प्रिय रवीश कुमार जी,
सीजन खुली चिट्ठियों का है। आपने हाल ही में पत्रकार से मंत्री बने एम.जे.अकबर को चिट्ठी लिखी। बरखा दत्त ने पूर्व मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखी। चूंकि आप अब ट्रॉलिंग के चलते सोशल मीडिया में नहीं हैं इसलिए खुली चिट्ठी ही मेरे लिए आप तक पहुंचने अकेला जरिया था।
रवीश की रिपोर्ट का मैं शुरू से ही दर्शक रहा हूं। आपकी पत्रकारिता के मानदंडों का मैं प्रशंसक हूं। गुजरात मॉडल की सही तस्वीर दिखाने और उससे भी ज्यादा जाति, कोटा जैसे संवेदनशील लेकिन अहम सामाजिक मुद्दों को अपनी पत्रकारिता का विषय बनाने की वजह से मैं आपका मुरीद बन चुका हूं।
5 जुलाई के मोदी के कैबिनेट विस्तार पर दिखाए गए अपने कार्यक्रम में आपने ब्राह्मण वर्चस्व का मुद्दा उठा कर मर्म पर चोट की। कोई भी पत्रकार या चैनल कैबिनेट विस्तार का इस अंदाज में चीर-फाड़ का साहस नहीं करता।
आपने सही कहा कि मोदी कैबिनेट में ज्यादातर महत्वपूर्ण मंत्री ब्राह्मण हैं। विस्तार के बाद रामदास अठावले जैसे दलित मंत्री को शामिल किया गया। आपने सही कहा कि दलित मंत्रियों को आखिर सामाजिक न्याय मंत्रालय ही क्यों दिया जाता है। उन्हें वित्त या वाणिज्य जैसे अहम मंत्रालय क्यों नहीं मिलते। सुशील कुमार शिंदे और रामविलास पासवान जैसे मंत्रियों को छोड़ कर किसी और दूसरे दलित मंत्री को शायद ही कभी कोई बड़ा मंत्रालय दिया गया है। लेकिन विडंबना देखिये कि इस मुद्दे पर पैनल डिस्कशन में आपने जिन लोगों को बुलाया था वे भी ब्राह्मण ही थे। अभय कुमार दुबे, विद्या सुब्रमण्यम, अखिलेश शर्मा, सुनीता एरन- सभी ब्राह्ण। मुझे नहीं लगता कि आपने इस पर गौर किया होगा। जरा सोचिए कि टीवी पर कैबिनेट में डाइवर्सिटी की चर्चा एक ऐसा पैनल कर रहा है, जिसमें खुद डाइवर्सिटी नहीं है। क्या महिला मुद्दों पर किसी ऐसे पैनल में चर्चा हो सकती है, जिसमें लगभग सभी पुरुष हों।
कुछ साल पहले तक आपके पास प्रोफेसर विवेक कुमार या चंद्रभान प्रसाद जैसे मुखर वक्ता होते थे। कांग्रेस के दलित नेता पीएल पुनिया या भाजपा के संजय पासवान जैसे नेता दिख जाते थे, जिन्हें मैं दलितों के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं देखता। आप मानेंगे कि पैनल में बुलाए जाने वाले ऐसे नेता चर्चा के दौरान अपने समुदाय के बजाय अपनी पार्टियों की नुमाइंदगी करते दिखते हैं।
मैं किसी नाम के खिलाफ नहीं हूं लेकिन इस पैनल डिस्कशन में आप क्या ऐसे दलित कमेंटेटर को नहीं बुला सकते थे, जो गैर जो एक साथ भाजपा और कांग्रेस दोनों पर टिप्पणी कर सकता था। क्या एनडीटीवी में 20 साल की नौकरी के बावजूद आप ऐसे गैर राजनीतिक दलित कमेंटेटर को नहीं ढूंढ़ पाए जो इस डिबेट का हिस्सा हो सकता था। एनडीटीवी के एडोटरियल बोर्ड की बात छोड़ दीजिये। मोदी कैबिनेट में डाइवर्सिटी की बात करते हुए क्या आपने अपने डिस्क शन पैनल को भी डाइवर्सिफाई करने के बारे में सोचा?
