हिंदुत्व की व्याख्या पर दोबारा गौर करे सुप्रीम कोर्ट

अगर सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से हिंदुत्व जीवन जीने का एक तरीका है तो इस्लाम और ईसाई या कोई अन्य धर्म क्यों नहीं?

भारतीय राजनीति पर इन दिनों भयानक साया मंडरा रहा है। मौजूदा भारतीय राजनीति के प्रमुख खिलाड़ी अपनी पार्टियों, कार्यक्रमों और घोषणापत्रों के जरिये ऐसे मौकापरस्त और वर्चस्ववादी समाज के विचारों को आगे बढ़ाने में लगे हैं, जो भारतीय राजनीति की बहुलतावादी परंपरा के बिल्कुल खिलाफ हैं। ये पार्टियां हमारी धार्मिक और जातिगत पहचान को आपस भिड़ा कर इस देश की समृद्ध राजनीतिक परंपरा के खात्मे पर उतारू हैं।

ऐसे में खास कर वोटरों का समर्थन जुटाने की जद्दोजहद भरे चुनावी माहौल में इन चिंताओं के प्रति बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। इस माहौल में उन राजनीतिक दलों के कामकाज पर निगाह रखनी होगी जो अपने संकीर्ण चुनावी फायदे के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था पर वर्चस्व कायम करने की कोशिश में लगे हैं। इसके जरिये ये पार्टियां देश के राजनीतिक तानेबाने को तार-तार कर रही हैं। विडंबना यह है यह काम उसी चुनावी प्रक्रिया के जरिये हो रहा है जो किसी भी लोकतंत्र की जान है।

हालांकि संविधान में राजनीतिक दलों की भूमिका परिभाषित नहीं की गई है। फिर भी स्वस्थ दलीय व्यवस्था के बगैर संसदीय प्रणाली में ऐसी राजनीति की संभावना खत्म हो जाती है, जो संवैधानिक मूल्यों के प्रति आग्रही और समर्थक हो।

संवैधानिक मूल्यों को बचाने की गरज से ही जन प्रतिनिधित्व कानून (आरपीए), 1951 की धारा 123 का प्रावधान किया गया। इस धारा के जरिये देश में ऐसे राजनीतिक भाषणों पर वाजिब प्रतिबंधों की व्यवस्था है, जो देश की एकता के लिए खतरा हो सकते हैं। राजनीतिक भाषणों में धर्म, नस्ल और जाति के नाम पर ऐसे भड़काऊ बयानों पर रोक है, जो देश के सामाजिक तानेबाने के लिए खतरा बन सकते हैं।

धारा 123 ने एक दीवार खड़ी कर दी है- एक तरफ राज्य है तो दूसरी ओर धर्म, जाति, नस्ल और भाषा। अगर किसी भी पार्टी का संगठन धर्म, जाति, नस्ल या भाषा के आधार पर अपना चुनाव प्रचार करता है और इसके जरिये देश की एकता या संविधान में निहित सेक्यूलर दर्शन को चोट पहुंचाता है तो उसे असंवैधानिक कदम अपनाने का दोषी माना जाएगा।

राजनीति में धर्म को शामिल करना देश की राजनीतिक व्यवस्था को मंजूर नहीं होगा। यह हमारे संवैधानिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा कर देगा।

 सुप्रीम कोर्ट ने एस आर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1994) 3 एससीसी 1 पैरा 310-311 के फैसले में साफ कहा है कि राजनीतिक दल राज्य की ताकत हासिल करने और इसमें हिस्सेदारी के लिए बनाए जाते हैं या फिर इसके लिए अस्तित्व में होते हैं। राजनीतिक दलों का यही लक्ष्य होता है। वे कुछ लोगों का संगठन हो सकते हैं लेकिन उनकी व्यावहारिक प्रासंगिकता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों के बगैर सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप की कल्पना नहीं की जा सकती है।

अगर संवैधानिक जरूरतें, कार्य और विचारों के नजरिये से राज्य से धर्मनिरपेक्ष होने की मांग करती हैं तो राजनीतिक दलों पर भी यही शर्त लागू होती है। और संविधान धर्म और राजसत्ता के घालमेल की न तो अनुमति देता है और न ही इसे मान्यता देता है।  संविधान में इसके लिए खास निर्देश है। राजनीति में धर्म को शामिल करना देश की राजनीतिक व्यवस्था को मंजूर नहीं होगा। यह हमारे संवैधानिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा कर देगा।

