्योरा है।
आरबीआई के अपुष्ट सूत्रों ने नाम का खुलासा न करने की शर्त पर सबरंगइंडिया को बताया कि अप्रैल 2016 में पनामा पेपर्स खुलासा में नाम आने के बाद एक बार फिर इस कंपनी को काली सूची में डाल कर नोटों की छपाई के लिए पेपर सप्लाई से रोक दिया गया था।
इस बात की कोई आधिकारिक सफाई नहीं दी जा रही है कि आखिरकार क्यों 2011 में सुरक्षा कारणों से प्रतिबंधित कर दी गई एक कंपनी को 2014 से 2016 के बीच बगैर किसी आधिकारिक घोषणा के नोटों की छपाई के लिए कागज सप्लाई का टेंडर दोबारा जारी कर दिया गया। डे ला रू को काली सूची में डाले जाने के हाल के कथित फैसले का भी न तो किसी सरकारी वेबसाइट और न ही आरबीआई की साइट में जिक्र है।
इन सवालों के जवाब जानने के लिए आरबीआई के पास कुछ आरटीआई आवेदन भी भेजे गए। इन आवेदनों में आरबीआई से पूछा गया था कि क्या नोटबंदी के बाद से नोट छापने के जो कागज भेजे गए थे क्या उनकी सप्लाई यूके की कंपनी डे ला रू और जर्मनी की लुइेजनथल ने की थी। इन सवालों के जवाब अहमियत रखते हैं क्योंकि पेपर क्वालिटी के मुद्दे (करेंसी नोटों की सुरक्षा) के सवाल पर ही 2011 में इन कंपनियों की पेपर सप्लाई पर प्रतिबंध लगे थे।
इसके अलावा एक निवेश जर्नल में छपे इस लेख से ऐसा लगता है कि डे ला रू पीएम मोदी की मेक इन इंडिया स्कीम में अहम रोल अदा कर सकती थी। जैसा कि इसके सीईओ ने इंडिया इनवेस्टमेंट जर्नल से बातचीत में कहा था- डेला रू का मुख्यालय यूके में है। यह बैंक नोट मैन्यूफैक्चरर कंपनी है और इसने भारत की मेक इन इंडिया को अपना लिया है।
इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल पैदा हुए हैं क्योंकि 2010-11 में सीबीआई जांच और इसके बाद प्रतिबंध से पहले तक यह नकली नोटों के धंधे में लिप्त रही थी। प्रवर्तन एजेंसियों की ओर से जो नकली करेंसी नोट जब्त किए गए थे उनकी क्वालिटी भी असली नोटों के बराबर थी और यहां तक कि बैंकरों के लिए भी उनमें अंतर कर पाना मुश्किल था । ये नकली नोट पाकिस्तानी के अति सुरक्षा वाले प्रिंटिंग प्रेसों में छापे जाते थे और वहां से भारतीय अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए भेजे जाते थे। सूत्रों ने सबरंगइंडिया को बताया कि कथित तौर पर पनामा पेपर्स घोटाले में शामिल इटली की कंपनी फेबरिनो सिक्यूरिटीज भी नोटबंदी के बाद नए नोटों की छपाई में इस्तेमाल होने वाले सुरक्षा धागे की सप्लाई करती रही है। इस धागे की सप्लाई भी सवालों के घेरे में हैं क्यों नए नोटों से रंग निकलने और दूसरी तरह की शिकायतें आ रही हैं।
सुरक्षा चिंताएं दरकिनार
डेलारू की मशीनों वाले प्रिंटिंग प्रेसों में नए नोट छापने की इजाजत देकर सरकार ने देश की सुरक्षा चिंताओं को दरकिनार कर दिया है।
यहां तक कि सरकार ने ब्रिटेन के सीरियस फ्रॉड ऑफिस (एसएफओ) की उस कार्रवाई को भी ध्यान में नहीं रखा, जिसके तहत 2010 में डेलारू गंभीर सुरक्षा लापरवाही की दोषी पाई गई थी। एसएफओ ने खुलासा किया था कि कंपनी के कई कर्मचारियों ने इसकी 150 ग्राहकों के लिए नोट छपाई के लिए इस्तेमाल होने वाले कागजों के सर्टिफिकेशन में घालमेल किया था। हाल में पनामा पेपर्स के खुलासों से भी पता चला कि इस कंपनी ने रिजर्व बैंक से नोट छापने का कांट्रेक्ट लेने के लिए नई दिल्ली के एक कारोबारी को 15 फीसदी कमीशन दिया था। ऐसी खबरें भी आई हैं- जिनमें कहा गया है कि नोटों की छपाई के इस्तेमाल होने वाले कागज की गुणवत्ता पर एतराज जताए जाने पर कंपनी ने आरबीआई को बतौर सेटलमेंट मनी के तौर पर 4 करोड़ पौंड अदा किए।
