हैदराबाद केंद्रीय विवि के शोध-छात्र रोहित वेमुला की डायरी पढ़ते हुए ये अहसास तेज़तर होता चला जाता है कि इस बेहतरीन ज़हीन सूझबूझ और वैज्ञानिक नज़रिये के लड़के को अगर ब्राह्मणवादी ग़लीज़ व्यवस्था के नुमाइंदों ने आत्महत्या की ओर न धकेला होता तो ये हम सबके बीच मुस्कुरा रहा होता और दुनिया भर के उत्पीड़ित समुदाय की तक़लीफ़ों को शब्द दे रहा होता, इन तकलीफ़ों के सामाजिक राजनीतिक आयाम का सैद्धांतिकीकरण कर रहा होता। साथ ही, सरंचनागत अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ मुट्ठी ताने लोगों का आह्वान कर रहा होता कि वे अपनी तक़दीर के निर्माता खुद हो जाएं। कथित राष्ट्रवादी परियोजना और परजीवी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हत्यारे युग्म के हमलों का जवाब दे रहा होता और जीवन की मूलभूत ज़रूरतों, अस्मिता और इंसानी गरिमा से सदियों से बहिष्कृत कर दिए गए समूहों, समुदायों को प्रतिरोधी विचारों की सान से लैस कर रहा होता।
डिज़िटल प्रकाशन जगरनॉट से रोहित की डायरी “कास्ट इज़ नॉट अ रयूमर” रोहित के व्यस्थित, पैने चिंतन और सुरुचिपूर्ण, समाज-वैज्ञानिक गद्य का अहम दस्तावेज़ है। ‘दि हिंदू’ अख़बार की पत्रकार निखिला हेनरी ने इसे रोहित के फेसबुक लेखन को संकलित और संपादित किया है। यह डायरी छात्र रोहित के कैंपस एक्टिविज़्म, देश दुनिया में चल रहे विभिन्न जनआंदोलनों के प्रति उनकी धारदार सोच-समझ और मनुष्य की सामुदायिक मुक्ति की विभिन्न विचारधाराओं की बौद्धिक विरासत को जांचने-परखने और उन्हें ‘रिक्लेम’ करने की ईमानदार छटपटाहट का न सिर्फ़ बोध कराती है, बल्कि आज के सामयिक मुद्दों से तार्किक मुठभेड़ करती हुई प्रतिरोध का व्याकरण निर्मित करती है। यह डायरी इस अर्थ में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है कि एक असीम संभावना से लबरेज़ एक बेहतरीन जन-बुद्धिजीवी या ‘ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल’ की निर्मिति के पदचिन्हों का रेखांकन करती है।
रोहित की डायरी ब्राह्मणवादी दर्शन के पाखंडी चरित्र और इसके मूल में निहित धूर्तता और इसके छल-प्रपंचों की, समग्रता में, असलियत उजागर करती है। यह जाति के सिद्धांत और व्यवहार के सवाल पर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद पर तीखा प्रहार करती है और वामपंथी राजनीतिक धाराओं की सुसंगत आलोचना पेश करती है। यह डायरी मनुष्य विरोधी मनुवादी चिंतन-प्रणाली के भौतिक नतीजों यानी इसके सांस्थानिक कुकर्मों से हमारे देश की छलनी कर दी गई अंतरात्मा का एक करूण शोकगीत है। यह शोकगीत पीड़ा में असहायता और निष्क्रियता के ग़ुबार में इंसान को क़ैद रखने के विरुद्ध है। रोहित का सुचिंतित लेखन मनुष्यता के साझे भविष्य की हिफ़ाज़त में उम्मीद के गीत रचता है। सारांश में, यह शोकगीत अपने प्रारूप में मज़बूत और निश्छल उम्मीद का बायस बन जाता है। इस उम्मीद का काव्यात्मक उरूज़ हमें रोहित के आख़िरी पैग़ाम में देखने को मिलता है जहाँ वह एक तरफ़, सितारों के बीच ख़ुद को तिरोहित करने के लिए तैयार कर रहा है और दूसरी तरफ़ एक अपने ब्राह्मणवादी हत्यारों को उनके अनाचारी पापों के बोझ से मुक्त करते हुए भी व्यवस्था के