द हिंदू ने 2012 में एक रिपोर्ट छापी थी कि किस तरह मीडिया समानता और भाईचारे की संविधान की दी गई गारंटी की अनदेखी करते हुए दलितों की भर्तियां करने में नाकाम रहा है। इस रिपोर्ट में वाशिंगटन पोस्ट की एक स्टडी का हवाला दिया गया था, जिसे 2000 में इसके संवाददाता केनेथ जे कूपर ने किया था। कूपर भारत में किसी दलित संवाददाता की तलाश में थे लेकिन ऐसा कोई पत्रकार नहीं मिला। इसके बाद बीएन उनियाल ने कूपर की इस तलाश के बारे में द पायनियर में लिखा। उन्होंने अपने बारे में भी लिखा – अपनी 30 साल की पत्रकारिता दौरान मैं भी किसी साथी दलित पत्रकार की तलाश नहीं कर सका। एक भी नहीं। कूपर-उनियाल की तलाश में देश के मीडिया में फैसले लेने वाले 300 से ज्यादा पत्रकारों में से कोई भी दलित या आदिवासी नहीं निकला।
मैं इस समय अमेरिका में रह रहा हूं। यहां टीवी पर भारत से बिल्कुल अलग तस्वीर दिखती है। मैं यहां टीवी पर जातीय, नस्ल और त्वचा के रंग की पर्याप्त विविधता देखता हूं। मुझे हर दिन सीएनएन के प्राइम टाइम पर अफ्रीकी अमेरिकी डॉन लिमोन दिखते हैं। यहां तक कि दक्षिणपंथी फॉक्स न्यूज के पैनल पर भी अक्सर अफ्रीकी अमेरिकी विशेषज्ञों का समूह दिख जाता है। कॉमेडी सेंट्रल चैनल के डेली शो के होस्ट अफ्रीकी-अमेरिकी ट्रेवर नोह हैं, जिन्होंने मशहूर होस्ट जॉन स्टीवर्ट की जगह ली है।
अमेरिका में यह कैसे संभव हुआ? द हिंदू की ही रिपोर्ट बताती है कि 1978 में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज एडीटर्स ने पाया कि अमेरिकी न्यूज रूम में सिर्फ चार फीसदी पत्रकार ही ब्लैक, लातिनी, नेटिव अमेरिकन या एशियाई हैं। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज एडीटर्स ने सिलसिलेवार ढंग से इस तादाद को बढ़ाने का फैसला किया। सोसाइटी ने लक्ष्य रखा कि 2000 तक न्यूज रूम में ऐसे पत्रकारों की तादाद 30 फीसदी तक पहुंचा दी जाएगी। हालांकि 30 फीसदी तक का लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ है। लेकिन अब अमेरिकी न्यूज रूम में यह तादाद 20 फीसदी तक पहुंच चुकी है।
अब इसकी तुलना भारत में न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन यानी एनबीए से कीजिये। खबरों में यह तभी दिखता जब इसका कोई सदस्य या संगठन किसी छोटी-मोटी राजनीतिक पार्टी के निशाने पर होता है। ऐसे में एनबीए से क्या उम्मीद की जा सकती है? इसके अलावा मोदी सरकार जिस रफ्तार से अहम सरकारी निकायों पर ब्राह्मणों को बिठाती जा रही है, उसे देखते हुए भी यह उम्मीद बेमानी है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारतीय मीडिया में डाइवर्सिटी लाने की कोशिश करेगा।
ऐेसे में सिर्फ व्यक्तिगत प्रयासों से ही उम्मीद बंधती है। यह जिम्मा अब मीडिया में आप जैसे फैसले लेने वालों लोगों का है। आपलोग इस हालात में सुधार का बीड़ा उठाएं। क्या एनडीटीवी इस दिशा में पहल करेगा। क्या वह अगली बार किसी पैनल डिस्कशन में कुछ समझदार दलित चेहरों को शामिल करेगा।