ऐसे में यह समझ से परे है कि इस तरह की दागी कंपनी को सरकार नोट छापने वाली मशीन और संभवतः नोट छापने की मंजूरी क्यों दे रही है। बाजार से नकली नोटों और काले धन को निकाल बाहर करने का दावा करने वाली सरकार का यह कदम सवालों के घेरे में है।
आरबीआई का सर्कुलर और डेलारू
डेलारू के बारे में आरबीआई का सर्कुलर इस तरह था- मैसूर में मौजूद मशीनरी मेसर्स डेलारू जियोरी अब केबीए जियोरी, स्विटजरलैंड की ओर से सप्लाई की गई गई है। मेसर्स कोमोरी कॉरपोरेशन, जापान की ओर से सप्लाई की गई मशीन सलबोनी भी मौजूद है। दोनों छपाई मशीनें अत्याधुनिक सिक्यूरिटी सर्विलांस सिस्टम से लैस हैं। लेकिन ये दोनों कांट्रेक्ट बगैर किसी सार्वजनिक घोषणा के दिए गए। सचाई यह है कि इस कंपनी को आरबीआई ने अपनी काली सूची में डाल दिया था। लेकिन इससे भी चिंता की बात यह है कि काली सूची में डालने की इस कवायद ( इस संबंध में गृह मंत्रालय और अन्य एजेंसियों के सर्कुलर) का रिकार्ड ही सरकार की वेबसाइट से मिटा दिया गया है। यह ज्यादा खतरनाक खेल की ओर इशारा करता है।
21 दिसंबर, 2011 को वित्त राज्य मंत्री नमो नारायण मीणा ने राज्यसभा को सूचित किया कि सरकार ने करेंसी नोट के लिए कागजों की सप्लाई करने वाली ब्रिटिश कंपनी डेलारू को प्रतिबंधित कर दिया है। दरअसल कंपनी जो कागज सप्लाई कर रही थी वो सुरक्षा मानकों पर खरे नहीं उतर रहे थे।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारतीय रिजर्व बैंक और नोट छापने की सप्लाई के लिए डेलारू और भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड के अनुबंध के बारे में खबरें छापी थीं। इसमें मीणा के हवाले से कहा गया था कि जुलाई-अगस्त में यह गौर किया गया कि डेलारू से जिस तरह के कागज की सप्लाई की बात हुई थी, वैसा कागज नहीं आ रहा था। बाद में कंपनी ने कागज की कमियों की बात स्वीकार कर ली थी। इसके बाद इस ब्रिटिश कंपनी का सिक्यूरिटी क्लीयरेंस रोक दिया गया।
इस खुलासे ने कई चिंताएं पैदा की हैं क्योंकि प्रवर्तन एजेंसियों ने जिन नकली नोटों को जब्त किया है उनकी क्वालिटी असली नोटों से इतनी मिलती हैं कि बैंकों के लिए इनमें अंतर करना मुश्किल है। खुफिया रिपोर्टों में कहा गया कि ये नोट पाकिस्तान के अति सुरक्षित प्रिंटिंग प्रेसों में छापे जाते हैं और फिर इन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की गरज से यहां भेजे जाते हैं।
इंडियन एक्सप्रेस ने ही 7 अप्रैल, 2016 को लिखा-