सामने अकाट्य सत्य सवाल छोड़ जाता है। बेहतर होगा कि हम रोहित की इस चिठ्ठी का एक अंश यहाँ फिर पढ़ें: “मैं हमेशा से एक लेखक बनना चाहता था। विज्ञान लेखक कार्ल सैगन की तरह। लेकिन, आख़िर में ये ख़त लिख पा रहा हूँ। मुझे विज्ञान से, सितारों से और प्रकृति से प्यार था। लेकिन, मैंने लोगों से प्यार किया और ये नहीं जान पाया कि वे कब के प्रकृति से जुदा हो चुके हैं। हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो चुकी हैं। हमारा प्रेम बनावटी है। हमारी मान्यताएं झूठी हैं। यह बेहद मुश्किल हो चला है कि हम प्यार करें और दुखी न हों। एक आदमी की क़ीमत उसकी तात्कालिक पहचान और नज़दीकी संभावना तक सीमित कर दी गई है। एक वोट तक। आदमी एक संख्या बनकर रह गया है। एक वस्तु मात्र। एक इंसान को उसके ज़ेहन से कभी नहीं आँका गया। सितारों की ख़ाक़ से बनी एक शानदार चीज़। हर क्षेत्र में, पढ़ाई में, गलियों में, राजनीति में, और ज़िंदगी तथा मौत में।”
रोहित की इस डायरी में उनके 2008 से जनवरी 2016 तक के लेखन का संकलन है। जिसमें उन्होंने इंसानी अस्तित्व के लगभग सारे मुद्दों को संबोधित किया है। इसमें समकालीन राजनीति, नागरिक अधिकार, विज्ञान, शिक्षा, धर्म, प्रकृति, नारीवाद, मार्क्सवाद सहित दोस्ती और रोज़मर्रा के जाति अधारित उत्पीड़न और संरचनागत शोषण-दमन के बारीक़ से बारीक़ पहलुओं की पड़ताल शामिल है। उन्होंने देश में, लोकतंत्र को भीड़तंत्र में तब्दील कर देने के फ़ासीवादी मंसूबे और इसके शीर्ष नेतृत्व के मनोविज्ञान का सारगर्भित विश्लेषण गया है। गो-रक्षा दल के अत्याचारों और उनके राजनीतिक आक़ाओं का, अभिव्यक्ति की आज़ादी के अपराधीकरण और विवि परिसरों में दलित शोध-विद्यार्थियों की सांस्थानिक हत्यायों, या कि इस हत्या को नॉर्मलाइज़ और स्वीकार्य बनाने के लिए प्रचलित शब्द ‘आत्महत्या’, की घटनाओं पर जीवट प्रतिवाद किया है। डायरी पढ़ते हुए यह हैरानी लगातार आहट देती रहती है कि इन रचनाओं का लेखक जातिगत उत्पीड़न, दमन और अलगाव की परिस्थितियों में अपनी जीजिविषा को अपदस्थ नहीं कर सकता। रोहित के लेखन को पढ़ते हुए उनकी ख़ुद सितारों में खो जाने की हसरत अविश्वसनीय सी लगती है। रोहित की रचनाएँ उनकी अनुपस्थिति से ज़्यादा उनकी ‘नोटिसेबल’ उपस्थिति का अहसास कराती हैं। यह मृत्यु को भी एक जीवंत उत्सवधर्मिता में तब्दील करती हैं।
ये डायरी रोहित की ज़िंदगी और उनकी अनुपस्थिति, मौत के चुनाव, में भी विद्रोह का संदेश है। एक निस्सीम उदात्तता है जो मृत्यु के बाद भी जिए गए जीवन की अनंतता की संभावना प्रस्तुत करता है। अकारण नहीं कि रोहित ने अपने लेखन में विक्टर ह्यूगो, डॉ. अंबेडकर और मैल्कम एक्स जैसे चिर-विद्रोही नायकों के लेखन का उल्लेख किया है। यह डायरी ग़ैर-बराबरी, शोषण, जातीय और लैंगिक उत्पीड़न तथा हताशा के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट होने के लिए पुकारती है। रोहित, सितारों के बीच, गुजरात के ऊना में इस एकजुटता की सच होती कल्पना पर धीमे से मुस्कुरा रहा होगा।
Book: The Caste is Not a Rumor; Online Diary of Rohit Vemula
Edited By: Nikhila Henry, Juggernaut Publication, New Delhi. 268
Pages, Price: Rs. 10