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Home Communal Organisations गाय के नाम पर बर्बरता की वकालत
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गाय के नाम पर बर्बरता की वकालत

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June 2, 2016
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    संविधान और कानून ताक पर, हिंसक भीड़ के समाज का सपना


    ​

    हमेशा अपनी उदारता का राग अलापने वाली भाजपा और उसके हिंदुत्व की राजनीति किस हद तक संवेदनहीन और निकृष्ट हो सकती है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। दादरी में हिंदुओं की भीड़ के हाथों बर्बरता से मार डाले गए मोहम्मद अख़लाक के मामले में एक बार फिर यही साबित हो रहा है। भीड़ ने एक मंदिर से 'आह्वान' के बाद अख़लाक के घर पर हमला किया और गोमांस रखने के आरोप में ईंट-पत्थरों से मार-मार कर उस लाचार बुजुर्ग को मार डाला था।

    किसी भी सभ्य और संवेदनशील समाज में अगर किसी भी स्तर पर इस हत्या को जायज ठहराया जाता है तो यह मान लेना चाहिए कि उस समाज का मानवीय होना अभी बाकी है। लेकिन भाजपा की राजनीति का सपना शायद इस समूचे समाज को वही बना देने का है। वरना यह कैसे संभव है कि एक असभ्य और बर्बर भीड़ किसी के खाने-पीने के सवाल पर उसके घर पर हमला करके उसे मार डाले और इस चरम बर्बरता को सिर्फ इसलिए सही ठहराया जाए कि भीड़ के पास 'वाजिब' वजहें थीं! अव्वल तो यह अपने आप में संदेह के बिंदु पैदा करता है कि जिस मांस को पहली जांच में बकरे का ठहराया गया था, वह अब आठ-नौ महीने के बाद गाय का बताया जा रहा है और क्या किसी फोरेंसिक जांच में इतना वक्त लगना स्वाभाविक है? क्या यह जांच और उसके निष्कर्ष सुनियोजित हैं? फिर अगर वह गोमांस था भी, तो क्या एक संविधान और कानून से शासन से चलने वाले देश में किसी भीड़ को यह छूट दी जा सकती है कि वह किसी को खाने-पीने के सवाल पर इस बर्बर तरीके से मार डाले?

    लेकिन इस देश के संविधान की शपथ लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बने भाजपा के कई नेताओं के लिए न संविधान की कोई अहमियत है, न उन्हें कानूनों की जरूरत लगती है। इसलिए अगर उसके राजनीतिक एजेंडे में गाय को मारने का विरोध एक मुद्दा है तो उसके लिए उसे कानून और संविधान में दर्ज व्यवस्था की कोई अहमियत नहीं है। वह एक ऐसा समाज चाहती है जो अपनी राय, अपनी पसंद से इतर सोचने-समझने या खाने-पीने वालों को ठीक उसी तरह घेर कर बर्बरतापूर्वक मार डाले, जैसे दादरी में हुआ था।

    भाजपा के सांसद आदित्यनाथ ने जिस तरह मोहम्मद अख़लाक के परिवार के खिलाफ गोहत्या का मुकदमा दर्ज करने और उसे मिली सरकारी सहायता वापस लेने की मांग की, क्या इसके विरोधाभासों पर भी भाजपा कभी सोचेगी? या तो वह कानून के शासन को ही स्वीकार कर ले या फिर भीड़-तंत्र की बर्बरता को सही मान ले। यह कैसे संभव है कि एक साथ आप कानूनों के तहत मोहम्मद अख़लाक पर मुकदमा दर्ज करने की मांग करें और दूसरी ओर भीड़ के उस व्यवहार को भी सही ठहराएं?

    लेकिन भाजपा को पता है कि देश की जनता को इसी तरह भ्रम की दुनिया में बनाए रख कर उसे दिमागी तौर पर गुलाम बनाए रखा जा सकता है। इसलिए वह उन्हीं कानूनों के तहत हत्यारी भीड़ और उसके पीछे साजिश करने वालों को गिरफ्तार करने और हत्या के लिए उचित सजा की मांग नहीं करके उसके समर्थन का एलान करेगी। क्या यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इस तरह की राजनीति भविष्य का कैसा समाज खड़ा करेगी? वह कैसा और किस समाज का दृश्य होगा जब कोई व्यक्ति या समुदाय अपनी पसंद और इच्छा से इतर सोचने-समझने या जीने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से घेर कर मार डाले? क्या ऐसी भीड़ तब रुकेगी, जब उससे ज्यादा ताकतवर भीड़ उसके साथ उसी तरह का व्यवहार करने के लिए खड़ी हो जाएगी? लेकिन वह कैसा समाज और देश होगा?

    क्या यही भाजपा के सपनों का हिंदू समाज है, जिसके बारे में दुनिया भर में सहिष्णुता की ढोल पीटी जाती रही है? और यहां तो सवाल उसकी सहिष्णुता का भी नहीं है! अगर किसी व्यक्ति या समुदाय के सामान्य जीवन में कोई खानपान शामिल है तो उसे नियंत्रित करने का अधिकार दूसरे समुदाय को कैसे मिल जाता है? अगर कहीं इसे लेकर कानून हैं, तो वह कानून लागू करने के लिए कोई असभ्य भीड़ आगे आएगी या व्यवस्था की एजेंसियां?

    लेकिन एक संदिग्ध फोरेंसिक रिपोर्ट के बाद भाजपा के कुछ नेताओं ने मारे गए मोहम्मद अख़लाक और उनके परिवार को लेकर जैसी बेरहम और अमानवीय टिप्पणियां की हैं, उससे उनकी राजनीति का पता चलता है। अगर देश के संविधान और कानून के तहत शासन के प्रति उसका यही नजरिया और व्यवहार है तो देश को सोचना चाहिए कि एक किस तरह की राजनीति समूचे समाज को गिरफ्त में लेने के लिए तैयार है। 

    असल में सबको पता है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का वक्त अब नजदीक आता जा रहा है। और भाजपा के पास अपनी चुनावी राजनीति के नाम पर एक सभ्य और विकसित समाज बनाने का एजेंडा है ही नहीं, वह विकास का राग चाहे जितना पीटे। हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनाव में जिस एक राज्य, असम में उसे कामयाबी मिली, वहां के फार्मूले को वह उत्तर प्रदेश में भी लागू करना चाहती है। यह अब छिपा नहीं है कि असम में धार्मिक-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कैसे खेल खेला गया और नतीजे कैसे आए। उत्तर प्रदेश में भी मुद्दे के नाम पर भाजपा के पास कुछ नहीं है, इसलिए वह इस तरह के मुद्दों को हवा देकर राज्य में अपना राजनीतिक जीवन तलाश रही है।

    ('चार्वाक' ब्लॉग से)
     

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