दुनिया की सबसे बड़ी नोट छापने वाली क्राउन एजेंट कंपनी डेलारू ने नई दिल्ली के एक बिजनेसमैन को भारतीय नोटों को छापने का टेंडर हासिल करने के लिए 15 फीसदी का कमीशन दिया था। इसके अलावा मार्केटिंग सेवाओं के लिए कुछ खर्च किया गया था। इंडियन एक्सप्रेस की ओर से हासिल किए गए मोसेक फोनस्का पेपर्स से इसका पता चलता है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या नए भारतीय नोट उन ब्लैकलिस्टेड क्राउन एजेंट कंपनियों में छप रहे हैं जिन्होंने पाकिस्तान के लिए नकली नोटों के स्त्रोतों की सप्लाई की थी। क्या यह सब भारत के राष्ट्रीय हितों की कीमत पर हो रहा है।
डेलारू ने पोर्टल्स के तौर पर अफ्रा कंस्लटेंट्स एसए से एक अप्रैल 2002 को एक करार किया था। इसके मुताबिक अफ्रा को कंपनी का नॉन-एक्सक्लूसिव कंस्लटेंट नियुक्त किया गया था। उसका काम भारत समेत पूरे दक्षिण पूर्वी एशिया में कंपनी के लिए कारोबारी मौके ढूंढना था।
अफ्रा एक विदेशी कंपनी थी, जिसका वजूद पनामा में दिखाया गया था। और इसके मालिक के तौर पर सोमेंद्र खोसला का नाम सामने आ रहा था। पनामा पेपर्स के मुताबिक उनका पता डी-984 न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी नई दिल्ली- 110065 था।
पोर्टल्स बैंक ऑफ इंग्लैंड को 1724 से ही कागज की सप्लाई करती आ रही थी। बाद में इसे 1995 में डेलारू ने खरीद लिया। यह समझौता 2008 तक रहा।
15 अगस्त 2002 को एजेंसी से करार के बाद डेलारू के मैनेजिंग डायरेक्टर जेम्स हसी ने अफ्रा को लिखा कि समझौते में संशोधन किया जाए।
यहां यह सवाल भी उठता है कि जब डेलारू ने नए सिरे से नोट छापने की मशीनों की सप्लाई शुरू की तो इस बारे में सार्वजनिक घोषणा क्यों नहीं की गई। क्योंकि ऐसी कोई भी घोषणा यह जाहिर कर देती कि केबीए जियोरी ही डेलारू का नया रूप है।
2009-2010 में इस बारे में हंगामा होने पर पता चला कि डेलारू नकली नोट छापने में शामिल रही है। सीबीआई जांच में इसका खुलासा हुआ था। नकली नोट छापने के रैकेट में फंसी कंपनी नेपाल और पाकिस्तान में भी नोट छाप रही थी।
द आफ्टरनुन डिस्पैच एंड कुरियर ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट में कहा-
हमारी जांच से पता चला है कि डेलारू ही नकली नोटों के रैकेट में शामिल कंपनी है। कंपनी के पास सबसे बड़ां कांट्रैक्ट आरबीआई का है। यह भारत सरकार को नोट छापने के लिए स्पेशल वाटरमार्क पेपर मुहैया कराती है। जैसे ही कंपनी की सचाई जानने के लिए आरबीआई में छापा मारा गया, उसके शेयर धड़धड़ा कर गिर गए।
5 जनवरी 2011 को भारत सरकार ने डेलारू से सभी कारोबारी रिश्ते तोड़ लिए। यह पता चला कि आरबीआई ने डेलारू को नोट छापने के लिए 16000 टन कागज सप्लाई का टेंडर दे दिया था। उसकी चार प्रतिस्पर्धी कंपनियों को तो बोली लगाने के लिए भी नहीं बुलाया गया। लेकिन सरकार ने इस घटनाक्रम को साझा करना जरूरी नहीं समझा और न इसने संसद को विश्वास में लेना जरूरी समझा। यह डेलारू के टिम कोबाल्ड से बाद में पता चला कि कंपनी अब भी भारत सरकार से टेंडर हासिल करने के लिए बातचीत कर रही है। सवाल है कि सरकार इतना सब होने के बावजूद कंपनी से क्या बात कर रही है।
8 नवंबर 2016 को जिस नाटकीय अंदाज में 500, 1000 के नोट बंद करने का ऐलान किया गया और इसके बाद देश में जो दहशत, अराजकता और सेलिब्रेशन का दौर दिखा उसने इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में कई सवाल खड़े किए हैं-
क्या डेलारू 2000 के नकली नोट छापने में शामिल है?
इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है – ये नोट बेहद गोपनीयता के साथ मैसुरू में छपते हैं। कागज इटली, जर्मनी और लंदन से आते हैं। अधिकारियों के मुताबिक अगस्त-सितंबर 2000 रुपये के 4.8 करोड़ नोट छपने शुरू हुए थे। इस दौरान इतनी ही संख्या में 500 के नोट भी छपने शुरू हुए थे। भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड (बीआरबीएऩएमपीएल) के मैसुरू संयंत्र को डेलारू जियोरी, जो अब केबीओ जियोरी स्विट्जरलैंड ने ही स्थापित किया था।
द हिंदू की रिपोर्ट में कहा गया –
भारत जर्मनी की लुइजेनथल, ब्रिटेन की डेला रू, स्वीडन की क्रेन और फ्रांस और नीदरलैंड में मौजूद आरजो विजिन्स से नोट छापने के कागज आयात करता है। भारत ने 2014 को दो यूरोपीय कंपनियों को प्रतिबंधित कर दिया था। उन पर आरोप था भारतीय नोटों के सिक्यूरिटी फीचर्स के साथ छेड़छाड़ की गई थी और उन्हें पाकिस्तान को सप्लाई किए गए थे।
इन पेपर नोटों की जगह पर दस रुपये के प्लास्टिक या सेमी प्लास्टिक नोट के प्रसार का इरादा था। भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड जो आरबीआई की सब्सिडियरी कंपनी है ने इसके लिए चार कंपनियों को चुना- यूके की डेलारू, ऑस्ट्रेलिया की इनोविया, म्यूनिख स्थित जिस्के एंड डेवरियन्ट और स्विस कंपनी लैंडक्वार्ट। इन्हें तीन तरह के प्लास्टिक नोट की सप्लाई के लिए चुना गया।
डेलारू पहले ही भारत को नोटों के लिए पेपर सप्लाई कर रही थी लेकिन पनामा पेपर्स लीक की वजह से विवाद में फंस गई थी। हाल में इसे चीन से पॉलिमर से नोट बनाने की तकनीक सप्लाई करने का ठेका मिला है। भारत से भी इसे प्योर पॉलिमर नोट बनाने का ठेका मिला है।
लेकिन इन कंपनियों से प्रतिबंधित हटा दिए गए। इन कंपनियों को काली सूची से भी हटा दिया गया। आखिर क्यों। आरबीआई के अधिकारी का कहना था कि ये कंपनियां नोट छपाई के कारोबार में पिछले डेढ़ सौ साल से सक्रिय हैं। ये कंपनियां किसी दूसरे देश को सूचनाएं देकर अपना धंधा चौपट नहीं करना चाहेंगी। जांच के बाद पता चला कि इन दोनों कंपनियों ने सिक्यूरिटी फीचर्स से छेड़छाड़ नहीं की थी। इसका सबूत मिलते ही इन दोनों कंपनियों से प्रतिबंध हटा दिया गया।
क्या इतनी गारंटी काफी है?