देश में मौजूदा दक्षिणपंथी सत्ताधारी पार्टी चुनावी फायदे के लिए हिंदुत्व के विचारों का जिस तरह से प्रचार कर रही है और इसके प्रति एक रोमांटिक भाव पैदा कर रही है, उससे थोड़ी चिंता पैदा हुई है। यह पार्टी बड़े ही सुनियोजित तरीके से हिंदुत्व को आक्रामक रणनीति के जरिये आगे बढ़ा रही है। यह पार्टी अपने चुनावी अभियानों और नीतिगत पहलों में हिंदुत्व को जिस तरह से बढ़ावा दे रही है, उससे भारतीय समाज की बहुलता को जो चोट पहुंची है, उसका इसे अंदाजा नहीं है। दक्षिणपंथी पार्टी के वर्चस्व वाले भारत की जो कल्पना है, उसमें अन्य जीवनशैली वाले दूसरे धर्म दोयम दर्जे के हो जाएंगे। वे हाशिये पर धकेल दिए जाएंगे। सीधे तौर पर यह संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 25 की सैद्धांतिक स्थापनाओं के खिलाफ होगा।

हमारे संविधान के मुताबिक कोई भी पार्टी और संगठन एक साथ राजनीतिक और धार्मिक नहीं हो सकता। आप या तो राजनीतिक पार्टी हो सकते हैं का फिर धार्मिक संगठन ही बने रह सकते हैं। अगर कोई पार्टी,  संगठन मौखिक तौर पर छपे हुए शब्दों के जरिये या अन्य किसी तरह से धर्म और राजनीति का घालमेल करता है तो यह भी गैर संवैधानिक कदम होगा।
 
अगर सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से हिंदुत्व जीवन जीने का एक तरीका है तो इस्लाम और ईसाई या कोई अन्य धर्म क्यों नहीं?
 
 हिंदुत्व से जुड़ा फैसला
 
दिवगंत जस्टिस जे एस वर्मा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने डॉ. यशवंत राव प्रभु (हिंदुत्व पर फैसला) के मामले में ‘हिंदुत्व’ या ‘हिंदुइज्म’ को परिभाषित करने की कोशिश की थी। यह कोशिश चुनावी प्रचार और अभियान के संदर्भ में हुई थी। फैसले में कहा गया था कि हिंदुत्व या हिंदूवाद को संकीर्ण नजरिये से तब तक नहीं देखा जाना चाहिए जब तक कि चुनावी भाषणों से विरोधाभासी अर्थ और इस्तेमाल की झलक न मिले। हिंदुत्व या हिंदूवाद को भारतीय लोगों के जीवन जीने का तरीका माना जाना चाहिए। बेंच ने कहा कि सिर्फ हिंदुत्व या हिंदूवाद जैसे शब्दों से जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 की उप धारा 3 और 3ए के तहत कोई भाषण प्रतिबंध के दायरे में नहीं आ जाता है।

हिंदुत्व पर सुप्रीम कोर्ट का यह नजरिया वास्तिवकता को नकारता है और हमारी समझ से परे है।  जब कोई राजनीतिक नेता खास कर कट्टरपंथी हिंदू, हिंदू, हिंदूवाद या हिंदुत्व का जिक्र करता है तो यह प्राथमिक तौर पर अपने वोटरों या जनता के सामने हिंदू धर्म का हवाला ही दे रहा होता है। ऐसे भाषणों के दौरान मौजूद औसत भारतीय से ज्यादा शिक्षित मतदाता इसे समावेशी संदर्भ में नहीं देखेगा। वह इसे भारत से बाहर पैदा हुए इस्लाम, ईसाई या यहूदी धर्म के नजरिये से नहीं देखेगा। वह इसे हिंदू धर्म के नजरिये से ही देखेगा।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सूर्यकांत वेंकटराव महादिक बनाम सरोज संदेश नाइक (भोंसले) [ (1996)1 एससीसी 384] (महादिक केस) में कहा कि चुनावी अभियान के दौरान एक और कुछ अन्य उम्मीदवारों की ओर से दिया गए भाषण में हिंदुत्व का जो संदर्भ दिया गया, वह भ्रष्ट चुनावी आचरण था। एक हिंदू उम्मीदवार की ओर से हिंदू धार्मिक त्योहार के दौरान हिंदू मंदिर में जुटे हिंदू श्रद्धालुओं के बीच दिया गया हिंदुत्व के लिए किसी उम्मीदवार को जिताने के लिए दिया गया भाषण भ्रष्ट चुनावी आचरण ही माना गया।

