हम जब नींद में थे, लालटेन बुझ गयी…


प्रकाश साव

मयंक सक्सेना

प्रकाश साव से मुलाक़ात का श्रेय, रंगकर्मी और थिएटर एक्टिविस्ट राजेश चंद्र को देता हूं, लेकिन उनसे मिलने के कुछ मिनट बाद, यह लगना ही बंद हो गया कि उनसे पहली बार मिल रहा हूं…न जाने कितनी पुरानी जान-पहचान हो…ऐसा लगा और फिर अर्से बाद इतनी आत्मीयता से प्रकाश भाई के आगरा के उस छोटे से कमरे में ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया कि आत्मा कई दिन तक तृप्त रही…फरवरी 2013 का समय था…प्रकाश भाई ने तब भी आंसू भरी आंखों से ज़िक्र किया था कि उनका केंद्रीय हिंदी संस्थान में किस कदर उत्पीड़न हो रहा था…जातीय टिप्पणियां भी होती थी…मैंने लिखने की बात की, तो अनुनय कर के मुझे न लिखने को मना लिया…प्रकाश भाई को दवाएं…ढेर सारी दवाएं खाते देखा था…प्रत्यूष उस समय 3 साल का भी नहीं था शायद…उसके साथ, जी भर खेला…और चला आया…अब प्रकाश भाई चले गए हैं…हां, आत्महत्या की है उन्होंने…उसी उत्पीड़न से निराश हो कर…उनकी कुछ कविताएं पढ़िए…जीते जी, जिसे आप नहीं समझ सके…उसकी कविताएं उसकी पूरी ज़िंदगी का पता देती हैं…प्रकाश भाई, आप मार गए हम सबको…न जाने कब तक, हम सब ऐसे ही मरते हुए ज़िंदा रहने को अभिशप्त रहेंगे…
 
युवा कवि प्रकाश की कुछ कविताएं….
 
आत्मन् ! ऐसे ही

नदी भागी जाती है
सागर की ओर
पांवों पर झुक कर
लीन हो जाती है
यह नमस्कार की नित्यलीला है
आत्मन ! 
ऐसे ही नमस्कार करता हूँ !
 
 
लालटेन

हर आदमी की आंख में
लालटेन उठाकर झांकता था
हर आंख में एक छोटा- सा गड्ढा था
जिसमें कीचड़ भरा थोड़ा- सा पानी था
और पानी में रोशनी नहीं थी
पूरी पृथ्वी पर लिए- लिए जलती लालटेन
घूमता रहा दौड़ता- भागता
मेरे पास कुछ नहीं था कभी भी
फकत एक जलती लालटेन के सिवाय
और इसी लालटेन की रोशनी
मैं हर आंख में ढूढता था
यह लालटेन कब से मेरे साथ थी
या मैं इस लालटेन को कब मिला
लालटेन ने मुझे खोजा था
या लालटेन मेरे द्वारा खोज ली गयी थी
यह उस क्षण तक मालूम नहीं था
जब मैं चारपाई पर लेटा आखिरी सांसें ले रहा था
लालटेन चारपाई के पास पड़ी
थिर जल रही थी
दस-बीस लोग पास खड़े- बैठे थे
बिलखते जाते थे पूछते आखिरी इच्छा
मूर्छा में मैंने जाने क्या कहा 
किसी जनम में मुझे याद आया
कि मेरी इच्छा और मूर्छा के बीच
लालटेन की पीली रोशनी झर रही थी !
 
अकथ

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था
सो जन्मों से कहता जाता था
कहने को होता 
तो कहकर चुक जाता
कहने को कुछ नहीं था
सो वाणी डोलती न थी
केवल कुछ तरल सा हुआ करता था
कहने को कुछ नहीं था
सुबह कोहरा रहता था
समय चुपचाप बहता था
मैं हर बार एक हिलते पौधे से 
एक अंजुरी फूल चुनकर
धारा में डाल देता था
और चुपचाप प्रणाम करता था !
 