ब्रिटेन के सीरियस फ्रॉड ऑफिस (एसएफओ) ने जो खुलासा किया था उसके मुताबिक डेलारू गंभीर सुरक्षा लापरवाही की दोषी पाई गई थी। एसएफओ ने खुलासा किया था कि कंपनी के कई कर्मचारियों ने इसकी 150 ग्राहकों के लिए नोट छपाई के लिए इस्तेमाल होने वाले कागजों के सर्टिफिकेशन में घालमेल किया था। हाल में पनामा पेपर्स के खुलासों से भी पता चला कि इस कंपनी ने रिजर्व बैंक से नोट छापने का कांट्रेक्ट लेने के लिए नई दिल्ली के एक कारोबारी को 15 फीसदी कमीशन दिया था। नोटों की छपाई के इस्तेमाल होने वाले कागज की गुणवत्ता पर एतराज जताए जाने पर कंपनी ने आरबीआई को बतौर सेटलमेंट मनी के तौर पर 4 करोड़ पौंड अदा किए।
इसके बावजूद डेलारू को क्लीयरेंस दी दे गई और यहां तक कि कंपनी से यहां सिक्यूरिटी पेपर मिल और मध्यप्रदेश में आईडेंटिटी सॉफ्टवेयर का आरएंडडी सेंटर खोलने की बात चल रही थी। कंपनी के नए सीईओ मार्टिन सदरलैंड ने इंडिया इनवेस्टमेंट जर्नल से एक बातचीत में कहा था कि भारत-यूके रक्षा और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा समझौते के तहत कंपनी और भारत सरकार के बीच नवंबर 2015 में करार पर हस्ताक्षर किए गए। कंपनी सरकार के साथ नकली नोटों के मामले में पूरा सहयोग करने के लिए तैयार है।
हालांकि डेलारू से प्रतिबंध हटाने की सरकार की ओर से कोई घोषणा नहीं की गई। यह भी नहीं बताया गया कि कंपनी को काली सूची से हटा दिया गया है। प्रतिबंध के बाद कंपनी लगभग दिवालिया हो गई थी लेकिन पिछले छह महीने में ही इसके शेयरों में 33.3 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
लिहाजा इस सवाल का जवाब देना जरूरी बनता है कि क्या भारत में नए नोटों की छपाई में वही कंपनियां शामिल हैं जो नकली नोटों की स्त्रोत रही हैं या फिर पाकिस्तान में जिन्होंने नकली नोट छापे हैं। क्या यह भारत के सुरक्षा हितों के साथ खिलवाड़ नहीं है?