अदालत ने खास कर इस बात का (पैरा 14) का जिक्र किया कि इस तरह की अपील में वोटर अगर हिंदुत्व शब्द का मतलब और इसका इस्तेमाल समझता है तो हिंदू धर्म के नाम पर अपील को संदर्भ से काट कर नहीं देखा जा सकता।
यह तर्क सुप्रीम कोर्ट के पिछली पांच जजों वाली बेंचों- शास्त्री यज्ञपुरुषादजी बनाम मूलदास भदरदा वैश्य 1966 (3) एसीआर 242, और वेल्थ टैक्स कमीशनर, मद्रास बनाम स्वर्गीय आर श्रीधरन के मामले में दिए गए फैसलों से निकाले गए थे। लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर इन फैसलों में भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का समर्थन किया गया था जिसमें हिंदुत्व का हिंदूवाद को सांस्कृतिक नजरिये से देखने की अपील की गई थी। इसे भारतीयों के जीवन जीने का तरीका माना गया था। बेंच ने इस बात की अनदेखी कर दी थी, जिसमें हिंदू होने के विशेष गुण बताए गए थे। इसमें हिंदू होने के लिए वेदों को सर्वोच्च मानते हुए इसे आदर के साथ स्वीकार करने की बात कही गई थी।ब्रहमचारी सिद्धेश्वर शाही बनाम अन्य बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में दिए गए फैसले में हिंदुत्व और हिंदूवाद के दो मतलब निकाले गए थे।
 
इस तरह हिंदुत्व के संबंध में दिए गए फैसलो से हिंदूवाद और हिंदुत्व के व्यावहारिक पक्ष पर रोशनी नहीं पड़ती। इसलिए इस पर पुनर्विचार जरूरी था। लेकिन अभिराम सिंह बनाम सीडी कोमाचेन और नारायण सिंह बनाम सुंदरलाल पटवा मामले में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने इस मौके को हाथ से जाने दिया।
 
हिंदुत्व के बारे में स्वामी विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक गुरुओं ने व्यापक व्याख्या की थी। 1893 में उन्होंने विश्व धर्म सांसद के दौरान अमेरिका में हिंदुत्व का जो सार समझाया था वह इस तरह था- एक ईसाई के लिए हिंदू या बौद्ध होने की जरूरत नहीं है। न ही किसी हिंदू के ईसाई के बौद्ध या ईसाई बनने की। इसके बजाय हर धर्म का अनुयायी दूसरे धर्म की भावनाओं को आत्मसात करे। ऐसा करके भी वह अपनी अलग पहचान कायम रखेगा और अपनी आध्यात्मिक धार्मिक प्रगति में आगे बढ़ेगा। 
 
लेकिन हिंदुत्व की संकीर्ण व्याख्या बेहद आम है और इसी का विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और दूसरे कट्टर राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन प्रचार करते हैं। ऐसे में हिंदू राष्ट्र या राम मंदिर आदि के नाम पर वोटरों से वोट देने की अपील करना सीधे-सीधे जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत आता है।
 
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक अगर, हिंदूवाद या हिंदुत्व जीवन जीने की तरीका या जीवनशैली है तो बौद्ध धर्म और ईसाइयत को भी ऐसा ही मानना होगा। अगर सुप्रीम कोर्ट हिंदुत्व की एक जीवनशैली के तौर पर व्याख्या करता है तो ईसाई, बौद्ध या किसी भी अन्य धर्म को भी जीवन जीने का तरीका ही मानना होगा।

अगर ‘वे ऑफ लाइफ’ यानी जीवन जीने के तरीके का अर्थ देखेंगे तो सभी शब्दकोश आपको बताएंगे कि यह लोगों की जिंदगी का एक ढर्रा है। जिसमें उनका धर्म, उनकी भाषा, उनकी कला  या हस्तकला, कारीगरी, जीविका के साधन और दूसरों से उनका व्यवहार शामिल है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व से जुड़ा जो फैसला दिया है उसमें हिंदुत्व या हिंदूवाद के इन व्यावहारिक पक्षों पर रोशनी नहीं डाली गई है। इस पर पुनर्विचार जरूरी था। लेकिन अभिराम सिंह बनाम सीडी कोमाचेन और नारायण सिंह बनाम सुंदरलाल पटवा मामले में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने इस मौके को हाथ से जाने दिया।

अगर, राजनीतिक पार्टियों के भीतर तुरंत और व्यापक सुधार की जरूरत नहीं समझी जा रही है तो भारतीय लोकतंत्र के सामने गहरे खतरे पैदा हो सकते हैं।

संविधान ने राज्य की व्यापक और सर्वोच्च सत्ता को मंजूरी दी है इसलिए इसमें धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत और सहिष्णुता पर समान रूप से स्पष्टता है। यह धर्म के मामले में हमारे संवैधानिक दर्शन का अभिन्न हिस्सा है। राष्ट्रीय गान के मामले में चेन्नपा रेड्डी जे ने भी यही कहा है-
 
हमारी परंपरा हमें सहिष्णुता की सीख देती है। हमारा दर्शन हमें सहिष्णुता की शिक्षा देता है। हमारा संविधान सहिष्णुता अपनाने की सीख देता है। इस भावना को कमजोर न होने दें।
 
(डॉ. योगेश प्रताप सिंह सुप्रीम कोर्ट के डिप्टी रजिस्ट्रार हैं। डॉ. अफरोज आलम मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में एसोसिएट प्रोफेसर और राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं।)

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