पिछले कई बरसों से हम गुजरात मॉडल , इसके झूठ और अधूरे सच से जुड़ी कहानियां सुन-सुन कर थक चुके हैं। यह बात याद रखना जरूरी है राज्य में 2002 के जघन्य मुस्लिम नरसंहार के दाग मिटाने के लिए 2007 के बाद इस मॉडल की बिक्री और और मार्केटिंग शुरू हुई।
ऐसा नहीं है कि दूसरी सरकारों और राजनीतिक पार्टियों के दौर में सरकार में बैठे बड़े लोग और सत्ता के केंद्र रहे संस्थान अल्पसंख्यक विरोधी पूर्वाग्रह से अछूते थे। 1969 में अहमदाबाद , 1970 और 1984 में बांबे-भिवंडी , 1983 में नेली, 1987 में हाशिमपुरा और 1989 में भागलपुर के बर्बर दंगों के दौरान राजनीतिक संस्थानों के पूर्वाग्रह दिख चुके हैं। लेकिन 2002 में गुजरात में जो हुआ वह 1984 में दिल्ली के सिख दंगों के दौरान भी नहीं हुआ था। उस दौरान गुजरात में दंगाइयों और राज्य के बीच हद दर्जे की मिलीभगत दिखी। इस मिलीभगत ने ही इस बड़े दंगे को फैला दिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट और अभी भी चल रहे जाकिया जाफरी केस (20 जुलाई से इसके फिर शुरू होने की उम्मीद है) इसके सबूत हैं।
पिछले साल गुजरात मॉडल एक बार फिर बेपर्दा हुआ, जब एक युवा और बिल्कुल अनुभवहीन लेकिन राजनीतिक तौर पर ताकतवर पटेल समुदाय से जुड़े नेता हार्दिक पटेल ने सरकार को चुनौती दी। हार्दिक के नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शनों ने गुजरात के मॉडल की पोल खोल दी। देेश में पिछले कुछ साल से चले आ रहे नव उदारवादी नीतियों की वजह से रोजगार की रफ्तार कम रही है। गुजरात इस ग्रोथ मॉडल का प्रतीक बन कर उभरा है। हां, इस मॉडल में कुछ लोगों और कॉरपोरेट घरानों ने अकूत संपत्ति बनाई है।
गुजरात के इस विकास मॉडल के बावजूद ओबीसी पटेल जाति के लोगों में हताशा और बेरोजगारी है। उनके पास नौकरियां नहीं हैं। क्या देश को इसी गुजरात मॉडल की जरूरत है? क्या अगले साल चुनाव का सामना करने जा रहे उत्तर प्रदेश, पंजाब या फिर गुजरात को विकास का यही मॉडल चाहिए।
पिछले एक सप्ताह से गुजरात सचमुच जल रहा है। यह भयानक आग सौराष्ट्र के उना से शुरू हुई। मरे हुए जानवरों की खाल उतारने के आरोप में चार दलित युवकों को लोहे की छड़ों से पीटा गया। कार की जंजीर से बांध कर पुलिस स्टेशन तक घसीटा गया। हमला करने वालो ं ने उनका वीडियो बना कर उसे वायरल कर दिया। हमलावरों ने उन पर गोहत्या का आरोप लगाया। हमला करने वाले दरबार जाति के लोग थे। उनका आरोप था कि ये लोग गाय को मार उसकी खाल निकाल रहे थे। जबकि सौराष्ट्र में रहने वाले दलितों के अपने बोन मिल हैं और जहां मरे हुए जानवरों का चमड़ा उतारा जाता है । राज्य में गो-हत्या और बीफ बेचना अपराध है। लेकिन मरे हुए जानवरों की खाल उतारना अपराध नहीं है। फिर भी बेकसूरों को इसकी सजा दी गई।