आरबीआई में नकली नोट, संसद सन्न
वर्ष 2010 में सीबीआई ने भारत-नेपाल सीमा पर विभिन्न बैंकों की 70 शाखाओं में छापे मारे थे और वहां से बड़ी मात्रा में नकली नोट बरामद कर लिए थे। इन शाखाओं के अधिकारियों ने सीबीआई को बताया कि ये नोट उन्हें आरबीआई ने मुहैया कराए हैं। सीबीआई को आरबीआई की आलमारियों में बड़ी मात्रा में 500 और 1000 रुपये के नकली नोट मिले। ये नोट उसी के तरह के थे, जैसा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी यहां लाती है। सवाल यह है कि ये नोट आरबीआई की तिजोरियों तक कैसे पहुंचे।
2010 में भारतीय संसद की कमेटी ऑन पब्लिक अंडरटेकिंग्स (सीओपीयू) यह देख कर सन्न रह गई कि सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये के नोटों की छपाई अमेरिका, यूके और जर्मनी को आउटसोर्स कर दिया है। इस तरह पूरे देश की आर्थिक संप्रभुता ही गिरवी रख दी गई थी। जिन तीन कंपनियों को नोट छापने का काम दिया गया था वे थीं- अमेरिकन बैंक नोट कंपनी (अमेरिका), थॉमस डे ला रू (यूके) और जिस्के एंड डेवरियंट कंसोर्टियम (जर्मनी) ।
नकली नोटों के मिलने की इस घटना के बाद रिजर्व बैंक ने एक वरिष्ठ अधिकारी को तथ्यों की पड़ताल के लिए हैंपशायर, यूके स्थित डेला रू के प्रिंटिंग प्लांट भेजा। आरबीआई अपने सिक्यूरिटी पेपर का 95 फीसदी आयात करता है और माना जाता है कि डेलारू का एक तिहाई मुनाफा इसी भारतीय कांट्रेक्ट से आता है( इसमें डेलारू के ऩए कांट्रेक्ट का मुनाफा शामिल नहीं है)। जांच से पता चला कि डेलारू के प्लांट और गोदाम में 2000 टन नोट छपाई वाला कागज यूं ही पड़ा है। इसके बाद से सरकार ने कंपनी को काली सूची में डाल दिया गया। कंपनी के लिए यह बड़ा हादसा था और खुद क्वीन एलिजाबेथ के गॉडसन और कंपनी के सीईओ को जेम्स हसी को इस्तीफा देना पड़ा। डेला रू के शेयर बुरी तरह लड़खड़ा गए और कंपनी दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गई। क्योंकि उसकी सबसे अहम ग्राहक भारत ने कारोबार बंद कर दिया था। ठीक इसी वक्त कंपनी की फ्रेंच प्रतिस्पर्धी कंपनी ओबरथर ने इसके अधिग्रहण का प्रस्ताव किया। लेकिन डे ला रू ने इसका जबरदस्त विरोध किया।
डेलारू के अंदर इन गड़बड़ियों की शिकायत सीवीसी को वित्त मंत्रालय के एक अनाम अफसर की ओर से भेजी गई। शिकायत में फ्रेंच कंपनी अरजो विजिन्स, यूएसए की क्रेन एबी और जर्मनी की लुइजेन्थल का भी जिक्र था। हालांकि जनवरी 2015 में गृह मंत्रालय ने जर्मन कंपनी को भी प्रतिबंधित कर दिया। जब मंत्रालय को पता चला कि कंपनी पाकिस्तान को भी कच्चे नोट बेच रही है तो इसने लुइजेन्थल को रोक दिया।
अब सवाल यह पैदा होता है कि ये नकली नोट छापने वाली कंपनियां कौन थीं। उन्हें भारत सरकार के लिए नकली नोट छापने में सफलता कैसे मिली। कैसे प्रतिबंधित होने की वजह से दिवालियापन के कगार पर पहुंच चुकी एक कंपनी दोबारा अपने पैर पर खड़ी होकर भारतीय बाजार में घुसने को तैयार हो गई। सबसे जरूरी चीज तो यह कि एक आम भारतीय नागरिक को कैसे इनका पता नहीं चला। आइए संक्षेप में नोट छापने में मदद करने वाली या फिर नोट छापने वाली इन कंपनियों के बारे में संक्षेप में जानकारी लेते हैं-
