हाथ से मैला ढोने (मैनुअल स्कैवेंजिंग) की प्रथा को बढ़ावा दे रहा है स्वच्छ भारत अभियान – वेजवाड़ा विल्सन

मोदी सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रम के तहत बनाए गए 1.1 करोड़ शौचालय अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम से जुड़े नहीं हैं। क्योंकि भारत के शहरी और उप-शहरी क्षेत्र में अंडरग्राउं ड्रेनेज सिस्टम हैं ही नहीं। केंद्र सरकार 2019 तक पूरे देश में 1200 करोड़ शौचालय बनाना चाहती है। लेकिन यह अंततः हाथ से मैला साफ (मैनुअल स्कैवेंजिंग) करने जैसे अमानवीय और अपमानजनक प्रथा को ही बढ़ावा देगा। याद रखिये मैनुअल स्कैवेंजिंग के काम को बढ़ावा देना गैरकानूनी है।

 Bezwada Wilson

 
सिर पर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ लंबे वक्त से अभियान चलाने वाल मैगसेसे अवार्ड विजेता विल्सन वेजवाड़ा का कहना है कि मोदी सरकार की ओर से बनाए गए शौचालयों के सेप्टिक टैंक में जो मल-मूत्र जमा होगा, उसे कौन साफ करेगा।  देश में शहरी और उप-शहरी क्षेत्र में भी अंडग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। गांवों और कस्बों की बात तो छोड़ ही दीजिए। साफ है कि इन इलाकों में बने शौचालयों के सेप्टिक टैंक में जमा मल-मूत्र, हाथ से मैला साफ करने वाला समुदाय ही करेगा। एक ऐसा समुदाय जो पहले ही यह काम कर रहा है और इस वजह से गरीबी के दलदल से नहीं निकल पा रहा है। इस अमानवीय और अपमानजनक प्रथा का सलीब वे आज भी ढोए जा रहे हैं। मोदी सरकार की यह योजना उन्हें इस दलदल से निकलने में और अड़चन पैदा करेगी।

स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालयों को लिए सेप्टिक टैंक लगाने का स्वागत किया जा रहा है। जबकि 2013 के कानून के तहत यह प्रतिबंधित है। जाहिर है सेप्टिक टैंक को बढ़ावा देने से हाथ से गंदगी साफ करने की प्रथा को भी बढ़ावा मिलेगा। जबकि किसी भी सभ्य समाज में इसे इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।

मैगसेसे अवार्ड मिलने के बाद वेजवाड़ा को कई सरकारी बैठकों में बुलाया गया, जहां उन्होंने यह मुद्दा उठाया। लेकिन अब तक उनकी इस वाजिब सवाल पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है। वह सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए पूरी प्रतिबद्धता से काम कर रहे हैं। विल्सन का जन्म भी इसी तरह मैला ढोने वाले कर्नाटक के एक परिवार में हुआ था।

वेजवाड़ा कहते हैं- मैंने कई सरकारी सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। मुझे बताया गया है कि पीएम की स्वच्छ भारत स्कीम के तहत 2 करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे। सभी ड्राई लैट्रिन होंगे। इसलिए मेरा सवाल यह है कि क्या इस तरह की स्कीम के जरिये हम मैला ढोने की प्रथा की वजह से होने वाली मौतों को और नहीं बढ़ा रहे हैं?

सरकार का कहना है कि गुजरात और आंध्र प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में अब कोई खुले में शौच नहीं करता। ये नगरों में खुले शौच से मुक्ति वाले पहले राज्य हैं। लेकिन विल्सन इस योजना की खामियां गिनाते हैं। हैदराबाद में अपनी किताब रिलीज होने के दौरान उन्होंने जो कहा, उसका संक्षिप्त अंश यहां मौजूद है-  

कोई इंसान दूसरे इंसान की गंदगी साफ न करे
पिछले 4000 साल से हम इस देश की गंदगी साफ कर रहे हैं। अब आधुनिक सीवर लाइन बिछाने की जरूरत है, जिसमें कोई भी आदमी अंदर न घुस सके। फर्जी कीजिये कि एक दिन अगर हमने हाथ से सीवर साफ करने से मना कर दिया तो फिर क्या होगा?