जन्म की खबर

मुझे पता नहीं था मैं जन्मा था
बहुत बाद में बताया गया
कि तुम जन्मे थे
अपने जन्म की मुझे कभी खबर नहीं थी
न भूला था
भूल जाता तब जब खबर होती
और खबर होती तो याद रखता
जन्म की खबर किसी ने बाद में
मुझ पर चिपका दी
चिपके हुए को अनजाने मैं ढोता रहा
नदियों में पानी बहता रहा 
चाँद से रोशनी झरती रही
रोशनी में नहाते हुए 
मेरी मुस्कुराहट में एक सोच थी
सचमुच कभी मेरा जन्म हुआ होता
और जनमने से पहले जनमने की मीठी खबर 
मेरे रोओं में खिलती !
 
अ-उपस्थित

वहां एक दृश्य असहाय- सा चुपचाप पड़ा था
दृश्य का कोई दर्शक नहीं था
दृश्य के पास एक गाना रखा हुआ था
गाना गाया नहीं जा सकता था
कोई गायक नहीं था
एक हूक थी पसरा हुआ आकाश था
एक विस्मय था और अनंत था !
 
सुरति

वह सारे नामों को भूल गया था
अचानक उसे अपना नाम याद आता था
वह उसे पुकारता था—आकाश ! आकाश !! आकाश !!!
आकाश तालियों से गडगडा उठता था !
 
ललाट

मै उसके विराट ललाट को एकटक देखता था
मै उसका तिलक करना चाहता था
मै हाथ बढ़ाता था—–
सामने पृथ्वी का मस्तक उठ आता था
मै ठिठककर रुकता था
फिर तिलक को हाथ बढ़ाता था 
कि अन्तरिक्ष का मस्तक सामने झुक आता था
मै रूककर उसके मस्तक को निहारता था
कि शून्य का विराट ललाट दिख जाता था
हंसकर मैंने अपने संक्षिप्त ललाट पर तिलक कर लिया
अब पृथ्वी,अन्तरिक्ष और शून्य
लालच से मेरा ललाट निहारते थे !
 
हरे नृत्य का दृश्य

वृक्ष का हरा वृक्ष पर नृत्य करता था
नृत्य की थिरकन से कांपकर 
उस पर आया एक पक्षी मुड़कर
वापस आकाश में उड़ जाता था 
पृथ्वी का रस उसकी पुतलियों में दिपकर
उसे पास बुलाता था
वह अपने पंखों और हवा के साथ नृत्य करता हुआ
पुनः वृक्ष के हरे पर उतरता था
हवा की बांह में
वृक्ष और चिड़िया के हरे का
युगल नृत्य एक समय में अहर्निश होता था
नृत्य को मुस्कुराता हुआ ऊपर से आकाश निहारता था
नीचे हिलता हुआ तरल जल चुपचाप बहता था !
 
 
यही तो घर नहीं और भी रहता हूँ
जहाँ-जहाँ जाता हूँ रह जाता हूँ
जहाँ-जहाँ से आता हूँ कुछ रहना छोड़ आता हूँ
जहाँ सदेह गया नहीं
वहाँ की याद आती है
याद में जैसे रह लेता हूँ
तो थोड़ा-सा रहने का स्पर्श
वहाँ भी रह जाता है
जो कुछ भी है जितना भी
नहीं भी जो है जितना भी
वहाँ-वहाँ उतना-उतना रहने की इच्छा से
एक धुन निकलती है
इस धुन में घुल जाता हूँ
होने की सुगन्ध के साथ।
 
मैं आया ही था कि जाना आ गया

धुआँती सुबह की तरह मैं
अस्तित्व के बरामदे में प्रवेश करता था
कि साँझ की तरह मैं ही वहाँ रिक्त
लेटा पड़ा हुआ मिल जाता था
किसी जन्म का कुछ पता नहीं चलता था
व्याकुल मैं उसे कवच-सा ढूँढ़ता था
कि मृत्यु अपने रथ पर आरूढ़
सामने मुस्कुराती खड़ी मिल जाती थी

जो नहीं होता था
उसका उलट पहले हो जाता था !
 
(प्रकाश साव, युवा कवि थे…शिल्पायन द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह 'होने की सुगंध' के लिए भारतीय भाषा परिषद् द्वारा सम्मानित, पंजाबी में कविताओं का अनुवाद, मलयालम और अंग्रेज़ी में जारी…मंगाने के लिए शिल्पायन पब्लिशर्स, 10295, स्ट्रीट नम्बर 1, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन – 9868218917 से सम्पर्क किया जा सकता है…)
 
 

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