भारत में बैंक नो छापने के आधिकारिक इतिहास के मुताबिक देश में नोट छपने की शुरुआत 1928 में हुई। इसके लिए भारत सरकार ने नासिक में सिक्यूरिटी प्रेस की स्थापना की। इससे पहले तक नोट यूके की कंपनी थॉमस डे ला रू से छप कर आते थे।
आजादी के बाद भी 50 साल तक देश में डेलारू जियोरी से खरीदी गई मशीनों पर ही नोट छपते रहे। इस कंपनी को स्वि ट्जरलैंड का जियोरी परिवार चलाता है। बैंक नोट प्रिंटिंग कारोबार के 90 फीसदी पर इसी का कब्जा था। लेकिन 20वीं सदी के आखिर में कुछ ऐसा हुआ,जिसने सब कुछ बदल दिया।
कौन छापता है दुनिया भर के नोट
हाई सिक्यूरिटी वाले करेंसी प्रिंटिंग और टेक्नोलोजी बिजनेस पर पश्चिमी यूरोपीय देशों की कंपनियों का कब्जा है। लेखक क्लॉस बेंडर ने अपनी किताब मनी मेकर्स- द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ बैंक नोट प्रिंटिंग में नोटों छपाई के कारोबार करने वाली कंपनियों के कारोबार के तरीके का खुलासा किया है। इससे पहले इस रहस्य से पर्दा उठाने की एक और कोशिश अमेरिकी लेखक टेरी ब्लूम ने 1983 में अपनी किताब द ब्रदरहुड ऑफ मनी- द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ बैंक नोट प्रिंटर्स में किया था। लेकिन इस किताब का पूरा संस्करण सीधे प्रिंटिंग प्रेस से खरीद लिया गया। नोट छपाई उद्योग के ही दो प्रतिनिधियों ने ये सारी किताबें खरीद ली थीं ताकि इस धंधे पर पड़ा रहस्य का पर्दा बरकरार रहे।
करेंसी बिजनेस के चार अहम हिस्से हैं- पेपर, प्रिंटिंग प्रेस, नोट एक्सेसरीज और स्याही। और फिर इंटग्रेटर की भूमिका आती है जो शुरू से अंत तक हर सेवा मुहैया कराते हैं। माना जाता है कि यह बिजनेस यूरोप में सिर्फ एक दर्जन कंपनियों के कड़े नियंत्रण में है। ये कंपनियां 15वीं सदी से ही चल रही है। डे ला रू का भी पहला संयंत्र बाथ में 1000 साल पहले लगा था।
डे ला रू ब्रिटिश साम्राज्य की आधिकारिक क्राउन एजेंट थी जो अब भी बैंक ऑफ इंग्लैंड के लिए बैंक नोट छापती है। क्राउन एजेंट साम्राज्य का दैनिक मामलों को देखते थे। लेखक डेविड सदरलैंड अपनी किताब मैनेजिंग द ब्रिटिश एंपायर – द क्राउन एजेंटस में क्राउन एजेंट्स द्वारा उपनिवेशों के लिए स्टैंप और बैंकनोट छापने की प्रक्रिया के बारे में जानकारी देते हैं। ये क्र्उन एजेंट्स तकनीकी, इंजीनयरिंग, वित्तीय सेवा मुहैया कराते थे। एक तरह से ये औपनिवेशिक मौद्रिक प्राधिकरणों के प्राइवेट बैंकरों की भूमिका निभाते थे। ये राज्यों के प्राइवेट बैंकरों की भूमिका निभाते थे। ये लोग हथियार खरीदने में मददगार होते थे। उपनिवेश की सेनाओं के लिए वेतन का प्रबंध करने में सहायक होते थे। कुल मिलाकर देखा जाए तो क्राउन एजेंट्स ही ब्रिटिश साम्राज्य का प्रशासन संभालते थे। और एक समय में ब्रिटिश साम्राज्य के 300 उपनिवेश थे। कुछ नाम मात्र को स्वतंत्र थे। कमोबेश उनका नियंत्रण ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में ही था।
( यह पूरा खुलासा ग्रेट गेम इंडिया ने किया है। बाद में सबरंगइंडिया.कॉम ने इसमें और छानबीन की है।)
नोट – इस मामले से जुड़े सभी जवाबों के लिए ग्रेट गेम इंडिया ने आरटीआई के तहत आवेदन दिया था ताकि देश की सेवा में सच का संधान हो सके।