मैगेसेसे अवार्ड विनर की जाति
पिछले साल दिल्ली प्रेस क्लब में हम अपने अभियान, भीम यात्रा के बारे में बता रहे थे। मैंने सुना, कोई पूछ रहा था- ये वेजवाड़ा विल्सन कौन है? तभी किसी ने कहा, भंगी है। यह जातिसूचक शब्द गाली है।
जाति और पितृसत्ता  – एक ही सिक्के के दो बुरे पहलू

क्या आप जानते हैं कि भारतीय रेलवे में हाथ से मैला साफ करने वाले सफाईकर्मियों को ज्यादा वेतन मिलता है। क्योंकि ये सफाईकर्मी पुरुष हैं। जबकि ग्रामीण इलाकों में शौचालयों की सफाई करने वाली और सिर पर मैला ढोने वाली महिलाओं को काफी कम पैसा मिलता है। इसलिए कि ये महिलाएं हैं। जबकि हकीकत यह है कि सिर पर मैला ढोने वालों में 98 फीसदी महिलाएं हैं।

शासन,  क्यों बताए, क्या खाएं, कैसे रहें
हम इस देश में शाकाहारियों को तवज्जो क्यों दे रहे हैं? तमाम रिपोर्टें बता रही हैं देश की 50 फीसदी आबादी मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) की स्वीकार्य सीमा से नीचे जी रही है। इसके बावजूद सरकार यह बताने में लगी है हम क्या खाएं, क्या पढ़ें, क्या बोलें। हम बचपन से बीफ खाते आए हैं और आगे भी खाते रहेंगे। यह हमारा अधिकार है।

उना में क्या हुआ? आप कहते हैं कि गाय हमारी मां है और जब वह मर जाती है तो आप हमें कहते हैं इसकी लाश और हड्डियों को ले जाओ। पिछले पांच हजार साल में आपने जाति का एक ऐसा अमानवीय ढांचा खड़ा कर दिया है कि 21 वीं सदी में भी अधिकतर भारतीय आबादी इसी के दायरे में रहने और इसे मानने के लिए अभिशप्त है। जाति के मुताबिक जीने वाले इसमें विश्वास करते हैं और दलितों को इसमें विश्वास करना सिखाया जाता है। श्रेष्ठता और कमतरी की यह भावना शर्मनाक है। मेरा कहना है कि आदमी और जानवरों को बराबर मानो।  

सिर पर मैला ढोने वालों के लिए कहीं न्याय नहीं
जरा सोचिए, सिर पर मैला ढोने वालों के लिए न्याय क्या हो सकता है। इस मामले में न्यायपालिका से हमें गहरी निराशा हुई है। इस मामले में हमारा अनुभव बेहद दयनीय है। सिर पर मैला ढोना रुकवाने के मामले में न्यायपालिका का रवैया बेहद निराश करता है। हमें ही राज्यों से इस बारे में डाटा इकट्ठा करने के लिए दौड़ना पड़ा। (हमें 22 राज्यों की अदालतों से फरियाद करनी पड़ी)। क्योंकि राज्य सरकारें इसके आंकड़े इकट्ठा नहीं करती हैं। हमें ही बार-बार अपने भाइयों-बहनों की मैला उठाती तस्वीरें लेनी पड़ी। अदालत को यह भरोसा दिलाने के लिए यह अमानवीय प्रथा अब भी जारी है, हमें महिलाओं की मैला उठाती तस्वीरें बार-बार खींच कर सबूत के तौर पर भेजनी पड़ी। इसके बावजूद अदालत की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। न्यायपालिका इस घोर अमानवीय प्रथा के प्रति संवेदनहीन है। मेरी समस्या यह है कि इन सब के बीच रहते हुए मैं आदमी को आदमी का मल-मूत्र उठाते नहीं देख सकता।

इस अमानवीय काम से जुड़े आंकड़े मौजूद नहीं
क्या आपको पता है कि देश के किसी भी राज्य सरकार ने हाथ से मैला साफ करने की प्रथा से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करने का कोई बीड़ा नहीं उठाया है। वे यह दिखाना चाहती हैं कि ऐसी कोई प्रथा नहीं है। इस काम के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता। ऐसे लोगों को कोई मुआवजा नहीं मिलता। (जबकि 2013 के कानून में हाथ से मैला साफ करने वालों को दस लाख रुपये का मुआवजा देने का प्रावधान है)

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो राज्यवार सीवर की सफाई करने के दौरान दुर्घटना में हुई मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करता है लेकिन सेप्टिक टैंक और सीवर में घुसने के दौरान हुई मौतों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा इकट्ठा नहीं होता। आखिर क्यों? क्या इस काम को करने वाले लोग इंसान नहीं हैं? हम देश भर में शौचालयों, टेलीविजन और स्कूटरों का आंकड़ा इकट्ठा कर सकते हैं तो हाथ से मैला साफ करने वालों के बारे में कोई आंकड़ा क्यों नहीं इकट्ठा कर सकते ? पिछले दो साल में सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करते हुए 1370 लोगों की मौत हो गई । क्या इस पर देश में कोई हंगामा मचा? क्या इस बारे में आए 2013 के कानून के बावजूद ऐसा होते रहना शर्मनाक नहीं है?

