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Dalit Bahujan Adivasi Farm and Forest Freedom Rule of Law

‘हां, आदिवासी अब डांस नहीं करेंगे..!’

इंडियन राइटर फोरम की ओर से जारी वक्तव्य।



झारखंड में पाकुड़ जिले के बेलगंगा ब्लॉक में अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्र के मेडिकल अफसर और सवाल उठाने वाले और सच को सामने लाने वाले, दोनों ही रूप में पुरस्कारप्राप्त लेखक हंसदा सोवेंद्र शेखर ने हमें आदिवासी जीवन के हालात के बारे में हमें एक अंतर्दृष्टि दी है।

मीडिया के जरिए यह जान कर हम बेहद परेशान हैं कि झारखंड सरकार ने हंसदा सोवेंद्र शेखर को नोटिस जारी कर इस बात का स्प्ष्टीकरण मांगा है कि ''इंडियन एक्सप्रेस' में राज्य की डोमिसाइल नीति पर लिखे गए उनके लेख को सेवा नियमों का उल्लंघन क्यों नहीं माना जाए! गौरतलब है कि 14 मई, 2016 को प्रकाशित उनके लेख 'आदिवासी विल नॉट डांस' में शेखर ने सरकार द्वारा 7 अप्रैल, 2016 को घोषित डोमिसाइल नीति पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखी थी।

हम छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बर्बर दम से पहले ही बेहद सदमे में हैं। तो क्या हम नीतियों पर सवाल उठाने वाले लोगों के दमन के छिपे तौर-तरीकों का अनुमोदन कर रहे हैं?

हम इस बात में पक्का यकीन रखते हैं कि हरेक लेखक, बल्कि हरेक नागरिक को भारत की हकीकतों पर सवाल उठाने का अधिकार है, चाहे वह नीतिगत मामला हो, समाज के किसी खास हिस्से के खिलाफ अत्याचार हो, या फिर रोज-ब-रोज वंचित होते भारतीय लोगों का सवाल हो। हम सभी लेखकों, भारत के सभी नागरिकों से हंसदा सोवेंद्र शेखर को चुप कराने की कोशिशों की निंदा करने और उनके साथ यह कहने का आह्वान करते हैं कि 'हां, आदिवासी अब एक सरकार के इशारे पर नहीं नाचेंगे, जो सवालों को दफ्न करती है।'

झारखंड में बाहरी गैर-आदिवासियों की भारी तादाद में मौजदूगी है, इसलिए यह परिभाषित किए जाने की सख्त जरूरत है कि झारखंड के वास्तविक निवासी कौन हैं, जिन्हें शिक्षा और नौकरियों वगैरह में प्राथमिकता दी जाए।

'आदिवासी विल नॉट डांस' शीर्षक लेख का एक संक्षिप्त अंशः
उन्होंने मुझे जमीन पर गिरा दिया था। वे मुझे बोलने नहीं दे रहे थे, वे मुझे विरोध भी नहीं जताने दे रहे थे। यहां तक कि वे मुझे अपने उन साथी संगीतकारों और डांस करने वालों की सिर उठा कर देखने नहीं दे रहे थे, जिन्हें पुलिस बेरहमी से बुरी तरह पीट रही थी। वहां हम केवल रहम की भीख मांगते हुए सुने जा सकते थे। मुझे उनके लिए बेहद अफसोस था कि मैंने उन्हें नाकाम कर दिया था, क्योंकि जो मैंने किया था, उसके लिए मैं जिम्मेदार था। अब क्या मेरे पास कोई रास्ता बचा था? मैंने उन्हें अपनी योजना के बारे में बताया था और मैंने यह सुनिश्चित किया था कि वे मेरे साथ खड़े होते, क्योंकि जो मैंने सहा था, वही सब कुछ उन्हें भी झेलना पड़ा था। वे मेरे साथ आवाज उठाते तो हमारी आवाज में बहुत ताकत होती। वे हमारे  संथाल परगना से आगे जाते, वे झारखंड से आगे जाते, दिल्ली की ओर… भारत की सभी दिशाओं में…! दुनिया हमारे दुखों के बारे में जानती और शायद हमारे लिए कुछ हो पाता।

मैंने सिर्फ इतना कहा- 'हम आदिवासी अब और नहीं नाचेंगे..! इसमें क्या गलत है? हम किसी खिलौने की तरह हैं कि कोई हमारे ऊपर लगे 'ऑन' या फिर हमारे पिछले हिस्से में चाबी भरता है और हम संथाली अपने तमक और तुमड़क पर गाने-बजाने लगते हैं। या अपने तिरियो पर कोई धुन बजाना शुरू कर देते हैं, जबकि किसी ने हमारे नाचने के मैदानों को छीन लिया होता है। बताओ मुझे, क्या मैं गलत हूं…!'
 

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