आखिर, एनडीटीवी इंडिया या एनडीटीवी में कितने दलित रिपोर्टर हैं? आपको यह सवाल परेशान कर सकता है। दूरदर्शन के बाद सबसे पुराना मीडिया हाउस होने के नाते क्या एनडीटीवी टॉप मास-कम्यूनिकेशन संस्थानों के एससी, एसटी ग्रेजुएट्स को स्पांसर कर सकता है? क्या वहां से पढ़ कर निकलने वाले ग्रेजुएट्स को वह अपने यहां छह महीने की ट्रेनिंग देकर उन्हें रिपोर्टर के तौर पर फील्ड में भेज सकता है। यह एक जबरदस्त आइडिया हो सकता है और इसे दूसरे मीडिया घरानों को भी बताया जा सकता है। दलित इस देश की आबादी का चौथाई हिस्सा हैं। अगर आपकी सेल्स टीम कारोबारी नजरिये से भी देखना चाहे तो, टीआरपी के लिहाज से भी यह एक बड़ा दर्शक वर्ग साबित हो सकता है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय को यह आइडिया भेजा जाना चाहिए। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि मुझे भारत सरकार से काफी कम उम्मीद है। इसलिए आप जैसे संवेदनशील पत्रकार को यह चिट्ठी लिख रहा हूं। मुझे लगता है कि आप सभी सामाजिक समूहों की चिंता करते हैं और हाशिये पर रहे रहे लोगों के प्रति संवेदनशील भी हैं। जिस तरह से अपने एक प्रोग्राम में आपने हैदराबाद के पीएचडी स्टूडेंट का सुसाइड नोट पढ़ा था वह आपकी विश्वसनीयता बयां करने के लिए काफी है। मुझे उम्मीद है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे। अगर भारत का इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ब्राह्मण-बनियों का अड्डा बना रहेगा, वहां निचली जातियों का प्रवेश नहीं होगा तो मुझे महाराष्ट्र के मशहूर दलित कवि वहारू सोनवने की कविता के जरिये कड़वे सच की ओर ध्यान दिलाना होगा। इस कविता में उस दलित का दर्द है, जो अपना ही दर्द किसी सवर्ण से सुन रहा है। वह दर्शकों के बीच बैठने को विवश है। कोई सवर्ण पुरूष उसी का दर्द उसे मंच से सुना रहा है। उसी का दर्द, लेकिन इसे बयां करने का भी अवसर भी उसके पास नहीं।
स्टेज
न हम स्टेज तक पहुंच सके
न हमें बुलाया गया
हाथ दिखाकर
हमारी जगह बता दी गई
हम वहीं बैठे
वहीं पर हमें बधाई मिल गई
और वे स्टेज पर खड़े हो गए
और हमारा दर्द बयां करते रहे
हमारे दुख हमारे ही रहे
उनके कभी नहीं हो सके
लेकिन जैसे ही हमने शक जाहिर किया
उनके कान खड़े हो गए
वे चौंके
फिर गहरी सांस ली
फिर हमारे कान उमेठे
और कहा चुप रहो
माफी मांगो
नहीं तो……..
वहारू सोनवने
यह अंगे्रजी कविता का हिंदी अनुवाद है। मूल मराठी से इसे अंग्रेजी में भरत पाटनकर, गेल ओमवेट और सुहास परांजपे ने अनुवाद किया है।
और हां, चलते-चलते आपको एक बार फिर बधाई देता चलूं। ऊना में गोरक्षकों की ओर से दिन-दहाड़े दलितों को कपड़े उतार कर बर्बर तरीके से पीटने और रस्सी से बांध कर घसीटने की घटना पर आपकी कवरेज शानदार रही।
आपका ही
रविकिरण शिंदे
यह लेख मूल रूप से द हूट (The Hoot) में प्रकाशित हुआ था।
(शिंदे अमेरिका में रहते हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं। )