जाति  – एक अमानवीय व्यवस्था
भेदभाव के तमाम स्वरूपों में एक है जाति के आधार पर भेदभाव। एक बार किसी जाति में पैदा होकर इससे निकलना बेहद मुश्किल है। इसके खिलाफ बोलने के लिए साहस और योग्यता चाहिए। यह काम मैंने किया। मैला ढोने की ‘सुरक्षित’ व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं है।

पिछले कुछ दशकों में कई कमेटियां बनी हैं और इन्होंने मैला ढोने या सीवर, सेप्टिक टैंक की सफाई करने के सेफ तरीकों की सिफारिश की है। बर्वे कमेटी, मलकानी कमेटी जैसी कमेटियों ने यह काम किया है। यहां दिया गया यह बैकग्राउंड नोट यह स्थिति अच्छी तरह से समझा पाएगा। ( This background note explains this background)। कुछ कमेटियों ने मास्क लगाने की सिफारिश करते हुए कहा है कि यह स्वास्थ्य का मुद्दा है तो कुछ को मैला ढोने वालों की रीढ़ की चिंता थी। किसी भी कमेटी ने यह नहीं कहा कि किसी भी इंसान को दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ नहीं करना चाहिए।

क्या आप बाकी भारतवासी समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं? आप में से जो यह कहता है कि हम बहुसंख्यक हैं और देश में जाति जैसी कोई चीज नहीं है, उनसे मैं यह पूछना चाहता हूं कि उनके पास जाति भूलने की सुविधा हो सकती है। लेकिन क्या मैं अपनी जाति भूल पाऊंगा। क्या वेजवाड़ा विल्सन जो एक मैला साफ करने वाले परिवार में पैदा हुए वेजवाड़ा विल्सन को जाति भूलने दिया जाएगा? मैं अपनी जाति नहीं भुला सकता।

सितंबर, 2013 में हाथ से मैला साफ करने का काम रोकने
और सफाईकर्मियों के पुनर्वास से जुड़ा बिल हुआ था पारित

बिल की शुरुआत में ही इसका लक्ष्य और उद्देश्य स्पष्ट कर दिया गया है। इसके मुताबिक-
यह कानून हाथ से मैला ढोने को रोजगार पर तौर पर रोकने के लिए है। कानून हाथ से मैला साफ करने वाले और उनके परिवार के पुनर्वास की व्यवस्था करता है। इसके तहत इस मामले से जुड़े सभी पहलुओं से निपटने की व्यवस्था है। यह कानून नागरिकों की बीच भाईचारा बढ़ाने और व्यक्ति की गरिमा की रक्षाकी व्यवस्था करता है। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित लक्ष्य में यह भावना समाहित है। संविधान के अंश – तीन में गरिमापूर्ण जीवन जीने की गारंटी है, जो लोगों का मौलिक अधिकार है।

संविधान के अनुच्छेद 46 में कहा गया है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गो खास कर अनुसूचित जाति और जनजाति की सामाजिक अन्याय से रक्षा करेगा और उन्हें हर तरह के शोषण का शिकार होने से बचाएगा।

संविधान की इस गारंटी के बावजूद शौचालयों और निकलने वाली गंदगी को हाथ से साफ करने वाली अमानवीय प्रथा जारी है। जाति व्यवस्था से निकली यह गंदगी बदस्तूर कायम है। कानून होते हुए भी देश के तमाम राज्यों में यह प्रथा जारी है। मौजूदा कानून इसे खत्म करने में नाकाम रहे हैं। अस्वच्छ शौचालय और हाथ से मैला ढोने का काम मौजूद है।

वक्त आ गया है कि इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म किया जाए और हाथ से मैला ढोने वाले इंसानों की गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया जाए। उनका पुनर्वास हो ताकि उन्हें एक अच्छी जिंदगी मिले। लेकिन सरकार ऐसी योजनाएं बनाती हैं कि यह समस्या खत्म होती नहीं दिखती । मोदी सरकार की स्वच्छ भारत फ्लैगशिप योजना इस गैरकानूनी और अमानवीय काम को और बढ़ाती हुई ही दिख रही है।

(हैदराबाद में वेजवाड़ा विल्सन के भाषण का अंश। उनकी किताब हाल में ही तेलुगु में रिलीज हुई है)।

संदर्भः
1) Bezwada Wilson Wins Ramon Magsaysay Award 2016
2) 'Our fight is for the restoration of the Constitutional vision': Bezwada Wilson
3) Modi's Swachch Bharat will fail and Dalit Revolt will Spread: Bezwada Wilson
4) Swacch Bharat Abhiyan Invisibilises Caste and Glamourises the Broom: Bezwada Wilson
5) Swachh Bharat Urban-Toilet Plan 76% Behind Schedule
6) Bhim Yatra: ‘Stop Killing Us in Dry Latrines, Sewers and Septic Tanks’
7) Dignity for Those Who Clean Our Filth
8) Bhim Yatra- Golaghat(Assam) and Dimapur(Nagaland)
9) Stop Killing Us: the Bhim Yatra of India’s Manual Scavengers tells the Indian government

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