एक सप्ताह पहले ऐसी ही एक घटना पोरबंदर के सोधना गांव में हुई जहां दबंग जाति की एक उग्र भीड़ ने रामा सिंगराखिया नाम के एक दलित की गला रेत कर हत्या कर दी। जाने-माने दलित आंदोलनकारी और सीनियर एडवोकेट वालजीभाई पटेल ने सबरंगइंडिया को बताया कि पिछले कुछ महीनों के दौरान दलितों पर ऐसे कई हमले हुए हैं लेकिन राज्य के राजनीतिक नेतृत्व या सरकार ने अब तक इन घटनाओं की कड़ी निंदा नहीं की है।
पिछले दो-तीन दिन से उना की घटना का भारी विरोध हो रहा है। लेकिन कथित राष्ट्रीय अखबारों में इसका आंशिक कवरेज ही दिखा है। कश्मीर के मामले में एक्सपोज हो चुके टीवी एंकर चुप हैं। साफ है कि यह राष्ट्रीय नहीं कारोबारी (कॉमर्शियल मीडिया है) मीडिया है।
अब इंडियन एक्सप्रेस औैर कैच न्यूज की कुछ खबरों ने इस घटना के एक खतरनाक पहलू को उजागर किया है। उनकी खबरों में कहा गया है कि दलितों पर हमला करने वाले आरोपियों में से एक मुस्लिम युवक के पिता ने कहा कि हमलावरों ने पिटाई करने के लिए उसके बेटे पर दबाव डाला ताकि लोगों को यह पता चले कि गौ-रक्षकों के साथ मुसलमान भी हैं।
इन घटनाओं के बाद ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत हिंदुओं के सिपाहियों के बचाव में कूद पड़े। गुजरात में विश्व हिंदू परिषद की इकाई ने भी दलितों की इस बर्बर पिटाई की निंदा की। आखिर क्यों? 2002 में राज्य में मुसलिमों के खिलाफ हमले में दलितों को ही मोहरा बनाया गया था। सांप्रदायिक ताकतों ने अपनी गंदी साजिश को अंजाम देने के लिए दलितों का ही इस्तेमाल किया था। उस दौरान हिंदुत्व के सिपाहियों की तरह उन्हीं का इस्तेमाल किया गया था। मेहसाणा, आणंद, दाहोद और पंचमहल जिलों में मुस्लिमों पर हमले करने वाले पटेल समुदाय के लोग थे। लेकिन शहरी इलाकों में हिंसा के लिए दलितों का इस्तेमाल किया गया।
बहरहाल, इस घटना के पीछे की असली साजिश मुद्दे को एक बार फिर मुस्लिम विरोधी बना देना है। दलितों की पिटाई के मामले में पूरे राज्य में आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। ट्रैफिक रोका गया, बसें तोड़ी गईं, टायर जलाए गए। सुरेंद्रनगर कलेक्ट्रेट समेत कई आला अफसरों के दफ्तरों में गाय के कंकाल फेंके गए। बीएसपी प्रमुख मायावती ने संसद में मामला उठाया। गुजराती टीवी चैनलों ने शांति की अपील की। इसके बावजूद पिटाई के लिए गिरफ्तार किए गए नौ लोगों को दलितों ने गौ तालिबान का सदस्य कहा। आखिर इस पर हमारे कॉमर्शियल टेलीविजन ने बिल्कुल चुप्पी क्यों साध ली?
अब इस बात को खुले तौैर पर स्वीकार करने का वक्त आ गया है कि इस हमारा कॉमर्शियल टीवी मीडिया देश के लोगों के राजनीतिक सरोकारों की नुमाइंदगी नहीं करता। कश्मीर में विरोध प्रदर्शन और फिर उसके दमन के मामले में हम इस मीडिया की खामी देख चुके हैं। यह मीडिया सिर्फ पहले से तय राजनीतिक और और कॉरपोरट सुर अलाप रहा है। यह राष्ट्रीय शर्म का मामला है।